Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्यय ३
शाश्वत और व्यक्ति
सोऽहमस्मि ।
मैं वही हूं ।
ईशोपनिषद् १६
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
... ... ... ...
उत्कामत्तम् स्थितं वाऽपि मुझानं वा..
... पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ।।
मेरा एक शाश्वत अंश ही जीवों के लोक में जीव हो गया है ।
... ज्ञान चक्षु इसे देखता है कि ईश्वर ही देह में निवास करता है,
भोग करता है और उसके बाहर चला जाता है ।
गीता १५ -७, १०
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते ।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्रत्रन्योऽभि चाकशीति ।।
यत्रा सुपर्णा अमृतस्थ भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपा: स मा धीर: पाकमत्रा विवेश ।।
सुंदर पंखों वाले दो पक्षी जो मित्र और साथी हैं एक ही वृक्ष से
चिपके हुए हैं । एक मधुर फल खाता है, दूसरा उसे देखता है पर
खाता नहीं... जहां सुंदर पंखवाली आत्माएं अपने अमृत के भाग
को पाकर ज्ञान के आविष्कारों की घोषणा करती हैं वहां सबके प्रभु,
जगत् के संरक्षक, उस ज्ञानी ईश्वर ने मुझपर अधिकार कर लिया,
उस प्रज्ञावान् ने मुझ अज्ञानी पर ।
ऋग्वेद् १, १६४,२०, २१
तो सत्ता का एक आधारभूत सत्य है एक सर्वव्यापक सद्वस्तु जो वैश्व अभिव्यक्ति के ऊपर और उसके भीतर सर्वव्यापक है और प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्व्याप्त है । इस सर्वव्यापक की एक गतिशील शक्ति भी है, उसकी अनंत चित् शक्ति एक सर्जक या आत्माभिव्यक्ति करनेवाली क्रिया भी है । उस आत्माभिव्यक्ति की एक विशेष अवस्था या गति के रूप में, ऊपर से भौतिक निश्चेतन दीखनेवाली चीज में एक अवतरण होता है और निश्चेतना मे सें व्यक्ति जागता है और उसकी सत्ता का आध्यात्मिक और अतिमानसिक चेतना और सद्वस्तु की शक्ति में, उसकी अपनी
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वैश्व और परात्पर आत्मा और सत्ता के उद्गम में विकास होता है । इसी नींव पर हमें अपनी पार्थिव सत्ता में सत्य की और भौतिक प्रकृति में दिव्य जीवन की संभावना की धारणा को आधारित करना होगा । वहां हमारी मुख्य आवश्यकता है उस अज्ञान के स्रोत और प्रकृति का पता लगाना जिसे हम जड़ तत्त्व की निश्चेतना में से उभरते देखते हैं या जड़ तत्त्व से बने शरीर में प्रकट होते हुए देखते हैं, और हम उस ज्ञान का स्वरूप जानें जिसे उसका स्थान लेना है और प्रकृति के अपने-आपको खोलने की और अंतरात्मा की पुन: प्राप्ति की प्रक्रिया को समझें । क्योंकि वस्तुत: ज्ञान वहां स्वयं अज्ञान में छिपा हुआ है, उसे प्राप्त करने की जगह उसका अनावरण करना है । उसे सीखा नहीं जाता, वह भीतर और ऊपर की ओर अपने-आपको उन्मीलित करके प्रकट करता है । लेकिन पहले यह ज्यादा सुविधाजनक होगा कि अनिवार्य रूप से उठनेवाली एक कठिनाई को देखें और उसे सस्ते से अलग कर दें । यह कठिनाई यह मानने में है कि हमारे अंदर भगवान् मौजूद हैं, यह भी मान लेने पर कि हमारी व्यक्तिगत चेतना क्रमश: विकसनशील अभिव्यक्ति का वाहन हैं, यह कैसे माना जाये कि व्यक्ति किसी भी अर्थ में शाश्वत है या एकत्व और आत्मज्ञान के द्वारा मुक्ति-लाभ के बाद भी वैयक्तिकता का अस्तित्व बना रह सकता है ।
यह तर्कबुद्धि की कठिनाई है और इसका सामना अधिक विशाल और अधिक उदार प्रबोधन देनेवाली बुद्धि के द्वारा करना होगा । और अगर यह आध्यात्मिक अनुभूति की कठिनाई है तो उसका सामना केवल ज्यादा विशाल और समाधान करनेवाली अनुभूति के द्वारा ही किया जा सकता है । निश्चय ही उसका मुकाबला तर्क-युद्ध द्वारा, तार्किक मन की शब्द-वितण्डा द्वारा भी किया जा सकता है लेकिन वह अपने-आपमें एक कृत्रिम उपाय ही है, प्रायः बादलों में एक व्यर्थ युद्ध जैसा और हमेशा अनिश्चयात्मक ही रहता है । तर्क विचार अपने क्षेत्र में उपयोगी और अपरिहार्य है ताकि मन को अपने निजी भावों, शब्द-प्रतीकों के साथ व्यवहार करने में अमुक स्पष्टता, यथार्थता और सूक्ष्मता प्रदान कर सके ताकि हम अपने अवलोकन और अनुभव द्वारा सत्यों के जिस प्रत्यक्ष दर्शन पर पहुंचते हैं या जिन्हें हमने भौतिक, मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक दृष्टि से देखा है वे हमारी औसत मानव बुद्धि, उसकी प्रतीतियों को तथ्य मान लेने की प्रवृत्ति, आंशिक सत्यों में भटक जाने की जल्दबाजी, उसके अतिशयोक्ति भरे निष्कर्ष, उसके बौद्धिक और भावनामय पक्षपातों, सत्य को सत्य के साथ जोड़ने में, जिसके द्वारा हम पूर्ण सत्यतक पहुंच सकते हैं, उसमें अक्षम घपलेबाजी द्वारा यथा संभव कम-से-कम धुंधला कर सकें । हमारे अंदर स्पष्ट, शुद्ध, सूक्ष्म और नमनीय मन होना चाहिये ताकि हम अपनी जाति के उस साधारण मानसिक अभ्यास में जितना हो सके कम-से-कम गिरें जो स्वयं सत्य को भूलों के प्रबंधक में बदल देता है । वह स्पष्टीकरण, स्पष्ट न्यायसंगत
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तर्क की आदत, जिसकी परिणति दार्शनिक मीमांसा की तर्करीति में होती है, पूर्णता की प्राप्ति में अवश्य सहायक है अतः ज्ञान की तैयारी में उसका बहुत बड़ा भाग है । लेकिन अपने-आप वह न तो जगत् के ज्ञानतक पहुंच सकता है न भगवान् के ज्ञानतक, उच्चतर और निम्नतर उपलब्धि में सामंजस्य बिठाने की तो बात ही कहां । वह सत्य के अन्वेषक से कहीं अधिक भ्रांति से दक्षता के साथ रक्षा करनेवाला है -यद्यपि अभीतक प्राप्त ज्ञान से निगमन के द्वारा वह कभी-कभी अचानक नये सत्यों पर पहुंच सकता है और अनुभूति के लिये या उच्चतर और बृहत्तर सत्य देख सकनेवाली क्षमताओं द्वारा समर्थन पाने के लिये उनका संकेत कर सकता है । ज्ञान का समन्वय या एकत्व लानेवाले सूक्ष्मतर क्षेत्र में मन की तर्क करने की आदत, उसी क्षमता के कारण जो उसे अपनी विशेष उपयोगिता प्रदान करती है, राह का रोड़ा भी बन सकती है क्योंकि वह भेद करने और भेदों ही में व्यस्त रहने और भेदों द्वारा कार्य करने की इतनी अभ्यस्त है कि जब भेदों का उल्लंधन और अतिक्रमण करना हो तो वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी हो जाती है । अतः जब सामान्य मन को व्यक्ति के वैश्व परात्पर ऐक्य के अनुभव का सामना करना पड़ता है तो उसकी कठिनाइयों के बारे में विचार करते हुए हमारा लक्ष्य एकमात्र यह होना चाहिये कि पहले हम अपने लिये यह ज्यादा स्पष्ट कर लें कि कठिनाइयों का मूल कहां है और उनसे कैसे पिंड छुड़ाया जा सकता है और फिर उसके द्वारा जो चीज ज्यादा जरूरी है वह यह कि हम जिस एकत्व पर पहुंचते हैं उसके स्वरूप को जानें और जब व्यक्ति सभी प्राणियों के साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है और शाश्वत के साथ एकत्व में निवास करता है तो उसके उत्कर्ष के स्वरूप को जानें ।
तर्क-बुद्धि के लिये सबसे पहली कठिनाई यह है कि उसे हमेशा वैयक्तिक आत्मा को अहंकार के साथ एक मानने की आदत रही है और वह यही मानती है कि उसका अस्तित्व अहंकार की सीमाओं और उसके बहिष्कारों से ही है, अगर ऐसा होता तो अहं का अतिक्रमण करके व्यक्ति अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देता । हमारा लक्ष्य होता जड़ पदार्थ, प्राण, मन या आत्मा की किसी विश्वजनीनता में गायब हो जाना या घुल-मिल जाना या किसी ऐसे अनिर्दिष्ट में जा मिलना जिसमें से व्यक्तित्व के अहंकारमय निर्दिष्ट का आरंभ हुआ था । लेकिन यह सबल पृथक्कारी आत्मानुभव हैं क्या जिसे हम अहंकार कहते हैं ? यह आधारभूत रूप से अपने-आपमें कोई वास्तविक चीज नहीं है । यह हमारे अंदर प्रकृति की क्रियाओं को केन्द्रित करने के लिये चेतना का एक व्यावहारिक गठन मात्र है, हम एक मानसिक, भौतिक, प्राणिक अनुभव की रचना देखते हैं जो अपने-आपको बाकी सत्ता से अलग देखती है और इसे ही हम प्रकृति में अपना-आपा समझते हैं, संभूति में सत्ता के व्यष्टीकरण को ही हम अपना स्वरूप मानते हैं । तब हम अपने बोर में ऐसा सोचने लगते हैं कि हम कोई ऐसी चीज हैं जिसने अपने-आपको इस तरह
