Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ८
स्मृति, आत्मचेतना और अज्ञान
स्वभावमेके कवयो वदिन्त, कालं तथान्ये । कुछ लोग वस्तुओं के स्वभाव की बात कहते हैं, दूसरे कहते हैं कि यह काल हैं । श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१ ३ द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे कालच्ष्काकालक्ष ।। ब्रह्म के दो रूप हैं, काल और अकाल । मैत्युपनिषद् ६. १५ ... ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव ।। समुद्रदर्णवादधि संवत्ससे अजायत । अहोरात्राणि विदधद विश्वस्य मिषतो वशी ।। रात्रि उत्पन्न हुई और रात्रि से सत्ता का बहता समुद्र और समुद्र पर काल उत्पन्न हुआ जिसके वश में हर देखनेवाला जीव है । ऋग्वेद १०. १९०. १, २ स्मरो... भूयः...; अस्मरन्तो नैवं ते कश्चन... मन्दीरन्न विज।नीरन्... यावत्स्मरस्य गर्त तत्रास्य यथाकामचारो भवति ।। स्मृति उससे बड़ी है । स्मृति के बिना मनुष्य न कुछ सोच सकता है न जान सकता है... जहातक स्मृति की गति है वहांतक वह स्वेच्छया विचरण करता है । ' छान्दोग्योपनिवद् ७.१३.१,२ एष हि द्रष्टर स्त्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्त्ता विज्ञानात्मा पुरुष: ।। हमारे अंदर वही द्रष्टा, देखनेवाला, छूनेवाला, सुननेवाला, सूंघनेवाला, चखनेवाला, सोचनेवाला, समझनेवाला, क्रिया करनेवाला, सचेतन पुरुष, विज्ञानात्मा है । प्रश्रोपनिषद् ४.१
स्वभावमेके कवयो वदिन्त, कालं तथान्ये ।
कुछ लोग वस्तुओं के स्वभाव की बात कहते हैं, दूसरे कहते हैं कि
यह काल हैं ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१ ३
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे कालच्ष्काकालक्ष ।।
ब्रह्म के दो रूप हैं, काल और अकाल ।
मैत्युपनिषद् ६. १५
... ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव ।।
समुद्रदर्णवादधि संवत्ससे अजायत ।
अहोरात्राणि विदधद विश्वस्य मिषतो वशी ।।
रात्रि उत्पन्न हुई और रात्रि से सत्ता का बहता समुद्र और समुद्र पर
काल उत्पन्न हुआ जिसके वश में हर देखनेवाला जीव है ।
ऋग्वेद १०. १९०. १, २
स्मरो... भूयः...; अस्मरन्तो नैवं ते कश्चन... मन्दीरन्न
विज।नीरन्... यावत्स्मरस्य गर्त तत्रास्य यथाकामचारो भवति ।।
स्मृति उससे बड़ी है । स्मृति के बिना मनुष्य न कुछ सोच सकता है
न जान सकता है... जहातक स्मृति की गति है वहांतक वह
स्वेच्छया विचरण करता है ।
' छान्दोग्योपनिवद् ७.१३.१,२
एष हि द्रष्टर स्त्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता
मन्ता बोद्धा कर्त्ता विज्ञानात्मा पुरुष: ।।
हमारे अंदर वही द्रष्टा, देखनेवाला, छूनेवाला, सुननेवाला,
सूंघनेवाला, चखनेवाला, सोचनेवाला, समझनेवाला, क्रिया
करनेवाला, सचेतन पुरुष, विज्ञानात्मा है ।
प्रश्रोपनिषद् ४.१
हमारी चेतना के द्विविध लक्षण के सर्वेक्षण में पहले हमें अज्ञान को देखना होगा क्योकि हमारी सामान्य स्थिति है ज्ञान में परिणत होने की कोशिश करनेवाला अज्ञान । आरंभ में यह जरूरी है कि आत्मा और वस्तुओं की इस आंशिक
