Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ९
शुद्ध सत्
सदेव... एकमेवाद्वितीयम् ।
एक अविभक्त, शुद्ध सत् ।
छान्दोग्योपनिषद् ६.२.१
जब हम अपनी दृष्टि को सीमित और क्षणिक आकर्षणों में अहंकारभरी तन्मयता से हटा लेते हैं और संसार को केवल 'सत्य' की खोज करनेवाली निष्पक्ष एवं जिज्ञासाभरी आंखों से देखते हैं तो पहला परिणाम होता है कि हम अनंत सत्ता की एक असीम ऊर्जा, अनंत गति, अनंत क्रियाशीलता को अपने-आपको सीमाहीन देश में, शाश्वत काल में उंडेलते हुए देखते हैं । एक ऐसी सत्ता या सत् जो हमारे अहं या किसी भी अहं या अहमो के समुदाय से असीम रूप में बढ़कर है, जिसकी तुला में युगों के महान् उत्पादन क्षण भर की धूलि के समान हैं और जिसके गणनातीत योगफल में अनगिनत अयुत केवल छोटे-से कीट-समूह की भांति हैं । हम सहज वृत्ति से इस प्रकार कार्य करते, अनुभव करते और अपने जीवन-विचार बुनते हैं मानों यह महान् जगत्-गति हमारे चारों ओर हमें ही केंद्र बनाकर, हमारे लाभ के लिये, हमें सहायता या हानि पहुंचाने के लिये कार्य कर रही है या मानों हमारी प्राणिक लालसाओं, भावावेगों, विचारों, मानकों को समर्थित करना ही उसका वास्तविक काम है, ऐसे ही जैसे ये हमारे लिये मुख्य तल्लीनताएं हैं । जब हम देखना शुरू करते हैं तो अनुभव करते हैं कि उसका अस्तित्व स्वयं अपने लिये है, हमारे लिये नहीं, उसके अपने विशाल लक्ष्य हैं, अपना जटिल और सीमाहीन विचार, अपनी विस्तृत कामना या आनंद है जिसे वह पूरा करना चाहती है, उसके अपने विशाल और विकराल मानक हैं जो हमारे मानकों की तुच्छता की ओर दया और व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ देखते हैं । लेकिन फिर भी हमें दूसरे छोर की ओर छलांग लगाकर अपनी नगण्यता के बारे में बहुत अधिक निश्चित भाव न बना लेना चाहिये । वह भी अज्ञान का एक कर्म होगा और विश्व के महान् तथ्यों की ओर से अपनी आंखों को मूंद लेना होगा ।
क्योंकि यह सीमाहीन 'गति' अपने लिये हमें महत्त्वहीन नहीं मानती । विज्ञान हमें दिखलाता है कि यह महान् शक्ति अपनी छोटी-से-छोटी क्रिया पर भी उतनी ही सावधानी, उतना ही चातुर्य-भरा कौशल, और उतनी ही तीव्र तल्लीनता का प्रयोग करती है जितना बड़े-से-बड़े कार्य के लिये । यह महान् ऊर्जा समदर्शी और निष्पक्ष माता या गीता के महावचन के अनुसार ' समं ब्रह्म है । उसकी गति की जो तीव्रता
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और शक्ति किसी सौर मंडल को बनाने और धारण करने में काम आती है वही दीमकों की बांबी की जीवन-व्यवस्था में लगती है । आकार और मात्रा का भ्रम हमें एक को महान् और दूसरे को क्षुद्र मानने के लिये प्रेरित करता है । इसके विपरीत अगर हम मात्रा की राशि को न देखकर गुण की शक्ति को देखें तो हम देखेंगे कि चींटी जिस सौर मंडल में निवास करती हैं वह उससे अधिक महान् है और मनुष्य, समस्त स्थावर प्रकृति