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व्यष्टिभावापत्र कर लिया है जिसका अस्तित्व बस तभीतक रहता है जबतक वह व्यष्टि भाव में रहती है । इस तरह हम एक क्षणिक या कम-से-कम एक कालिक संभूतिमात्र हैं । या फिर हम अपने बारे में ऐसा सोचते हैं कि हम कोई ऐसे व्यक्ति हैं जो व्यष्टीकरण को सहारा देता या उसका कारण है, एक अमर सत्ता भले हो पर वह अपने व्यक्तित्व के कारण सीमित है । यह दृष्टि और यह धारणा हमारे अहं-भाव को संघटित करती है । सामान्यत: हम अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में अपने ज्ञान में इससे आगे नहीं जाते ।
लेकिन अंत में हमें यह देखना होगा कि हमारा व्यष्टीकरण एक ऊपरी सतह का रूपायन, एक शरीर विशेष में जीवन की अस्थायी उपयोगिता के लिये व्यावहारिक चयन और सीमित सचेतन समन्वय है या यह सदा बदलता हुआ और विकसित होता हुआ समन्वय है जिसका अनुसरण आनुक्रमिक शरीरों में आनुक्रमिक जीवनों के द्वारा किया जाता है । उसके पीछे एक चेतना, एक पुरुष है जो अपने व्यष्टीकरण या इस समन्वय के द्वारा निर्धारित या सीमित नहीं है बल्कि इसके विपरीत उसे निर्धारित करता, अवलम्ब देता और उसका अतिक्रमण कर जाता है । इस समन्वय को रचने के लिये, वह जिसमें से चुनता है, वह उसका जगत्-सत्ता का समग्र अनुभव है । इसलिये हमारा व्यष्टीकरण जगत्-सत्ता के कारण है, साथ ही उस चेतना के कारण भी जो जगत्-सत्ता का उपयोग व्यक्तित्व की संभावनाओं के अनुभव के लिये करती है । ये दो शक्तियां, पुरुष और उसका जगत्-द्रव्य, दोनों ही हमारे व्यक्तित्व के वर्तमान अनुभव के लिये जरूरी हैं । अगर अपनी चेतना के व्यष्टिकारी समन्वय के साथ पुरुष गायब हो जाये, विलीन हो जाये, किसी तरह अपने-आपको नष्ट कर दे तो हमारा संघटित व्यक्तित्व भी समाप्त हो जायेगा क्योंकि जो सद्वस्तु उसे अवलंब देती थी वह उपस्थित न होगी और दूसरी ओर अगर जगत्-सत्ता लुप्त, विलीन और गायब हो जाये तब भी हमारा व्यष्टीकरण गायब हो जायेगा क्योंकि अनुभव की सामग्री, जिसके द्वारा वह अपने-आपको संपादित करता है, उसका अभाव होगा । अतः हमें अपनी सत्ता के इन दोनों तत्त्वों को मानना होगा, एक तो जगत्-सत्ता और दूसरी व्यष्टीकरण करनेवाली चेतना जो हमारे समस्त आत्मानुभव और जगत्-अनुभव का कारण है ।
लेकिन आगे चलकर हम देखते हैं कि अंत में यह पुरुष, हमारे व्यक्ति का कारण और उसकी आत्मा, समस्त जगत् को और सभी अन्य सत्ताओं को अपने एक तरह के सचेतन विस्तार में, अपने आलिंगन में भर लेता है और अपने-आपको जगत्-सत्ता के साथ एकात्म रूप में देखता है । अपने सचेतन प्रसारण में वह अपने प्राथमिक अनुभव का अतिक्रमण कर जाता है और अपने सक्रिय आत्म-परिसीमन और व्यष्टीकरण की बाधाओं को समाप्त कर देता है । अपनी अनंत विश्वात्मकता के प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा वह अलग-अलग करनेवाली वैयक्तिकता या
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सीमित आंतरात्मिक सत्ता की समस्त चेतना के परे चला जाता है । इसी तथ्य के द्वारा व्यक्ति आत्म-सीमाकारी अहं नहीं रहता, दूसरे शब्दों मै केवल आत्म-परिसीमन के कारण, शेष सत्ता और संभूति से कठोर भेद के कारण ही अपना अस्तित्व माननेवाली हमारी मिथ्या चेतना का अतिक्रमण हो जाता है । हमारे मन और शरीर-विशेष में अपने निजी और कालिक व्यष्टीकरण के साथ तादात्म्य का उन्मूलन हो जाता है । लेकिन क्या व्यक्तित्व और वैयक्तिकीकरण का समस्त सत्य समाप्त हो जाता है ? क्या पुरुष का अस्तित्व नहीं रहता या वह जगत्-पुरुष होकर अनगिनत मनों और शरीरों में अंतरंग रूप से निवास करता है ? हमें ऐसा नहीं लगता । वह फिर भी व्यक्तिभाव रखता है, उसका फिर भी अस्तित्व बना रहता है और व्यक्तिभाव रखते हुए ही वह विशालतर चेतना का आलिंगन करता है । लेकिन तब मन किसी सीमित अस्थायी व्यक्तित्व को ही अपना आपा नहीं समझ लेता बल्कि वह उसे यूं देखता है मानों वह उसकी सत्ता के सागर से उठती संभूति की एक लहर हो या फिर मानों विश्व-भाव का एक रूप या केन्द्र हो । अंतरात्मा तब भी जगत्-संभूति को व्यक्तिगत अनुभव के लिये सामग्री बनाती है लेकिन उसे अपने से बाहर की और अपने से बड़ी ऐसी चीज मानने की जगह, जिससे उसे सहायता लेनी है, जिससे वह प्रभावित होती है, जिसके साथ उसे अनुकूलन करना है, वह उसके बारे में आत्मनिष्ठ रूप में अभिज्ञ होती है मानों वह उसके अपने ही अंदर हो । वह दोनों का, अपनी जगत् सामग्री का और अपनी देशगत और कालगत क्रियाओं के अपने वैयक्तिक अनुभव का, एक मुक्त और प्रशस्त चेतना में आलिंगन करती है । आध्यात्मिक व्यक्ति इस नयी चेतना में देखता है कि उसकी सच्ची आत्मा सत्ता में परात्पर से अभिन्न है और साथ ही उसके अंदर आसीन और स्थित है । वह अपने निर्मित व्यक्तित्व को जगत् के अनुभव के लिये बने एक रूपायन से बढ़ कर कुछ नहीं मानता ।
जगत्-सत्ता के साथ हमारा ऐक्य एक ऐसी आत्मा की चेतना है जो एक ही समय और एक ही साथ जगत् में वैश्व भाव को अपनाती और व्यष्टि-पुरुष के द्वारा व्यक्ति भाव को अपनाती है और दोनों में, उस जगत्-सत्ता और इस व्यष्टिगत सत्ता में और सभी व्यष्टिगत सत्ताओं में उसे उसी आत्मा की अभिज्ञता रहती है जो विभिन्न अभिव्यक्तियों में अभिव्यक्त होती और अनुभव प्राप्त करती है । तो वह ऐसी आत्मा है जिसे अपनी सत्ता में एक होना चाहिये -अन्यथा हमें इस ऐक्य का अनुभव न होता -और फिर भी अपने उसी ऐक्य में वैश्व विभेदन और बहुविध व्यक्तित्व के योग्य होना चाहिये । ऐक्य उसकी सत्ता है -हां, लेकिन वैश्व विभेदन और बहुविध व्यक्तित्व उसकी सत्ता की शक्ति है जिसका वह सदा प्रदर्शन करती रहती है । यह प्रदर्शन उसके लिये आनंद, उसकी चेतना का स्वभाव है । तो अगर हम उसके साथ ऐक्यतक आ पहुंचें, अगर हम पूर्णतः और हर तरीके से वह सत्ता बन जायें तो उसकी सत्ता की शक्ति को क्यों काट दें और क्यों भला उसे काटने
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की इच्छा या प्रयास करें ? तब हम उसके साथ अपने ऐक्य के क्षेत्र को ऐकांतिक केन्द्रीकरण के द्वारा कम कर देंगे । हम भागवत सत्ता को तो स्वीकार करेंगे लेकिन भगवान् की शक्ति और चेतना और अनंत आनंद में अपना भाग स्वीकार न करेंगे । वस्तुतः यह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो अविचल एकात्मता में ऐक्य की शांति और विश्रांति खोजता होगा परंतु दिव्य सत् की प्रकृति, क्रिया तथा शक्ति में ऐक्य के आनंद को और बहुविध हर्ष को अस्वीकार कर देता होगा । यह करना संभव तो है लेकिन यह जरूरी नहीं कि हम उसे अपनी सत्ता का अंतिम लक्ष्य या अपनी अंतिम पूर्णता मान लें ।
या एक संभव कारण यह हो सकता है कि शक्ति में, चेतना की क्रिया में वास्तविक ऐक्य नहीं होता, केवल चेतना की स्थिति में ही पूर्ण अभिन्न ऐक्य होता है जिसे हम भगवान् के साथ व्यक्ति का जाग्रत् ऐक्य कह सकते हैं, जिसके विपरीत तल्लीन एकात्मता में व्यक्तिगत चेतना की नींद या उसकी एकाग्रता है । तो इन दोनों अनुभूतियों में निश्चय ही फर्क होता है और होना चाहिये । क्योंकि इस सक्रिय ऐक्य में व्यष्टि-पुरुष अपनी स्थितिशील चेतना के साथ ही अपने सक्रिय अनुभव को अपनी सत्ता की और विश्व सत्ता की इस आत्मा के साथ ऐक्य प्राप्ति के तरीके में जोड़ देता है और फिर भी व्यष्टिभाव बना रहता है, अतः भेद भी बना रहता है । पुरुष अन्य सभी व्यक्तियों के बारे में इस तरह अभिज्ञ रहता है मानों वे उसकी अपनी आत्माएं हैं । वह सक्रिय ऐक्य द्वारा उनकी मानसिक और व्यावहारिक क्रियाओं के बारे में अभिज्ञ हो सकता है, मानों वे उसकी वैश्व चेतना के अंदर हो रहीं हों ठीक उसी तरह जैसे वह अपनी मानसिक और व्यावहारिक क्रियाओं के बारे में अभिज्ञ होता है । उनके साथ आत्मनिष्ठ ऐक्य द्वारा वह उनकी क्रियाओं को निर्दिष्ट करने में सहायक हो सकता है फिर भी व्यावहारिक भेद तो रहता ही है । भगवान् का उसके अंदर जो कार्य होता है उसीके साथ उसका विशेष और सीधा संबंध होता है, और आत्माओं में भगवान् की जो क्रिया होती है उसके साथ उसका संबंध सीधा नहीं, वैश्व भाव से होता है लेकिन होता है उनके साथ और भगवान् के साथ अपने ऐक्य द्वारा और उस ऐक्य के नाते ही । अतः व्यक्ति तब भी बना रहता है जब वह अपने छोटे-से अलग करनेवाले अहं का अतिक्रमण कर लेता है । वैश्व का अस्तित्व रहता है और व्यक्ति उसका आलिंगन करता है लेकिन इससे सभी व्यक्तिगत भेदों का लय या विनाश नहीं हो जाता, तब भी जब कि उसके अपने-आपको वैश्व बना लेने पर वह सीमाबंधन, जिसे हम अहं कहते हैं, पराभूत हो जाता है ।