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अभिज्ञता की कुछ अनिवार्य गतिविधियों पर विचार किया जाये, जो पूर्ण आत्म-ज्ञान और सर्व-ज्ञान तथा पूर्ण निश्चेतना के बीच मध्यस्थ का कार्य करती है और उस आरंभ-बिंदु से उसके हमारी सतह के नीचे की महत्तर चेतना के साथ संबंध का पता लगाया जाये । एक विचार-सरणी है जिसमें स्मृति की क्रिया पर बहुत जोर दिया गया है, यहांतक कहा गया है कि स्मृति ही मनुष्य हैं । स्मृति ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है और हमारी मनोमय सत्ता के आधार को जोड़े रखती है क्योंकि वह हमारी अनुभूतियों को शृंखला-बद्ध रखती है और उनका उसी अभिन्न और व्यक्तिगत सत्ता के साथ नाता जोड़ती है । यह एक ऐसा भाव है जो काल के अनुक्रम में हमारे जीवन पर खड़ा होता है और प्रक्रिया को तात्त्विक सत्य की चाबी के रूप में स्वीकार करता है, तब भी जब वह समस्त सत्ता को प्रक्रिया के रूप में, या किसी तरह की स्वतः -नियामक ऊर्जा के विकास में कार्य-कारण रूप में, कर्म के रूप में नहीं देखता हो । लेकिन प्रक्रिया एक उपयोगिता मात्र है । वह कुछ ऐसे प्रभावकारी संबंधों का अभ्यासगत अंगीकरण है जो वस्तुओं की अनंत संभावनाओं में और तरह से व्यवस्थित किये जा सकते थे, ऐसे प्रभाव उत्पन्न करने के लिये जो समान रूप से एकदम भिन्न होते । वस्तुओं का वास्तविक सत्य उनकी प्रक्रिया में नहीं, उसके पीछे, जो प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता, प्रभावित करता और शासित करता है उसमें रहता है, इतना कार्यान्वयन में नहीं जितना उस इच्छा या शक्ति में जो संपन्न करती है और इतना इच्छा या शक्ति में, नहीं जितना उस चेतना में जिसका क्रियाशील रूप है इच्छा और उस सत्ता में जिसका क्रियाशील मूल्य है शक्ति । परंतु स्मृति तो चेतना की एक प्रक्रिया मात्र है, एक उपयोगिता है, वह हमारी सत्ता का पदार्थ या हमारे व्यक्तित्व की समग्रता नहीं हो सकती । वह केवल चेतना की क्रियाओं में से एक है जैसे विकीरण प्रकाश की क्रियाओं में से एक है । आत्मा ही मनुष्य है और अगर हम केवल अपने सामान्य सतही अस्तित्व को देखें तो मन ही मनुष्य है -क्योंकि मनुष्य मानसिक सत्ता है । स्मृति मन की बहुत-सी शक्तियों और प्रक्रियाओं में से एक है जो मन अभी चेतना-शक्ति या चित्-शक्ति की आत्मा, जगत् और प्रकृति के साथ हमारे व्यवहार में मुख्य क्रिया है ।
फिर भी, जब हम अज्ञान की प्रकृति पर विचार करते हैं, जिसमें हम निवास करते हैं, तो मति के व्यापार से आरंभ करना अच्छा है क्योंकि यह हमें अपने सचेतन अस्तित्व के किन्हीं महत्त्वपूर्ण पहलुओं की चाबी दे सकती है । हम देखते हैं कि मन स्मृति की अपनी क्षमता या प्रक्रिया के दो उपयोग करता है, आत्म-स्मृति और अनुभव-स्मृति । पहले मूल रूप से वह स्मृति का उपयोग हमारी सचेतन-सत्ता के तथ्य के साथ करता है और काल के साथ उसका नाता जोड़ता है । वह कहता है, ''मैं अब हूं, मैं भूतकाल में था, अतः मैं भविष्य में भी रहूंगा, यह एक ही ' 'मैं' ' काल के तीनों सदा अस्थायी विभागों में रहता है ।'' इस तरह वह अपने-
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आपको, काल की अभिधाओं में चित्-सत्ता की सनातनता का विवरण देना चाहता है जिसके बारे में वह यह तो अनुभव करता है कि वह तथ्य है लेकिन उसे न तो वह सत्य के रूप में जान सकता है और न प्रमाणित कर सकता है । स्मृति द्वारा मन अपने बारे में केवल भूत की बात जान सकता है, प्रत्यक्ष अभिज्ञता द्वारा केवल वर्तमान की बात जान सकता है और इस अभिज्ञता के प्रसार और अनुमान द्वारा और स्मृति द्वारा, जो कहती है कि कुछ समय से अभिज्ञता सदा बनी रही है, मन अपने भविष्य के बारे में