दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ९

 

स्मृति, अहं और आत्मानुभव

 

 अत्रैष देवः स्वप्ने महिमानमनुभवति । प्रत्यनुभूतं पुन: पुन:

प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चानुभूतं च

सच्चासच्च सर्वं पश्यति सर्व: पश्यति ।

 

यहां यह देवता, यह मन स्वप्न में बार-बार उसका अनुभव करता है

जिसका एक बार अनुभव किया जा चुका है, जो देखा जा चुका है

और जो नहीं देखा गया, जो सुना जा चुका है और जो नहीं सुना

गया, जो अनुभव किया जा चुका है और जिसका अनुभव नहीं

किया गया, जो है और जो नहीं है, वह सब कुछ देखता है, वह

सब कुछ है और देखता है ।

प्रश्नोपनिषद् ४.५

 

स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तदभ्रंशोऽहंत्ववेदनम् ।।

 

अपनी सच्ची सत्ता में निवास करना मुक्ति हैं, अहंकार का भाव

अपनी सत्ता के सत्य से पतन है ।

महोपनिषद् ५.२

 

एक: समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद हृदो भूरिजन्मा वि चषे ।।

अनेक जन्मों में एक, अनेक गतिधाराओ को धारण करनेवाला एक

समुद्र, हमारे हृदयों को देखता है ।

ॠवेद १०.५.१

 

    मानसिक सत्ता की प्रत्यक्ष आत्म-चेतना, जिसके द्वारा वह अपने नामहीन, रूपहीन अस्तित्व के बारे में अभिज्ञ होती है जो भेदयुक्त आत्मानुभव के प्रवाह के पीछे, अपने शाश्वत आंतरात्मिक पदार्थ के मानसिक रूपायणों के पीछे उस पदार्थ की, अहं के पीछे आत्मा की अभिज्ञता होती है, वह मानसिकता के पीछे शाश्वत वर्तमान की कालातीतता की ओर जाती है । उसमें, मनोमय पुरुष में यह चेतना ही वह है जो नित्य एक-समान है, भूत, वर्तमान तथा भविष्य के मानसिक भेदों से अप्रभावित है । वह देश या परिस्थितियों के भेदों से भी अप्रभावित है क्योंकि मानसिक सत्ता सामान्यत: अपने बारे में कहती है, ''मैं शरीर में हूं, मैं यहां हूं, मैं वहां हूं: मैं और कहीं होऊंगी ' फिर जब वह अपने-आपको इस प्रत्यक्ष आत्म-चेतना में निश्चित रूप से प्रतिष्ठित करना सीख लेती है तो बहुत जल्दी यह देख पाती है कि यह तो उस बदलते हुए आत्मानुभव की भाषा है जो केवल उसकी

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सतही चेतना का संबंध वातावरण और बाहरी जगत् के साथ व्यक्त करती है । इन सबका भेद करते हुए अपने-आपको इनसे अलग करते हुए वह देखती है कि वह जिस आत्मा के बारे में प्रत्यक्ष रूप से सचेतन है वह इन बाहरी परिवर्तनों के कारण किसी तरह नहीं बदलती, वह हमेशा वही बनी रहती है, शरीर के परिवर्तन या मन या जिस क्षेत्र में ये चीजें हिलती-डुलती और कार्य करती हैं उनके परिवर्तन का इसपर कोई असर नहीं होता । वह अपने सारतत्त्व में लक्षण-रीहत, संबंध-रहित है । उसमें इसके सिवाय कोई और गुण नहीं है कि वह शुद्ध सचेतन, आत्म-संतुष्ट सत् शुद्ध सत्ता में शाश्वत रूप से संतुष्ट और आत्मानंदमय है । इस तरह हम स्थायी आत्मा के, शाश्वत  'अस्मि' के बल्कि अक्षर 'अस्ति' के बारे में अभिज्ञ हो जाते हैं जो व्यक्तित्व या काल की सभी श्रेणियों से अतीत है ।

 

    लेकिन आत्मा की यह चेतना कालातीत है, उसी तरह वह यह देखने में भी समर्थ है कि काल एक ऐसी चीज है जो उसमें प्रतिबिंबित होती है और जो परिवर्तनशील अनुभव का कारण या आत्मनिष्ठ क्षेत्र है । तब वह शाश्वत 'अस्मि' होती है --वह अपरिवर्तनशील चेतना है जिसकी सतह पर सचेतन अनुभव के परिवर्तन काल की प्रक्रिया में घटित होते हैं । सतही चेतना सदा अपने अनुभव में वृद्धि करती रहती है या अपने अनुभव में से कुछ अस्वीकार करती रहती है और प्रत्येक वृद्धि से उसमें हेर-फेर होता है और हर अस्वीकृति से भी उसमें हेर-फेर आता है । यद्यपि वह अधिक गहरी आत्मा जो इस परिवर्तन को सहारा देती और धारण करती है वह हमेशा अपरिवर्तित रहती है, बाहरी या सतही जीव अपने अनुभवों को हमेशा विकसित करता रहता है । वह अपने बारे में पूरी तरह यह कभी नहीं कह सकता, ''मैं वही हूं जो क्षण भर पहले था ।''  जो इस सतही कालात्मा में रहते हैं और जिन्हें अपरिवर्तनशील की ओर अंतर में वापिस पैठने की आदत नहीं है या जो उसमें निवास करने में समर्थ नहीं हैं वे अपने बारे में इस सदा आत्म-परिवर्तनशील मानसिक अनुभव से भिन्न किसी रूप में सोचने में भी असमर्थ रहते हैं । उनके लिये यही उनकी अपनी आत्मा है और अगर वे घटनाओं को अनासक्ति के साथ देखें तो उनके लिये बौद्ध शून्यवादियों के इस निष्कर्ष के साथ सहमत होना सरल होता है कि यह आत्मा वस्तुत: एक भाव, अनुभव और मानसिक क्रिया की धारा से बढ़कर कुछ नहीं है, यह एक सतत ज्वाला है जो कभी वह की वही नहीं होती और यह निश्चय करना आसान होता है कि वास्तविक आत्मा के जैसी कोई चीज नहीं होती, केवल अनुभव की धारा होती हैं और उसके पीछे होता है शून्य । ज्ञान का अनुभव तो होता है पर कोई ज्ञाता नहीं होता, सत्ता का अनुभव तो होता है पर कोई सत् नहीं होता । केवल कुछ तत्त्व होते हैं जो एक प्रवाह का भाग हैं लेकिन किसी वास्तविक समग्र के बिना । ये सब मिलकर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भ्रम पैदा करते हैं, सत्, सत्ता और सत्ता के अनुभव का भ्रम