अब हम ऐकांतिक एकत्व में डुबकी लगाकर इस विभेद से पिंड छुड़ा सकते हैं लेकिन किस उद्देश्य से ? पूर्ण एकत्व के लिये ? लेकिन भेद को स्वीकार करके भी हम पूर्ण ऐक्य से वंचित नहीं हो जाते जैसे भगवान् भेद को स्वीकार करते हुए
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अपना अद्वैत नहीं खोते । उनकी सत्ता में हमारा पूर्ण एकत्व रहता है और हम किसी भी समय अपने-आपको उसमें लीन कर सकते हैं परंतु हमें यह भेदयुक्त ऐक्य भी प्राप्त रहता है और हम एकत्व को खोये बिना किसी भी समय उसमें उभर कर मुक्त रूप से क्रिया कर सकते हैं क्योंकि हमने अहं का लय कर दिया है और हम अपनी मानसिकता के ऐकान्तिक दबावों से छुटकारा पा गये हैं । तब शांति और विश्राम के लिये ? लेकिन हमें शांति और विश्राम तो उनके साथ ऐक्य के द्वारा ही मिल जाते हैं जैसे भगवान् अपनी शाश्वत क्रियाशीलता के बावजूद शाश्वत शांति धारण किये रहते हैं । तो फिर क्या केवल समस्त विभेद से पिंड छुड़ाने के आनंद के लिये ? लेकिन उस विभेद का अपना दिव्य प्रयोजन है, वह विशालतर ऐक्य का साधन है, विभाजन का साधन नहीं जैसा कि अहंकारमय जीवन में होता है क्योंकि हम उसके द्वारा अपनी अन्य आत्माओं और सबके अंदर भगवान् के साथ ऐक्य का आनंद लेते हैं जिसे हम उसकी बहुविध सत्ता को अस्वीकार कर देने से नहीं पाते । दोनों ही अनुभवों में व्यक्ति के अंदर निवास करनेवाले भगवान् ही स्वामी और भोक्ता होते हैं, एक में भगवान् अपने शुद्ध एकत्व में और दूसरे में अपने उस एकत्व में और विश्व-एकत्व में । ऐसा नहीं होता कि निरपेक्ष भगवान् अपने एकत्व को खोकर फिर से पा लेते हों, निश्चय ही हम शुद्ध एकांगी एकत्व में तल्लीन हो जाना या अतिवैश्व परात्परता में चले जाना ज्यादा पसंद कर सकते हैं लेकिन भागवत सत्ता के आध्यात्मिक सत्य में कोई ऐसा बाधित करनेवाला कारण नहीं है कि क्यों भला हम भगवान् की वैश्व सत्ता की इस विशाल प्राप्ति और आनंद में भाग न लें, जो हमारे व्यक्तित्व की परिपूर्ति है ।
लेकिन हम आगे चलकर देखते हैं कि विश्व-सत्ता ही वह एकमात्र और अंतिम वस्तु नहीं है जिसमें हमारी व्यक्तिगत सत्ता प्रवेश करती है बल्कि वह किसी ऐसी चीज में जाती है जिसमें ये दोनों एक हैं । जिस तरह संसार में हमारा व्यक्ति-भाव उस आत्मा की संभूति है उसी तरह संसार भी उसी आत्मा की संभूति है, वैश्व सत्ता में हमेशा व्यक्तिगत सत्ता आती जाती है, इसलिये ये दोनों संभूतियां, वैश्व और व्यष्टिगत संभूतियां, हमेशा एक-दूसरे के साथ संबंध रखती हैं और अपने व्यावहारिक संबंध में एक-दूसरे पर आश्रित हैं । लेकिन हमें पता चलता है कि अंत में व्यक्ति भी अपनी चेतना में विश्व को समाये रहता है और चूंकि यह आध्यात्मिक व्यक्ति के उन्मूलन द्वारा नहीं है बल्कि उसके अपनी संपूर्ण विशाल और पूर्ण आत्म चेतनातक पहुंचने के कारण होता है इसलिये हमें यह मानना होगा कि व्यक्ति में हमेशा से विश्व समाया हुआ था और केवल सतही चेतना अपने अज्ञान के कारण अहंकार में अपने-आपको सीमित करके इस समावेश को नहीं पा सकी । लेकिन जब हम विश्व और व्यक्ति के परस्पर समावेश की बात करते हैं, जगत् मेरे अंदर और मैं जगत् मैं, सब कुछ मेरे अंदर और मैं सबके अंदर -क्योंकि यही
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मुक्तावस्था की आत्मानुभूति है -तो स्पष्टतः हम सामान्य बुद्धि की भाषा से परे चले जाते हैं । वह इसलिये क्योंकि हमें जिन शब्दों का उपयोग करना पड़ता है वे मन की टकसाल में बने थे और उनको मूल्य ऐसी बुद्धि ने दिया जो भौतिक देश और परिस्थितियों की धारणाओं से बंधी थीं और जो उच्चतर आंतरिक अनुभूति को भाषा देने के लिये भौतिक जीवन और इन्द्रियों के अनुभव से लिये गये रूपकों का उपयोग करती है । लेकिन मुक्त मनुष्य चेतना के जिस स्तर पर उठ जाता है वह भौतिक जगत् पर निर्भर नहीं है और हम उसमें जिस विश्व का समावेश करते हैं या जो विश्व उसमें समाविष्ट हैं वे भौतिक विश्व न होकर भगवान् की चित्-शक्ति और आत्मानंद के कुछ महान् छंदों में सामंजस्य के साथ अभिव्यक्त भागवत सत्ता हैं । अतः यह आपसी समावेश आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक होता है । यह बहु के दो रूपों, सर्व और व्यष्टि, का ऐक्य लानेवाले आध्यात्मिक अनुभव में अनुवाद है -एक और बहु की शाश्वत एकता का अनुवाद । क्योंकि एक बहु की शाश्वत एकता है जो अपने-आपका विश्व में भेद और अभेद करती है । इसका अर्थ है कि विश्व और व्यष्टि एक ऐसी परात्पर आत्मा की अभिव्यक्तियां हैं जो अविभाज्य सत्ता है यद्यपि वह विभक्त और बंटी हुई मालूम होती है लेकिन वह सचमुच विभक्त या बंटी हुई नहीं है बल्कि अविभाज्य रूप से हर जगह उपस्थित है, अतः सर्व प्रत्येक में है और प्रत्येक सर्व में है और सर्व भगवान् में है और भगवान् सर्व में; और जब मुक्त आत्मा इस परात्पर के साथ ऐक्य में आती है तो उसे यह अपना और विश्व का आत्मानुभव होता है जो मनोवैज्ञानिक रूप से परस्पर समावेश और दोनों के भागवत ऐक्य में निरंतर अस्तित्व में अनूदित होता है जो एक ही साथ एकत्व, विलयन और आलिंगन है ।
अतः बुद्धि का सामान्य अनुभव इन उच्चतर सत्यों पर लागू नहीं होता । पहली बात तो यह है कि अहं केवल अज्ञान में ही व्यष्टि होता है । एक सच्चा व्यष्टि है जो अहं नहीं है फिर भी जिसका अन्य सभी व्यष्टियों के साथ शाश्वत संबंध है, जो अहंकारमय और आत्म-विभेदक नहीं होता लेकिन जिसका तात्त्विक लक्षण है तात्त्विक ऐक्य पर आधारित व्यावहारिक पारस्परिकता । ऐक्य पर आधारित यह पारस्परिकता ही अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति में दिव्य अस्तित्व का पूरा रहस्य है । उसे हर ऐसी चीज का आधार होना चाहिये जिसे हम दिव्य जीवन का नाम दे सकते हैं । दूसरी बात यह कि हम देखते हैं कि सारी कठिनाई और अस्त-व्यस्तता जिसमें सामान्य बुद्धि जा गिरती है वह यह है कि हम एक उच्चतर और असीम आत्मानुभव की बातें करते हैं जो दिव्य अनन्तताओं पर आधारित है, और फिर भी उसके लिये ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं जिसे इस निम्नतर और सीमित अनुभव ने बनाया है जो अपना आधार सांत आभासों और विभेदक परिभाषाओं को बनाता है, जिसके द्वारा हम भौतिक विश्व के प्रपंचों में भेद और वर्गीकरण करने की
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कोशिश करते हैं । इस तरह हमें व्यष्टि शब्द का उपयोग करना होता है और अहंकार तथा सच्चे व्यक्ति के बारे में बात करनी होती है, ठीक ऐसे ही जैसे हम उससे कभी प्रतीयमान और कभी वास्तविक मनुष्य की बात करते हैं । स्पष्ट ही ये सब शब्द, मनुष्य, प्रतीयमान, वास्तविक, व्यष्टि, सच, बहुत ही सापेक्ष अर्थ में और यह पूरी तरह जानते हुए उपयोग में लाने होते हैं कि वे हमारे अर्थ को व्यक्त करने के लिये अपूर्ण और अक्षम हैं । साधारणतः व्यष्टि से हमारा मतलब होता है कोई ऐसी चीज जो अपने-आपको और सबसे अलग रखती और अलहदा खड़ी रहती है यद्यपि वास्तव में कहीं भी ऐसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं है । यह हमारी मानसिक धारणाओं की एक कल्पना है जो एक एकांगी और व्यावहारिक सत्य को प्रकट करने के लिये उपयोगी और आवश्यक है । लेकिन मुश्किल यह है कि मन अपने शब्दों से अभिभूत हो जाता है और भूल जाता है कि एकांगी और व्यावहारिक सत्य उन अन्य सत्यों के साथ अपने संबंध द्वारा ही सच्चा सत्य बनता है जो बुद्धि को उससे उल्टे लगते हैं और वह सत्य यदि अपने-आपमें लिया जाये तो उसमें सदा मिथ्यात्व का एक तत्त्व रहता है । इस भांति जब हम एक व्यक्ति के बारे में बोलते हैं तो साधारणत: हमारा मतलब होता है मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता का अन्य सब सत्ताओं से अलग व्यष्टीकरण जो अपने उस व्यक्तित्व के कारण ही उनके साथ एक होने में अक्षम होता है । अगर हम मन, प्राण और शरीर की इन तीनों विधाओं से आगे जाते और अंतरात्मा या वैयक्तिक आत्मा की बात करते हैं तब भी हम एक ऐसी सत्ता की बात सोचते हैं जो वैयक्तिक बन गयी है, और सबसे अलग है, उनके साथ एकता और एक-दूसरे में समावेश के लिये असमर्थ है, अधिक-से-अधिक आध्यात्मिक संपर्क और आंतरात्मिक सहानुभूति रखने में समर्थ है । अतः इस बात पर आग्रह करना जरूरी है कि सच्चे व्यक्ति से हमारा मतलब इस तरह की किसी चीज से नहीं है बल्कि शाश्वत की सत्ता की एक सचेतन शक्ति से है जो हमेशा ऐक्य द्वारा अस्तित्व रखती और हमेशा पारस्परिकता के लिये समर्थ रहती है । यह वह सत्ता है जो आत्म-ज्ञान द्वारा मुक्ति और अमरता का भोग करती है ।