कल्पना कर सकता है । वह भूत और भविष्य की सीमा निर्धारित नहीं कर सकता । वह भूतकाल को अपनी स्मृति की सीमातक ही ले जा सकता है और औरों के तथा जीवन के तथ्यों के आधार पर, जिन्हें वह अपने चारों ओर देखता है, अनुमान कर सकता है कि सचेतन सत्ता उस काल में भी थी जिसे वह अब याद नहीं कर सकता । वह जानता है कि वह उस शैशव की तर्क- बुद्धिहीन मानसिक अवस्था में था जिसकी कड़ी स्मृति ने खो दी है लेकिन मर्त्य मन निश्चित नहीं कर पाता कि क्या भौतिक जन्म से पहले उसका अस्तित्व था क्योंकि यहां स्मृति में दरार है । भविष्य के बारे में वह कुछ भी नहीं जानता । अपने अगले क्षण में बने रहने के बारे में उसे एक नैतिक निश्चिति हो सकती है जिसे उस क्षण की कोई घटना गलत सिद्ध कर सकती है क्योंकि उसने जो देखा था वह एक प्रमुख संभाव्यता से बढ़कर कुछ न था । यह बात तो वह और भी नहीं जान सकता कि क्या भौतिक विघटन उस सचेतन सत्ता का अंत है या नहीं । फिर भी उसके अंदर एक स्थायी सातत्य का भाव रहता है जो आसानी से अपने-आपको शाश्वतता के विश्वासतक फैलाता है ।
यह विश्वास या तो मन में एक अंतहीन अतीत का प्रतिबिंब हो सकता है जिसे वह भूल चुका है लेकिन जिसका कुछ अंश रूपहीन संस्कार की तरह बना हुआ है या वह आत्म-ज्ञान की छाया हो सकती है जो मन में हमारी सत्ता के उच्चतर या गहनतर स्तर से आती है जहां हम वास्तव में अपनी शाश्वत स्वयंभू सत्ता के बारे में अभिज्ञ हैं । या फिर यह माना जा सकता है कि यह एक विभ्रम हो । जैसे हम अपनी पूर्वदर्शी चेतना में मृत्यु के तथ्य का संवेद या अनुभव नहीं पा सकते और केवल निरंतर अस्तित्व की अनुभूति में ही रह सकते हैं, हमारे लिये अस्तित्व का अवसान एक बौद्धिक कल्पना ही हो सकता है जिसे हम विश्वास के साथ बनाये रख सकते हैं, जिसकी हम स्पष्ट कल्पना भी कर सकते हैं लेकिन जिसे कभी वास्तव में अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि हम केवल वर्तमान में जीते हैं, फिर भी मृत्यु, अवसान या कम-से-कम हमारी सत्ता की वर्तमान विधि में व्यवधान एक तथ्य है और भविष्य में भौतिक शरीर में अविच्छिन्न बने रहने का संवेद या पूर्वदृष्टि एक सीमा के आगे -जिस सीमा को हम अभी निश्चित नहीं कर सकते -एक भ्रम हो जाता है, चित्-सत्ता की हमारी वर्तमान मानसिक भावना का मिथ्या विस्तार या
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गलत प्रयोग हो जाता है । यह माना जा सकता है कि सचेतन शाश्वतता के इस मानसिक विचार या भाव के बारे में भी कुछ ऐसा ही होगा । या हो सकता है कि यह हमसे भिन्न किसी सचेतन या अचेतन किंतु वास्तविक शाश्वतता का बोध हो, विश्व की या विश्व से परे के 'कुछ' की शाश्वतता का बोध हो जिसे हमारे अपने लिये स्थानान्तरित कर लिया गया है । मन शाश्वतता के इस तथ्य को पकड़ कर उसे हमारी सचेतन सत्ता पर मिथ्या रूप से स्थानान्तरित कर देता है जब कि हो सकता है कि वह सत्ता एकमात्र सच्चे शाश्वत के एक क्षणिक व्यापार से बढ़कर कुछ न हो ।