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पैदा करते हैं । अथवा वे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि काल ही एकमात्र वास्तविक अस्तित्व है और वे स्वयं उसके जीव हैं । एक वास्तविक या अवास्तविक जगत् में एक भ्रामक सत् के होने का निष्कर्ष इस तरह के प्रत्याहार के लिये उतना ही जरूरी होता है जितना कि यह विपरीत निष्कर्ष कि एक वास्तविक अस्तित्व और भ्रामक जगत् के होने का निष्कर्ष उस विचारक के लिये होता है जो अचल आत्मा में रहता हुआ अन्य सभी चीजों को परिवर्तनशील अनात्मा मानता है । अंततः वह निश्चल आत्मा के सिवा उस अनात्मा को चेतना की छलनामयी चालाकी का परिणाम मानने लगता है ।

 

    अब हम मत बनाये बिना इस सतही चेतना पर जरा नजर डालें और केवल उसके तथ्यों का अध्ययन करें । पहले हम उसे शुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ व्यापार के रूप में देखते हैं । यहां काल-बिंदु का सतत तेजी के साथ स्थान बदलता रहता है जिसे क्षण भर के लिये रोकना भी असंभव है । जब देश-परिस्थिति नहीं बदलती तब भी सतत परिवर्तन होता रहता है । यह परिवर्तन दोनों में, अपने शरीर या रूप में, जिसमें चेतना प्रत्यक्ष रूप से निवास करती है और वस्तुओं के आस-पास के शरीर या रूपों में होता है जिसमें वह कम प्रत्यक्ष रूप से निवास करती है । वह दोनों से समान रूप से प्रभावित होती है, यद्यपि प्रत्यक्ष होने के कारण विशाल आवास की अपेक्षा छोटे आवास से अधिक स्पष्ट रूप में, जगत् के शरीर की अपेक्षा अपने शरीर से अधिक प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने शरीर में होनेवाले परिवर्तनों के बारे में ही प्रत्यक्ष रूप से चेतन है और जगत् के शरीर के बारे में वह इन्द्रियों द्वारा और अणुविश्व पर पड़नेवाले ब्रह्मांड के प्रभाव द्वारा परोक्ष रूप से सचेतन है । शरीर और उसके परिसर का यह परिवर्तन इतने आग्रह के साथ स्पष्ट या उतनी स्पष्टता के साथ तेज नहीं होता जितना काल-परिवर्तन तेज होता है फिर भी वह समान रूप से क्षण-क्षण वास्तविक होता है और उसे रोकना भी उतना ही असंभव होता है । लेकिन हम देखते हैं कि मानसिक सत्ता इस सारे परिवर्तन को उसी हदतक देखती है जहांतक वह उसकी अपनी मानसिक चेतना पर असर डालती है, उसके मानसिक अनुभव और मानसिक शरीर पर छाप डालती और परिवर्तन पैदा करती है क्योंकि वह केवल मन के द्वारा ही अपने परिवर्तनशील भौतिक आवास और परिवर्तनशील जगत्-अनुभव के बारे में अभिज्ञ हो सकतीं है । अतः काल-बिंदु और देश-क्षेत्र में भी परिवर्तन या स्थानान्तरण के साथ-साथ काल और देश में अनुभव की गयी परिस्थितियों के समुच्चय में लगातार हेर-फेर करनेवाला परिवर्तन होता रहता है और परिणाम-स्वरूप इस मानसिक व्यक्तित्व में भी, जो हमारी सतही या प्रतीयमान आत्मा का रूप है, सतत हेर-फेर होता रहता है । इस सारे परिवर्तन को दार्शनिक भाषा में संक्षेप में कारण-कार्य संबंध कहा जाता है क्योंकि वैश्व गति की इस धारा में पूर्ववतीं अवस्था बाद में आनेवाली अवस्था का कारण मालूम होती है या फिर यह पीछे की अवस्था लोगों के,

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वस्तुओ या शक्तियों के पहले कर्मों का परिणाम मालूम होती है । यद्यपि वस्तुत: जिसे हम कारण कहते हैं, हो सकता है कि वह केवल परिस्थिति ही हो । इस भांति मन की अपनी प्रत्यक्ष आत्म-चेतना के अतिरिक्त एक न्यूनाधिक परोक्ष परिवर्तनशील आत्मानुभव भी होता है । इसे वह दो हिस्सों में बांटता है, एक अपने व्यक्तित्व की सदा परिवर्तित मानसिक अवस्थाओं का आत्मनिष्ठ अनुभव और दूसरा सदा परिवर्तनशील परिसर का वस्तुनिष्ठ अनुभव जो एक अंश में या पूरी तरह उस व्यक्तित्व की क्रियाओं का कारण मालूम होता है पर साथ ही उससे प्रभावित भी होता है । लेकिन अपनी तह में यह सारा अनुभव आत्मनिष्ठ होता है क्योंकि वस्तुनिष्ठ और बाह्य को भी मन आत्मनिष्ठ संस्कार के रूप में ही जानता है ।

 

