Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १०
तादात्म्य द्वारा ज्ञान और भेदात्मक ज्ञान
आत्मनात्मनं पश्यन्नात्मनि । वे आत्मा को आत्मा में, आत्मा द्वारा देखते हैं । गीता ६.२० यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति;... तदितर इतरं शृणोति, तदितर इतरं मनुते, इतरं स्पृशति, इतरं विजानाति । यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं... विजानीयात्, येनेदं सर्व विजान्तति ।। सर्वं त परादाद्योऽन्यत्रात्मन: सर्व वेद; इदं ब्रह्म... इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा ।। जहां द्वैत है वहां अन्य अन्य को देखता है, अन्य अन्य को सुनता, अन्य को स्पर्श करता, अन्य के बारे में सोचता, अन्य को जानता है । लेकिन जब व्यक्ति सबको आत्मा के रूप में देखता है तो वह किसके द्वारा जानेगा ? यह जो कुछ है इस सबको वह आत्मा द्वारा ही जानता है... जो सबको आत्मा में न देखकर कहीं और देखता है उसे सब धोखा देते हैं; क्योंकि यह सब जो कुछ है ब्रह्म हैं । सभी सत्ताएं और यह सब जो है, यह आत्मा ही है । बृहदारण्यकोपनिषद् ४.५.१५, ७ पराञचि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीर प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।। स्वयंभू ने इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर खुलनेवाले बनाये हैं इसलिइये मनुष्य चीजों को बाहर की ओर देखता है अपनी अंतरात्मा में नहीं । कोई विरला धीर, अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि को अंदर की ओर मोड़कर आत्मा का साक्षात्कार करता है । कठोपनिषद् २. १. १ न हि द्रष्टुर्दृष्टे:... वक्तुर्वक्ते:... श्रोतु: श्रुते... विज्ञातुर्विज्ञाते- र्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् न तु तद्द्वितीयमस्ति तगेऽन्यद् विभक्तं यत्पश्थेत्, तद्वदेत्,यच्छृ णुयात् यद्विजानीयात् ।। द्रष्टा की दृष्टि का, वक्ता के वचन का... श्रोता के श्रवण का... ज्ञाता के ज्ञान का लोप नहीं होता क्योंकि वे सभी अविनाशी हैं । किंतु वह जो कुछ देखता है, जिससे वह बोलता है, जिससे
आत्मनात्मनं पश्यन्नात्मनि ।
वे आत्मा को आत्मा में, आत्मा द्वारा देखते हैं ।
गीता ६.२०
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति;... तदितर इतरं
शृणोति, तदितर इतरं मनुते, इतरं स्पृशति, इतरं विजानाति ।
यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं... विजानीयात्,
येनेदं सर्व विजान्तति ।।
सर्वं त परादाद्योऽन्यत्रात्मन: सर्व वेद; इदं ब्रह्म...
इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा ।।
जहां द्वैत है वहां अन्य अन्य को देखता है, अन्य अन्य को सुनता,
अन्य को स्पर्श करता, अन्य के बारे में सोचता, अन्य को जानता
है । लेकिन जब व्यक्ति सबको आत्मा के रूप में देखता है तो वह
किसके द्वारा जानेगा ? यह जो कुछ है इस सबको वह आत्मा द्वारा
ही जानता है... जो सबको आत्मा में न देखकर कहीं और देखता
है उसे सब धोखा देते हैं; क्योंकि यह सब जो कुछ है ब्रह्म हैं ।
सभी सत्ताएं और यह सब जो है, यह आत्मा ही है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् ४.५.१५, ७
पराञचि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीर प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।।
स्वयंभू ने इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर खुलनेवाले बनाये हैं
इसलिइये मनुष्य चीजों को बाहर की ओर देखता है अपनी अंतरात्मा
में नहीं । कोई विरला धीर, अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि
को अंदर की ओर मोड़कर आत्मा का साक्षात्कार करता है ।
कठोपनिषद् २. १. १
न हि द्रष्टुर्दृष्टे:... वक्तुर्वक्ते:... श्रोतु: श्रुते... विज्ञातुर्विज्ञाते-
र्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् न तु तद्द्वितीयमस्ति तगेऽन्यद्
विभक्तं यत्पश्थेत्, तद्वदेत्,यच्छृ णुयात् यद्विजानीयात् ।।
द्रष्टा की दृष्टि का, वक्ता के वचन का... श्रोता के श्रवण
का... ज्ञाता के ज्ञान का लोप नहीं होता क्योंकि वे सभी अविनाशी
हैं । किंतु वह जो कुछ देखता है, जिससे वह बोलता है, जिससे
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वह सुनता है, जिससे वह जानता है, वह सब कोई और या स्वयं उससे भिन्न और पृथक् नहीं है । बृहदारण्यकोपनिषद् ४.३ .२३-३०
वह सुनता है, जिससे वह जानता है, वह सब कोई और या स्वयं
उससे भिन्न और पृथक् नहीं है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् ४.३ .२३-३०
हमारा सतही ज्ञान -अपने-आपको, अपनी भीतरी गतिविधि को, अपने बाहर के जगत् उसकी वस्तुओं और घटनाओं को देखने का हमारा सीमित और प्रतिबद्ध मानसिक तरीका -इस तरह बना है कि वह ज्ञान की चतुर्विध कोटियों में से अलग-अलग मात्रा प्राप्त करता है । जानने की मौलिक और आधारभूत विधि जो वस्तुओं में स्थित गुह्य आत्मा के लिये सहज है वह है तादात्म्य द्वारा ज्ञान; दूसरी व्युत्पन्न विधि है प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान जो अपने मूल में तादात्म्य द्वारा गुप्त ज्ञान से संबद्ध होता है या उसीसे शुरू होता है, परंतु वास्तव में वह अपने मूल स्रोत से अलग होता है और इस कारण अपने ज्ञान में सबल किंतु अपूर्ण होता है; तीसरी विधि है अवलोकन के विषय से पृथक् होकर फिर भी प्रत्यक्ष संपर्क के सहारे या आंशिक तादात्म्य से ज्ञान पाना और चौथी है पूरी तरह पृथगात्मक ज्ञान जो परोक्ष संपर्क के यंत्रों पर आधारित रहता है, यह अर्जित ज्ञान होते हुए भी, उसके बारे में सचेतन हुए बिना एक पहले से उपस्थित आंतरिक अभिज्ञता और ज्ञान की अंतर्वस्तुओं का प्रस्तुतिकरण या उन्हें ऊपर उठाना है । तादात्म्य द्वारा ज्ञान, घनिष्ठ प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान, पृथगात्मक प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान और पूरी तरह पृथगात्मक ज्ञान जो परोक्ष संपर्क द्वारा होता है -ये चार हैं प्रकृति की ज्ञान-प्राप्ति की विधियां ।
जानने की प्रथम विधि अपने शुद्धतम रूप में हमारी अपनी मूल सत्ता की प्रत्यक्ष अभिज्ञता द्वारा सतही मन में चित्रित होती है । यह ऐसा ज्ञान है जो आत्मा और सत्ता के शुद्ध तथ्य के सिवा हर चीज से रिक्त होता हैं, हमारे सतही मन को जगत् की और किसी चीज की ऐसी अभिज्ञता नहीं होती । लेकिन हमारी आत्मनिष्ठ चेतना के ढांचे और गतियों के ज्ञान में तादात्म्य से आनेवाली अभिज्ञता का कोई अंश जरूर प्रवेश करता है, क्योंकि हम इन गतिविधियों में एक विशेष तादात्म्य के साथ अपने-आपको प्रक्षिप्त कर सकते हैं । हम देख आये हैं कि क्रोध की उस बाढ़ में, जो हमें निगल लेती है, यह कैसे हो सकता है, उस समय हमारी सारी चेतना क्रोध की एक लहर मालूम होती है । प्रेम, दुःख, हर्ष आदि अन्य आवेगों में भी वही शक्ति होती हैं जो हमें पकड़कर हमपर कब्जा कर सकती है । विचार भी हमें सोख लेता और हमपर कब्जा कर लेता है । विचारक हमारी आंख से ओझल हो जाता है और हम विचार और चिंतन बन जाते हैं । लेकिन बहुधा दोहरी गति होती है । हमारा एक भाग विचार या आवेग बन जाता है, हमारा एक और भाग या तो एक तरह के लगाव के साथ उसका साथ देता है या नजदीक से उसका अनुसरण करता है और उसे ऐसे प्रत्यक्ष अंतरंग संपर्क द्वारा जानता है जो उस गति
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के साथ तादात्म्य या उसमें पूर्ण आत्म-विस्मृति से जस ही कम रहता है ।