लेकिन सामान्य और उच्चतर बुद्धि के बीच जो विरोध है उसे हमें और भी आगे ले जाना है । जब हम कहते हैं कि सच्चा व्यक्ति शाश्वत की सत्ता की सचेतन शक्ति है तब भी हम बौद्धिक परिभाषाओं का उपयोग करते हैं -हमारे पास और कोई उपाय नहीं है जबतक कि हम शुद्ध प्रतीकों की भाषा और वाणी के गुह्य मूल्यों में डुबकी न लगाएं -लेकिन जो चीज अधिक खराब है वह यह है कि अहंकार के भाव से बचने के प्रयत्न में हम एक अत्यधिक अमूर्त भाषा का प्रयोग कर रहे हैं । तो हम ऐसा कहें कि व्यक्ति एक सचेतन सत्ता है जो हमारे जीवन के मूल्यों के लिये शाश्वत की व्यष्टिभावात्मक आत्मानुभूति की शक्ति में उन्हींकी एक सत्ता है, क्योंकि जो अमरता का
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भोग करती है उसे एक ठोस सत्ता होना चाहिये, कोई अमूर्त शक्ति नहीं । तब हम इस बात पर पहुंचते हैं कि न केवल मैं जगत् मे हूं और जगत् मुझमें, अपितु भगवान् मेरे अंदर हैं और मैं भगवान् में । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भगवान् अपने अस्तित्व के लिये मनुष्य पर निर्भर हैं बल्कि यह कि वे अपने-आपको उसमें अभिव्यक्त करते हैं जिसे वे अपने अंदर अभिव्यक्त करते हैं । व्यष्टि परात्पर में निवास करता है लेकिन पूरा परात्पर व्यष्टि में छिपा हुआ है । और आगे मैं अपनी सत्ता में भगवान् के साथ एक हूं फिर भी अपने अनुभवों में मैं उनके साथ संबंध रख सकता हूं । मैं, मुक्त व्यक्ति, भगवान् की परात्परता में उनके साथ एक होकर उनका भोग कर सकता हूं और साथ-ही-साथ अन्य व्यक्तियों में और भगवान् की वैश्व सत्ता में भी भगवान् का रस ले सकता हूं । स्पष्ट है कि हम निरपेक्ष के साथ कुछ ऐसे प्राथमिक संबंधों पर आ गये हैं जो मन की समझ में तभी आ सकते हैं जब हम यह देख सकें कि परात्पर, व्यक्ति और वैश्व सत्ता चेतना की शाश्वत शक्तियां हैं -हम फिर से एक पूरी तरह अमूर्त भाषा में आ गिरे हैं और इस बार उसका कोई उपाय भी नहीं । यह निरपेक्ष सत् एक एकत्व है फिर भी एकत्व से अधिक । वह अपने-आपको हमारे अंदर अपनी ही चेतना के आगे इस रूप में व्यक्त करता है लेकिन इसे मानव भाषा में उपयुक्त रूप से नहीं कहा जा सकता और हमें यह आशा भी न करनी चाहिये कि हम नकारात्मक या सकारात्मक शब्दों द्वारा अपनी बुद्धि के लिये इसका वर्णन कर सकेंगे । हम बस इतनी आशा कर सकते हैं कि अपनी भाषा की अधिक-से-अधिक शक्ति का उपयोग करके इसका संकेत भर दे दें ।
लेकिन साधारण मन, जिसे इन चीजों का कोई अनुभव नहीं है, जो चीजें मुक्त चेतना के लिये इतने सबल रूप से वास्तविक हैं, उनके विरुद्ध विद्रोह कर सकता है जो उसे बौद्धिक विरोधों से बढ़कर नहीं मालूम होतीं । वह कह सकता है, ''मैं भली-भांति जानता हूं कि निरपेक्ष क्या है, वही है जिसके अंदर कोई संबंध नहीं है । निरपेक्ष और सापेक्ष ऐसे विरोधी हैं जिनमें समाधान नहीं हो सकता । सापेक्ष में कहीं कोई चीज निरपेक्ष नहीं होती और निरपेक्ष में कोई चीज सापेक्ष नहीं हो सकती । कोई भी चीज जो मेरे विचार की इस प्रथम सामग्री को नकारती है, बौद्धिक रूप से मिथ्या और व्यावहारिक रूप से असंभव है । ये दूसरे वक्तव्य भी मेरे विरोधों के नियम का विरोध करते हैं जो कहता है कि दो विरोधी और टकरानेवाले प्रतिपादन हों तो दोनों ही सच्चे नहीं हो सकते । यह असंभव है कि भगवान् के साथ ऐक्य भी हो और साथ ही कोई संबंध भी हो जैसे भगवान् के इस उपभोग का संबंध । ऐक्य में उस एक के सिवा कोई भोक्ता नहीं होता और उस एक के सिवा कोई भोग्य भी नहीं होता । भगवापू व्यक्ति और विश्व तीन अलग-अलग वास्तविकताएं होनी चाहियें अन्यथा उनके बीच कोई संबंध नहीं हो सकता । या तो वे शाश्वत काल से भिन्न हैं या फिर वे वर्तमान काल में भिन्न हैं, यद्यपि ऐसा हो सकता है कि मूलतः एक अभिन्न सत्ता रहे हों और हो सकता है
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कि अंतत: फिर से अभिन्न सत्ता हो जायें । ऐक्य शायद रहा हो और शायद हो भी जाये लेकिन अभी तो नहीं है और तबतक नहीं हो सकता जबतक व्यक्ति और विश्व बने हुए हैं । वैश्व सत्ता परात्पर ऐक्य को केवल तभी जान सकती और अधिगत कर सकती है जब वह वैश्व न रहे । व्यष्टि भी वैश्व या परात्पर को तभी जान सकता और अधिगत कर सकता है जब वह समस्त व्यक्तित्व और व्यष्टीकरण छोड़ दे । और अगर एकत्व ही एकमात्र शाश्वत तथ्य है तो विश्व और व्यष्टि असत् हैं । वे शाश्वत द्वारा स्वयं अपने ऊपर आरोपित भ्रांतियां हैं । हो सकता है कि इससे हम ऐसे अंतर्विरोध या विरोधाभास में फंस जायें जिसका समाधान नहीं है लेकिन मैं शाश्वत में अंतर्विरोध मान लेने के लिये तैयार हूं जिस पर विचार करने के लिये मैं बाधित नहीं हूं बजाय यहां अपनी प्राथमिक धारणाओं में अंतर्विरोध को मानने के जिनके बारे में तर्कसंगत विचार करने और व्यावहारिक उद्देश्य से सोचने के लिये मैं बाधित हूं । इस मान्यता के आधार पर मैं या तो जगत् को व्यावहारिक रूप से वास्तविक मान सकता हूं और उसमें सोच सकता और क्रिया कर सकता हूं या उसे अवास्तविक मान कर अस्वीकार कर सकता हूं और सोचना और क्रिया करना बंद कर सकता हूं । मैं अंतर्विरोधों का समाधान करने के लिये बाधित नहीं हूं । न ही मुझसे यह आशा की जाती है कि मैं अपने और जगत् के परे की किसी चीज के बारे में और उसमें सचेतन होऊं और फिर भी उस आधार से जगत् के साथ व्यवहार करूं जैसे भगवान् अंतर्विरोधों के जगत् के साथ करते हैं । व्यक्ति रहते हुए भगवान् के जैसा होने का प्रयास या एक साथ तीन चीजें होने में मुझे तार्किक अस्त-व्यस्तता और व्यावहारिक असंभावना मालूम होती है ।'' सामान्य बुद्धि की यही वृत्ति हो सकतीं है और यह अपने विभेद में स्पष्ट, विशद, निश्चयात्मक है । इसमें बुद्धि की कोई ऐसी असाधारण कसरत नहीं मालूम होती जिसमें वह अपने से परे जाने की कोशिश कर रही हो और अपने-आपको छायाओं और अर्द्ध प्रकाश या किसी तरह के रहस्यवाद में खो दे या कम-से-कम एक प्रारंभिक और अपेक्षाकृत सरल रहस्यवाद है जो अन्य कठिन जटिलताओं से मुक्त है । अतः यह ऐसा तर्क है जो शुद्ध रूप से युक्ति-संगत मन के लिये सबसे अधिक संतोषजनक होता है । फिर भी यहां एक तिहरी भूल है -निरपेक्ष और सापेक्ष के बीच न पाटी जा सकनेवाली खाई बनाने की भूल, विपरीतता के नियम को अतिमात्रा में सरल और अनमनीय बनाकर उसे अति दूरतक ले जाने की भूल और जिन चीजों का मूल और प्रथम आवास शाश्वत में है उनकी उत्पत्ति की धारणा काल की अभिधाओं में करने की भूल ।
निरपेक्ष से हमारा मतलब होता है कोई ऐसी चीज जो हमसे बहुत बड़ी है, हम जिस विश्व में रहते हैं उससे भी बड़ी, उस परात्पर सत्ता की परम वास्तविकता जिसे हम भगवान् कहते हैं । कोई ऐसी चीज जिसके बिना हम जो कुछ देखते हैं, हम
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जिस किसी के अस्तित्व के बारे में सचेतन हैं वह हो ही न पाती, क्षण भर के लिये भी अस्तित्व में न रहती । भारतीय विचार- धारा उसे ब्रह्म कहती है और यूरोपीय विचार-धारा निरपेक्ष क्योंकि वह स्वयंभू है और सापेक्षता के सभी बंधनों से मुक्त है । क्योंकि सभी सापेक्ष चीजें किसी ऐसी चीज के कारण ही अस्तित्व रखती हैं जो उन सबका सत्य है, उनकी शक्तियों और गुणों का उद्गम और धारक है फिर भी उन सबका अतिक्रमण करती है । वह कुछ ऐसी चीज है जिसकी प्रत्येक सापेक्ष वस्तु ही नहीं बल्कि हम जितने सापेक्षों को जानते हैं उन सबका कुल योग भी -हम उनके बारे में जितना जानते हैं उसमें भी -केवल एकांगी, निम्नतर या व्यावहारिक अभिव्यक्ति हो सकती है । बुद्धि द्वारा हम देखते हैं कि ऐसे निरपेक्ष का अस्तित्व होना चाहिये, हम आध्यात्मिक अनुभव द्वारा उसके अस्तित्व के बारे में अभिज्ञ होते हैं लेकिन जब हम उसके बारे में बहुत अधिक अभिज्ञ होते हैं तब भी हम उसका वर्णन नहीं कर सकते क्योंकि हमारी भाषा और हमारे विचार केवल सापेक्ष के साथ ही व्यवहार कर सकते हैं । हमारे लिये निरपेक्ष अनिर्वाच्य है ।