    यहां स्मृति की भूमिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है क्योंकि जब कि वह मन की प्रत्यक्ष आत्म-चेतना के बारे में बस इतना ही कर सकती है कि उसे याद दिलाये कि वह भूतकाल में भी थी और ऐसी ही थी जैसी वर्तमान में है, वह हमारे विभक्त या सतही आत्मानुभव में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति बन जाती है जो सतही मन में भूत और वर्तमान अनुभवों, भूत और वर्तमान व्यक्तित्व को जोड़ती है, अव्यवस्था और विच्छिन्नता को रोकती है और प्रवाह के सातत्य का आश्वासन देती है । फिर भी हमें स्मृति के कार्य की अतिरंजना न करनी चाहिये और न ही हमें चेतना के उस भाग को आरोपित करना चाहिये जो वास्तव में मानसिक सत्ता के अन्य शक्ति-पक्षों की क्रियाशीलता का है । अकेली स्मृति ही अहं-भाव का निर्माण नहीं करती । स्मृति तो इन्द्रिय मन और सहयोजिका बुद्धि के बीच केवल एक मध्यस्थ है । वह बुद्धि को अनुभव की भूतकाल की सामग्री देती है जिसे मन अपने भीतर कहीं धारण किये रहता है लेकिन बाहरी सतह पर अपनी दौड़ में क्षण- क्षण लादे नहीं चल सकता ।

 

    जरा-सा विश्लेषण इसे स्पष्ट कर देगा । मानसिकता की सभी क्रियाओं में चार तत्त्व होते हैं : मानसिक चेतना का विषय, मानसिक चेतना की क्रिया, निमित्त और विषयी । आत्मावलोकन करनेवाली आःतरिक सत्ता के आत्मानुभव में विषय सदा सचेतन सत्ता की कोई स्थिति, गति या लहर होता है । क्रोध, दुःख या अन्य आवेग, भूख या अन्य प्राणिक लालसा, वेग या आंतरिक जीवन-प्रतिक्रिया या किसी प्रकार के संवेदन, प्रत्यक्ष दर्शन या विचार-क्रिया का कोई रूप होता है । मानसिक चेतना की क्रिया इस गति या तरंग का किसी प्रकार का मानसिक अवलोकन या धारणात्मक मूल्यांकन या फिर उसका मानसिक संवेदन है जिसमें अवलोकन और मूल्यांकन अंतर्ग्रस्त हों या खो गये हों -इस क्रिया में मनोमय पुरुष या तो क्रिया और विषय को भेद करनेवाले प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा अलग-अलग कर देता है या उनका इस तरह घाल-मेल कर सकता है कि उन्हें अलग-अलग पहचाना भी न जा सके । कहने का मतलब यह कि वह अपने-आप बस गति बन

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जाये, यूं कह लें क्रुद्ध चेतना की गति बन जाये, उस क्रिया से जस भी पीछे हटकर खड़ा न रहे, अपने-आप पर मनन या अपना अवलोकन न करे, भावना या उसके साथ आनेवाली क्रिया पर नियंत्रण न करे, या हो सकता है कि मन में यह दृष्टि या बोध रखते हुए कि ''मैं क्रुद्ध हूं"   वह इस बात का अवलोकन करे कि वह क्या हो गया है और इस पर चिंतन करे । पहली अवस्था में विषयी या मानसिक पुरुष, सचेतन आत्मानुभव की क्रिया और मन का तात्त्विक रूप से क्रुद्ध होना -जो आत्मानुभव का विषय है -ये सब गति में परिणत सचेतन-शक्ति की लहर में धुल-मिल कर एक हों जाते हैं । लेकिन दूसरी अवस्था में उसके घटकों का तेजी से विशेष विश्लेषण होता है और आत्मानुभव की क्रिया अपने-आपको आंशिक रूप से विषय से अलग कर लेती है । इस तरह इस आंशिक तटस्थता की क्रिया द्वारा हम अपने-आपको संभूति में, स्वयं चित् शक्ति के स्पंदन की प्रक्रिया में, क्रियात्मक रूप से अनुभव करने में ही नहीं बल्कि पीछे हटने, अपने-आपको देखने और अपना अवलोकन करने और अगर तटस्थता पर्याप्त हो तो अपनी भावना और अपने कर्म को नियंत्रित करने, अपनी संभूति को कुछ हदतक नियंत्रित करने में भी समर्थ होते हैं ।

 

    फिर भी सामान्यत: इस आत्मावलोकन की क्रिया में भी एक त्रुटि रहती है क्योंकि वस्तुत: क्रिया की विषय के साथ आंशिक तटस्थता रहती है लेकिन मनोमय पुरुष की मानसिक क्रिया से नहीं । मनोमय पुरुष और मानसिक क्रिया एक-दूसरे में अंतर्ग्रस्त या घुले-मिले रहते हैं; न ही मनोमय पुरुष का भावावेगमय संभवन से काफी अलगाव और पार्थक्य होता है । मैं अपने-आपके बारे में अपनी सत्ता के सचेतन पदार्थ के क्रुद्ध संभवन और इस संभवन के विचार-प्रत्यक्षण के बारे में अभिज्ञ होता हूं लेकिन समस्त विचार-प्रत्यक्षण भी संभवन है, मेरा स्वरूप नहीं, लेकिन इसे मैं अभीतक पर्याप्त रूप से अनुभव नहीं करता । मैं अपनी मानसिक क्रियाओं के साथ एक हूं या उनमें अंतर्ग्रस्त हूं स्वतंत्र या पृथक् नहीं हूं । मैं अभीतक प्रत्यक्ष रूप में अपने संभवनों और उनके बोर में अपने प्रत्यक्ष दर्शन से अलग अभिज्ञ नहीं हूं सक्रिय चेतना के रूपों से अलग जिन्हें मैं चित्-शक्ति के सागर की लहरों में धारण करता हूं जो मेरी मानसिक और प्राणिक प्रकृति का उपादान हैं उनसे अलग अभिज्ञ नहीं हूं । जब मैं मनोमय पुरुष को पूरी तरह उसकी आत्मानुभूति की क्रिया से अलग कर लेता हूं तब मैं पहले शुद्ध रूप से अहंकार और अंत में साक्षी पुरुष या विचारशील मनोमय पुरुष से अभिज्ञ होता हूं जो ऐसा व्यक्ति या ऐसी चीज है जो क्रुद्ध होता है और उसका अवलोकन करता है लेकिन वह अपनी सत्ता में क्रोध या उसके प्रत्यक्ष दर्शन से सीमित या निर्धारित नहीं होता । इसके विपरीत वह एक नित्य तत्त्व है जो चेतन गतिधाराओं और यतियों के सचेतन अनुभव के सीमारहित अनुक्रम से अभिज्ञ है और उस अनुक्रम के बीच अपनी