हमारे सतही मन के पास अपने-आपसे इन प्रश्नों को हल करने के लिये कोई साधन नहीं है । वह इनके बारे में अंतहीन रूप से अनुमान कर सकता है और न्यूनाधिक रूप से तर्क-संगत मतों पर पहुंच सकता है । अपनी अमरता के बारे में मान्यता श्रद्धा मात्र है, अपनी मर्त्यता के बारे में मान्यता श्रद्धा मात्र है । जड़वादी के लिये यह प्रमाणित करना असंभव है कि हमारी चेतना शरीर की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाती है । क्योंकि वह यह दिखला सकता है कि अभीतक ऐसा कोई विश्वास दिलानेवाला प्रमाण नहीं है कि हमारे अंदर की कोई चीज सचेतन रूप से बची रहती है लेकिन समान रूप से वस्तुओं की प्रकृति मे ऐसा कोई प्रमाण नहीं है और न हो सकता है कि हमारी सचेतन आत्मा भौतिक विघटन के बाद भी नहीं बनी रहती । आगे चलकर, शरीर के अंत के बाद भी मानव व्यक्तित्व के बने रहने का प्रमाण संदेहवादी को भी संतुष्ट करने के लिये दिया जा सकता है लेकिन उससे भी सचेतन सत्ता की शाश्वतता की नहीं, अधिक लम्बे सातत्य की प्रतिष्ठा होगी ।
वस्तुतः अगर हम शाश्वतता के बारे में मन की कल्पना की ओर देखें तो ऐसा लगता है कि इसका अर्थ होता है शाश्वत काल में सत्ता का क्षणों में अविच्छिन्न सातत्य । अतः काल ही शाश्वत है, अविच्छिन्न क्षणिक सचेतन सत्ता नहीं । लेकिन दूसरी ओर मन के प्रमाणों में ऐसा कुछ नहीं है जो यह बतलाये कि सचमुच शाश्वत काल का अस्तित्व है या स्वयं काल सचेतन सत्ता की उस देखने की विधि के अतिरिक्त कुछ है जिससे वह अस्तित्व की किसी अविच्छिन्न निरंतरता को या हो सकता है उसकी शाश्वतता को एक अविभाज्य प्रवाह के रूप में देखती है जिसे वह अपनी कल्पना द्वारा अनुभवों के अनुक्रम और युगपतता से नापती है, यह अस्तित्व उसके आगे इसी तरह से तो चित्रित किया जाता है । अगर कोई शाश्वत अस्तित्व है जो सचेतन सत्ता है तो उसे उस काल के परे होना चाहिये जिसे वह धारण करता है, हम उसे कालातीत कहते हैं । वह वेदांत का शाश्वत होना चाहिये, जिसके बारे में हम यह अनुमान कर सकते हैं कि वह काल का उपयोग अपनी अभिव्यक्ति और अपने अवलोकन के लिये धारणात्मक भूमिका के रूप में करता है । लेकिन इस शाश्वत का कालातीत आत्म-ज्ञान मन के परे है । यह
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अतिमानसिक ज्ञान है जो हमारे लिये अतिचेतन है जिसे हमारे सचेतन मन की ऐहिक क्रियाओं को चुप करके या उनका अतिक्रमण करके, नीरव-निश्चलता में प्रवेश करके या नीरव-निश्चलता में से होकर शाश्वत की चेतना में चले जाने से ही पाया जा सकता है ।
इस सब से एक महान् तथ्य उभरता है कि हमारे मन की प्रकृति ही है अज्ञान, पूर्ण निर्ज्ञान नहीं बल्कि सत्ता का सीमित और प्रतिबंधित ज्ञान, जो अपने वर्तमान की उपलब्धि, भूत की स्मृति और भविष्य के अनुमान से सीमित और इस कारण अपने और अपने अनुभवों के बारे में कालिक और आनुक्रमिक दृष्टि से प्रतिबंधित है । अगर वास्तविक अस्तित्व एक कालिक शाश्वतता है तो मन को वास्तविक सत्ता का ज्ञान नहीं है । क्योंकि वह स्वयं अपने भूत को धुंधलेपन की अस्पष्टता में खो देता है, उस जरा-से अंश को छोड़कर जिसे स्मृति पकड़े रहती है । उसे अपने भविष्य पर कोई अधिकार नहीं है जो कि अज्ञान की एक बड़ी रिक्तता में उससे रोक रखा गया है । उसे केवल अपने वर्तमान का ज्ञान होता है जो नामों, रूपों और घटनाओं के असहाय अनुक्रम में बदलता रहता है और मन के अधिकार या उसकी धारणा से परे अति वृहत् वैश्व क्रियाशीलता का प्रयाण या प्रवाह होता है । दूसरी ओर अगर वास्तविक अस्तित्व काल का अतिक्रमण करनेवाली शाश्वतता हो तो मन उसके बारे में और भी ज्यादा अज्ञ है क्योंकि वह केवल उतने ही अंश को जानता है जिसे वह क्षण- क्षण खंडित अनुभव द्वारा काल और देश में होनेवाली अपनी सतही आत्माभिव्यक्ति में पकड़ सकता है ।