यह तादात्म्य संभव है, और युगपत् रूप से अलगाव और आंशिक तादात्म्य भी संभव है क्योंकि ये चीजें हमारी सत्ता की संभूतियां हैं, हमारे मानसिक पदार्थ और मानसिक ऊर्जा के, हमारे प्राणिक पदार्थ और प्राणिक ऊर्जा के निर्धारक हैं । लेकिन चूंकि वे हमारे छोटे-से अंश हैं इसलिये हम उनके साथ एक होने या उनके कब्जे में आने के लिये बाधित नहीं हैं -हम अपने-आपको अलग कर सकते हैं, सत्ता को उसकी अस्थायी संभूति से अलग कर सकते, उसका अवलोकन और नियंत्रण कर सकते हैं, उसकी अभिव्यक्ति के लिये स्वीकृति दे सकते हैं या उसे रोक सकते हैं । इस भांति, हम आंतरिक तटस्थता द्वारा, मानसिक या आध्यात्मिक अलगाव द्वारा, आंशिक या आधार रूप से अपने-आपको मानसिक प्रकृति या प्राणिक प्रकृति के सत्ता पर नियंत्रण से मुक्त कर सकते हैं और साक्षी, ज्ञाता और शासक की स्थिति अपना सकते हैं । इस भांति हमें आत्मनिष्ठ गतिविधि का दोहरा ज्ञान होता है । एक है तादात्म्य द्वारा उसके पदार्थ और उसकी क्रिया-शक्ति का अंतरंग ज्ञान, यह है किसी भी उस ज्ञान से अधिक अंतरंग ज्ञान जो हमें पूरी तरह भेदात्मिका या विषयनिष्ठ रीति से मिलता है, जैसा कि हमें अपने से बाहर की चीजों का, हमारे लिये अनात्मा होनेवाली चीजों का मिलता है । साथ ही तटस्थ अवलोकन द्वारा एक ज्ञान प्राप्त होता है । वह तटस्थ होता है पर उसमें प्रत्यक्ष संपर्क की शक्ति होती है, वह हमें प्रकृति-ऊर्जा की तल्लीनता से मुक्त करता है और गति को हमारी अपनी सत्ता और जगत्-सत्ता के बाकी भाग से संबद्ध करने में समर्थ बनाता है । अगर हमारे अंदर यह तटस्थता न हो तो हम अपनी स्वरूप-स्थिति और प्रभुताशाली ज्ञान को संभूति, गतिविधि और क्रिया की प्राकृत आत्मा में खो देते हैं और तब हालांकि हम गति को अंतरंग रूप से जानते हैं फिर भी हम उसे प्रमुख रूप से पूरी तरह नहीं जानते । स्थिति ऐसी न होगी यदि हम अपनी गति के साथ अपने तादात्म्य के साथ-ही-साथ, अपनी बाकी आत्मनिष्ठ सत्ता के साथ अपने तादात्म्य को भी ले सकें यानी अगर हम पूरी तरह से संभूति की लहर में डुबकी लगा सकें और साथ ही उस स्थिति या क्रिया की तल्लीनता में मानसिक साक्षी, प्रेक्षक और नियंता रह सकें । लेकिन हम आसानी से यह नहीं कर सकते क्योंकि हम विभाजित चेतना में निवास करते हैं जिसमें हमारा प्राणिक भाग -शक्ति, कामना, आवेश और कर्म की हमारी प्राण-प्रकृति -मन को नियंत्रित करने और निगल जाने के लिये प्रवृत्त होता है और मन को इस अधीनता से बचना और प्राण पर नियंत्रण करना होता है और इससे अलग रहकर ही वह इस प्रयास में सफल हो सकता है क्योंकि अगर वह तदात्म हो जाये तो वह खो जाता और जीवन-धारा में बह जाता है । फिर भी विभाजन द्वारा एक तरह का संतुलित द्विविध तादात्म्य संभव होता है यद्यपि संतुलन बनाये रखना आसान नहीं है । एक विचारात्मा है जो अवलोकन करती और अनुभव
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के लिये आवेश को अनुमति देती है -या उसे कोई प्राणिक दबाव अनुमति देने के लिये बाधित करता है -और एक प्राणात्मा होती है जो अपने-आपको प्रकृति की धारा में बहा ले जाने देती है । तो यहां हमारे आत्मनिष्ठ अनुभव में, हमारे पास चेतना की क्रिया का एक क्षेत्र होता है जिसमें ज्ञान की तीन क्रियाएं एक साथ मिल सकती हैं, तादात्म्य द्वारा एक तरह का ज्ञान, सीधे संपर्क द्वारा ज्ञान और उनपर आधारित भेदात्मक ज्ञान ।
विचार में विचारक और विचार-क्रिया में फर्क करना ज्यादा कठिन होता है । विचारक विचार में डूबा और खोया रहता है या विचार-धारा में बह जाता, उसके साथ एक हो जाता है । साधारणत: वह सोचते. समय या सोचने की क्रिया करते हुए विचारों को नहीं देख सकता या उनकी समीक्षा नहीं कर सकता । यह उसे सिंहावलोकन करते हुए स्मृति की सहायता से या आगे बढ़ने से पहले, संशोधक मूल्यांकन से पहले समीक्षात्मक विराम के समय करना पड़ता है । लेकिन विचार करने और सचेतन रूप से मन की क्रिया के निदेशन में आंशिक युगपत्ता लायी जा सकती है जब विचार पूरी तरह तल्लीन नहीं करता, जब विचारक पीछे की ओर मनोमय पुरुष में हटकर, मानसिक ऊर्जा से हटकर खड़े रहने की क्षमता प्राप्त कर लेता है । विचार की प्रक्रिया के, कम-से-कम अस्पष्ट भाव के साथ ही सही, विचार में पूरी तरह तल्लीन होने की जगह हम मानसिक दृष्टि द्वास विचार की प्रक्रिया को देख सकते हैं, अपने विचारों के मूल और उनकी गति-धारा का निरीक्षण कर सकते हैं । आंशिक रूप से नीरव अंतर्दृष्टि द्वारा, और अंशत: विचार पर विचार की प्रक्रिया से उनका निर्णय और मूल्यांकन कर सकते हैं । लेकिन तादात्म्य चाहे जैसा हो, ध्यान देने की बात यह है कि हमारी आंतरिक गतियों का ज्ञान दोहरी प्रकृतिवाला होता है, विभाजन और सीधा संपर्क का । क्योंकि जब हम अपने-आपको तटस्थ कर लेते हैं तब भी यह निकट संपर्क बना रहता है । हमारा ज्ञान हमेशा सीधे संपर्क पर, उस जानकारी पर आधारित होता है जो प्रत्यक्ष अभिज्ञता द्वारा प्राप्त होती है जिसमें थोड़ा-सा तादात्म्य का तत्त्व रहता है । हमारी तर्क-बुद्धि का आंतरिक गतियों को देखने- और जानने का साधारण तरीका अधिक अलगाववाली वृत्ति का होता है । अधिक अंतरंग तरीके में हमारे मन का अधिक गतिशील भाग अपने-आपको हमारे संवेदनों, भावों और कामनाओं के साथ जोड़े रखता है । लेकिन इस मेल में भी विचारशील मन हस्तक्षेप कर सकता है और मन के क्रियात्मक, आत्म-संयुक्तकारी भाग और प्राणिक या शारीरिक गतिविधि -इन दोनों पर वह एक पृथक्कारी वियुक्त अवलोकन और नियंत्रण कर सकता है । हमारे भौतिक शरीर की जितनी भी गतिविधियां दिखायी दे सकती हैं उन्हें भी हम इन दोनों तरीकों से जानते और नियंत्रित करते हैं, एक पृथक्कारी दूसरा अंतरंग । शरीर और वह जो कुछ करता है उसे हम अंतरंग रूप से ऐसे अनुभव करते हैं जैसे वह हमारा अंश
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है लेकिन मन उससे अलग है और उसकी गतियों पर एक तटस्थ नियंत्रण रख सकता है । हमारा अपनी आंतरिक सत्ता और प्रकृति का सामान्य ज्ञान, यद्यपि वह अभीतक अपूर्ण और अधिकतर बाहरी होता है, फिर भी जहांतक उसकी गति है, उसे इससे एक विशेष अंतरंगता, निकटता और ऋजुता प्राप्त होती है । यह चीज हमारे बाहर जो जगत् है, उसकी गतिविधियों और उसके बारे में हमारे ज्ञान में अनुपस्थित होती है क्योंकि वहां देखी और अनुभव की हुई चीज अनात्म होती है, जिसका अनुभव हमारे अपने भाग के रूप में नहीं होता, अतः विषय के साथ चेतना का पूर्णतया प्रत्यक्ष संपर्क संभव नहीं होता । इन्द्रियों के माध्यम की जरूरत होती हैं जो हमें उसका निकटस्थ, अंतरंग ज्ञान तो नहीं देता किंतु ज्ञान के लिये प्रथम सामग्री के रूप में एक आकृति देता है ।