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निजी सत्ता से भी अभिज्ञ है । लेकिन यह अभिज्ञता भी हो सकती है कि वह उस अनुक्रम के पीछे है और उसका सहारा, उसका आधान है और सत्ता की स्थिति और उसकी शक्ति में अपनी चित्-शक्ति के बदलते रूपों या आयोजनों के परे सदा एकसम है । इस तरह यह वह आत्मा है जो अक्षर है और साथ ही वह आत्मा भी जो काल के अनुक्रम में शाश्वत रूप से संभूत होता है ।

 

    यह स्पष्ट है कि वास्तव में दो आत्माएं नहीं हैं बल्कि एक सचेतन सत्ता है जो अपने-आपको सचेतन शक्ति की लहरों में उछालती रहती है ताकि वह अपनी बदलती हुई गतियों के अनुक्रम में अपना अनुभव कर सके । लेकिन इससे वह सचमुच बदलती, बढ़ती या घटती नहीं -वैसे ही जैसे भौतिक जगत् में जड़-तत्त्व के मौलिक पदार्थ या ऊर्जा में तत्त्वों के निरंतर बदलते हुए संयोजनों के कारण वृद्धि या ह्रास नहीं होता । यद्यपि, जबतक अनुभव करनेवाली चेतना केवल बाहरी प्रपंच के ज्ञान में रहती है और मौलिक सत्ता, पदार्थ या शक्ति के ज्ञानतक वापिस नहीं जाती तबतक वह उसे बदलती हुई मालूम होती है । जब वह उस गहरे ज्ञान में वापिस जाती है तो वह अवलोकित प्रपंच की अवास्तविक कहकर निंदा नहीं करती बल्कि वह एक अक्षर सत्ता, ऊर्जा या वास्तविक पदार्थ को देखती है जो आभासी नहीं है, अपने-आपमें इन्द्रियों के आधीन नहीं है । साथ ही वह उस सत्ता, ऊर्जा या पदार्थ के संभवन या वास्तविक नाम-रूप को देखती है । हम इस संभवन को आभास या प्रपंच कहते हैं क्योंकि वस्तुत:, इस समय हमारे साथ चीजों की जो परिस्थिति है उसमें वह अपने-आपको चेतना के आगे ऐन्द्रिय दर्शन की स्थिति में और ऐन्द्रिय संबंध में अभिव्यक्त करता है, उस चेतना के आगे प्रत्यक्ष रूप में नहीं जो शुद्ध, अप्रतिबंध, सर्वालिंगनकारी, पूरी तरह सर्वधारक ज्ञान है । यही बात आत्मा के लिये है -हमारी प्रत्यक्ष आत्मचेतना के आगे वह है और अक्षर है; लेकिन मानसिक बोध और मानसिक अनुभव के आगे वह विभिन्न संभूतियों में क्षर रूप में अभिव्यक्त होती है । अत: आज हमारी जैसी स्थिति है, वह चेतना के शुद्ध अनुपाधिक ज्ञान के आगे प्रत्यक्ष रूप में नहीं बल्कि हमारी मानसिकता की अवस्थाओं के अधीन अभिव्यक्त होती है ।

 

    अनुभवों का यह अनुक्रम और हमारी मानसिकता की परिस्थिति में अनुभव करनेवाली चेतना की परोक्ष या गौण क्रिया का यह तथ्य ही स्मृतिरूपी साधन को लाते हैं । क्योंकि हमारी ' मानसिकता की पहली शर्त है काल के क्षणों द्वारा विभाजन । उसमें काल के क्षणों द्वारा आत्म-विभाजन की परिस्थिति को छोड़कर किसी और स्थिति में अपने अनुभव पाने या उन अनुभवों को एक साथ पकड़े रखने की अक्षमता है । संभूति की लहर के, सत्ता की सचेतन गति के तात्कालिक मानसिक अनुभव के लिये स्मृति की कोई क्रिया या आवश्यकता नहीं होती -मैं गुस्से हो गया हूं -यह संवेदन की क्रिया है स्मृति की नहीं, मैं देखता हूं कि मैं क्रुद्ध

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 हूं -यह प्रत्यक्ष दर्शन की क्रिया है, स्मृति की नहीं । स्मृति का प्रवेश तभी होता है जब मैं अपना अनुभव काल के अनुक्रम में सुनाना शुरू करता हूं जब मैं अपने संभवन को भूत, भविष्य और वर्तमान में बांटता हूं जब मैं कहता हूं ''मैं एक क्षण पहले नाराज था'' या ''मैं गुस्से हो गया हूं और अभीतक गुस्से में हूं'' या ''मैं एक समय गुस्से में था और अगर फिर से वही अवसर आये तो फिर से गुस्से हो जाऊंग''  । निश्चय ही स्मृति संभवन में सीधी और तत्काल आ सकतीं हैं अगर चेतना की गति का अवसर पूरी तरह या आंशिक रूप से भूतकाल की चीज हो -उदाहरण के लिये गुस्से या दुःख जैसे भाव पिछले अन्याय या कष्ट की स्मृति के कारण दुबारा आ जायें, वर्तमान में किसी तात्कालिक अवसर के कारण नहीं या किसी ऐसे तात्कालिक अवसर के कारण आ जायें जो किसी पिछले अवसर की स्मृति जगाता हो । क्योंकि हम भूत को अपनी चेतना की ऊपरी सतह पर नहीं रख सकते यद्यपि वह हमेशा पीछे, भीतर, अंतर्लीन अवस्था में उपस्थित रहता है और बहुधा सक्रिय भी, अतः हमें उसे फिर से इस तरह प्राप्त करना होता है जैसे कोई चीज खो गयी हो या जिसका अस्तित्व न रहा हो । और यह हम विचार-मन की दोहरानेवाली और जोड़नेवाली क्रिया के द्वारा करते हैं जिसे हम स्मृति कहते हैं -ठीक उसी तरह जैसे हम उन चीजों को, जो हमारे सीमित ऊपरी मन-अनुभव की पहुंच में नहीं हैं, विचार-मन की उस क्रिया द्वारा बुलाते हैं जिसे हम कल्पना कहते हैं -जो हमारे अंदर ज्यादा बड़ी शक्ति है और समस्त संभावनाओं को, चाहे वे चरितार्थ की जा सकती हों या न की जा सकती हों, -उन सबका अपने अज्ञान के क्षेत्र में आह्वान करनेवाली है ।