के योग से बढ़कर है । लेकिन यह फिर गुण का भ्रम है । जब हम पीछे जाकर केवल गति की तीव्रता का निरीक्षण करते हैं जिसके कि राशि और गुण पहलू हैं तब हम यह अनुभव करते हैं कि यह ब्रह्म समस्त सत्ताओं में समान रूप से निवास करता है । उसकी सत्ता में सभी समान रूप से भाग लेते हैं इसलिये हमें यह कहने का लोभ हो आता है कि वह अपनी ऊर्जा में सभी के अंदर समान रूप से बंटा हुआ है । लेकिन यह भी परिमाण का भ्रम है । ब्रह्म सभी के अंदर निवास करता है, वह अविभाज्य है परंतु लगता है विभक्त और बंटा हुआ । अगर हम फिर एक ऐसी अवलोकात्मक दृष्टि से देखें जो बौद्धिक अवधारणाओं के अधीन नहीं बल्कि अंतर्भास से अनुप्राणित है, जिसकी परिपूर्ति तादात्म्य द्वारा ज्ञान में होती है, तो हम देखेंगे कि इस अनंत 'ऊर्जा' की चेतना हमारी मानसिक चेतना से भिन्न है, वह अविभाज्य है और वह सौर मंडल और दीमक की बांबी को अपना समान भाग नहीं बल्कि एक ही साथ अपना समस्त स्व देती है । ब्रह्म के लिये कोई समग्र और कोई अंश नहीं है बल्कि हर चीज ही पूर्ण ब्रह्म है और पूर्ण ब्रह्म से लाभ उठाती है । गुण और मात्रा में फर्क होता है परंतु 'आत्मा' समान है । क्रिया की शक्ति के रूप, प्रकार और परिणाम में अत्यधिक भेद होता है, लेकिन शाश्वत, आद्या, अनंत ऊर्जा सबमें एक ही है । एक मजबूत आदमी बनाने में जो शक्ति लगती है वह कमजोर आदमी को बनाने के लिये जो शक्ति लगती है उससे लेशमात्र भी कम नहीं होती, दमन में उतनी ही अधिक ऊर्जा खर्च होती है जितनी अभिव्यक्ति में, अस्वीकार करने में उतनी ही जितनी स्वीकारने में, नीरवता में उतनी ही जितनी शब्द में ।
अतः सबसे पहले हमें इस अनंत 'गति', सत्ता की इस ऊर्जा, जो जगत् और स्वयं हम बन गयी हैं, उसके और अपने बीच लेखा-जोखा ठीक करना है । अभी हम गलत हिसाब रखते हैं । हम 'सर्व' के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं परंतु 'सर्व' हमारे लिये नगण्य है । अपने लिये स्वयं हम ही महत्त्वपूर्ण हैं । यह उस मौलिक अज्ञान का चिह्न है जो अहंकार की जड़ है । वह अपने-आपको केंद्र मानकर ही सोच सकता है मानों वही सर्व हो । और जो वह स्वयं न हो उसका वह उतना ही अंश स्वीकारने के लिये तैयार होता है जिसे स्वीकार करने के लिये वह मानसिक रूप से तैयार हो या जिसे स्वीकार करने के लिये परिवेश के आघात उसे बाधित करें । यहांतक कि जब वह दार्शनिक सिद्धांत बनाना शुरू करता है तो उस समय
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भी क्या यह प्रतिपादित नहीं करता कि जगत् का अस्तित्व उसीकी चेतना में और उसीकी चेतना द्वारा है ? उसके लिये अपनी निजी चेतना की स्थिति या अपने मानसिक मानक ही वास्तविकता की कसौटी हैं । जो कुछ भी उसकी परिधि या दृष्टि के बाहर है वह उसे मिथ्या या अस्तित्वहीन लगने लगता है । मनुष्य की यह आत्मपर्याप्तता गलत हिसाब की प्रणाली रच डालती है जो हमें