यहांतक कोई वास्तविक कठिनाई और अस्त-व्यस्तता नहीं होनी चाहिये । परंतु मन की विरोधों की जो आदत है, विभेदों के द्वारा और विपरीतों के जोड़ों के द्वारा सोचने की जो आदत है, उसके वशीभूत हम उसके बारे में यह कहने को प्रवृत्त होते हैं कि वह सापेक्ष की सीमाओं से बंधा नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि वह सीमाओं से अपने-आपको मुक्त कर लेने में भी बंधा हुआ है, संबंधों की सारी शक्ति से असाध्य रूप से रीता है और अपने स्वभाव में उनके लिये असमर्थ है । उसकी सारी सत्ता में कोई ऐसी चीज है जो सापेक्षता के विरुद्ध है और शाश्वत रूप से उसके विपरीत है । अपने तर्क के इस गलत कदम की वजह से हम एक अंधी गली में जा पहुंचते हैं । हमारा अपना अस्तित्व और विश्व का अस्तित्व केवल रहस्य नहीं बल्कि न्यायत: अकल्पनीय बन जाते हैं । क्योंकि इससे हम एक ऐसे निरपेक्षतक जा पहुंचते हैं जो सापेक्षता में असमर्थ है और सभी सापेक्षों का वर्जक है और फिर भी सापेक्षता का कारण या कम-से-कम अवलंब है, सभी सापेक्षों का धारक, सत्य और पदार्थ है । तब हमारे पास इस बंद गली में से निकलने का बस एक ही न्यायसंगत अतार्किक उपाय रह जाता है । हमें यह मानना पड़ता है कि जगत् एक आत्म-प्रभावकारी भ्रांति या अवास्तविक कालगत वास्तविकता का रूप-रहित, संबंध-रहित निरपेक्ष की शाश्वतता पर अध्यारोप है । यह अध्यारोप हमारी भ्रामक व्यष्टिगत चेतना द्वारा किया जाता है जो ब्रह्म को भूल से विश्व के रूप में देखती है -जैसे आदमी रस्सी को भूल से सांप समझ लेता है । लेकिन चूंकि या तो हमारी व्यष्टिगत चेतना अपने-आप सापेक्ष है जिसे ब्रह्म सहारा देता है और केवल उसीसे अस्तित्व बनाये हुए है, वह अपने-आप वास्तविक वास्तविकता नहीं या फिर वह अपनी वास्तविकता में स्वयं ब्रह्म है, आखिर यह ब्रह्म ही है जो
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हमारे अंदर अपने ऊपर यह भ्रांति आरोपित करता है और अपनी चेतना के किसी रूप में एक सत् रज्जु को भूल से असत् सर्प मान लेता है, स्वयं अपनी अनिर्देश्य शुद्ध वास्तविकता पर एक विश्व के आभास को आरोपित करता है और अगर वह उसे अपनी ही चेतना पर आरोपित नहीं करता तो वह उससे निकली हुई चेतना पर करता है जो उसी पर निर्भर है, उसका अपना माया में प्रक्षेप है । इस व्याख्या से किसी बात की व्याख्या नहीं होती । मूल विरोध जहां का तहां रहता है, कोई समाधान नहीं होता और हमने बस उसी बात को दूसरी भाषा में कह दिया । ऐसा लगता है मानों किसी व्याख्यातक बौद्धिक तर्क द्वारा पहुंचने के प्रयत्न में हमने अपनी समझौता न करनेवाली तार्किकता की भ्रांति द्वारा अपने-आपको कुहरे से ढंक लिया है । हमने निरपेक्ष पर वही आरोपण किया है जिसका हमारी अत्यंत धृष्ट तार्किकता को हमारी अपनी बुद्धि पर आरोपित करने का अभ्यास है । हमने जगत्- अभिव्यक्ति को समझने में अपनी मानसिक कठिनाई को निरपेक्ष के लिये अपने-आपको जगत् में अभिव्यक्त करने की भूल असंभावना में बदल दिया है । लेकिन स्पष्ट है कि निरपेक्ष को जगत्-अभिव्यक्ति में कोई कठिनाई नहीं होती और न ही युगपत् रूप से जगत्-अभिव्यक्ति का अतिक्रमण करने में । कठिनाई केवल हमारी मानसिक सीमाओं के कारण होती है जो हमें सांत और अनंत के एक साथ रहने की अतिमानसिक तार्किकता को समझ सकने या सोपाधिक के साथ निरुपाधिक की उलझन को पकड़ सकने से रोकती है । हमारी बौद्धिक तार्किकता के लिये ये विरोधी हैं परंतु निरपेक्ष तर्क बुद्धि के लिये एक और अभिन्न वास्तविकता की आवश्यक रूप से संघर्षरत अभिव्यक्तियां न होकर परस्पर संबद्ध हैं । अनंत सत् की चेतना हमारी मानसिक चेतना से और इन्द्रिय-चेतना से भिन्न, महत्तर और विशाल है क्योंकि वह उन्हें अपनी क्रियाओं की गौण अभिधाओं की तरह अपने अंदर समाये रहती है और अनंत सत् का तर्क हमारे बौद्धिक तर्क से अलग है । वह अपनी सत्ता के महान् आद्य तथ्य में उन सब चीजों का समाधान कर देता है जो हमारी मानसिक दृष्टि के लिये गौण तथ्यों से निकले शब्दों और भावों से संलग्न रहती हैं -ऐसी विपरीतताए हैं जिनमें मेल नहीं बैठ सकता ।
हमारी भूल यह है कि जिसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती उसकी व्याख्या करने का प्रयत्न करते हुए हम अपने-आपको तब सफल मान लेते हैं जब हम इस निरपेक्ष का वर्णन सबको अलग कर देनेवाले नेति द्वारा कर लेते हैं । लेकिन साथ ही हम इस निरपेक्ष को एक परम अस्ति और सभी अस्तियों के कारण के रूप में मानने को बाधित होते हैं । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इतने सारे तीक्ष्ण बुद्धिवाले विचारक भी, जिनकी दृष्टि शाब्दिक भेदों पर न रह कर सत्ता के तथ्यों पर रही है, निरपेक्ष के बारे में यह परिणाम निकालने पर बाधित हुए कि निरपेक्ष बुद्धि की कपोल-कल्पना, शब्दों और शाब्दिक तार्किकता से उत्पन्न एक भाव है,
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एक शून्य है, असत् है, और उन्हें यह निष्कर्ष निकालना पड़ा कि एक शाश्वत संभूति ही हमारी सत्ता का एकमात्र सत्य है । प्राचीन ऋषियों ने निश्चय ही ब्रह्म के बारे में नकारात्मक ढंग से कहा है । उन्होंने कहा नेति नेति, वह यह नहीं है । वह वह नहीं है लेकिन उन्होंन उसके बारे में सकारात्मक ढंग से कहने की सावधानी भी बरती । उन्होंने यह भी कहा कि वह यह है, वह वह है, वह सब कुछ है, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि उसे नकारात्मक या सकारात्मक परिभाषाओं की सीमा में बांधना उसके सत्य से च्युत होना होगा । उन्होंने कहा, ब्रह्म अन्न है, प्राण है, मन है, अतिमानस है, वैश्व आनंद है, सच्चिदानंद है फिर भी वास्तव में इनमें से कोई चीज उसकी व्याख्या नहीं कर सकती, सच्चिदानंद के बारे में हमारी बड़ी-से-बड़ी धारणा भी नहीं । दुनिया में, जैसा कि हम उसे देखते हैं, हमारी मानसिक चेतना के लिये चाहे हम जितनी ऊंची स्थान क्यों न भरें, हम पाते हैं कि हर इति के साथ एक नेति है । लेकिन नेति शून्य नहीं है -वस्तुत: जो शून्य प्रतीत होता है वह शक्ति से भरा है, सत्ता की शक्ति से ओत-प्रोत है, प्रस्तुत या संभाव्य अंतर्गत पदार्थों से भरा है । न ही नेति का अस्तित्व उसके साथ मेल खानेवाली इति को असत् या अवास्तविक बना देता है । वह केवल इति को वस्तुओं के सत्य के बारे में बल्कि स्वयं इति के अपने सत्य के बारे में एक अपूर्ण कथन बना देता है । क्योंकि इति और नेति न केवल साथ-साथ रहते हैं बल्कि एक दूसरे के साथ संबंध में और एक दूसरे के द्वारा रहते हैं । वे एक दूसरे की पूर्ति करते हैं और उस समग्र दृष्टि में, जिसे सीमित मन नहीं पा सकता, एक दूसरे की व्याख्या करते हैं । हर एक अपने-आपमें नहीं जाना जा सकता । हम उसे उसके गभीरतर सत्य में तभी जानना शुरू करते हैं जब हम उसमें उसके प्रतीयमान विरोधों के संकेत पढ़ना शुरू करते हैं । हमारी बुद्धि को निरपेक्ष की ओर इस तरह के एक गभीरतर उदार अंतर्भास द्वारा जाना चाहिये; अपवर्जक तार्किक विरोध द्वारा नहीं ।
निरपेक्ष के इति हमारी चेतना को दिये गये उसके अपने बारे में विभिन्न कथन हैं । उसके नेति निरपेक्ष इति के शेष को ले आते हैं और इस तरह पहले कथनों के द्वारा लगायी गयी सीमाओं का खंडन होता है । हमें उसके विशाल प्राथमिक संबंधों को लेना होगा जैसे सांत और अनंत, सोपाधिक और निरुपाधिक, सगुण और निर्गुण । इनमें से हर एक युग्म में नेति अपने से मेल खाने वाले इति की सारी शक्ति को छिपाये रहता है, जो उसमें समायी रहती हैं और उसमें से उभरती है । उनमें कोई वास्तविक विरोध नहीं होता । सत्यों के जरा कम सूक्ष्म क्रम में हमें परात्पर और वैश्व, वैश्व और व्यष्टि मिलते हैं । हमने देखा है कि इन युग्मों में से हर एक अपने विरोधी दीखनेवाले तत्त्व में समाया होता है । वैश्व अपने-आपको व्यष्टि में विशिष्ट बनाता है, व्यष्टि अपने अंदर वैश्व की सभी सामान्यताओं को समाये रहता है । वैश्व चेतना अपना सब कुछ अनगिनत व्यष्टियों के वैचित्र्यों के द्वारा पाती है