 

    काल के अनुक्रम में भी स्थायी या अविच्छिन्न अनुभव का सार स्मृति नहीं है और अगर हमारी चेतना एक अविभक्त गतिवाली होती, अगर उसे क्षण- क्षण पर इस तरह न दौड़ना पड़ता कि पिछला तो सीधी पकड़ से छूट जाये और अगला पूरी तरह अज्ञात या अनुपलब्ध रहे, तो स्मृति की आवश्यकता ही नहीं रहती । काल में संभवन समस्त अनुभव या पदार्थ की धारा का प्रवाह है या समुद्र है जो अपने- आपमें विभक्त नहीं है लेकिन देखनेवाली चेतना में अज्ञान की सीमित गति के कारण विभक्त है । इस चेतना को क्षण- क्षण ऐसे उछल-कूद करनी होती है जैसे व्याध्र-पतंग जल-धारा की सतह पर तेजी से झपटता फिरता है । इसी तरह देश में सत्ता का समस्त पदार्थ एक प्रवाहमान समुद्र है जो अपने-आपमें विभक्त नहीं है परंतु देखनेवाली चेतना में विभक्त है क्योंकि हमारी ऐन्द्रिय क्षमता अपनी पकड़ में सीमित है, केवल एक अंश को देख सकती है इसलिये पदार्थ के रूपों को इस तरह देखने के लिये बाधित है मानों वे अपने-आपमें अलग-अलग चीजें हों और उस एक पदार्थ से स्वतंत्र हों । वस्तुत: काल और देश में चीजों की एक व्यवस्था है परंतु हमारे अज्ञान को छोड़कर कहीं कोई दसर या विभाजन नहीं है । मन के अज्ञान

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 द्वारा बनायी गयी दरारों को पाटने और विभाजनों को जोड़ने के लिये हम मानसिक चेतना के विभिन्न साधनों की सहायता लेते हैं । स्मृति उनमें से केवल एक है ।

 

    तब फिर मेरे अंदर जगत्-सागर की यह बहती धारा है और क्रोध या दुःख या कोई और आंतरिक गति उसमें अविच्छिन्न धारा के अंदर लंबी तरंग है । यह तारतम्य स्मृति की शक्ति से निर्मित नहीं होता यद्यपि स्मृति उस लहर को लंबा करने में या दोहराने में सहायता दे सकती है जब कि वह अपने-आप धारा में मिलकर विलीन हो गयी होती । लहर केवल उठती है और मेरी सत्ता की सचेतन शक्ति की गति के रूप में विक्षोभ के पहले आवेग द्वारा आगे ले जायी जाती है । स्मृति उस विक्षोभ को लंबा खींचती है, विचारशील मन में क्रोध के अवसर को दोहराकर या भावमय मन में क्रोध के पहले आवेश को लाकर विक्षोभ के दोहराने को उचित ठहराती है । अन्यथा वह उद्विग्रता अपने-आपको खतम कर डालेगी और फिर तभी आयेगी जब अवसर तथ्यत: फिर से आये । लहर का स्वाभाविक पुनरावर्तन, उसी या उस जैसे अवसर के कारण उसी विक्षोभ का पैदा होना, उसी तरह स्मृति का परिणाम नहीं है जैसे उसका एकाकी रूप में घटना स्मृति का परिणाम नहीं है, यद्यपि स्मृति उसे मजबूत बनाने में और मन को उसके और अधिक आधीन बनाने में सहायक हो सकतीं है । बल्कि हम भौतिक जगत् की ऊर्जा और द्रव्य की कम परिवर्तनशील प्रक्रियाओं में उस कारण और प्रभाव की पुनरावृत्ति के जिस संबंध को यांत्रिक रूप से उपस्थित होते हुए पाते हैं, वही संबंध मन की अधिक तरल ऊर्जा और परिवर्तनशील उपादान में पुनरावृत्त प्रसंग और पुनरावृत्त परिणाम तथा गति में है । हम चाहें तो कह सकते हैं कि प्रकृति की समस्त ऊर्जा में एक अवचेतन स्मृति है जो ऊर्जा और परिणाम के उसी संबंध को बिना किसी हेर-फेर के दोहराती रहती है । लेकिन तब हम इस शब्द के अर्थ को असीम रूप से विस्तृत करते हैं । वास्तव में हम केवल चित्-शक्ति की लहरों की क्रिया में पुनरावर्तन का नियम बता सकते हैं जिसके द्वारा वह स्वयं अपने पदार्थ की इन गतियों को नियमित करती है । ठीक तरह से कहा जाये तो स्मृति केवल एक साधन है जिसके द्वारा साक्षी मन इन गतिविधियों, उनकी घटना और पुनरावृत्ति को कालानुभव के लिये कालानुक्रम में जोड़ता है ताकि अधिकाधिक सहयोजनकारी इच्छा के उपयोग और अधिकाधिक सहयोजनकारी बुद्धि द्वारा सतत विकसित होनेवाले मूल्यांकन के लिये उसका उपयोग हो सके । स्मृति उस प्रक्रिया के लिये एक महान् अनिवार्य तत्व है -परंतु एकमात्र नहीं -जिससे निश्चेतना, जहां से हम प्रारंभ करते हैं पूर्ण चेतना विकसित करती है और जिसके द्वारा मानसिक सत्तो का अज्ञान अपनी संभूतियों में अपना सचेतन ज्ञान विकसित करता है । यह विकास तबतक चलता रहता है जबतक ताल-मेल बैठानेवाला ज्ञानमय मन और इच्छामय मन आत्मानुभव की सारी सामग्री को अपने अधिकार में करने और उपयोग में लाने