जीवन से ठीक-ठीक और पूरा मूल्य पाने से रोकती है । एक अर्थ में मानव मन और अहं के ये दावे एक सत्य पर आश्रित हैं लेकिन यह सत्य तभी उभरता है जब मन अपने अज्ञान को जान लेता है और अहं 'सर्व' के आधीन होकर उसमें अपने पृथक् आत्म-समर्थन की वृत्ति खो देता है । सच्चे जीवन का आरंभ ही है यह स्वीकारना कि हम, या यूं कहें कि जिन परिणामों और आभासों को हम अपना-आपा कहते हैं वे, इस अनंत 'गति' की आंशिक गति हैं और हमें उस अनंत को जानना है, सचेतन रूप से वही होना है और निष्ठा के साथ उसीको चरितार्थ करना है । हिसाब का दूसरा पहलू है यह जानना कि अपने विशुद्ध आत्म-रूप में हम उस समग्र गति के साथ एक हैं, उसके आधीन या गौण नहीं और हमारी सत्ता के रंग, ढंग, विचार, आवेग और क्रिया में उसकी अभिव्यक्ति सच्चे या दिव्य जीवन के परमोत्कर्ष के लिये आवश्यक है ।
लेकिन यह हिसाब पूरा करने के लिये हमें यह जानना होगा कि यह 'सर्व', यह अनंत और सर्वशक्तिमान् ऊर्जा है क्या ? और यहां एक नयी पेचीदगी आ जाती है । शुद्ध बुद्धि हमारे आगे यह प्रतिपादित करती है और ऐसा लगता है कि वेदांत भी यही प्रतिपादित करता है कि जैसे हम इस 'गति' के आधीन और उसके एक पार्श्व हैं उसी तरह स्वयं यह गति अपने से भिन्न किसी और चीज के आधीन और उसका एक पार्श्व है । वह चीज महान् कालातीत, देशातीत, स्थाणु है जो अपरिवर्तनशील, अक्षय और अव्यय है । वह स्वयं निष्क्रिय है लेकिन सारी कर्मण्यता उसीमें समायी रहती है । वह ऊर्जा नहीं, शुद्ध सत् है । जो लोग केवल इस विश्व-ऊर्जा को ही देखते हैं वे निश्चय ही घोषणा कर सकते हैं कि ऐसी कोई चीज नहीं है । हमारा शाश्वत स्थाणु का भाव, अपरिवर्तनशील शुद्ध सत् का भाव हमारी बौद्धिक धारणाओं की गढ़ी हुई कहानी है जिसका आरंभ स्थाणु के मिथ्या भाव से होता है, क्योंकि कोई भी चीज स्थिर नहीं है, सब कुछ गति है और स्थिर के बारे में हमारी धारणा हमारी मानसिक चेतना का कौशल मात्र है जिसके द्वारा हम गति के साथ व्यावहारिक रूप से क्रिया-कलाप करने के लिये एक आधार-बिंदु पा लेते हैं । यह दिखलाना आसान है कि स्वयं गति के अंदर यह बात सच्ची है । उसमें कोई चीज स्थिर नहीं है । जो कुछ स्थिर प्रतीत होता है वह गतियों का एक पिंड, कार्यरत ऊर्जा का रूपायन है जो हमारी चेतना पर इस तरह प्रभाव डालता है कि वह स्थिर मालूम होता है, कुछ-कुछ ऐसे ही जैसे पृथ्वी हमें स्थिर मालूम होती है, कुछ-कुछ
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उस रेलगाड़ी की तरह जिसमें हम यात्रा कर रहे हों, वह भागते हुए प्राकृतिक दृश्यों के बीच स्थिर मालूम होती है । लेकिन क्या यह भी समान रूप से सच है कि इस गति के नीचे उसे सहारा देती हुई कोई गतिहीन, अपरिवर्तनशील वस्तु नहीं है ? क्या यह सच हैं कि सत्ता या सत् केवल ऊर्जा की क्रिया का ही रूप है ? या क्या यह ज्यादा सच नहीं है कि ऊर्जा 'सत्' की ही उपज है ?