तो अगर मन ही सब कुछ हो, या हमारे अंदर प्रत्यक्ष मन ही हमारी सत्ता की प्रकृति का सूचक हो तो हम ऐसे अज्ञान से बढ़कर कुछ नहीं हो सकते जो काल में दौड़ा जा रहा है और बहुत ही छोटे और खंडित रूप में ज्ञान को पकड़ पाता है । लेकिन अगर मन के परे आत्म-ज्ञान की कोई शक्ति है जो तत्त्वत: कालातीत है और काल को देख सकती है, भूत, वर्तमान और भविष्य को शायद एक ही साथ सबका नाता जोड़नेवाली दृष्टि से देख सकती है, और किसी भी स्थिति में अपनी कालातीत सत्ता की परिस्थिति के रूप में देखती है तो हम चेतना की दो शक्तियां पाते हैं; ज्ञान और अज्ञान या वेदांत की भाषा में विद्या और अविद्या । तो इन दोनों को या तो अलग-अलग और बिना किसी संबंध की शक्तियां होना चाहिये जो अलग-अलग पैदा हुई हैं और अपनी क्रिया में भी अलग हैं, शाश्वत द्वैत में अलग-अलग स्वयंभू हैं या फिर अगर इनमें कोई संबंध है तो वह यह हो सकता है कि ज्ञान के रूप में चेतना अपनी कालहीन आत्मा को जानती और काल को अपने अंदर देखती है जब कि अज्ञान के रूप में चेतना उसी ज्ञान की आंशिक और सतही क्रिया है जो अपने-आपको काल के अंदर देखती है, अपने-आपको
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अपनी ही कालिक सत्ता की धारणा के पर्दे के पीछे छिपा लेती है और उस पर्दे को हटाकर ही शाश्वत आत्म-ज्ञान की ओर लौट सकती है ।
यह मानना न्याय-संगत न होगा कि अतिचेतन ज्ञान इतना ज्यादा अलग-थलग और पृथक् है कि वह काल, देश और कार्य-कारण-भाव को और उनके कार्यों को जानने में असमर्थ हैं क्योंकि तब तो वह एक और तरह का अज्ञान होगा । यह निरपेक्ष सत्ता के अंधेपन का कालिक सत्ता के अंधेपन को जवाब होगा मानों ये एक ऐसे सचेतन अस्तित्व के धन और ऋण छोर हों जो अपने-आपको पूरी तरह जानने में असमर्थ हो या केवल अपने-आपको जानता हो और अपनी क्रियाओं को न जानता हो या केवल अपने कार्यों को जानता हो और अपने-आपको न जानता हो -यह आपस में एक-दूसरे के बहिष्कार का एक बेतुका सममित संतुलन है । ज्यादा बड़े, प्राचीन वेदांती दृष्टिकोण से हमें अपने-आपको दोहरी सत्ता के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसी सचेतन सत्ता के रूप में सोचना चाहिये जिसमें चेतना की दो कलाएं हैं । उनमें से एक हमारे मन में चेतन या अंशत: चेतन है, दूसरी मन के लिये अतिचेतन है; उनमें एक हैं कालावस्थित ज्ञान जो काल की अवस्थाओं के आधीन काम करता है और इस कारण अपने आत्म-ज्ञान को अपने पीछे रखता है दूसरी है कालातीत जो अपने-आप काल की अवस्थाओं को निर्धारित करती और उन्हें प्रभुता और ज्ञान के साथ कार्यान्वित करती है । एक अपने-आपको कालानुभव में होनेवाले अपने विकास से ही जानती हैं, दूसरी अपनी कालातीत आत्मा को जानती और अपने-आपको कालानुभव में सचेतन रूप से अभिव्यक्त करती हैं ।
अब हम समझ पाते हैं कि जब उपनिषद् ने ब्रह्म को ज्ञान और अज्ञान दोनों बतलाया और बताया कि दोनों में ब्रह्म का युगपत् ज्ञान अमरता का मार्ग है, तो उसका क्या मतलब था । ज्ञान कालातीत, देशातीत, निरुपाधिक आत्मा की चेतना की अंतर्निहित शक्ति है जो अपने-आपको अपने सार में सत्ता के एकत्व के रूप में प्रकट करती है । एकमात्र यही चेतना वास्तविक और पूर्ण ज्ञान है क्योंकि यह एक शाश्वत विश्वातीतता हैं जो केवल आत्म-अभिज्ञ ही नहीं बल्कि विश्व के कालिक