बाहरी चीजों के बोध में हमारे ज्ञान का एकदम पृथक्कारी आधार होता है । उसकी सारी कार्य-प्रणाली और प्रक्रिया परोक्ष बोध के स्वभाव की होती है । हम अपने-आपको बाहरी विषयों के साथ एकात्म नहीं करते, दूसरे मनुष्यों के साथ भी नहीं यद्यपि वे हमारी प्रकृति के ही जीव हैं । हम उनकी सत्ता में इस तरह प्रवेश नहीं कर सकते मानों वह हमारी अपनी सत्ता हो, हम उन्हें या उनकी गतिविधियों को उतने प्रत्यक्ष, निकटस्थ और अंतरंग रूप में नहीं जान सकते जैसे हम अपने- आपको या अपनी गतिविधियों को जानते हैं - भले वह अपूर्ण रूप से ही क्यों न हो । लेकिन केवल तादात्म्य का ही अभाव नहीं रहता, प्रत्यक्ष संपर्क भी अनुपस्थित रहता है । हमारी चेतना और उनकी चेतना, हमारे पदार्थ और उनके पदार्थ, हमारी आत्म-सत्ता और उनकी आत्म-सत्ता के बीच कोई प्रत्यक्ष स्पर्श नहीं रहता । उनके साथ हमारा जो एकमात्र प्रत्यक्ष संपर्क मालूम होता है या हमें उनका जो प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता हैं वह इन्द्रियों के द्वारा है । ऐसा लगता हैं कि दृष्टि, श्रुति और स्पर्श ज्ञान के विषय के साथ किसी प्रकार की प्रत्यक्ष अंतरंगता की शुरूआत करते हैं । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, यह वास्तविक प्रत्यक्षता नहीं है, वास्तविक अंतरंगता नहीं है क्योंकि इन्द्रियों से जो प्राप्त होता है वह स्वयं वस्तु का आंतरिक या अंतरंग स्पर्श नहीं होता बल्कि स्वयं हमारे अंदर उसका बिंब या स्पंदन या स्नायविक संदेश होता है जिसके द्वारा हमें उसे जानना, सीखना होता है । ये साधन इतने प्रभावहीन, इतने दरिद्र हैं कि अगर यही पूरा-का-पूरा साधन-यंत्र होता तो हम शायद ही कुछ, या कुछ भी न जान पाते या हमें अस्त-व्यस्तता का बड़ा धुंधलापन ही मिल पाता । लेकिन यहां ऐंद्रिय-मन का अंतर्भास हस्तक्षेप करता है जो बिंब या स्पन्दन के संकेत को पकड़ लेता है और उसे विषय-स्वरूप मान लेता है, एक प्राणिक अंतर्भास का हस्तक्षेप होता है जो ऐंद्रिय-संपर्क से बने एक और तरह के स्पंदन द्वारा उस विषय की ऊर्जा या उसकी शक्ति की आकृति को पकड़ता है, और प्रत्यक्ष दर्शनवाले मन का अंतर्भास जो इस सारे साक्ष्य के आधार पर तुरंत विषय
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के बारे में एक उचित भाव बना लेता है । इस प्रकार से बने बिंब की व्याख्या में जो कमी रह जाती है उसे बुद्धि का हस्तक्षेप या समग्र रूप से समझनेवाली बुद्धि पूरा कर देती है । अगर पहला मिश्रित अंतर्भास एक सीधे संपर्क का परिणाम होता या वह ऐसे समग्र अंतर्भासिक मानस की क्रिया का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करता जो अपने प्रत्यक्ष दर्शनों का स्वामी है तो, जो ज्ञान इन्द्रियों या उनके संकेतों के द्वारा नहीं आता उसके अन्वेषक और व्यवस्थापक के रूप को छोड़कर बाकी किसी चीज के लिये तर्क-बुद्धि के हस्तक्षेप की जरूरत न होती । इसके विपरीत यह एक ऐसा अंतर्भास है जो एक बिंब पर, एक ऐंद्रिय प्रलेखन और परोक्ष साक्ष्य पर कार्य करता है, विषय के साथ चेतना के सीधे संपर्क पर नहीं । लेकिन चूंकि बिंब या स्पंदन त्रुटिपूर्ण और संक्षिप्त आलेखन हैं और अंतर्भास स्वयं सीमित है और धुंधले माध्यम द्वारा आता है और एक अंधे प्रकाश में कार्य करता है इसलिये विषय के बारे में हमारी अंतर्भासात्मक, व्याख्यात्मक रचना संदेहास्पद रहती है और कम-से- कम अधूरी तो होती ही है । मनुष्य को अपने ऐंद्रिय उपकरणों की त्रुटियों, भौतिक मन के प्रत्यक्ष दर्शन की अविश्वसनीयता और प्राप्त सामग्री की व्याख्या में दरिद्रता की कमियों को पूरा करने के लिये अपनी तर्क-बुद्धि को विकसित करना पड़ा है ।
अतः हमारा जगत् का ज्ञान एक कठिन रचना हैं जो ऐंद्रिय बिंबों के अपूर्ण आलेखन, प्रत्यक्षदर्शी मन, प्राणिक मन और ऐंद्रिय मन द्वारा उसकी अंतर्भासिक व्याख्या होती है और तर्क-बुद्धि द्वारा संपूरक पूर्ति, संशोधन, संपूरक ज्ञान की अभिवृद्धि और सहयोजन होते हैं । फिर भी हम जिस जगत् में निवास करते हैं उसके बारे में हमारा ज्ञान संकीर्ण और अपूर्ण, उसके महत्त्व या अर्थ के बारे में हमारी व्याख्या संदेहास्पद है । अपूर्णता को पूरा करने के लिये कल्पना, परिकल्पना, चिंतन, निष्पक्ष विवेचन, तर्क, अनुमान, मापन, परीक्षण, और विज्ञान द्वारा ऐंद्रिय साक्ष्य का और अधिक संशोधन और विस्तार -इस सारे यंत्र को बुलाना पड़ा है । इस सब के बाद भी परिणाम में हमें जो चीज मिलती है, वह है पाये हुए परोक्ष ज्ञृान का अर्द्ध-निश्चित, अर्द्ध-संदिग्ध संचय, अर्थसूचक प्रतिबिंबों का और विचारात्मक प्रतिरूपों, अमूर्त विचार-प्रतीकों, प्राक्कल्पनाओं, सिद्धांतों और सामान्यीकरणों का पुंज । लेकिन इस सबके साथ संदेहों, कभी खतम न होनेवाली बहसों और प्रश्नों का पुंज भी रहता है । ज्ञान के साथ शक्ति आयी है लेकिन हमारे ज्ञान की अपूर्णता के कारण हमें शक्ति के सच्चे उपयोग का कोई भान नहीं रहता, हमें उस लक्ष्य का भी पता नहीं होता जिसकी ओर ज्ञान और शक्ति के उपयोग को मोड़ना और प्रभावकारी बनाना चाहिये । हमारे आत्मज्ञान की अपूर्णता के कारण स्थिति और भी खराब हो जाती है क्योंकि हमारा वर्तमान आत्मज्ञान बहुत ही कम और दयनीय रूप से अपर्याप्त है । वह केवल ऊपरी सतह का, हमारी आभासी
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प्रतीयमान आत्मा और प्रकृति का है, हमारी सच्ची आत्मा और हमारे जीवन के सच्चे अर्थ का नहीं । उपयोग करनेवाले में आत्म-ज्ञान और आत्माधिकार का अभाव है, उसके जगत्-शक्ति और जगत्-ज्ञान के उपयोग में बुद्धिमत्ता और उचित इच्छा का अभाव है ।
यह स्पष्ट है कि सतह पर हमारी अवस्था वस्तुत: -अपनी पहुंच की हदतक -ज्ञान की अवस्था है, लेकिन एक सीमित ज्ञान की जो अज्ञान में लिपटा और उससे आक्रांत है और अपने परिसीमन के कारण, एक बड़ी हदतक, अपने- आप एक तरह का अज्ञान है और बहुत हुआ तो ज्ञान और अज्ञान का मिश्रण है । वह और कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि जगत् के बारे में हमारी अभिज्ञता पृथक्कारी और सतही अवलोकन से आती है । उसके अधिकार में ज्ञान का परोक्ष साधन ही है और हमारा स्वयं अपने बारे में ज्ञान यद्यपि ज्यादा प्रत्यक्ष है फिर भी हमारी सत्ता की बाहरी सतहतक प्रतिबद्ध रहने के कारण हमारी सच्ची आत्मा, हमारी प्रकृति के सच्चे मूलों, हमारे कर्मों को चलानेवाली सच्ची शक्तियों से अनभिज्ञ रहने के कारण निरर्थक हो जाता है । यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हम अपने-आपको केवल एक बाहरी ज्ञान के द्वारा जानते हैं -हमारी चेतना और विचार के स्रोत एक रहस्य हैं । हमारे मन, भावों और संवेदनों की सच्ची प्रकृति एक रहस्य है । हमारे जन्म का कारण और उसका उद्देश्य, हमारे जीवन और उसके क्रिया-कलाप का अर्थ रहस्य है । अगर हमें वास्तविक आत्म-ज्ञान और वास्तविक जगत्-ज्ञान होता तो ऐसी बात न हो पाती ।
अगर हम इस परिसीमन और अपूर्णता के कारण की खोज करें तो हमें पता लगेगा कि यह इसलिये हैं क्योंकि हम अपनी ऊपरी सतह पर केंद्रित हैं, आत्मा की गहराइयां, हमारी समग्र प्रकृति के रहस्य एक ऐसी दीवार के पीछे हमसे छिपे हैं जो हमारी बहिर्मुखी चेतना से बनी है या उसके लिये बनायी गयी है ताकि वह हमारी बृहत्तर सत्ता के अधिक विस्तृत और अधिक गहरे सत्य के आक्रमण से सुरक्षित रहकर मन, प्राण और शरीर की अहं-केंद्रित व्यक्तीयन की क्रियाओं को आगे बढ़ा सके । इस दीवार में से होकर हम अपनी आंतरिक आत्मा और वास्तविकता को केवल दरारों और झरोखों से ही देख सकते हैं और हम वहां एक रहस्यमय धुंधलेपन से अधिक शायद ही कुछ देख सकें । साथ-ही-साथ हमारी चेतना को अपने अहं-केंद्रित व्यक्तीयन की रक्षा भी करनी होती है -न केवल ऐक्य और अनंतता की अपनी गहनतर आत्मा से बल्कि वैश्व अनंत से भी । वह यहां भी विभाजन की दीवार बनाती है और उस सबको बाहर ही बंद कर देती है जो उसके अहं के चारों ओर केंद्रित न हो, उसे अनात्म के रूप में त्याग देती है । लेकिन चूंकि उसे इस अनात्म के साथ रहना है, क्योंकि वह उसीकी चीज है, उसीपर निर्भर है, उसके अंदर निवास करती है इसलिये उसे संचार का कोई साधन रखना पड़ता