हम तुरंत यह देख लेते हैं कि यदि कोई इस प्रकार की 'सत्ता' है तो वह भी ऊर्जा की भांति अनंत होनी चाहिये । न तो बुद्धि न अनुभूति, न अंतर्भास और न कल्पना ही हमें इस बात की साक्षी देते हैं कि किसी अंतिम लक्ष्यबिंदु की संभावना है । समस्त अंत और आरंभ इस पूर्व कल्पना को अपनेमें वहन करते हैं कि अंत और आरंभ के परे भी कुछ है । निरपेक्ष अंत, निरपेक्ष आरंभ केवल शाब्दिक विरोध ही नहीं बल्कि वस्तुओं के सारतत्त्व का विरोध, एक धींगा-मुश्ती और कपोल-कल्पना है । अनंतता अपनी निर्विवाद आत्मसत्ता द्वारा अपने-आपको सांत के रूपों पर आरोपित करती है ।
लेकिन यह 'देश' और 'काल' के साथ संबंध रखनेवाली अनंतता है, शाश्वत अवधि, असीम विस्तार है । शुद्ध तर्कबुद्धि और आगे जाती है और अपने रंगहीन और कठोर प्रकाश में 'देश' व 'काल' पर नजर डालते हुए हमें बतलाती है कि ये दोनों हमारी चेतना के वैचारिक रूप हैं, ऐसी अवस्थाएं हैं जिनमें हम प्रपंच के अपने बोध को व्यवस्थित करते हैं । जब हम स्वयं सत् पर नजर डालते हैं तो 'देश' और 'काल' दोनों गायब हो जाते हैं । अगर कोई विस्तार है तो वह देश में नहीं मनोवैज्ञानिक है, अगर कोई अवधि हैं तो वह भौतिक नहीं मनोवैज्ञानिक अवधि है और तब यह देखना आसान हो जाता है कि यह विस्तार और अवधि केवल प्रतीक हैं जो मन के आगे ऐसी चीज प्रस्तुत करते हैं जिसे बौद्धिक परिभाषा में नहीं रखा जा सकता । एक ऐसी शाश्वतता है जो हमें वही सर्वसमावेशी, सर्वदा नवीन क्षण प्रतीत होती है, एक ऐसी अनंतता है जो हमें वही सर्वसमावेशी, सर्वव्यापी, किंतु विस्तारहीन बिंदु प्रतीत होती है । परिभाषाओं का यह विरोध, जो इतना उग्र होते हुए भी किसी ऐसी चीज को ठीक-ठीक व्यक्त करता है जिसका हमें बोध होता है, यह दिखलाता है कि मन और वाणी अपनी स्वाभाविक सीमाओं को पार कर गये हैं और एक ऐसी सद्वस्तु को प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें उनकी अपनी रूढ़ियां और आवश्यक विरोध एक अनिर्वचनीय तादात्म्य में लुप्त हो जाते हैं ।
लेकिन क्या यह सच्चा अभिलेख है ? क्या यह नहीं हो सकता कि 'काल' और 'देश' इस तरह, केवल इसलिये लुप्त हो जाते हैं कि हम जिसे सत् मानते हैं वह बुद्धि की गढ़ी कहानी, वाणी द्वारा रचित अनोखा 'शून्य' है जिसे हम अवधारणात्मक सद्वस्तु के रूप में खड़ा करने का प्रयास करते हैं ? हम फिर से उस 'सत्-स्वरूप' को देखते और कहते हैं 'नहीं' । दृश्य प्रपंच के पीछे कोई ऐसी