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विभिन्नताओं को दबाकर नहीं । वैयक्तिक चेतना अपनी पूरी संपूर्ति पाती है वैश्व बनकर, वैश्व चेतना के साथ सहानुभूति और तादात्म्य में प्रवेश करके न कि अपने-आपको अहं में सीमित करके । इसी तरह वैश्व अपनी पूरी सत्ता में और अपने अंदर की हर चीज में परात्पर की पूर्ण अंतर्व्याप्ति को समाये रखता है, वह अपनी परात्पर सद्वस्तु की चेतना द्वारा अपने-आपको विश्व सत्ता के रूप में बनाये रखता है । वह प्रत्येक व्यष्टिगत सत्ता में उस सत्ता तथा अन्य सभी भूतों में दिव्य और परात्पर की अनुभूति द्वारा अपने-आपको पाता है । परात्पर विश्व को समाये रखता है, उसे अभिव्यक्त करता, उसका उपादान होता और उसे अभिव्यक्त करने में -यदि हम इस शब्द 'कोसमोस' को उसके प्राचीन काव्यमय अर्थ में लें तो -अपनी अनंत सामंजस्यपूर्ण विविधताओं को अभिव्यक्त या पुनः प्राप्त करता है । लेकिन सापेक्ष के निचले क्रमों में भी हम इति और नेति का यह खेल देखते हैं और हमें उनकी अभिधाओ के बीच दिव्य सामंजस्य लाकर -उनकी कतर-व्योंत करके या उनके विरोध को कटु सीमातक पहुंचा कर नहीं -निरपेक्षतक पहुंचना होता है । क्योंकि वहां निरपेक्ष में यह सारी सापेक्षता, निरपेक्ष का यह सब वैचित्र्यमय छन्दोबद्ध आत्मकथन अपना पूर्ण निषेध नहीं बल्कि अपने अस्तित्व का कारण और अपना औचित्य पाता है, अपने-आपको मिथ्या होने का अपराधी नहीं पाता बल्कि अपने सत्य के स्रोत और तत्त्व पाता है । विश्व और व्यष्टि निरपेक्ष के अंदर किसी ऐसी चीज में चले जाते हैं जो व्यक्तित्व का सच्चा सत्य है, वैश्व सत्ता का सच्चा सत्य है, उनका निषेध नहीं और उनके मिथ्यात्व का विश्वास नहीं । निरपेक्ष संदेहवादी तार्किक नहीं है जो अपने सभी आत्म-कथनों और आत्माभिव्यक्तियों के सत्य का खंडन करे बल्कि उसके अस्तित्व का अस्तिभाव इतना चरम और अनंत है कि ऐसा कोई भी सांत इति भाव नहीं गढ़ा जा सकता जो उसे निःशेष कर दे या अपनी परिभाषा में बांध सके ।
यह तो स्पष्ट ही है कि अगर निरपेक्ष का सत्य ऐसा है तो हम उसे अपने विरोधों के नियमों से नहीं बाध सकते । यह नियम हमारे लिये जरूरी है ताकि हम एकांगी और व्यावहारिक सत्यों को मान सकें और चीजों को स्पष्ट, निर्णायक और उपयोगी ढंग से सोच सकें और अपने देश के विभागों, आकार और गुणों के भेदों और काल के क्षणों के अनुसार विशेष प्रयोजनों के लिये प्रभावकारी ढंग से उनका वर्गीकरण कर सकें, उनके साथ क्रिया और व्यवहार कर सकें । यह अस्तित्व के रूपात्मक और प्रबल रूप से गतिशील सत्य का उसकी व्यावहारिक क्रियाओं में निरूपण करता है । यह वस्तुओं की बाह्यतम जड़-विधाओं में सबसे अधिक मजबूत होता है लेकिन जैसे-जैसे हम सोपान पर ऊपर चढ़ते हैं, सत्ता की सीढ़ी के सूक्ष्म डंडों पर ऊपर उठते हैं, वह कम और कम कठोर रूप से बाध्य होता जाता है । भौतिक व्यापारों और शक्तियों के साथ व्यवहार करने में यह हमारे लिये
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विशेष रूप से जरूरी है । हमें उन्हें एक समय एक ही चीज मानना होता है, उनमें एक समय एक ही शक्ति माननी होती हैं और मानना होता है कि वे अपने बाहरी और व्यावहारिक फलप्रद सामर्थ्यों और गुणों से सीमित हैं अन्यथा हम उनके साथ व्यवहार नहीं कर सकते । लेकिन यहां भी, जैसा कि मानव विचार अनुभव करने लगा है, बुद्धि द्वारा किये गये भेद और विज्ञान के वर्गीकरण और क्रियात्मक परीक्षण, जब कि वे अपने क्षेत्र में और अपने उद्देश्य के लिये तो पूरी तरह मान्य होते हैं फिर भी वे वस्तुओं के समग्र या वास्तविक सत्य का निरूपण नहीं करते, न तो सब चीजों को मिलाकर और न अपने-आपमें उस चीज का निरूपण ही करते हैं जिसे हमने वर्गीकरण करके कृत्रिम रूप से अलग रख दिया है, पृथक् विश्लेषण के लिये विविक्त कर दिया है । वस्तुतः इस तरह अलग करने से हम उसके साथ बहुत क्रियात्मक और बहुत प्रभावकारी ढंग से व्यवहार कर सकते हैं और पहले हम सोचते हैं कि हमारी क्रिया की प्रभावकारिता हमारे सारे पृथक् करनेवाले, विश्लेषणात्मक ज्ञान के सत्य का पूरा-पूरा पर्याप्त प्रमाण है, बाद में हमें पता लगता है कि इसके परे जाकर हम ज्यादा बड़े सत्य और अधिक प्रभावकारिता तक पहुंच सकते हैं ।
अलग करना निश्चय ही प्रथम ज्ञान के लिये जरूरी है । हीरा हीरा है और मोती मोती, हर चीज अपने वर्ग की है और अन्य सभी से अपने भेद के कारण अस्तित्व रखती है । हर एक अपने ही रूप और गुणों के कारण विशिष्ट है । लेकिन प्रत्येक में ऐसे गुण और तत्त्व भी हैं जो दोनों में समान हैं और ऐसे गुण और तत्त्व भी हैं जो सामान्य भौतिक वस्तुओं में होते हैं । और वस्तुत: हर एक का अस्तित्व केवल अपनी विशिष्टताओं के कारण ही नहीं है बल्कि मूल रूप से कहीं अधिक उसके द्वारा है जो दोनों में समान है । और हम सभी भौतिक चीजों के उस आधारभूत और स्थायी सत्य पर लौट आते हैं जब हम देखते हैं कि सभी एक ही चीज है, एक ऊर्जा, एक पदार्थ या तुम यूं कहना चाहो तो एक विश्व गति है जो अपनी निजी सत्ता के इन भिन्न-भिन्न रूपों, विभिन्न गुणों, इन निश्चित और सामंजस्यपूर्ण शक्यताओं को ऊपर फेंकती, बाहर लाती, जोड़ती और संसिद्ध करती है । अगर हम विभेद करनेवाले उस ज्ञान पर ही रुक जायें तो हम केवल हीरे-मोती के साथ बस उसी तरह व्यवहार कर सकते हैं जैसे वे हैं, उनके मूल्य, उनके उपयोग, प्रकार निश्चित कर सकते हैं । सामान्य रूप से उनका अच्छे-से-अच्छा उपयोग और उनसे लाभ प्राप्त कर सकते हैं लेकिन अगर हम उनमें तत्त्वों के ज्ञान और नियंत्रणतक पहुंच सकें और वे जिस वर्ग के हैं उस वर्ग के सामान्य गुणों को जान सकें तो हम उस शक्तितक पहुंच सकते हैं जिसके द्वारा अपनी खुशी से हीरा या मोती बना सकें, और भी आगे जाकर उस चीज पर अधिकार पा सकें जो सभी भौतिक चीजें अपने सार तत्त्व में हैं, हम रूपांतरकारी उस शक्तितक भी पहुंच सकते हैं जो जड़-
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भौतिक प्रकृति पर अधिक-से-अधिक संभव नियंत्रण पा सकती हैं । इस तरह विभेदों का ज्ञान अपने बड़े-से-बड़े सत्य और प्रभावकारी उपयोगतक पहुंचता है जब हम उसके गभीरतर ज्ञानपर पहुंच जोत हैं जो सभी विभिन्नताओं के पीछे स्थित ऐक्य में विभेदों का समाधान करता है । वह गभीरतर ज्ञान उस दूसरे सतही ज्ञान को प्रभावकारिता से वंचित नहीं कर देता और न उसे व्यर्थ होने का दोषी ठहराता है । हम अपने अंतिम भौतिक आविष्कार से यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि कोई मौलिक द्रव्य या जड़-पदार्थ है ही नहीं, केवल ऊर्जा है जो पदार्थ को अभिव्यक्त करती है या पदार्थ के रूप में अभिव्यक्त होती है; कि हीरा और मोती अस्तित्वहीन, अवास्तविक हैं, केवल हमशि ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों के भ्रम के लिये ही सच्चे हैं, कि केवल एक पदार्थ, ऊर्जा या गति एकमात्र शाशत सत्य है अतः हमारे विज्ञान का सबसे अच्छा या एकमात्र न्यायपूर्ण उपयोग होगा हीर, मोती और अन्य सभी चीजों को, जिन्हें हम विघटित कर सकते हैं, उन सबको उस एक शाश्वत और आदि वस्तु में विघटित कर दें और उनके रूपों और गुणों का सदा के लिये अंत कर दें । लेकिन चीजों का एक सारतत्त्व होता है, चीजों की एक सामान्यता होती है, चीजों का एक व्यक्तित्व होता है । सामान्यता और व्यक्तित्व उस सारतत्त्व की सच्ची और शाश्वत शक्तियां होती हैं जो उन दोनों का अतिक्रमण करता है । लेकिन तीनों मिलकर, कोई भी अलग अपने-आपमें नहीं, अस्तित्व के शाश्वत तत्त्व हैं ।