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है । उसे अपनी अहं की दीवार और शरीर के दायरे में अपने-आपको बांध रखनेवाली दीवार के बाहर जाना पड़ता है ताकि वह उन आवश्यकताओं को पूरा कर सके जिन्हें अनात्मा उसे दे सकती है । उसे किसी प्रकार से उस सबको जानना होता है जो उसके चारों ओर है, ताकि वह उसपर प्रभुत्व जमा सके और जहांतक संभव हो उसे व्यक्तिगत और सामूहिक मानव जीवन और अहं का दास बना सके । शरीर हमारी चेतना को इन्द्रियों के द्वार देता है जिनसे वह जगत् के साथ, अपने से बाहर के अनात्म के साथ आवश्यक संपर्क स्थापित कर सके और उसके अवलोकन के तथा उसपर क्रिया करने के साधन दे सके । मन इन साधनों का उपयोग करता और नयों का आविष्कार करता है जो इनकी कमी को पूरा कर सकें और वह कोई रचना तैयार करने, कोई ज्ञान-तंत्र स्थापित करने में सफल होता है जो उसके उस तात्कालिक प्रयोजन या सामान्य इच्छा के काम आता है जिसके अंदर उस विशाल पराये वातावरण की सत्ता को आंशिक रूप में अपने अधिकार में करने और जहां वह उसे अधिकार में न कर सके वहां उसके साथ व्यवहार करने की इच्छा होती है; लेकिन वह जो ज्ञान प्राप्त करता है वह विषयगत होता है, वह मुख्य रूप से चीजों की ऊपरी सतह का या जो सतह के जस ही नीचे हो उसका ज्ञान होता है -यह व्यावहारिक, सीमित और असुरक्षित होता है । वैश्व ऊर्जा के आक्रमण उसकी बचाव-व्यवस्था से समान रूप से असुरक्षित और एकांगी होते हैं । '' अनुमति के बिना प्रवेश निषिद्ध है" की सूचना के बावजूद उस ज्ञान पर सूक्ष्म और अदृश्य रूप से जगत् के आक्रमण होते रहते हैं । वह अनात्म द्वारा आवृत रहता है और उसीके द्वारा गाढ़ा होता है । उसके विचार, उसकी इच्छा, उसकी भावनामय और प्राणिक ऊर्जा में दूसरों के और विश्व प्रकृति के विचार, इच्छा और आवेग की लहरों और तरंगों का, प्राणिक आघातों और सब प्रकार की शक्तियों का प्रवेश होता है । उसकी बचाव की दीवार बाधा की दीवार बन जाती है जो उसे इस सारी क्रिया-प्रतिक्रिया को जानने से रोकती है । वह बस उसीको जानती है जो इन्द्रियों के द्वारा से या मानसिक प्रत्यक्ष दर्शन से आता है जिसके बारे में वह निश्चित नहीं हो सकती, या जिसके द्वारा वह अपनी जुटाई हुई ऐंद्रिय तथ्य सामग्री से अनुमान या निर्माण कर सकती है । जो उसमें से होकर आता है वह उसीको जानती है, बाकी सब उसके लिये निर्ज्ञान का शून्य है ।
तो फिर अपने-आपको बंदी बनानेवाली यह दोहरी दीवार, सतही अहंकार की सीमाओं में यह अपनी किलेबंदी हमारे सीमित ज्ञान या अज्ञान का कारण है । और अगर इस तरह अपने-आपको बंदो बनाना ही हमारे जीवन का संपूर्ण स्वरूप होता तो अज्ञान का कोई इलाज न होता । लेकिन तथ्य यह है कि यह सतत अहंकार की बाहरी रचना वस्तुओं में चित्-शक्ति का केवल एक अंतरिम साधन है ताकि गुप्त व्यक्ति, अंदर की आत्मा भौतिक प्रकृति में अपना प्रतिनिधि, उपकरणात्मक रूपायण
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स्थापित कर सके, अज्ञान की प्रकृति में आंतरिक व्यक्तीकरण कर सके क्योंकि वैश्व निश्चेतना में से बाहर उभरते जगत् में आरंभ में बस यही किया जा सकता है । हमारा आत्म-अज्ञान और जगत्-अज्ञान सर्वांगीण आत्म-ज्ञान और सर्वांगीण जगत्- ज्ञान की ओर उसी अनुपात में बढ़ सकते हैं जैसे हमारा सीमित अहं और उसकी आधी अंधी चेतना विशालतर भीतरी सत्ता और चेतना और सच्ची आत्म-सत्ता की ओर खुले और अपने से बाहर के अनात्म के बारे में भी आत्मा की तरह अभिज्ञ हो जाये -एक ओर विश्व प्रकृति जो हमारी अपनी प्रकृति का घटक तत्त्व है, दूसरी ओर एक सत् स्वरूप जो हमारी अपनी आत्म सत्ता का असीम प्रसार है । हमारी सत्ता को अपनी ही बनायी हुई अहं-चेतना की दीवारें तोड़नी हैं, उसे अपने-आपको अपने शरीर के परे विस्तृत करना है और विश्व के शरीर में निवास करना है । उसे अपने परोक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान के स्थान पर या उसके अतिरिक्त, सीधे संपर्क द्वारा ज्ञानतक पहुंचना हैं और फिर तादात्म्य से मिलनेवाले ज्ञान की ओर आगे बढ़ना है । उसकी सत्ता के सीमित सांत को सीमाहीन सांत और अनंत बनना है ।
लेकिन इन दो गतियों में से पहली, अपनी भीतरी वास्तविकताओं की ओर जागना, अपने-आपको प्रथम आवश्यकता के रूप में आरोपित करती हैं क्योंकि इस भीतरी आत्मान्वेषण द्वारा दूसरी -वैश्व आत्मान्वेषण की गति -पूरी तरह संभव हो सकती है । हमें अपनी आंतरिक सत्ता में जाना होगा और उसमें और उसके आधार पर रहना सीखना होगा । बाहरी मन, प्राण और शरीर को हमारे लिये केवल उपकक्ष होना चाहिये । हम बाहरी भाग में जो कुछ हैं उसका अनुकूलन निश्चित रूप से वह करता है जो भीतर है, गुह्य है, हमारी भीतरी गहराइयों और अंतरालों में है । वहीं से गुप्त प्रेरणाएं आत्म-प्रभावी रूपायण आते हैं । हमारी प्रेरणाएं हमारे अंतर्भास, हमारे प्राणिक उद्देश्य, हमारे मन की अभिरुचियां, और हमारी इच्छा के चुनाव वहीं से प्रेरित होते हैं -लेकिन उसी हदतक जहांतक वे वैश्व आघातों के प्रवाह के उतने ही प्रच्छन्न दबाव से बने या प्रभावित न हों । लेकिन हम इन उभरती हुई शक्तियों और इन प्रभावों का जो उपयोग करते हैं वह हमारी बाह्यतम प्रकृति से अनुबंधित, बड़ी हदतक निर्धारित और उससे बढ़कर, बहुत अधिक सीमित रहता है । तब फिर हमें इस आंतरिक प्रवर्तन करनेवाली आत्मा के ज्ञान के साथ बाहरी उपकरणरूपी आत्मा का और हमारे निर्माण में उन दोनों की भूमिका का ठीक-ठीक परिचय खोजना है ।
बाहरी स्तर पर हम अपने स्वरूप के केवल उतने ही अंश को जानते हैं जितना वहां रूपायित हुआ है बल्कि इसमें भी केवल एक अंश को क्योंकि हम अपनी समग्र बाहरी सत्ता को एक सामान्य अस्पष्टता से देखते हैं जिसमें यथार्थता के कुछ बिंदु या भाग या आकार चिह्नित हैं । यहांतक कि हम जिसे मानसिक अंतर्निरीक्षण द्वारा जान पाते हैं वह भी खंडों का योग होता है; अपने व्यक्तिगत रूपायण का
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संपूर्ण आकार और बोध हमारी दृष्टि से बच निकलते हैं । लेकिन एक विकृत करनेवाली क्रिया भी है जो इस सीमित आत्म-ज्ञान को भी धुंधला और विकृत बना देती है । हमारा आत्म-दर्शन हमारे बाहरी प्राण-पुरुष (प्राणात्मा) के सतत आघातों और घुसपैठ के कारण दूषित हो जाता है, हमारे उस प्राणमय पुरुष के आघातों से जो हमेशा विचारशील मन को अपना यंत्र और सेवक बनाना चाहता है, क्योंकि हमारे प्राणमय पुरुष को आत्म-ज्ञान से नहीं बल्कि आत्म-प्रतिष्ठापन, कामना और अहंकार से सरोकार होता है, इसलिये वह हमेशा मन पर क्रिया करता रहता है ताकि वह उसके लिये प्रतीयमान आत्मा का एक मानसिक ढांचा तैयार कर दे जो इन प्रयोजनों को सिद्ध करे । हमारे मन को प्रेरित किया जाता है कि वह हमारे आगे और दूसरों के आगे हमारी अंशत: बनावटी प्रतिनिधि-आकृति उपस्थित करे जो हमारे आत्म-प्रतिष्ठापन का समर्थन करती, हमारी कामनाओं और क्रियाओं को न्यायोचित ठहराती और हमारे अहं को पुष्ट करती है । यह प्राणिक हस्तक्षेप वास्तव में हमेशा आत्म-समर्थन और आत्म-प्रतिष्ठापन की दिशा में नहीं होता । कभी-कभी वह आत्म-निंदा, दूषित और अतिरंजित आत्म-आलोचना की ओर भी मुड़ता है, लेकिन यह भी अहंकार की रचना, एक विपरीत या नकारात्मक अहंकार, प्राणिक अहं की एक स्थिति या मुद्रा है क्योंकि इस प्राणिक अहंकार में बहुधा धूर्त और वंचक का दिखावा और अभिनय करनेवाले का मिश्रण होता है । वह सदा किसी- न-किसी भूमिका को लेकर अपने आगे और औरों को दर्शक बनाकर उनके आगे अभिनय करता रहता है । इस तरह एक संगठित आत्म-अज्ञान के साथ संगठित आत्म-वंचना जुड़ जाती है । केवल अंदर जाकर इन चीजों को उनके स्रोत में देखने से ही हम इस धुंधलेपन और उलझन में से निकल सकते हैं ।