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चीज है जो केवल अनंत ही नहीं अनिर्वचनीय भी है, किसी प्रपंच या प्रपंचों की समष्टि के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह निरपेक्ष रूप से है । यहांतक कि यदि हम सब प्रपंचों को खंडित करते-करते गति या ऊर्जा के एक मूलभूत, सर्वसामान्य, अखंडनीय तथ्यतक ले जायें तो हमारे हाथ जो चीज लगती है वह केवल एक अव्याख्येय तथ्य ही होता है । गति की अवधारणा ही अपने साथ विश्राम की संभाव्यता लिये रहती है और अपने-आपको किसी सत् या सत्ता की क्रिया के रूप में प्रकट करती है । क्रियारत ऊर्जा का विचार ही अपने साथ क्रिया से विरत ऊर्जा का विचार लिये रहता है, और क्रिया से रहित निरपेक्ष ऊर्जा शुद्ध और सरल रूप से निरपेक्ष सत् ही है । हमारे सामने बस यहीं दो विकल्प हैं --या तो अनिर्वचनीय शुद्ध सत् या क्रियारत अनिर्वचनीय ऊर्जा । किसी स्थायी आधार या कारण के बिना क्रियारत अनिर्वचनीय ऊर्जा ही अगर एकमात्र सच है तब तो ऊर्जा, क्रिया से उत्पन्न एक परिणाम और प्रपंच है और वह क्रिया या गति ही सच्ची है । तब तो 'सत्' है ही नहीं या फिर बौद्धों का शून्य है जिसका अस्तित्व एक शाश्वत तथ्य के, 'क्रिया' के, 'कर्म' के, 'गति' के केवल एक गुण के रूप में है । शुद्ध बुद्धि दावे के साथ कहती है कि यह निष्कर्ष मेरे प्रत्यक्ष दर्शनों को असंतुष्ट छोड़ देता है, मेरी आधारभूत दृष्टि के विपरीत है इसलिये ऐसा नहीं हों सकता । क्योंकि यह निष्कर्ष हमें ऊपर बढ़ने के सोपान पर अचानक समाप्त हो जानेवाली सीढ़ी पर लाकर खड़ा कर देता है और सारे सोपान को बिना किसी सहारे के शून्य में लटकता छोड़ देता है ।
अगर यह अनिर्वचनीय, अनंत, कालहीन, देशहीन 'सत्' है तो निश्चय ही वह शुद्ध निरपेक्ष है । उसे किसी परिमाण या परिमाणों में नहीं समेटा जा सकता, वह किसी गुण की रचना या किन्हीं गुणों का संयोजन नहीं हो सकता, वह रूपों का समूह या रूपों का तात्त्विक आधार नहीं है । चाहे सभी रूप, परिमाण और गुण गायब हो जायें, वह बना रहेगा । परिमाणहीन, गुणहीन, रूपहीन 'सत्' की न केवल धारणा ही बनायी जा सकती है बल्कि एक वही चीज है जिसकी धारणा इन सब बाह्य आभासों के पीछे की जा सकती है । निश्चय ही जब हम कहते हैं कि यह सत् इनके बिना है तो हमारा मतलब होता है कि वह उनसे अतीत है, कि वह ऐसी चीज है जिसमें ये सब इस तरह प्रवेश कर जाती हैं कि वे वह नहीं रहतीं जिन्हें हम रूप, परिमाण, गुण कहते हैं और जिसके अंदर से वे गति में रूप, गुण और परिमाण बनकर उभरती हैं । वे एक ऐसे रूप, एक ऐसे गुण और एक ऐसे परिमाण में नहीं चली जातीं जो बाकी सबका आधार हो --क्योंकि ऐसा कुछ है ही नहीं --बल्कि वे ऐसी चीज में चली जाती हैं जिसका वर्णन इनमें से किसी परिभाषा द्वारा नहीं किया जा सकता । तो वे सभी चीजें जो गति की अवस्थाएं और आभास हैं तत् के अंदर समा जाती हैं जहां से वे आयी हैं और जबतक वे वहां रहती हैं,