सनातन अनुक्रमों को अपने अंदर धारण करती है, उन्हें अभिव्यक्त और उत्पन्न करती है, उनका निर्देशन करती और उन्हें जानती है । अज्ञान है सत् की काल के अनुक्रमों में चेतना, क्षण में निवास करने के कारण अपने ज्ञान में विभक्त, देश के विभाजनों और परिस्थिति के संबंधों में निवास के कारण अपनी आत्म-सत्ता की धारणा में विभक्त, एकत्व की बहुत्वमयी क्रिया में अपने-आप बंदी । इसे अज्ञान कहा जाता हैं क्योंकि इसने एकत्व के ज्ञान को पीछे रख दिया है और जो इसी तथ्य के कारण, सचाई के साथ या पूरी तरह अपने-आपको या जगत् को, परात्पर को या वैश्व वास्तविकता को जानने में असमर्थ है । अज्ञान के अंदर निवास करनेवाला सचेतन जीव क्षण से क्षण, क्षेत्र से क्षेत्र, संबंध से संबंध में से गुजरता
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हुआ खंडित ज्ञान भूल में ठोकरें खाता चलता है ।१ यह निर्ज्ञानता नहीं बल्कि वास्तविकता की एक ऐसी दृष्टि और वास्तविकता का ऐसा अनुभव है जो अंशतः सत्य और अंशत: मिथ्या है, जैसा कि हर एक ऐसा ज्ञान होगा जो सारतत्त्व की अवहेलना करता है और केवल आभासों के भागते हुए अंशों को देखता है । दूसरी ओर एकत्व की निराकार चेतना में बंद रहना, अभिव्यक्त ब्रह्म के बारे में कुछ न जानना भी, अपने-आपमें अंध अंधकार के रूप मे बखाना गया है । सचमुच दोनों में से कोई भी यथार्थतः अंधकार नहीं है । एक तो है केन्द्रित प्रकाश से उत्पन्न चकाचौंध और दूसरा है अवकीर्ण, धुंधले और खंडित प्रकाश में चीजों के भ्रमात्मक आकारों को देखना, आधा कुहासे से आच्छादित और आधा स्पष्ट देखना । दिव्य चेतना दोनों में से किसी में बंद नहीं है बल्कि उस अक्षर एक और क्षर अनेक को एक ही शाश्वत, सबके साथ संबंध करनेवाले, सबमें एकत्व लानेवाले आत्मज्ञान में धारण करती है ।
विभाजनकारी चेतना में स्मृति एक वैसाखी है जिसका मन तब सहारा लेता है जब काल की वेगवती गति में, रुकने या आराम की संभावना के बिना, असहाय रूप से हांके जाने पर लड़खड़ाने लगता है । गति सर्वांगीण, प्रत्यक्ष, स्थायी आत्म- चेतना का और प्रत्यक्ष सर्वांगीण या सब पार्श्वोके एक साथ और समग्र वस्तु-बोध का दरिद्रताग्रस्त स्थानापन्न है । मन को प्रत्यक्ष आत्म-चेतना केवल वर्तमान सत्ता के क्षण में ही हो सकती है । काल के वर्तमान क्षण और देश के निकटतम क्षेत्र में चीजें जिस रूप में मन के सामने उपस्थित की जाती हैं और इन्द्रियां जिस तरह उन्हें ग्रहण कर सकती हैं उसीके अनुसार मन को थोड़ा-सा अर्द्ध प्रत्यक्ष दर्शन हो पाता है । वह अपनी इस कमी को स्मृति, कल्पना, विचार और नाना प्रकार के भाव- प्रतीकों द्वारा पूरा करता है । उसकी इन्द्रियां वे साधन हैं जिनके द्वारा वह वर्तमान क्षण और निकटतम देश में वस्तुओं के बाह्य रूपों को पकड़ता है । स्मृति, कल्पना, विचार वे साधन हैं जिनके द्वारा वह और भी कम प्रत्यक्ष रूप में वर्तमान क्षण और निकटस्थ देश से परे के रूपों का प्रतिनिधित्व करता है । एकमात्र चीज जो साधन नहीं है वह है वर्तमान क्षण में उसकी प्रत्यक्ष आत्म-चेतना । अतः यद्यपि वह आसानी से शाश्वत सत्ता के तथ्य को, सद्वस्तु को पकड़ सकता है फिर भी जब वह चीजों को बारीकी से देखता है, तो बाकी सबको केवल एक आभास के रूप में नहीं बल्कि संभवत: भ्रांति, अज्ञान, भ्रम के रूप में देखने के लिये प्रवृत्त होता
१ अविद्यायामन्तरे वर्तमान: . . .