कारण, हमारे अंदर एक विशालतर मनोमय पुरुष है, एक विशालतर आंतरिक प्राणमय पुरुष है और हमारी बाहरी शरीर-चेतना से अलग एक विशालतर आंतरिक सूक्ष्म शारीरिक पुरुष भी है । उसमें प्रवेश पाकर या वही बनकर, अपने-आपको उसके साथ एक करके हम अपने विचारों और भावों के झरनों को, अपनी क्रिया के स्रोतों और हेतुओं को, उन क्रियाशील ऊर्जाओं को देख सकते हैं जो हमारे सतही व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं । कारण, हम उस आंतरिक सत्ता को खोज और जान सकते हैं जो हममें गुप्त रूप से सोचती और देखती है, उस प्राणिक सत्ता को जो हमारे द्वारा गुप्त रूप से अनुभव करती और प्राण पर क्रिया करती है, उस सूक्ष्म भौतिक सत्ता को जो गुप्त रूप से हमारे शरीर और उसके अवयवों द्वारा चीजों के संपर्क को ग्रहण करती और प्रत्युत्तर देती है । हमारा सतही विचार, भावना और संवेग हमारे भीतरी आवेगों और बाहर से आनेवाले आघातों की गुत्थी और उनकी अस्त-व्यस्तता हैं । हमारी तर्क-बुद्धि, व्यवस्था करनेवाली हमारी बुद्धि उनपर एक अधूरी व्यवस्था ही थोप सकती है लेकिन यहां, अपने अंदर हम अपनी
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मानसिक, अपनी प्राणिक और अपनी भौतिक क्रिया-शक्ति के अलग-अलग स्रोत देखते हैं और हर एक की शुद्ध क्रियाओं, उनकी पृथक् शक्तियों, हर एक के घटक तत्त्व और उनकी आपसी लीलाओं को आत्मदर्शन के स्पष्ट प्रकाश में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । हमें पता चलता है कि हमारी सतही चेतना की विपरीतताएं और संघर्ष बड़ी हदतक मन, प्राण और शारीरिक भागों की विपरीत या परस्पर असंगत वृत्तियों के कारण हैं । और यह सब हमारी सत्ता की बहुत-सी विभिन्न आंतरिक संभावनाओं की असंगति और हमारे अंदर प्रत्येक स्तर पर विभिन्न व्यक्तित्वों की असंगति के कारण है जो हमारी सतही प्रकृति की घुली-मिली व्यवस्था और अलग-अलग वृत्तियों के पीछे है । लेकिन जहां सतह पर उनकी क्रियाएं धुली-मिली, अस्त-व्यस्त और परस्पर संघर्षरत होतीं हैं वहां हमारी गहराइयों मे उन्हें उनकी स्वतंत्र और पृथक् प्रकृति तथा क्रिया में देखा जा सकता है और उनपर क्रिया की जा सकती है और हमारे अंदर मनोमय पुरुष, ''मनोमय: प्राणशरीरनेता'' १ के द्वारा या उससे ज्यादा अच्छी तरह केंद्रीय चैत्य पुरुष के द्वारा सामंजस्य लाना इतना कठिन नहीं होता बशर्ते कि इस प्रयास में हमारे अंदर उचित चैत्य और मानसिक इच्छा हो । क्योंकि अगर प्राणिक अहं के उद्देश्य से हम अंतस्तलीय सत्ता में प्रवेश करें तो इसका परिणाम गंभीर संकट और महा विपदा या कम-से-कम अहं, आत्म-प्रतिष्ठापन और कामना का अतिरंजन और बड़े हुए सशक्त ज्ञान की जगह बढ़ा हुआ सशक्त अज्ञान हो सकता है । इसके अतिरिक्त इस आंतरिक या अंतर्लीन सत्ता में हमें, जो चीज भीतर से उठ रहीं है और जो बाहर से, औरों से या वैश्व प्रकृति से हमारे पास आ रही है, उनमें प्रत्यक्ष रूप से भेद करने का साधन प्राप्त होता है और संभव हो जाता है कि हम एक नियंत्रण, चुनाव, इच्छा के अनुसार ग्रहण, त्याग और चयन की शक्ति, आत्म-निर्माण और सामंजस्य की स्थापना की एक स्पष्ट शक्ति का उपयोग करें । यह शक्ति हमें अपने मिश्रित बाह्य व्यक्तित्व में प्राप्त नहीं है या हम उसका बहुत अपूर्ण रूप से उपयोग कर सकते हैं लेकिन वह अंतःपुरुष का विशेषाधिकार है । क्योंकि गहराइयों में इस प्रवेश के कारण अंतःपुरुष, जो अब पूरी तरह पर्दे में ढका नहीं रहता, अपनी बाहरी यंत्र रूपी चेतना पर केवल आंशिक प्रभाव डालने के लिये बाधित नहीं रहता, वह अब भौतिक विश्व में हमारे जीवन में अधिक ज्योतिर्मय रूप से रूपायित होने योग्य हो जाता है ।
मूल रूप में आंतरिक सत्ता के ज्ञान में भी वही तत्त्व होते हैं जो बाहरी मन के बाहरी ज्ञान में होते हैं लेकिन उनके बीच चेतना और दृष्टि की अर्द्ध-अंधता और अधिक स्पष्टता के बीच का अंतर होता है क्योंकि आंतरिक सत्ता को अधिक प्रत्यक्ष और सशक्त साधन-विनियोग प्राप्त होता है, उसमें ज्ञान के तत्त्वों की
१ मुण्ड कोपनिषद् २ .२ .७
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अधिक अच्छी व्यवस्था होती है । सतह पर आत्म-सत्ता का अस्पष्ट अंतर्निहित बोध, तादात्म्य ज्ञान, और अपनी आंतरिक गतिविधि के साथ आंशिक तादात्म्य यहां अपने-आपको अस्पष्ट साररूप दर्शन और सीमित संवेदन में से अंतर की सारी सत्ता की एक स्पष्ट और प्रत्यक्ष अभिज्ञता में अधिक गहरा और परिवर्द्धित कर सकता है । हम अपनी पूरी सचेतन मनोमय सत्ता और प्राण-सत्ता पर अधिकार पा सकते हैं और अपनी मानसिक तथा प्राणिक उर्जा की सारी गतिविधि के साथ उनमें सीधा प्रवेश करके उन्हें आच्छादित करनेवाले संपर्क की घनिष्ठ अंतरंगता की स्थिति में पहुंच सकते हैं । अपनी सभी संभूतियों, अपनी प्रकृति के वर्तमान स्तरों पर पुरुष की सभी आत्माभिव्यक्तियों से हम वहां अधिक स्पष्टता और निकटता के साथ -और साथ ही अधिक आजादी और अधिक समझदारी के साथ -मिलते हैं और हम वही होते हैं । लेकिन ज्ञान की इस घनिष्ठता के साथ- ही-साथ पुरुष द्वारा प्रकृति के कार्यों का तटस्थ अवलोकन भी होता है या हो सकता है और ज्ञान की इस दोहरी स्थिति द्वारा एक संपूर्ण नियंत्रण और समझ की बहुत बड़ी संभावना रहती है । सतही सत्ता की सभी गतिविधियों को पूर्ण तटस्थता के साथ देखा जा सकता है लेकिन साथ ही चेतना की एक प्रत्यक्ष दृष्टि के द्वारा भी जिससे बाह्य चेतनामय पुरुष की आत्म-भ्रांतियों और भूलों को दूर किया जा सकता है, हमारी आत्मनिष्ठ संभूति के बारे में मन की अधिक तीक्ष्ण दृष्टि होती है, मन का संवेद अधिक स्पष्ट और अधिक यथार्थ होता है । यह दृष्टि सारी प्रकृति को एक साथ जानती, आदेश देती और नियंत्रित करती है । अगर हमारे अंदर चैत्य और मानसिक भाग बलवान् हैं तो प्राण इस हदतक अधिकार और नियंत्रण में आ सकता है जितना बाहरी मानसता के लिये शायद ही संभव हो । आंतरिक मन और इच्छा शरीर और शारीरिक ऊर्जाओं को भी हाथ में ले सकती है और उन्हें अंतरात्मा के, चैत्य पुरुष के अधिक नमनीय यंत्र के रूप में बदल सकतीं है । दूसरी ओर, अगर मानसिक और चैत्य भाग कमजोर हैं और प्राण सबल और उच्छृंखल हो तो आंतरिक प्राण में प्रवेश करने से शक्ति बढ़ जाती है लेकिन विवेक और तटस्थ दृष्टि की कमी रहती है । ज्ञान चाहे शक्ति और क्षेत्र में बढ़ भी जाये फिर भी रहता गदला और भ्रामक ही है, बौद्धिक आत्म-संयम अपना स्थान विशाल अनुशासनहीन संवेग या कठोरता के साथ अनुशासित परंतु बहकायी हुई अहंकारमय क्रिया को दें देता है । क्योंकि अंतस्तलीय अभीतक ज्ञान-अज्ञान की क्रिया है, उसमें विशालतर ज्ञान है और साथ ही अधिक आत्म-प्रतिष्ठापन करने के कारण उसमें अधिक बड़े अज्ञान की संभावना भी रहती है, यह इसलिये क्योंकि बढ़ा हुआ आत्म-ज्ञान तो यहां सामान्य है परंतु साथ ही वह सर्वांगीण ज्ञान नहीं है । प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा अभिज्ञता, जो अंतस्तलीय की मुख्य शक्ति है, उसके लिये काफी नहीं है क्योंकि जैसे वह संपर्क ज्ञान की बृहत्तर संभूतियों और शक्तियों के
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साथ हो सकता है, उसी तरह अज्ञान की वृहत्तर संभूतियो और शक्तियों के साथ भी हो सकता है ।