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ऐसी बन जाती हैं कि उनका वर्णन उन परिभाषाओं से नहीं किया जा सकता जो उनकी गति की अवस्था में उपयुक्त थीं । इसीलिये हम कहते हैं कि शुद्ध सत् 'निरपेक्ष' है और अपने-आपमें हमारे विचार के लिये अज्ञेय है यद्यपि हम लौटकर उसके साथ ऐसे परम तादात्म्य में जा सकते हैं जो ज्ञान की परिभाषाओं के परे है । इसके विपरीत गति सापेक्ष का क्षेत्र है फिर भी सापेक्ष की परिभाषा के अनुसार गति में विद्यमान सब चीजें निरपेक्ष को अपने अंदर धारण किये रहती हैं, निरपेक्ष में समायी हुई हैं और स्वयं निरपेक्ष हैं । निरपेक्ष और सापेक्ष के बीच की भिन्नता में जो अभिन्नता है उसके निकटतम उदाहरण के रूप में वेदांत मूलभूत आकाश के साथ प्रकृति के प्रपंचों के संबंध को रखता है । यह आकाश प्रकृति के दृश्यों और व्यापारों का आधार, आधेय और उपादान है फिर भी उनसे इतना अधिक भिन्न रहता है कि जब वे उसमें प्रवेश कर जाते हैं तो वे वह नहीं रह जाते जो अब हैं ।
निश्चय ही जब हम कहते हैं कि चीजें उसमें चली जाती हैं जिसमें से आयी थीं तो हम अपनी कालिक चेतना की भाषा का प्रयोग करते हैं और हमें अपने-आपको उसके भ्रमों से बचाना चाहिये । अक्षर में से गति का उभरना शाश्वत तथ्य है और केवल इसी कारण कि हम उसकी अवधारणा उस अनादि, अनंत, चिर-नवीन क्षण में नहीं कर पाते जो 'कालातीत' की शाश्वतता है इसलिये हमारी अवधारणाओं और धारणाओं को बाधित होकर उसे क्रमानुसार चलनेवाले प्रवाह की एक कालगत शाश्वतता में रखना पड़ता है जिसके साथ बार-बार दोहराये जानेवाले आदि, मध्य और अंत के भाव सदा लगे रहते हैं ।
लेकिन कहा जा सकता है कि यह सब तभीतक सच है जबतक हम शुद्ध बुद्धि की अवधारणाओं को स्वीकारते और उनके आधीन रहते हैं । लेकिन बुद्धि की अवधारणाओं में बाधित करनेवाली शक्ति नहीं होती । हमें सत् या सत्ता का निर्णय अपनी मानसिक अवधारणा द्वारा नहीं बल्कि जो अस्तित्ववान् दीखता है उससे करना चाहिये । और सत् में जैसा कि वह है अधिक-से-अधिक शुद्ध और मुक्त अंतर्दृष्टि का रूप भी हमें गति के सिवा कुछ और नहीं दिखलाता । केवल दो चीजों का अस्तित्व है : 'देश' में गति, 'काल' में गति, पहला वस्तुनिष्ठ है और दूसरा आत्मनिष्ठ । विस्तार वास्तविक है, काल-प्रवाह वास्तविक है, देश और काल वास्तविक हैं । अगर हम 'देश' में विस्तार के पीछे जा सकें और उसे एक मनोवैज्ञानिक व्यापार के रूप में देखें, इस रूप में देखें कि यह अविभाज्य समग्र को धारणात्मक 'देश' में विभाजित कर सत्ता को व्यवहार्य बनाने के लिये मन का प्रयत्न है तो भी हम काल में होनेवाले अनुक्रम और परिवर्तन की गति के पीछे नहीं जा सकते क्योंकि यह तो हमारी चेतना का उपादान ही है । हम और जगत् दोनों ही एक ऐसी गति हैं जो लगातार प्रगति करती जा रही है और वर्तमान में भूतकाल के सभी अनुक्रमों को अपने अंदर लेती हुई बढ़ती जा रही है । और वर्तमान हमारे