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में पूरी तरह समर्थ न हो जाये । कम-से-कम यही है विकास की वह प्रक्रिया जिसे हम जड़ जगत् में आत्मलीन और ऊपर से देखने में मनहीन ऊर्जा में से मन के विकास का नियंत्रण करते हुए देखते हैं ।

 

    अहं-भाव मानसिक अज्ञान का एक और साधन है जिसके द्वारा मानसिक सत्ता अपने बारे में अभिज्ञ होती है -केवल अपनी क्रियाशीलता के विषयों, अवसरों और क्रियाओं के बारे में ही नहीं बल्कि अनुभव करनेवाले के बारे में भी । पहले तो ऐसा मालूम हो सकता है मानों अहं-भाव वस्तुतः स्मृति से बना है । मानों स्मृति हमसे कहती है, ''मैं वही हूं जो कुछ समय पहले नाराज थी और अब फिर से नाराज हूं या अभीतक नाराज हूं ।''  लेकिन वास्तव में स्मृति हमसे अपनी शक्ति द्वारा जो कह सकतीं है वह बस इतना ही है कि यह वही सचेतन क्रियाशीलता का सीमित क्षेत्र है जिसमें यही प्रपंच हुआ था । यह मानसिक व्यापार की पुनरावृत्ति है, मानसिक पदार्थ में संभूति की उस लहर की पुनरावृत्ति है जिसका मानस-बोध को प्रत्यक्ष बोध होता है । स्मृति इन पुनरावृत्तियों को आपस में जोड़ने के लिये प्रवेश करती है । वह मानस-बोध को यह अनुभव करने योग्य बनाती है कि यह वही मानसिक द्रव्य है जो वही क्रियात्मक रूप ले रहा है और यह वही मानस-बोध है जो उसका अनुभव कर रहा है । अहं-भाव स्मृति का परिणाम नहीं है, स्मृति द्वारा रचा नहीं गया है । वह एक संदर्भ-बिंदु के रूप में या किसी ऐसी चीज के रूप में पहले से ही है और सदा रहता है जिसमें मानस-बोध अपने-आपको केन्द्रित कर लेता है ताकि उसे अनुभव- क्षेत्र में सब जगह बिखरने की जगह एक ऐसा केन्द्र मिल जाये जो तालमेल बिठा सके । अहं-मति इस केन्द्र को और भी मजबूत बनाती और बनाये रखती है लेकिन उसे रचती नहीं है । निम्नतर पशु में अहं-भाव या व्यक्तित्व के भाव का विश्लेषण किया जाये तो वह काल के क्षणों में अविच्छिन्नता, एकात्मता और औरों से अलगाव के अस्पष्ट या कम स्पष्ट संवेदनात्मक अनुभव से संभवतः बहुत आगे नहीं जाता । लेकिन मनुष्य में इसके अतिरिक्त तालमेल बैठानेवाला एक ज्ञान का मन भी है जो मानस-बोध और स्मृति की संयुक्त क्रिया पर आधारित होकर अहं के एक सुनिश्चित विचार पर पहुंचता है और वह सतत अंतर्भासात्मक प्रत्यक्ष दर्शन को भी बनाये रखता है, जो बोध प्राप्त करता, अनुभव करता, याद रखता, विचार करता और वह का वही रहता है चाहे उसे याद रहे या न रहे । वह कहता है कि यह सचेतन मानसिक पदार्थ हमेशा उसी एक चेतन पुरुष की वस्तु है जो अनुभव करता और अनुभव करना बंद कर देता है, याद रखता और भूल जाता है, सतही तौर पर सचेतन है, सतही चेतना से निद्रा में डूब जाता है । स्मृति के संगठन से पहले और उसके बाद, बच्चे में और बूढ़े में, नींद में और जागते हुए, प्रतीयमान चेतना में और प्रतीयमान निश्चेतना में वह वही है । किसी और ने नहीं उसीने वे कार्य किये थे जिन्हें वह भूल जाता है और वे भी

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जिन्हें वह याद रखता है । अपने संभवन या अपने व्यक्तित्व के सभी परिवर्तनों के पीछे वह वही-का-वही बना रहता है । मनुष्य में ज्ञान की यह क्रिया, यह ताल-मेल बैठानेवाली बुद्धि, आत्मचेतना और आत्मानुभव का यह निरूपण पशु के स्मृति-आश्रित अहं और इन्द्रियाश्रित अहं से ऊंचा है इसलिये हम यह मान सकते हैं कि वह यथार्थ आत्म-ज्ञान के ज्यादा नजदीक है । अगर हम प्रकृति की ढकी हुई या अनढकी क्रियाओं का अध्ययन करें तो हम इस अनुभव पर भी पहुंच सकते हैं कि समस्त अहं-बोध, सारी अहं-स्मृति के पीछे ज्ञान का एक गुप्त सहयोजनकारी बल या मन की एक व्यावहारिक युक्ति है -या वस्तुत: यह अहं-भाव, अहं-स्मृति ही वह मुक्ति है -वह बल या मन वैश्व चित्-शक्ति में उपस्थित है, मानव बुद्धि उसीका वह प्रत्यक्ष रूप है और जहांतक हमारा क्रम विकास पहुंचा है, यह रूप अपनी क्रिया की प्रणालियों में और जिस तत्त्व से वह बना है उसमें अभीतक सीमित और अपूर्ण है । निश्चेतन में भी एक अवचेतन ज्ञान है, वस्तुओं में एक अधिक महान् अंतर्निहित बुद्धि हैं जो तालमेल आरोपित करती हैं यानी विश्व-संभूति की अधिक से अधिक निर्बंध गतियों पर भी एक विशेष बौद्धिकता आरोपित करती है ।

 