लेकिन अंतस्तलीय पुरुष का जगत् के साथ भी बृहत्तर प्रत्यक्ष संपर्क होता है । बाहरी मन ऐंद्रिय बिंबों और ऐंद्रिय कंपनों की व्याख्यातक सीमित रहता है जिसकी पूर्ति की जाती है मानसिक और प्राणिक अंतर्भास और बुद्धि द्वारा लेकिन अंतस्तलीय पुरुष इस तरह सीमित नहीं है । निश्चय ही अंतस्तलीय प्रकृति में आंतरिक इन्द्रियां हैं, दृष्टि, श्रुति, स्पर्श, गंध और रस की सूक्ष्म इन्द्रियां हैं परंतु ये भौतिक वातावरण की चीजों के बिंबों का निर्माण करनेतक सीमित नहीं हैं वल्कि ये चेतना के आगे उन चीजों के चाक्षुष, श्रावणिक, स्पर्शिक तथा अन्य बिंबों और कंपनों को उपस्थित कर सकती हैं जो भौतिक इन्द्रियों के प्रतिबद्ध क्षेत्र से परे के या जीवन के अन्य स्तरों और लोकों के हैं । यह भीतरी इन्द्रिय ऐसे बिंबों, दृश्यों, ध्वनियों की रचना कर सकतीं या उन्हें उपस्थित कर सकती है जो तथ्यगत होने की अपेक्षा अधिक प्रतीकात्मक हैं या रूप ले रही संभावनाओं को, अन्य सत्ताओं के सुझावों, विचारों, भावों, इसदों को या वैश्व प्रकृति की शक्यताओं या शक्तियों के बिंब-रूपों को भी चित्रित करती है । ऐसी कोई चीज नहीं है जिसका वह बिंब नहीं बना सकती, मानस-दर्शन नहीं कर सकती या जिसे वह ऐंद्रिय रूपों मे नहीं बदल सकती । वास्तव में बाह्य मन में नहीं बल्कि अंतस्तलीय में दूरबोध, अतीन्द्रिय दृष्टि या द्वितीय दृष्टि और अन्य अधिसामान्य क्षमताओं की शक्तियां, जो सतही चेतना पर प्रकट होती हैं, उनके प्रकट होने का कारण उस दीवार में दरारें या छिद्र होते हैं जो बाह्य व्यक्तित्व के व्यष्टीकरण के लिये अंध प्रयास द्वारा खड़ी की गयी है और जो हमारी सत्ता के आंतरिक क्षेत्र और स्वयं अंतस्तलीय के बीच सन्निविष्ट है । फिर भी, यह ध्यान रखना चाहिये कि इस जटिलता के कारण अंतस्तलीय इन्द्रिय की क्रिया उलझानेवाली और भ्रामक होती है, विशेष रूप से यदि बाहरी मन उसकी व्याख्या करे जिसे उसकी क्रियाओं का रहस्य नहीं मालूम होता और चिह्ननिर्माण और प्रतीकात्मक रूपक-भाषाओं के सिद्धांत उसके लिये विजातीय होते हैं । वस्तुतः उसके रूपकों और अनुभवों का ठीक-ठीक निर्णय करने और अर्थ जानने के लिये अंतर्भास, कौशल और विवेक की एक महत्तर आंतरिक शक्ति आवश्यक है । फिर भी यह तथ्य रहता हैं कि इनसे हमारे ज्ञान का संभव क्षेत्र बहुत अधिक बढ़ जाता है और वे संकीर्ण सीमाएं, जिनमें हमारी इन्द्रियों में बंधी बाहरी भौतिक चेतना घिरी हुई और बंदी हे, वे फैल जाती हैं ।
लेकिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है अंतस्तल की वह शक्ति जिसके द्वारा वह अन्य चेतना या वस्तुओं के साथ चेतना के सीधे संपर्क में आ सकता है, किसी और यंत्र-विन्यास के बिना क्रिया कर सकता है, ऐसा वह करता है अपने निजी पदार्थ में छिपे तात्त्विक बोध द्वारा, प्रत्यक्ष मानसिक दृष्टि द्वारा, वस्तुओं के प्रत्यक्ष अनुभव
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द्वारा, यहांतक कि निकटस्थ आवरण और अंतरंग प्रवेश द्वारा, और जिसे आवृत किया हो या जिसमें प्रवेश किया हो उसकी अंतर्वस्तुओं को लेकर वापिस आकर, बाहरी चिह्नों या आकारों के बदले स्वयं मन के सत्व पर प्रत्यक्ष सूचन या सीधे आघात द्वारा -विचारों, अनुभवों, शक्तियों के मर्म प्रकट करनेवाले सूचन या आत्म-संचारी आघात द्वारा । इन्हीं उपायों द्वारा आंतरिक सत्ता व्यक्तियों, वस्तुओं और गुह्य तथा हमारे लिये अगोचर विश्व-प्रकृति की उन ऊर्जाओं का प्रत्यक्ष, घनिष्ठ और स्पष्ट सहज ज्ञान प्राप्त करती है जो हमारे चारों ओर हैं और जो हमारे निजी व्यक्तित्व, हमारी भौतिकता, मानसिक शक्ति और जीवन-शक्ति से टकराती हैं । हम कभी-कभी अपनी सतही मानसिकता में एक ऐसी चेतना के बारे में अभिज्ञ होते हैं जो औरों के विचारों और आंतरिक प्रतिक्रिया का अनुभव कर सकती या जान सकती है या किसी दृश्य इन्द्रिय के हस्तक्षेप के बिना चीजों या घटनाओं से अवगत हो सकती है या ऐसी शक्तियों का उपयोग करती है जो हमारी सामान्य क्षमता के लिये अधिसामान्य हैं लेकिन ये क्षमताएं कभी-कदास प्रकट होनेवाली, अविकसित और अस्पष्ट होती हैं । इन्हें अधिकार में रखना हमारे गुह्य, अंतस्तलीय पुरुष के लिये स्वाभाविक होता है और वे उसकी शक्तियों या क्रियाओं के बाहरी सतह पर आने पर ही बाहर उभरती हैं । अंतर्लीन सत्ता की इन उभरती हुई क्रियाओं या उनमें से कुछ का आंशिक अध्ययन आजकल चैत्य-व्यापार के नाम से किया जाता है हालांकि उनका चैत्य पुरुष, अंतरात्मा या हमारी सबसे भीतरी सत्ता के साथ साधारणत: कोई संबंध नहीं होता । उनका संबंध केवल आंतरिक मन, आंतरिक प्राण, हमारी अंतस्तलीय सत्ता के सूक्ष्म भौतिक भागों से ही होता है लेकिन उनके परिणाम निश्चयात्मक या काफी प्रचुर नहीं हो सकते क्योंकि उनकी खोज अनुसंधान और परीक्षण के ऐसे उपायों और प्रमाण के मानकों से की जाती है जो केवल बाहरी स्तर के मन और उसकी परोक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान पाने की पद्धति के लिये अनुकूल हैं । इन परिस्थितियों में उन क्रियाओं के बारे में केवल उसी हदतक खोज की जा सकती है जहांतक वे उस बाहरी मन में अभिव्यक्त हो सकें जिसके लिये वे अपवादिक, असामान्य या अधिसामान्य हैं और इस कारण उनका होना अपेक्षाकृत विरल, कठिन और अधूरा होता है । अगर हम उस दीवार को हटा सकें जो बाहरी मन और उस आंतरिक चेतना के बीच है जिसके लिये ये व्यापार स्वाभाविक हैं या हम उसमें स्वतंत्रता के साथ प्रवेश या निवास कर सकें तभी ज्ञान के इस प्रदेश की व्याख्या की जा सकती है और उसे हमारी समग्र चेतना के साथ मिलाया जा सकता है और हमारी प्रकृति की जाग्रत् शक्ति के क्रिया-क्षेत्र में सम्मिलित किया जा सकता है ।
अपने बाहरी मन में तो हमारे पास दूसरे मनुष्यों को भी जानने का कोई प्रत्यक्ष साधन नहीं है जो हमारी ही जाति के हैं, जिनकी मानसता हमारे जैसी है और जो
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प्राणिक और भौतिक रूप में उसी नमूने के अनुसार बने हैं । हम मानव मन और मानव शरीर का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और मनुष्य की आंतरिक गतियों के बहुत से सतत, अभ्यासगत बाहरी चिह्नों की सहायता से, जिनसे हम परिचित हैं, उस ज्ञान का प्रयोग अन्य मनुष्यों को जानने के लिये कर सकते हैं और इन संक्षिप्त निर्णयों की कमी को पूरा करने के लिये हम उनमें कई चीजें जोड़ सकते हैं जैसे हमारा व्यक्तिगत चरित्र और अभ्यासों का अनुभव, हमें जो आत्म-ज्ञान प्राप्त है उसका औरों को समझने और उनका मूल्यांकन करने के लिये सहज वृत्ति से प्रयोग, वचन और आचरण से किये गये अनुमान, अवलोकन की अंतर्दृष्टि और सहानुभूति की अंतर्दृष्टि । लेकिन परिणाम हमेशा अधूरे और बहुत बार भ्रामक होते हैं, हमारे अनुमान बहुत बार भूलभरी रचनाएं होते हैं, बाहरी चिह्नों की हमारी व्याख्या भूल-भरी अटकल होती है, हमारे सामान्य ज्ञान का या हमारे आत्म-ज्ञान का प्रयोग वैयक्तिक भेद के दुर्याह्य तत्त्वों के कारण चकराया रहता है और हमारी अंतर्दृष्टि अनिश्चित और अविश्वसनीय होती है । इसलिये मानव प्राणी एक-दूसरे से अपरिचित की तरह रहते हैं और बहुत हुआ तो बहुत ही आंशिक सहानुभूति और आपसी अनुभव से बंधे रहते हैं । हम काफी नहीं जानते । हम अपने-आपको ही बहुत कम जानते हैं, अपने अत्यंत निकटवालों को उतना भी नहीं जानते जितना अपने-आपको जानते हैं । लेकिन अंतस्तलीय आंतरिक चेतना में यह संभव होता है कि हम अपने इर्द-गिर्द के विचारों और भावनाओं की सीधी अभिज्ञता पा लें । उनके आघात का अनुभव कर लें, उनकी गतिविधि' को देख लें, तब दूसरे के मन और हृदय को पढ़ सकना कम कठिन हो जाता है, कम अनिश्चित जोखिम हो जाता है । जो लोग आपस में मिलते और एक साथ रहते हैं उन सबमें सदा मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म शारीरिक आदान-प्रदान होता रहता है जिसके बारे में वे अपने- आप अनभिज्ञ होते हैं । अपवाद हैं वे आघात और वे अंतर्भेदन जो उन्हें वाणी और क्रिया के इन्द्रिय-ग्राह्य परिणाम के रूप में और बाहरी संपर्क के परिणाम के रूप में प्राप्त होते हैं । अधिकांश तो यह आदान-प्रदान सूक्ष्म और अदृश्य रूप से होता रहता है, क्योंकि वह परोक्ष रूप से काम करता है, पहले अंतस्तलीय भागों को छूता है और उनके द्वारा बाहरी प्रकृति को । लेकिन जब हम इन अंतस्तलीय भागों में सचेतन हो जाते हैं तो वह इस सारी पारस्परिक क्रिया, आत्मपरक आदान- प्रदान और आंतरिक मिश्रण की चेतना को भी ले आता है और परिणाम-स्वरूप हमें उनके आघातों और परिणामों के अनैच्छिक दास बने रहने की जरूरत नहीं होती । तब हम स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं, अपनी रक्षा कर सकते या अपने-आपको अलग रख सकते हैं । साथ ही यह जरूरी नहीं रहता कि औरों पर हमारी क्रिया अज्ञानभरी या अनैच्छिक हो या बहुधा हमारे चाहे बिना ही औरों के लिये हानिकर हो । वह सचेतन सहायता हो सकती है, प्रकाशमय आदान-प्रदान