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आगे भविष्य के सभी अनुक्रमों के आरंभ के रूप में आता है -एक ऐसा आरंभ, एक ऐसा वर्तमान जो हमेशा हमारी पकड़ से निकल जाता है क्योंकि वह है ही नहीं, क्योंकि वह तो जन्म लेने से पहले ही मर जाता है । जो कुछ है वह 'काल' का एक शाश्वत, अविभाज्य अनुक्रम है जो चेतना की प्रगतिशील गति को अपनी धारा में लिये जा रहा है । वह चेतना की गति भी अविभाज्य है । तो कालावधि, काल में शाश्वत रूप के आनुक्रमिक गति और परिवर्तन, यही एकमात्र निरपेक्ष है । संभूति ही एकमात्र सत् है ।१
वास्तव में सत्ता में पैठनेवाली यथार्थ अंतर्दृष्टि और शुद्ध बुद्धि की अवधारणाओं के बीच का वह विरोध मिथ्या है । यदि इस विषय में अंतर्भास का बुद्धि से सचमुच विरोध होता तो हम आधारभूत अंतर्दृष्टि के विरोध में केवल अवधारणात्मक तर्कबुद्धि का समर्थन विश्वास के साथ न कर पाते । परंतु अंतर्भासात्मक अनुभूति से समर्थन की यह मांग अपूर्ण है । यह अनुभूति वहींतक प्रामाणिक है जहांतक वह जा पाती है लेकिन वह संपूर्ण अनुभूतितक पहुंचने से पहले ही रुक जाने की भूल करती है । जहांतक अंतर्भास अपने-आपको केवल उसीपर दृढ़ रखता है जो हम बनते जाते हैं, हम अपने-आपको काल के सतत अनुक्रम में चेतना में होनेवाली गति और परिवर्तन की अविच्छिन्न धारा के रूप में देखते हैं । बौद्ध मत के रूपक के अनुसार हम एक नदी हैं, एक ज्वाला हैं । लेकिन एक परम अनुभूति है, एक परम अतर्भास है जिससे हम अपने सतही स्व के पीछे जाते हैं और देखते हैं कि यह संभूति, परिवर्तन, अनुक्रम केवल हमारी सत्ता का एक प्रकार मात्र है और हमारे भीतर वह चीज है जो संभवन में जरा भी नहीं फंसती । हम केवल इसका अंतर्भास ही नहीं पा सकते जो हमारे अंदर स्थिर और शाश्वत है, हम इन सतत पलायमान संभूतियों के पर्दे के पीछे इस अनुभूति की एक झांकी ही नहीं पा सकते बल्कि हम उसके अंदर लौटकर पूरी तरह उसीमें जी सकते हैं और इस तरह अपने बाहरी जीवन में, अपनी मनोवृत्ति में और जगत् की गति पर अपनी क्रिया में पूर्ण परिवर्तन भी ला सकते हैं । और यह स्थायित्व जिसमें हम इस प्रकार रह सकते हैं ठीक वही है जो शुद्ध बुद्धि हमें पहले ही दे चुकी है यद्यपि वहां तर्कबुद्धि के बिना ही, पहले से यह जाने बिना ही कि वह क्या है, पहुंचा जा सकता है --वह शुद्ध सत् है, शाश्वत, अनंत, अनिर्वचनीय, काल के
१ गति की समग्रता में अविभाज्य । 'काल ' या 'चेतना' के प्रत्येक क्षण को अपने पहले के और अपने बाद आनेवाले क्षण से पृथक् माना जा सकता है । ऊर्जा की प्रत्येक आनुक्रमिक क्रिया एक नवीन परिमाण या नयी सृष्टि मानी जा सकती है लेकिन इससे उस अविच्छिन्नता का खंडन नहीं होगा जिसके बिना काल का प्रवाह या चेतना की संबद्धता संभव नहीं है । आदमी जब चलता या दौड़ता या छलांगें मारता है तो उसके कदम अलग-अलग पड़ते हैं लेकिन कोई ऐसी चीज होती है जो कदम उठाती और गति को अविच्छिन्न बनाती है ।