जङध न्यमाना: परियन्ति मूढा: अन्धेनैव नीयमाना यथाऽन्धा ।।
अज्ञान में रहते और विचरते... वे गोल-गोल घूमते और ठोकरें खाते हैं और दले जाते हैं, वे मूढ़ लोग, ऐसे अंधे की तरह हैं, जिसे अंधा मार्ग दिखा रहा हों ।
मुण्डक उपनिषद् १. २.८ ५००
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क्योंकि वे उसे प्रत्यक्ष रूप में वास्तविक नहीं मालूम होते । मायावादी उन्हें ऐसा ही समझता है । एकमात्र वस्तु जिसे वह सचमुच वास्तविक मानता है वह है शाश्वत आत्मा जो मन की प्रत्यक्ष वर्तमान आत्म-चेतना के पीछे रहती है । या फिर बौद्धों की तरह व्यक्ति उस शाश्वत आत्मा को भी भ्रम, प्रतिरूप, मन की रची हुई मूर्ति, कोरी कल्पना या सत्ता का मिथ्या-संवेदन और मिथ्या-भाव मानने लगता है । मन अपनी दृष्टि में एक विलक्षण जादूगर बन जाता है । उसके कार्य और स्वयं वह आश्चर्यजनक रूप से एक साथ अस्तित्व रखते भी हैं और नहीं भी रखते, एक स्थायी वास्तविकता और फिर भी एक भागती हुई भूल जिसकी वह चाहे तो व्याख्या करे और चाहे न करे लेकिन हर दशा में वह स्वयं अपनी और अपने कार्यों की हत्या करने और काम तमाम करने के लिये निश्चय किये रहता है ताकि वह बाहरी प्रतीतियों के व्यर्थ प्रदर्शन से बचकर शाश्वत के कालातीत विश्राम में अवसान पा सके ।
लेकिन सच तो यह है कि हम बाहर और भीतर, वर्तमान और भूत आत्म-चेतना के भीतर जो तीक्ष्ण भेद करते हैं है मन की सीमित, अस्थिर क्रिया की चालाकियां हैं । मन के पीछे, उसका अपनी सतही क्रियाओं के लिये उपयोग करती हुई एक स्थायी चेतना है जिसमें वर्तमान रूप और उसके भूत या भविष्य के बीच कोई बंधनकारी धारणात्मक विभाजन नहीं है । फिर भी वह अपने-आपको काल में जानती है, एक ही साथ, अविभाजित दृष्टि में वर्तमान, भूत और भविष्य में जानती है । यह दृष्टि काल-पुरुष के सभी चलायमान अनुभवों को आलिंगन में लेती है और उन्हें कालातीत अचल आत्मा के आधार पर खड़ा करती है । जब हम मन और उसकी क्रियाओं से पीछे हटते हैं या ये नीरव हो जाते है तब हम इस चेतना के बारे में अभिज्ञ हो सकते हैं । लेकिन पहले हम उसकी अचल अवस्था को देखते हैं और अगर हम केवल आत्मा की अचलता को देखें तो हम उसके बारे में कह सकते हैं कि वह केवल कालहीन हीं नहीं क्रियारहित, भाव, विचार, कल्पना, स्मृति, इच्छा की गति से विहीन, आत्म-तृप्त, आत्मलीन और इस कारण विश्व के सारे कर्मों से शून्य भी है । तब वही निश्चल स्थिति हमारे लिये एकमात्र सत्य हो जाती है और बाकी सब असत् रूपों के प्रतीक --या ऐसे रूपों के प्रतीक जो किसी सचमुच अस्तित्ववान् चीज के अनुरूप नहीं है --अतः एक स्वप्न होता है । लेकिन यह आत्मलीनता हमारी चेतना की एक क्रिया और परिणामस्वरूप अवस्था ही है, ठीक उसी तरह जैसे विचार, स्मृति और इच्छा में आत्म-परिक्षेपण था । वास्तविक आत्मा वह शाश्वत है जो काल के बीच सचलता और काल को आधार देनेवाली निश्चलता, दोनों के लिये और दोनों के एक ही समय साथ-साथ होने के लिये स्पष्ट रूप से समर्थ है अन्यथा इन दोनों का अस्तित्व न होता । और न यही होता कि एक का अस्तित्व होता और दूसरा प्रतीतियों की रचना करता । यह है गीता का
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'परम पुरुष: 'परमात्मा', 'परब्रह्म' जो सर्वभूतात्मा और सर्वभूतेश्वर के रूप में क्षर और अक्षर सत्ता दोनों को धारण करता है ।