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और सफल समायोजन हों सकता है, आंतरिक समझ या मिलन की ओर एक रास्ता हो सकता है न कि जैसा अभी है एक अलगाव का साहचर्य हों जिसमें सीमित घनिष्ठता या एकता हो । जो बड़ी नासमझी के कारण प्रतिबद्ध और प्रायः गलतफहमी, आपसी भ्रांत व्याख्या और भूलों की राशि के कारण दबा हुआ या संकट में हो ।
जगत् की जो निर्वैयक्तिक शक्तियां हमें घेरे रहती हैं उनके साथ भी हमारे व्यवहार में परिवर्तन उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा । उन्हें हम केवल उनके परिणामों से, उनकी दिखायी देनेवाली क्रिया और उसके परिणाम का जो थोड़ा-सा अंश हम पकड़ पाते हैं उससे जानते हैं । उनमें से हम मुख्यत: भौतिक जगत् की शक्तियों का कुछ ज्ञान रखते हैं लेकिन हम निरंतर अदृश्य मानसिक शक्तियों और प्राणिक शक्तियों के भंवर में रहते हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते, हमें उनके अस्तित्व का भी पता नहीं होता । अंतस्तलीय आंतरिक चेतना इन सब अदृश्य गतियों और क्रियाओं के प्रति हमारी अभिज्ञता को खोल सकती है क्योंकि उसे इनका ज्ञान प्रत्यक्ष संपर्क, आंतरिक दृष्टि, चैत्य संवेदन के द्वारा होता है लेकिन अभी तो वह केवल हमारे कुण्ठित छिछलेपन और बहिर्मुखता को अव्याख्यात चेतावनियों, पूर्व सूचनाओं, आकर्षण-विकर्षणों, विचारों, सुझावों और अस्पष्ट अंतर्भासों द्वारा अर्थात् जो थोड़ा-बहुत वह अधूरे ढंग से सतह पर ला सकतीं है उसके द्वारा ही प्रकाश दे सकती है । आंतरिक सत्ता न केवल इन वैश्व शक्तियों के तात्कालिक प्रयोजन और उनकी गतिविधि के साथ सीधे और ठोस संपर्क बनाती और उनकी वर्तमान क्रियाओं के परिणाम का अनुभव करती है बल्कि एक हदतक उनकी आगे की क्रिया का पहले से ही अनुमान कर सकती या देख सकती है, हमारे अंतस्तलीय भागों में काल के व्यवधान को जीतने की, आनेवाली घटनाओं, दूर की घटनाओं का आभास पाने या उनके स्पंदनों को अनुभव करने की, यहांतक कि भविष्य में देखने की भी क्षमता होती है । यह सच है कि यह ज्ञान जो अंतस्तलीय सत्ता के लिये स्वाभाविक है, पूर्ण नहीं होता क्योंकि वह ज्ञान और अज्ञान का मिश्रण है और वह सच्चे और भूल-भरे, दोनों तरह के प्रत्यक्ष दर्शन के लिये समर्थ है, क्योंकि वह तादात्म्य से प्राप्त ज्ञान द्वारा काम नहीं करता बल्कि प्रत्यक्ष संपर्क से प्राप्त ज्ञान द्वारा कार्य करता है और यह भी भेद करनेवाला ज्ञान है यद्यपि यह हमारी सतही प्रकृति द्वारा शासित किसी भी चीज की अपेक्षा अपने अलगाव में भी अधिक घनिष्ठ होता है । लेकिन आंतरिक मानसिक और प्राणिक प्रकृति की बृहत्तर ज्ञान और बृहत्तर अज्ञान के लिये मिश्रित क्षमता का उपचार उसके पीछे स्थित चैत्य सत्तातक अधिक गहराई में जाने से हों सकता है जो हमारे व्यक्तिगत प्राण और शरीर को सहारा देती है । वस्तुत: एक आत्म-व्यक्तित्व है जो इस सत्ता का प्रतिनिधि है, जो हमारे अंदर पहले से ही निर्मित है, जो हमारी
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प्राकृतिक सत्ता में एक सूक्ष्म चैत्य तत्त्व को आगे रखता है । लेकिन हमारे सामान्य संधटन में यह सूक्ष्मतर अंश अभीतक प्रमुख नहीं है और उसकी क्रिया सीमित है । हमारी अंतरात्मा हमारे विचार और क्रियाओं का प्रत्यक्ष पथ-प्रदर्शक और स्वामी नहीं है । उसे आत्माभिव्यक्ति के लिये मानसिक, प्राणिक और भौतिक यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ता है और निरंतर हमारे मन और प्राण-शक्ति द्वारा अभिभूत रहना पड़ता है । लेकिन अगर वह एक बार अपनी ही बृहत्तर गुह्य वास्तविकता के साथ सतत सायुज्य रखने में सफल हो जाये -और यह तभी हो सकता है जब हम अंतस्तलीय भागों में गहराई में जा सकें -तो फिर वह आश्रित नहीं रहती । वह शक्तिशाली और सम्राट् बन सकती है, ऐसा वह बन सकती है वस्तुओं के सत्य के आंतरिक आध्यात्मिक प्रत्यक्ष दर्शन और सहज विवेक से सज्जित होकर जो विवेक उस सत्य को अज्ञान और निश्चेतना के मिथ्यात्व से अलग करता है, अभिव्यक्ति में दिव्य और अदिव्य में भेद करता है और इस प्रकार हमारी प्रकृति के अन्य भागों का प्रकाशमान नेता बन सकता है । वस्तुतः जब यह हो जाये तभी सर्वांगीण रूपांतर और सर्वांगीण ज्ञान की ओर मोड़ आ सकता है ।
ये हैं अंतस्तलीय ज्ञान की गतिशील क्रियाएं और उसके व्यावहारिक मूल्य । लेकिन अपनी वर्तमान विवेचना में हमारा प्रयोजन यह है कि हम इसके क्रिया करने के तरीके से इस अधिक गहरे और विशाल ज्ञान के ठीक स्वभावों को जानें और यह पता लगायें कि सच्चे ज्ञान के साथ इसका क्या संबंध है । उसका मुख्य लक्षण है चेतना का अपने विषय के साथ या चेतना का अन्य चेतना के साथ प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा ज्ञान । लेकिन अंत में हम पाते हैं कि यह शक्ति तादात्म्य द्वारा प्राप्त गुप्त ज्ञान का परिणाम, उसका वस्तुओं की भेदात्मक अभिज्ञता में अनुवाद है । क्योंकि जैसे परोक्ष ज्ञान में, जो हमारी सामान्य चेतना और सतही ज्ञान के लिये सहज है, जीवित सत्ता का अपने से बाहर के अस्तित्व से मिलन या संधर्ष ही सचेतन ज्ञान की चिंगारी जगाता है उसी तरह यहां भी कोई संपर्क ही पहले से मौजूद गुप्त ज्ञान को क्रिया में प्रवृत्त करता और उसे सतह पर लाता है । क्योंकि चेतना विषयी और विषय दोनों में एक ही होती है और सत्ता का सत्ता से संपर्क होने पर यह तादात्म्य विषयी आत्मा में उससे बाहर की इस अन्य आत्मा के सुप्त ज्ञान को प्रकाश में लाता या जाग्रत् करता है । लेकिन जब कि पहले से मौजूद ज्ञान ऊपरी मन में अर्जित ज्ञान की तरह आता है, वह अंतस्तलीय में एक देखी हुई चीज के रूप में आता है जिसे भीतर से पकड़ा गया हो, मानों उसे याद किया गया हो अथवा जब वह पूरी तरह अंतर्भासात्मक होता है तो भीतरी अभिज्ञता के लिये स्वयं-सिद्ध होता है या यह संपर्क में आयी हुई वस्तु से लिया गया होता है परंतु वह ऐसे तात्कालिक प्रत्यत्तर के साथ होता है मानों वह ऐसी चीज हो जो घनिष्ठ रूप में जानी-पहचानी हो । सतही चेतना में ज्ञान अपने-आपको इस तरह निरूपित