यह सत्य जिसे हम, कठिनाई के साथ और काफी प्रतिबंधों के आधीन, जड़- जगत् में भी देख पाते हैं, जहां सत्ता की सूक्ष्म और उच्चतर शक्तियों को अपनी बौद्धिक क्रियाओं से अलग रखना पड़ता है, वह सत्य जब हम सोपान पर चढ़ते हैं तो और अधिक स्पष्ट और अधिक शक्तिशाली बन जाता है । हम अपने वर्गीकरण और विभेदों के सत्य को देखते हैं पर साथ ही उनकी सीमाओं को भी । सभी चीजें भिन्न होते हुए भी एक हैं । व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये वनस्पति, पशु और मनुष्य अलग-अलग सत्ताएं हैं लेकिन जब हम ज्यादा गहराई में देखते हैं तो मालूम होता है कि वनस्पति बस एक ऐसा पशु है जिसमें आत्म-चेतना और क्रियाशील शक्ति का अपर्याप्त विकास हुआ है, पशु मनुष्य है लेकिन अभी बनने की प्रक्रिया में है । मनुष्य अपने-आप वही पशु है लेकिन उसमें कुछ अधिक आत्म-चेतना और चेतना की क्रियाशील शक्ति है जो उसे मनुष्य बनाती है और इस पर भी वह कुछ अधिक है जो उसकी सत्ता में दिव्यता की शक्यता के रूप में समाया और दबा हुआ है, वह बनने की प्रक्रिया में देव है । इनमें से हर एक में वनस्पति, पशु मनुष्य, देव में शाश्वत अपने-आपको मानों समोये और दबाये हुए है ताकि अपनी सत्ता का कोई विशेष निरूपण कर सके । हर एक समग्र शाश्वत है पर है छिपा हुआ । स्वयं मनुष्य जो उस सबको लिये हुए है जो उससे पहले गुजर चुका है और
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जिसे वह मनुष्यत्व में बदल लेता है, वैयक्तिक मानव सत्ता है और साथ ही समस्त मानव जाति भी । वह विश्व-मानव है जो व्यष्टि में, मानव व्यक्तित्व के रूप में क्रिया करता है । वह सर्व है फिर उसका एक अपना रूप है जो अद्वितीय है । वह जो है सो है लेकिन वह जो कुछ रह चुका है उस सबका भूत भी हैं और जो कुछ नहीं है उस सबकी संभाव्यता भी है । हम उसके केवल वर्तमान व्यक्तित्व को देखकर उसे नहीं समझ सकते लेकिन हम उसे तब भी नहीं समझ सकते अगर हम उसकी सामान्यता, उसकी साधारण मनुष्यत्व की अवस्था को देखें या इन दोनों को छोड़कर फिर से उसकी सत्ता के सारतत्त्व को देखें जिसमें उसकी उसे विशेषता देनेवाली मानवता और विशिष्ट बनानेवाला व्यक्तित्व दोनों गायब होते मालूम होते हैं । हर चीज निरपेक्ष है, सभी वह तत् है लेकिन इन तीन परिभाषाओं में निरपेक्ष अपनी विकसित आत्मसत्ता का निरूपण करता है । सारगत एकत्व के कारण हम यह कहने के लिये बाधित नहीं हैं कि ईश्वर के सभी नाना प्रकार के काम और क्रिया-कलाप व्यर्थ, मूल्यहीन, अवास्तविक, प्रातिभासिक और भ्रामक हैं और अपने ज्ञान का जो सबसे अच्छा युक्तियुक्त या अतिबौद्धिक उपयोग हम कर सकते हैं वह यह है कि हम उनसे दूर हट जायें, अपने वैश्व और वैयक्तिक जीवन का सार-सत्ता में विलय कर दें और हमेशा के लिये समस्त संभूति को एक व्यर्थता मानकर उससे पिंड छुड़ा लें ।
जीवन के व्यावहारिक व्यापारों में भी हमें उसी सत्य पर पहुंचना होता है । किन्हीं विशेष प्रयोजनों से हमें कहना पड़ता है कि एक चीज अच्छी या बुरी है, सुंदर या कुरूप है, उचित या अनुचित है और उस कथन के अनुसार कार्य करना होता है, लेकिन अगर हम अपने-आपको उससे सीमित कर लें तो हम वास्तविक ज्ञानतक नहीं पहुंचते । यहां विरोध का नियम उसी हदतक प्रामाणिक है जहांतक यह कहा जाये कि दो अलग-अलग और विरोधी उक्तियां किसी एक ही चीज के संबंध में, एक समय में, एक ही क्षेत्र में, एक ही प्रसंग में, एक ही दृष्टिकोण से और एक ही व्यावहारिक प्रयोजन के लिये सत्य नहीं हो सकतीं । उदाहरण के लिये महायुद्ध, विनाश या हिंसात्मक, सब कुछ उलट-पुलट कर देनेवाली क्रांतियां हमारे सामने अशुभ के रूप में, एक सांघातिक अव्यवस्था के रूप में आ सकती हैं और अमुक दृष्टियों से, परिणामों से और देखने के तरीकों से ऐसा है भी लेकिन एक और दृष्टि से यह एक महान् शुभ हो सकता है क्योंकि वह तेजी से एक नये शुभ या संतोषजनक व्यवस्था के लिये मैदान साफ कर देता है । कोई मनुष्य केवल अच्छा या केवल बुरा नहीं है, हर मनुष्य विरोधों का मिश्रण है । यहांतक कि हम इन विरोधों को एक ही भावना में, एक ही क्रिया में जटिल रूप से मिला-जुला पाते हैं । हर तरह के परस्पर संघर्षरत गुण, शक्तियां, मूल्य आपस में मिलते हैं और हमारी क्रिया, जीवन और स्वभाव बनाने के लिये एक-दूसरे में धंस जाते हैं । हम
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पूरी तरह तभी समझ सकते हैं अगर हम निरपेक्ष का कुछ ज्ञान पा लें और साथ ही सभी सापेक्षों में, जो अभिव्यक्त किये जा रहे हैं, उसकी क्रियाओं को देखें -केवल हर एक को अपने-आपमें न देखें बल्कि हर एक को सर्व के संबंध में देखें और उसके संबंध से देखें जो उनके परे है और उनमें समाधान लाता है । वस्तुत: हम तभी जान सकते हैं जब हम वस्तुओं में भगवान् की दृष्टि और उसके प्रयोजनतक पहुंच सकें, केवल अपनी ही दृष्टि और प्रयोजन को न देखें, यद्यपि हमारी सीमित मानव दृष्टि और क्षणिक प्रयोजन भी सर्व के संगठन में मान्य है । क्योंकि सभी सापेक्षों के पीछे यह निरपेक्ष है जो उन्हें उनकी अपनी सत्ता और उनका औचित्य प्रदान करता है । संसार में कोई विशेष क्रिया या व्यवस्था अपने-आपमें निरपेक्ष न्याय नहीं है लेकिन सभी क्रियाओं और व्यवस्थाओं के पीछे कुछ निरपेक्ष चीज है जिसे हम न्याय कहते हैं, जो अपने-आपको उनकी सापेक्षताओं के द्वारा व्यक्त करती है और जिसे हम अनुभव कर सकते हैं अगर हमारी दृष्टि और हमारा ज्ञान, जैसे कि वे अभी हैं, एकांगी, सतही, कुछ दृश्यमान तथ्यों और आभासोंतक सीमित न होकर व्यापक होते । इसी भांति एक निरपेक्ष शुभ और निरपेक्ष सुंदरता भी है लेकिन हम उसकी एक झांकी तभी पा सकते हैं जब हम सभी चीजों का निष्पक्ष भाव से आलिंगन करें और उनके बाहरी रूपों के परे उस तत्त्वतक पहुंच जायें जिसे वे सब और हर एक अपनी जटिल विधाओं से व्यक्त और कार्यान्वित करने की कोशिश कर रहा है । वह अनिर्दिष्ट नहीं है, निरपेक्ष है क्योंकि अनिर्दिष्ट मूल उपादान होने के कारण या निर्दिष्टों की घनी अवस्था होने के कारण अपने-आपमें कुछ भी नहीं समझा सकता । निश्चय ही हम इससे उल्टे तरीके का भी अनुसरण कर सकते हैं जिसमें सभी चीजों को तोड़कर, उन्हें समग्र रूप में तथा उसके संबंध में देखने से इंकार कर सकते हैं जो उन्हें न्याय-संगत ठहराता है और इस तरह हम सभी वस्तुओं के परम अशुभ, परम अन्याय, परम कुरूपता, पीड़ा, तुच्छता, हीनता और असारता की बौद्धिक धारणा बना लेते हैं । परंतु यह अज्ञान की पद्धति को उसकी पराकाष्ठातक ले जाना होगा जिसकी दृष्टि विभाजन पर आधारित है लेकिन हम इस तरह दिव्य क्रियाओं के साथ उचित व्यवहार नहीं कर सकते । चूंकि निरपेक्ष अपने-आपको ऐसे सापेक्षों के द्वारा व्यक्त करता है जिनके रहस्यों की थाह लेना हमें कठिन मालूम होता है, चूंकि हमारी सीमित दृष्टि को हर चीज विरोधों और नेतियों का बेमतलब खेल या परस्पर-विरोधों का ढेर मालूम होती है इसलिये हम ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि हमारी प्रथम सीमित दृष्टि ही ठीक है या सब कुछ मन का व्यर्थ भ्रम है और उसमें कोई वास्तविकता नहीं । न ही हम इस सबका समाधान ऐसे आदि समाधानरहित विरोध से कर सकते हैं जिसे और सब का समाधान करना है । मानव बुद्धि हर एक विरोध को एक अलग और निक्षयात्मक मूल्य देकर या एक विरोध से पिंड छुड़ाने के लिये दूसरे से पूरी
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तरह इंकार करके भूल करती हैं । लेकिन जिन विरोधों में किसी तरह का समन्वय नहीं हो पाया या जिनका मूल और जिनकी सार्थकता उनके विरोध से परे किसी चीज में नहीं मिली ऐसे विरोधों के जोड़ों को अंतिम और निर्णायक सत्य मानने से जब मानव बुद्धि इंकार करती है तो यह इंकार ठीक होता है ।