    स्मृति का महत्त्व भली-भांति दिखायी देता है द्विविध व्यक्तित्व या व्यक्तित्व के विच्छेद के व्यापार में जिसका अच्छी तरह अवलोकन किया जा चुका है, जिसमें एक ही व्यक्ति में मन की आनुक्रमिक या बारी-बारी से आनेवाली दो अवस्थाएं होती हैं । इनमें से हर अवस्था में यह उसीको पूरी तरह याद रखता है और सहयोजित करता है जो वह मन की उस अवस्था में था, जो उसने उस अवस्था में किया था, उसे नहीं याद रखता जो वह दूसरी अवस्था में था या जो उसने दूसरी अवस्था में किया था । इसे भिन्न व्यक्तित्व के संगठित भाव के साथ जोड़ा जा सकता है क्योंकि वह सोचता है कि एक अवस्था में वह एक व्यक्ति हैं और दूसरी अवस्था में एकदम और ही व्यक्ति जिसका नाम, जीवन और भाव भिन्न हैं । यहां ऐसा लगेगा कि स्मृति व्यक्तित्व का समग्र पदार्थ है । लेकिन दूसरी ओर हमें यह देखना चाहिये कि व्यक्तित्व के अलग हुए बिना भी स्मृति अलग हो सकती है जैसे कोई मनुष्य सम्मोहन की अवस्था में स्मृति और अनुभव के ऐसे क्षेत्रों में पहुंच जाता है जहां उसका जाग्रत् मन अजनबी होता है, लेकिन इस कारण वह अपने- आपको एक अलग ही व्यक्ति नहीं मान लेता । मन, जो अपने जीवन की बीती हुई घटनाओं को भूल गया है, शायद अपना नामतक भूल गया हो, वह अपने अहं भाव या व्यक्तित्व को नहीं बदलता । और चेतना की ऐसी अवस्था भी संभव है जिसमें यद्यपि स्मृति की दरार तो नहीं होती परंतु सारी सत्ता के तेज विकास के कारण उसे लगता है कि वह अपनी हर मानसिक परिस्थिति में बदल गया है और आदमी को यह लगता है कि वह एक नये व्यक्तित्व में जन्मा है । यहां अगर

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तालमेल बैठानेवाला मन न होता तो वह यह कभी न स्वीकार करता कि वह भूतकाल उसी का है जो वह अब है हालांकि उसे भली-भांति याद है कि शरीर के इसी रूप में, मानसिक द्रव्य के इसी क्षेत्र में यह सब हुआ था । मानसिक बोध नींव है, स्मृति वह धागा है जिसमें आत्मानुभव करनेवाला मन अनुभव पिरोता है । लेकिन मन की तालमेल बैठानेवाली क्षमता स्मृति की जुटाई हुई सारी सामग्री के भूत, भविष्य, वर्तमान को जोड़ती है, एक अहं के साथ उनका नाता जोड़ती है जो अनुभव और व्यक्तित्व के सभी परिवर्तनों के बावजूद काल के सभी क्षणों में एक ही रहता है ।

 

    अहं-बोध मानसिक सत्ता में वास्तविक आत्म-ज्ञान के विकास के लिये प्रारंभिक साधन और पहली नींव मात्र है । निश्चेतना से आत्म-चेतना की ओर, आत्म-निर्ज्ञान और वस्तुओं के निर्ज्ञान से आत्म-ज्ञान और वस्तुओं के ज्ञान में विकसित होता हुआ, रूपों में स्थित मन इतनी दूरतक जा पहुंचता है कि उसे अपनी बाहरी रूप से सचेतन सभी संभूतियों का बोध इस तरह होता है जैसे वह एक उस ''मैं'' से संबंध रखता हो जो हमेशा उपस्थित रहता है । वह उस ''मैं"  को आंशिक रूप से सचेतन संभूति ही मानता है, वह अंशत: यह सोचता है कि वह ''मैं'' संभूति से कुछ भिन्न और उससे श्रेष्ठ, शायद शाश्वत और अपरिवर्तनशील हैं । अंत में अपनी बुद्धि के सहारे, जो तालमेल बिठाने के लिये भेद करती है, वह स्वानुभव को केवल संभूति पर, सतत परिवर्तनशील आत्मा पर स्थिर कर सकता है और उससे भिन्न किसी चीज के विचार को मन की कल्पना मानकर त्याग सकता है । तब कोई सत्ता नहीं होती, होती है केवल संभूति । या वह आत्मानुभव को अपनी शाश्वत सत्ता की प्रत्यक्ष चेतना में स्थिर करके संभूति को अस्वीकार कर सकता है । जब वह उसके बारे में अभिज्ञ होने के लिये बाधित हो तब भी वह उसे मन या इन्द्रियों की मनगढ़ंत कहानी या अस्थायी अवर अस्तित्व की नि:सारता कहकर अस्वीकार कर सकता हैं ।

 

    लेकिन यह स्पष्ट है कि पृथकात्मक अहं-बोध पर आधारित आत्म-ज्ञान अपूर्ण होता है और कोई भी ज्ञान, जो केवल उसपर या मुख्यत: उसपर या उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया पर आधारित हो, वह सुरक्षित या पूर्णता के बारे में निश्चित नहीं हो सकता । पहली बात यह कि वह हमारी सतही मानसिक क्रियाशीलता और उसकी अनुभूतियों का ज्ञान है और, संभूति का जो कुछ महान् क्षेत्र पीछे की ओर शेष है उसके संबंध में वह अज्ञान है । दूसरे, वह केवल व्यक्तिगत आत्मा और उसके अनुभवोंतक सीमित सत्ता और संभूति का ज्ञान है । बाकी सारा जगत् उसके लिये अनात्मा, यानी कोई ऐसी चीज है जिसे वह अपनी सत्ता के भाग के रूप में अनुभव नहीं करता बल्कि बाहर के अस्तित्व के रूप में देखता है जो उसको पृथक् चेतना के सामने प्रस्तुत किया गया है । यह इसलिये होता है क्योंकि उसे इस अधिक