हम अभीतक मन और स्मृति के बारे में मुख्य रूप से काल में मानसिक आत्म-चेतना के प्राथमिक व्यापार के सिलसिले में विचार करते हुए यहां पहुंचे हैं । लेकिन अगर हम उनपर चेतना के साथ आत्मानुभव के संबंध में और आत्मानुभव के साथ अन्य-अनुभव के रूप में विचार करें तो हम उसी परिणाम पर लेकिन अधिक समृद्ध अंतर्वस्तुओं और अज्ञान के स्वरूप के बारे में अधिक स्पष्ट प्रकाश के साथ पहुंचते हैं । हमने अभी जो कुछ देखा है उसे यूं व्यक्त करें --एक शाश्वत सचेतन पुरुष है जो काल की क्रिया से मुक्त स्थिर, अचंचल आत्म-चेतना पर मन की गतिशील क्रियाओं को सहारा देता है, और जिसमें मन से श्रेष्ठतर ज्ञान है फिर भी वह काल की समस्त गति का आलिंगन करता है, साथ ही मन की क्रिया द्वारा उस गति में निवास करता है । सतही मनोमय सत्ता के रूप में क्षण- क्षण गति करता हुआ, अपनी सारभूत आत्मा को देखे बिना, केवल कालगति के अनुभवों के साथ अपने संबंधों का अवलोकन करता हुआ, उस गति में भविष्य को अपने-आप से दूर उसमें रखता हुआ जो अज्ञान और असत् की शून्यता प्रतीत होता है लेकिन है एक अनुपलब्ध पूर्णता, वर्तमान में होने के ज्ञान और अनुभव को पाता हुआ उसे अतीत में इस तरह से संजोता हुआ मानों वह भी अज्ञान और असत् की शून्यता हो, आंशिक रूप से प्रकाशित और आंशिक रूप से स्मृति द्वारा रक्षित और संचित --वह ऐसी चीज का रूप धारण करता है जो चंचल और अनिश्चित है और अस्थायी रूप से चंचल और अनिश्चित चीजों को पकड़ती है । लेकिन वास्तव में हम देखेंगे कि वह हमेशा वही शाश्वत रहता है जो सदा अपने अतिमानसिक ज्ञान में स्थिर और आत्म-प्रतिष्ठ है । और वह जिसे पकड़ता है वह भी सदा स्थिर और शाश्वत है क्योंकि वह काल के अनुक्रम में मानसिक रूप से अपने आपका ही अनुभव कर रहा है ।
काल सचेतन सत्ता का, जिसे अनुभव और कर्म के मूल्यों में बदल लिया गया है, एक बड़ा बैंक है : सतही मानसिक सत्ता भूत से (और भविष्य से भी) संपत्ति निकालती रहती है और उसे निरंतर वर्तमान के सिक्कों में बदलती रहती है । उसने जो लाभ जुटाये हैं, वह उनका विवरण और संचय उसमें करती है जिसे हम अतीत कहते हैं, वह नहीं जानती कि हमारे अंदर अतीत किस तरह सदा उपस्थित रहता है । उसमें से उसे जितनी जरूरत होती है उतने का वह ज्ञान और सिद्ध सत्ता के सिक्के के रूप में उपयोग करती है और उसे वर्तमान के व्यापार के लिये मानसिक, प्राणिक और भौतिक कर्म के सिक्कों के रूप में खर्च करती है, उसकी दृष्टि में यह व्यापार भविष्य की नयी संपदा की सृष्टि करता है । अज्ञान सत्ता के आत्मज्ञान का इस तरह से उपयोग करना है जिसे वह कालानुभव के लिये मूल्यवान् और काल-
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क्रिया के लिये मान्य बना देता है । हम जिसे नहीं जानते वह ऐसी चीज है जिसे हमने अभीतक मानसिक अनुभव में नहीं लिया है, अनुभव के सिक्कों में बदल कर व्यवहार में नहीं लिया है या जिसके सिक्के बनाना और व्यवहार में लाना बंद कर दिया है । नेपथ्य में सब कुछ ज्ञात है और सब आत्मा की इच्छा के अनुसार उसके काल, देश और कार्य-कारण संबंध के साथ व्यवहार में लाये जाने के लिये तैयार है । लगभग यह कहा जा सकता है कि हमारी सतही सत्ता हमारे भीतर की ज्यादा गहरी शाश्वत आत्मा ही है जो अपने-आपको काल में, साहस-यात्रा के लिये, अनंत संभावनाओं का जूआ और सट्टा खेलने के लिये बाहर प्रक्षिप्त करती है, अपने- आपको क्षणों के अनुक्रम में सीमित करती है ताकि उसे अपनी साहस-यात्रा का पूरा-पूरा कौतुक और आनंद मिल सके और वह अपने आत्म-ज्ञान और आत्म-सत्ता को पीछे की ओर खींच लेती है ताकि वह फिर से खोई हुई और हारी हुई प्रतीत होनेवाली चीजों को जीत सके, युगों की आकुलता और खोज और प्रयास के मिले-जुले सुख-दुःख के बीच में से अपने पूर्ण स्वरूप को फिर से जीत सके ।
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