अस्तित्व के आदि विरोधों का समाधान या उनकी व्याख्या हम अपनी काल-संबंधी धारणा का आश्रय लेकर नहीं कर सकते । काल के संबंध में जहांतक हम जानते या धारणा बना सकते हैं वह वस्तुओं का अनुक्रम के अनुसार अनुभव करने का एक साधन है । यह एक अवस्था या अवस्थाओं का कारण है, वह सत्ता के अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग होता है, यहांतक कि एक ही लोक में अलग-अलग सत्ताओं के लिये बदलता है, मतलब यह कि यह निरपेक्ष नहीं हैं और निरपेक्ष के प्रारंभिक संबंधों की व्याख्या नहीं कर सकता । वे संबंध अपने-आपको काल के द्वारा व्योरे में कार्यान्वित करते हैं और हमारी मनोमय और प्राणिक सत्ता को काल द्वारा निर्धारित होते प्रतीत होते हैं । लेकिन यह प्रतीति हमें उनके उद्गम और तत्त्वों की ओर वापिस नहीं ले जाती । हम सोपाधिक और निरुपाधिक का भेद करते हैं और कल्पना कर लेते हैं कि काल की किसी तिथि पर निरुपाधिक ही सोपाधिक हो गया, सांत. अनंत बन गया और काल की किसी और तिथि पर वह सांत होना बंद कर देगा क्योंकि व्योरों में, विशिष्टताओं और वस्तुओं की इस या उस पद्धति के प्रसंग में हमें ऐसा ही दिखायी देता है, लेकिन अगर हम अस्तित्व को समग्र रूप में देखें तो हम देखते हैं कि सांत और अनंत एक साथ रहते हैं, एक दूसरे में और एक दूसरे के द्वारा रहते हैं । अगर हमारा विश्व काल में छन्दोबद्ध रूप से विलीन और फिर से प्रकट होता रहे, जैसा कि पुराना विश्वास था तो भी यह एक बड़ा व्योरा मात्र होगा । इससे यह नहीं प्रकट होगा कि किसी क्षण-विशेष में समस्त उपाधिक का अनंत अस्तित्व के पूरे विस्तार में अवसान हो जाता है और सर्व सत् का पूरा क्षेत्र निरुपाधिक बन जाता है । किसी और क्षण वह फिर से वास्तविकता या उपाधियों का बाहरी रूप धारण कर लेता है । प्रथम उद्गम और प्रथम संबंध हमारे मानसिक काल-विभाजन के परे, दिव्य कालातीतता में या अविभाज्य या शाश्वत काल में निवास करता है । विभाजन और अनुक्रम तो इस मानसिक अनुभूति में आये उस काल के आकार मात्र हैं ।
वहां हम सबको मिलते देखते हैं और देखते हैं कि वहां अस्तित्व के सभी तत्त्व, अस्तित्व की सभी स्थायी वास्तविकताएं -क्योंकि सत्ता के तत्त्व के रूप में सांत भी उतना ही स्थायी है जितना अनंत-निरपेक्ष के किसी ऐकांतिक एकत्व में नहीं बल्कि मुक्त एकत्व में एक दूसरे के साथ प्राथमिक संबंध में रहते हैं और भौतिक या मानसिक जगत् में वे जिस तरह हमारे सामने आते हैं वह उनकी दूसरी, तीसरी या और भी नीचे की सापेक्षताओं में चरितार्थ होना ही है । निरपेक्ष स्वयं अपने
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विपरीत नहीं हो गया है और किसी विशेष तारीख पर उसने वास्तविक या अवास्तविक सापेक्षताओं को धारण नहीं कर लिया है जिसमें वह मूलतः असमर्थ था, और न ही किसी चमत्कार से एक बहु बन गया है, न निरुपाधिक सोपाधिक में खिसक गया है, न निर्गुण सगुण में अंकुरित हो गया है । ये विरोध केवल हमारी मानसिक चेतना की सुविधाएं हैं, अविभाज्य के हमारे विभाजन हैं । वे जिन चीजों का निरूपण करते हैं वे कपोल कल्पनाएं नहीं, वास्तविकताएं हैं लेकिन अगर उन्हें एक दूसरे के विरोध में ऐसे रख दिया जाये जिसका समाधान नहीं, या एक दूसरे से अलग रखा जाये तो उनका ठीक ज्ञान नहीं होता क्योंकि निरपेक्ष की सर्व-दृष्टि में समाधान-रहित विरोध या उनके अलगाव हैं ही नहीं । यह केवल हमारे वैज्ञानिक विभाजन और तत्त्वदार्शनिक विभेदों की कमजोरी नहीं है बल्कि हमारी ऐकांतिक आध्यात्मिक उपलब्धियों की भी क्योंकि उनतक पहुंचने के लिये हमें अपनी सीमा बांधने और विभाजन करनेवाली मानसिक चेतना से आरंभ करना पड़ता है । हमें अपनी बुद्धि को उस सत्य की ओर ले जाने में सहायता देने के लिये, जो उसका अतिक्रमण करता है, ये तत्त्वदार्शनिक विभेद करने पड़ते हैं, क्योंकि केवल इसी तरह वह वस्तुओं की पहली अविवेकी मानसिक दृष्टि की गड़बड़ से बच सकती है । लेकिन अगर हम अपने-आपको अंततक इनसे बांधे रखें तो जिन्हें प्रथम सहायता होना चाहिये था उन्हें हम जंजीर बना लेंगे । हमें उन स्पष्ट आध्यात्मिक सिद्धियों का भी उपयोग करना चाहिये जो शुरू में एक दूसरे सें उल्टी मालूम होती हैं क्योंकि मानसिक सत्ता होने के नाते हमारे लिये यह मुश्किल या असंभव है कि जो चीज हमारी मानसिकता के परे है उसे हम एकदम बड़े पैमाने पर या पूरी तरह पकड़ सकें लेकिन अगर हम उन्हें एकमात्र सत्य मानकर बौद्धिक रूप दे देते हैं तो भूल करते हैं, उसी तरह जैसे जब हम यह प्रतिपादित करते हैं कि निर्गुण को ही एकमात्र चरम उपलब्धि होना चाहिये और बाकी सब माया की सृष्टि होनी चाहिये या जब हम यह घोषणा करें कि सगुण ही वह चरम है और निर्गुणता को अपनी आध्यात्मिक अनुभूति में से अलग कर दें । हमें देखना यह चाहिये कि महान् आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की ये दोनों उपलब्धियां अपने-आपमें समान रूप से प्रामाणिक हैं और एक-दूसरे के विरोध में समान रूप से अप्रामाणिक । वे एक और समान सद्वस्तु हैं जिसका दो-दो पक्षों से अनुभव किया गया है, और दोनों एक दूसरे के पूर्ण ज्ञान और अनुभूति के लिये आवश्यक हैं और उसके ज्ञान और अनुभूति के लिये भी जो वे दोनों हैं । एक और बहु अनंत और सांत, परात्पर और वैश्व, व्यष्टि और वैश्व के साथ भी यही बात है; प्रत्येक अपने-आप होता हुआ दूसरा भी है और दोनों में से किसी को भी तबतक पूरी तरह नहीं जाना जा सकता जबतक कि दूसरे को न जाना जाये और उनके विरोध के आभास का अतिक्रमण न किया जाये ।
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तो हम देखते हैं कि एकमेव सत्ता के तीन पद हैं : परात्पर, वैश्व और व्यष्टि और इनमें से हर एक सदा गुप्त रूप से या प्रत्यक्ष रूप से बाकी दो को समाये रहता है । परात्पर हमेशा अपने ऊपर अधिकार रखता है और बाकी दोनों पर अपनी कालगत संभावनाओं के आधार के रूप में नियंत्रण रखता है । वह है भगवान्, शाश्वत, सब पर अधिकार रखनेवाली दिव्य चेतना, सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ, सर्वव्यापक जो सभी सत्ता को अनुप्राणित करता, उनका आलिंगन और उनपर शासन करता है । यहां धरती पर मानव सत्ता तीसरे पद, व्यष्टि की उच्चतम शक्ति है क्योंकि केवल वही आत्माभिव्यक्ति की उस गति को जो हमारे आगे अज्ञान और ज्ञान की दो विधाओं के बीच दिव्य चेतना के प्रतिविकास और विकास के रूप में प्रकट होती है उसे उसके महत्त्वपूर्ण निर्णायक मोड़ पर कार्यान्वित कर सकती है । व्यक्ति में जो यह शक्ति है कि वह आत्मज्ञान के द्वारा अपनी चेतना में परात्पर और वैश्व के साथ, एकमेव सत् और सभी सत्ताओं के साथ अपना एकत्व पा सकता है, उस ज्ञान में निवास कर सकता है और उसके द्वारा अपने जीवन का रूपांतर कर सकता है, यही वह चीज है जो व्यक्ति द्वारा दिव्य आत्माभिव्यक्ति के कार्य को संभव बनाती है और व्यक्ति का -किसी एक का नहीं सबका -दिव्य जीवनतक जा पहुंचना उस गति का एकमात्र उद्देश्य है जिसकी कल्पना की जा सकती है । व्यष्टि का अस्तित्व निरपेक्ष की किसी आत्मा की भूल नहीं है जिसका उसे बाद में पता चलता है । क्योंकि यह असंभव है कि निरपेक्ष आत्म-अभिज्ञता या कोई ऐसी चीज जो उसके साथ एकात्म है, वह अपने ही सत्य और अपनी ही सामर्थ्यों के बारे में अनभिज्ञ हो और उस अज्ञान से धोखा खाकर या तो अपने बोरे में कोई मिथ्या भाव बना ले जिसे उसे बाद में ठीक करना पड़े या वह किसी ऐसे असंभव जोखिम भरे काम को हाथ में ले ले जिसे बाद में छोड़ना पड़े । व्यष्टिगत सत्ता भगवान् की लीला में कोई गौण परिस्थिति भी नहीं है, यह एक ऐसी लीला है जो सुख और दुःख के कभी न रुकनेवाले चक्रों में सदा होती रहती है । स्वयं उस लीला की न तो कोई उच्चतर आशा है अथवा न कभी-कभी थोड़े से व्यक्तियों के इस अज्ञान-बंधन से बाहर निकलने का छोड़कर उसका कोई और परिणाम ही आता है । अगर मनुष्य में अपना अतिक्रमण करने की शक्ति न होती या आत्म-ज्ञान द्वारा लीला की परिस्थितियों को रूपांतरित करने की शक्ति न होती कि वह उन्हें दिव्य आनंद के सत्य के निकट और निकटतर ला सके तो हम भगवान् के कार्य के बारे में इस निर्मम और विनाशकारी दृष्टि को मानने के लिये बाधित हो जाते । उस शक्ति में ही व्यष्टिगत सत्ता का औचित्य है । व्यष्टि और वैश्व सदा अपने अंदर परात्पर सच्चिदानंद की दिव्य ज्योति, ज्ञान और आनंद को, जो हमेशा उनके ऊपर अभिव्यक्त रहता है, जो हमेशा उनके बाह्य रूपों के पीछे मौजूद रहता है, उसे अपने में उन्मीलित करें । दिव्य लीला का यही गुप्त प्रयोजन, चरम
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सार्थकता है । लेकिन यह उन्मीलन उन्हीं में, उनके रूपांतर में, साथ ही उनके अध्यवसाय और पूर्ण संबंधों में भी होना चाहिये न कि उनके आत्म-विनाश में । अन्यथा उनके कभी अस्तित्व में आने का कोई कारण ही न होता । व्यक्ति में भगवान् के उन्मीलन की संभावना ही पहेली का रहस्य है और उसमें भगवान् की उपस्थिति और उन्मीलन का यह इरादा ही ज्ञान-अज्ञान के जगत् की चाबी है ।
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