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विशाल अस्तित्व और प्रकृति का वैसा प्रत्यक्ष सचेतन ज्ञान नहीं होता जैसा व्यक्ति को अपनी सत्ता और संभूति का होता है । यहां भी विशाल अज्ञान के बीच एक सीमित ज्ञान अपने-आपको प्रतिष्ठित करता है, अपने अधिकार जताता है । तीसरे, सत्ता और संभूति के बीच सच्चा संबंध पूर्ण आत्म-ज्ञान के आधार पर नहीं बल्कि, अज्ञान, आंशिक ज्ञान द्वारा कार्यान्वित किया गया है । इसके परिणाम-स्वरूप मन चरम ज्ञान की ओर प्रवृत्त होकर हमारे वर्तमान अनुभव और संभावनाओं के आधार पर ताल-मेल बैठानेवाली और अलग-अलग करनेवाली इच्छा और बुद्धि द्वारा तेज धारवाले निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयत्न करता है जो अस्तित्व के किसी एक भाग को काटकर अलग कर देता है । अभीतक जो प्रतिपादित हुआ है वह यही है कि एक ओर तो मानसिक सत्ता अपने-आपको प्रतीयमान रूप से समस्त संभूति को अलग करके सीधी आत्म-चेतना के साथ एकात्म कर सकती है और दूसरी ओर समस्त स्थिर आत्म-चेतना का प्रतीयमान बहिष्कार करके अपने-आपको संभूति के साथ एकात्म कर सकती है । मन के दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरोधी होने के कारण अलग होते हुए जिसे त्यागते हैं उसे अवास्तविक होने या मन की क्रीड़ा मात्र होने का दोषी ठहराते हैं । उनमें से एक या दूसरे के लिये या तो भगवान् और आत्मा या जगत् तभीतक सापेक्ष रूप से वास्तविक हैं जबतक मन उनका निर्माण करने पर आग्रह करता है -जगत् को आत्मा के प्रभावकारी स्वप्न के रूप में या भगवान् और आत्मा को एक मानसिक रचना या प्रभावकारी भ्रम के रूप में । इनमें सच्चा संबंध अबतक पकड़ में नहीं आया क्योंकि ज्ञान जबतक आंशिक रहेगा तबतक हमारी बुद्धि को सत्ता के ये दोनों पक्ष असंगत और बेमेल लगेंगे । सचेतन विकास का लक्ष्य है सर्वांगीण ज्ञान । चेतना का कोई ऐसा सुस्पष्ट काट जो एक पक्ष को विच्छिन्न कर देता हो और दूसरे को छोड़ देता हो, वह आत्मा और जगत् का पूर्ण सत्य नहीं हो सकता । क्योंकि, अगर कोई निश्चल आत्मा ही सब कुछ होती तो संसार के अस्तित्व की कोई संभावना न रहती । अगर सचल प्रकृति ही सब कुछ होती तो वैश्व संभवन का एक चक्र तो होता पर निश्चेतन में से सचेतन के विकास के लिये कोई आध्यात्मिक आधार न होता और न ही हमारी एकांगी चेतना या अज्ञान में अपना अतिक्रमण करने और अपनी सत्ता के संपूर्ण सचेतन सत्य और सर्व-सत्ता के पूर्ण सचेतन ज्ञानतक पहुंचने के लिये स्थायी अभीप्सा होती ।

 

    हमारी बाहरी सत्ता एक सतह भर है और वहीं अज्ञान का पूरा राज्य है । जानने के लिये हमें अपने भीतर जाना होगा और आंतरिक ज्ञान से देखना होगा । सतह पर जो कुछ रूपायित है वह हमारी गुप्त महत्तर सत्ता का एक छोटा और क्षीण प्रतिरूप है । हमारे अंदर की निश्चल आत्मा का तभी पता चलता है जब बाहरी मानसिक और प्राणिक क्रियाएं शांत हो जायें । चूंकि वह गहराई में भीतर स्थित है और सतह पर उसका निरूपण आत्म-सत्ता के अंतर्भासात्मक बोध से ही हो सकता

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 है और मन, प्राण और भौतिक अहंभाव उसका गलत चित्रण करते हैं इसलिये उसके सत्य का अनुभव मन की नीरवता में ही किया जा सकता है । लेकिन हमारी सतही सत्ता के क्रियाशील भाग भी इसी तरह उन ज्यादा बड़ी चीजों के क्षीण आकार हैं जो हमारी गुह्य प्रकृति की गहराइयों में हैं । स्वयं सतही स्मृति एक आंशिक और प्रभावहीन क्रिया है जो आंतरिक अंतस्तलीय स्मृति में से ब्योरों को बाहर खींचा करती है । वह अंतस्तलीय स्मृति हमारे सारे जगत्-अनुभव को ग्रहण और अंकित करती है । मन ने जिसे न देखा है न समझा है, जो उसकी दृष्टि में नहीं आया है उसे भी वह ग्रहण और अंकित करती है । हमारी सतही कल्पना चेतना की एक बृहत्तर, अधिक सृजन करनेवाली, प्रभावकारी, गुह्य बिंब गढ़नेवाली शक्ति में से एक चुनाव है । एक ऐसा मन जो अपरिमेय रूप से विस्तृत है, जिसमें अधिक सूक्ष्म प्रत्यक्ष दर्शन है, एक प्राण-शक्ति जो अधिक क्रियाशील है, एक सूक्ष्म भौतिक पदार्थ जो अधिक विस्तृत और सूक्ष्म है, जो विशालतर और अधिक उदात्त ग्रहणशीलतावाला है -ये अपने अंदर से हमारी बाहरी सतह के क्रम-विकास का निर्माण कर रहे हैं । इन गुह्य क्रियाओं के पीछे एक चैत्य सत्ता है जो हमारे व्यक्तीकरण का सच्चा सहारा है; अहंकार तो एक ऊपरी, मिथ्या स्थानापन्न है, क्योंकि यही गुप्त अंतरात्मा हमारे आत्मानुभव और जगत्-अनुभव को सहारा देती और साथ रखती है । मानसिक, प्राणिक, भौतिक, बाहरी अहं, प्रकृति की सतही रचना है । केवल तभी जब हम अपनी आत्मा और अपनी प्रकृति दोनों को समग्र रूप में बाहरी सतह और गहराई में भी देख लेते हैं तभी हमें ज्ञान का सच्चा आधार प्राप्त होता है ।

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