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अनुक्रम से अछूता, देश के विस्तार से अलग-थलग, रूप, गुण, परिमाण के परे है -केवल और निरपेक्ष आत्मा है ।
तो शुद्ध सत् केवल अवधारणा नहीं, एक तथ्य है, वह मूलभूत सद्वस्तु है । लेकिन इसके साथ-ही-साथ हमें तुरंत यह भी कह देना चाहिये कि गति, ऊर्जा और संभवन भी एक तथ्य, एक सद्वस्तु हैं । परम अंतर्भास और उसके साथ मेल खाती हुई अनुभूति दूसरे को ठीक कर सकती है, उसके परे जा सकती है, उसे स्थगित कर सकती है पर उसका उन्मूलन नहीं कर सकती; अतः हमारे आगे दो मूलभूत तथ्य हैं, शुद्ध सत् और जगत्-सत्ता, सत् का तथ्य और संभवन का तथ्य । एक या दूसरे को अस्वीकार करना आसान है, चेतना के तथ्यों को पहचानना और उनके संबंध का पता लगाना सच्ची और सफल प्रज्ञा है ।
हमें याद रखना चाहिये कि स्थायित्व और गति भी एकत्व और बहुत्व की तरह निरपेक्ष के केवल हमारे अपने मनोमय प्रतिरूप हैं । निरपेक्ष स्थिरता और गति के परे है जैसे कि वह ऐक्य और बहुलता के परे है । लेकिन वह एक और स्थिर में अपना शाश्वत विश्राम लेता है और गति और बहुत्व में अचिन्त्य, अनंत और निरापद रूप से अपने चारों ओर चक्कर लगाता है । जगत्-सत्ता शिव का आनंद नृत्य है जो भगवान् के रूप को दृष्टि के आगे अनंतत: बहुरूप में प्रस्तुत करता है । वह उस श्वेत सत्ता को ठीक वहीं और वैसा ही छोड़ देता है जैसी वह थी, सदा रहती है और सदा रहेगी, उसका एकमात्र परम उद्देश्य है नृत्य का आनंद ।
लेकिन चूंकि हम स्थायित्व और गति से परे, एकत्व और बहुत्व से परे रहनेवाले निरपेक्ष का न तो वर्णन कर सकते हैं और न उसके बारे में सोच ही सकते हैं --ना ही यह हमारा विषय ही है --अतः हमें इस दोहरे तथ्य को स्वीकारना होगा, शिव और काली दोनों को मान्यता देनी होगी और यह जानने का प्रयास करना होगा कि शुद्ध 'सत्ता' जो कालातीत और देशातीत है, जो एक और अविचल है, जिसे न प्रमेय कहा जा सकता है न अप्रमेय, उसके संबंध में यह काल और देशगत अप्रमेय 'गति' क्या है । हम देख चुके हैं कि शुद्ध 'सत्ता' के, 'सत्' के विषय में शुद्ध-बुद्धि, अंतर्भास और अनुभूति का क्या कहना है । अब देखना यह है कि शक्ति और गति के बारे में उनकी क्या राय है ।
अब जो पहला प्रश्न हमें अपने-आपसे पूछना है वह यह है कि क्या यह शक्ति बस शक्ति ही है, गति की केवल एक बुद्धिहीन ऊर्जा है या क्या चेतना, जो हमारे वासस्थान इस भौतिक जगत् में उस शक्ति में से उभरती मालूम होती है, वह उस शक्ति के दृश्य परिणामों में से एक परिणाम न होकर कहीं अधिक उसका सच्चा और गुप्त स्वभाव है ? वेदांत की भाषा में क्या शक्ति केवल प्रकृति है, केवल कर्म और प्रक्रिया की गति है या प्रकृति वास्तव में चित् की शक्ति है, अपने स्वभाव से सृजनात्मिका आत्म-चेतना की शक्ति है ? इस मूलभूत समस्या पर ही सब कुछ निर्भर है ।
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