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करता है मानों वह एक ऐसा सत्य हो जिसे बाहर से देखा गया हो, जिसे विषय ने हमपर फेंका हो या इन्द्रिय पर उसके स्पर्श का प्रत्युत्तर हो, उसकी विषयगत वास्तविकता का बोधात्मक प्रतिरूप हो । हमारा सतही मन अपने-आपको अपने ज्ञान का यह विवरण देने के लिये बाधित होता है क्योंकि उसके और बाहरी जगत् के बीच की दीवार को इन्द्रियों के द्वारों के द्वारा ही भेदा जाता है और वह इन्हीं द्वारों से बाहरी विषयों की सतह को पकड़ सकता है, यद्यपि उसे नहीं पकड़ पाता जो उनके भीतर है । लेकिन उसके और उसकी आंतरिक सत्ता के बीच ऐसा कोई तैयार द्वार नहीं है, चूंकि वह यह देखने में असमर्थ है कि उसकी गहनतर आत्मा में क्या है या वह भीतर से आती हुई ज्ञान-प्रक्रिया को देख सकने में असमर्थ है इसलिये उसके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है कि वह उसीको, जिसे वह देखता है, अर्थात् बाहरी विषय को ही ज्ञान के कारण के रूप में स्वीकार कर ले । इस भांति वस्तुओं के बारे में हमारा सारा मानसिक ज्ञान अपने-आपको हमारे आगे विषयगत ज्ञान के रूप में निरूपित करता है, एक ऐसे सत्य के रूप में जिसे बाहर से हमारे ऊपर आरोपित किया गया है । हमारा ज्ञान एक ऐसा प्रतिबिंब या प्रत्युत्तर- स्वरूप रचना होता है जो हमारे अंदर, किसी ऐंसी चीज का, जो हमारी सत्ता के अंदर नहीं है, एक आकार, चित्र या मानसिक योजना उपस्थित करता है । वस्तुत: वह संपर्क के प्रति गुप्त गहनतर प्रत्युत्तर होता है, एक ऐसा प्रत्युत्तर जो भीतर से आता है, जो वहां से विषय का आंतरिक ज्ञान प्रक्षिप्त करता है । विषय अपने- आपमें हमारी बृहत्तर आत्मा का भाग होता है । लेकिन दोहरे आवरण के कारण, हमारी आंतरिक आत्मा और हमारे अज्ञानमय सतही पुरुष के बीच का पर्दा और वह पर्दा जो उस सतही पुरुष और उस विषय के बीच में है जिससे संपर्क किया गया है उनके कारण यह आंतरिक ज्ञान का केवल अधूरा आकार या चित्रण होता है जो ऊपरी सतह पर बन जाता है ।
हमारे ज्ञान का यह संबंध, उसकी यह प्रच्छन्न विधि, जो हमारी वर्तमान मानसता के लिये अस्पष्ट और अप्रत्यक्ष होती है लेकिन जब अंतस्तलीय आंतरिक सत्ता व्यक्तित्व की अपनी सीमाओं को तोड़कर, हमारे बाहरी मन को अपने साथ लेकर वैश्व चेतना में प्रवेश करती है तो स्पष्ट और प्रत्यक्ष हो जाती है । अन्तस्तलीय हमारी सत्ता के सूक्ष्मतर कोषों, उसके मानसिक, प्राणिक, सूक्ष्म शारीरिक कोषों के कारण उत्पन्न परिसीमन के द्वारा वैश्व सत्ता से बस, ठीक उसी तरह अलग होता है जैसे ऊपरी तल की प्रकृति वैश्व प्रकृति से स्थूल भौतिक कोष, शरीर के कारण अलग होती है । लेकिन उसे घेरनेवाली दीवार अधिक पारदर्शक है और वस्तुतः वह दीवार की जगह बाड़ ही है । इसके अतिरिक्त अंतस्तलीय पुरुष का चेतना का एक ऐसा रूपायण होता है जो अपने-आपको इन सभी कोषों के परे प्रक्षिप्त करता है और अपना एक परिचेतन रूप, एक आवृत करनेवाला रूप बना लेता है जिसके
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द्वारा वह जगत् के संपर्क पाता है और वे प्रवेश करें उससे पहले उनके बारे में अभिज्ञ हो सकता है और उनके साथ व्यवहार कर सकता है । अंतस्तलीय अपने इस परिचेतन आवरण को अनिश्चित रूप से फैला सकता है और अपने आत्म-प्रक्षेपण को अपने चारों ओर के वैश्व जीवन में अधिकाधिक विस्तृत कर सकता है । एक ऐसा बिंदु आता है जहां वह अलगाव से एकदम अलग हो सकता है, अपने-आप वैश्व. सत्ता के साथ एक और तदात्म होकर अपने-आपको वैश्व अनुभव करता है, समस्त अस्तित्व के साथ एक अनुभव करता है । वैश्व आत्मा और वैश्व प्रकृति में प्रवेश की इस छुट में व्यक्तिगत सत्ता की बहुत बड़ी मुक्ति हो जाती है, वह वैश्व चेतना को धारण कर लेती है और वैश्व व्यक्ति बन जाती है । जब यह पूर्ण हो तो इसका पहला परिणाम होता है वैश्व आत्मा की उपलब्धि, उस एकमेव आत्मा की जो विश्व में बसी हुई है और यह भी हो सकता है कि यह ऐक्य व्यक्ति-भाव का लोप और अहंकार का जगत्-सत्ता में विलयन ले आये । एक और साधारण परिणाम हैं वैश्व ऊर्जा के प्रति पूरी तरह खुलना जिससे वह मन, प्राण और शरीर द्वारा कार्य करती प्रतीत होती है और व्यक्तिगत क्रिया का भाव समाप्त हो जाता है । लेकिन बहुधा ऐसे परिणाम आते हैं जो इतने बड़े नहीं होते । वैश्व सत्ता और वैश्व प्रकृति की प्रत्यक्ष अभिज्ञता होती है, मन वैश्व मन और उसकी ऊर्जाओं, वैश्व प्राण और उसकी ऊर्जाओं तथा वैश्व जड़ पदार्थ और उसकी ऊर्जाओं के प्रति अधिक खुल जाता है । इस उद्घाटन में, वैश्व के साथ व्यष्टि के ऐक्य का विशेष बोध, अपनी चेतना के अंदर जगत् को धारित देखना और साथ ही जगत्-चेतना में, अंतरंग रूप से अपना समावेश देखना सामान्य या सतत हो सकता है । उसका स्वाभाविक परिणाम है अन्य सत्ताओं के साथ ऐक्य की अधिक घनिष्ठ भावना, तब वैश्व सत्ता का अस्तित्व कोई विचारमूलक अवबोधन न रहकर एक निश्चिति और वास्तविकता बन जाता है ।
लेकिन चीजों की वैश्व चेतना तादात्म्य द्वारा ज्ञान पर आधारित है क्योकि वैश्व आत्मा अपने-आपको सर्वात्मा के रूप में जानती है, सर्व को अपने रूप में और अपने अंदर जानती है, सर्व प्रकृति को अपनी प्रकृति के भाग के रूप में जानती है । वह उस सबके साथ एक होती है जिसे वह धारण करती है और उसे उस तादात्म्य द्वारा और अंतर्विष्ट निकटता द्वारा जानती है । क्योंकि एक तादात्म्य और एक अतिक्रमण साथ ही साथ रहते हैं । जहां तादात्म्य की दृष्टि से एकत्व और पूर्ण ज्ञान हैं वहीं अतिक्रमण की दृष्टि से समावेशन और भेदन, हर चीज और सभी चीजों का आवृत करनेवाला ज्ञान, हर चीज और सभी चीजों का अंदर प्रवेश करनेवाला बोध और दर्शन है । क्योंकि विश्वात्मा हर एक में और सबमें निवास करती है लेकिन है सबसे बढ़कर; अतः उसकी आत्म-दृष्टि और जगत्-दृष्टि में एक पृथक्कारी शक्ति होती है जो वैश्व चेतना को उन वस्तुओं और सत्ताओं मे बंदी बनने से रोकती है
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जिनमें वह निवास करती है । वह उनमें सर्वव्यापी आत्मा और शक्ति के रूप में निवास करती है, जो कुछ व्यक्तीकरण होता है वह उस पुरुष या वस्तु की विशेष चीज है लेकिन विश्वात्मा के लिये बंधनकारी नहीं है । वह अपनी वृहत्तर सर्वाधार सत्ता से च्युत हुए बिना हर एक वस्तु बन सकती है । तो यहां एक वैश्व तादात्म्य है जिसमें छोटे-छोटे तादात्म्य समाये हुए हैं । क्योंकि जो भी पृथक्कारी ज्ञान विश्व चेतना में हैं या उसमें प्रवेश करता है उसे इस दोहरे तादात्म्य पर आधारित होना चाहिये, वह इसका प्रतिवाद नहीं करता । अगर पीछे हटने या पृथक्करण और संपर्क द्वारा ज्ञान की आवश्यकता है, फिर भी वह तादात्म्य में पृथक्ता है, तादात्म्य में संपर्क है क्योंकि धारण किया गया विषय उस आत्मा का भाग है जो धारण करती है । केवल जब अधिक कठोर पृथक्करण का हस्तक्षेप होता है तब तादात्म्य अपने-आपको ढक लेता है और प्रत्यक्ष या परोक्ष न्यूनतर ज्ञान ऊपर प्रक्षिप्त किया जाता है जिसे अपने स्रोत का पता नहीं होता । फिर भी हमेशा तादात्म्य का सागर ही ऊपरी सतह पर ज्ञान की प्रत्यक्ष या परोक्ष की लहरों या फुहारों को ऊपर फेंकता रहता है ।
यह तो हुई चेतना की ओर की बात; क्रिया की ओर, वैश्व ऊर्जाओं की ओर देखें तो हम पाते हैं कि वे राशियों, लहरों, तरंगों में गति करती, सत्ताओं और वस्तुओं की गतिविधियों और घटनाओं का सतत निर्माण और पुनर्निर्माण करती, उनमें प्रवेश करती, उनमें से गुजरती, उनमें रूप ग्रहण करती, अपने-आपको उनमें से अन्य सत्ताओं पर और वस्तुओं पर बाहर फेंकती हैं । हर प्राकृतिक व्यक्ति इन वैश्व शक्तियों का आधान, उनके संचरण के लिये डायनमो है । मानसिक और प्राणिक ऊर्जाओं की एक सतत धारा हर एक में से हर एक में जाती है और ये ऊर्जाएं भी वैश्व लहरों और तरंगों में प्रवाहित होने में भौतिक प्रकृति की शक्तियों से कम नहीं हैं । यह सारी क्रिया हमारे सतही मन के प्रत्यक्ष संवेदन और ज्ञान से छिपी रहती है लेकिन आंतरिक सत्ता इसे जानती और अनुभव करती है, यद्यपि केवल प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा । जब सत्ता वैश्व चेतना में प्रवेश करती है तो वह और भी अधिक विस्तृत, समावेश करनेवाली, घनिष्ठ रूप में वैश्व शक्तियों की इस क्रीड़ा को जानती है । लेकिन यद्यपि ज्ञान तब अधिक पूर्ण होता है फिर भी उस ज्ञान का सक्रिय उपयोग आंशिक ही होता है क्यांकि वैश्व सत्ता के साथ आधारभूत या निष्क्रिय ऐक्य तो संभव है पर वैश्व प्रकृति के साथ क्रियात्मक ऐक्य अपूर्ण ही रहता है । मन और प्राण के स्तर पर पृथक् आत्म-सत्ता का भान न रहने पर भी ऊर्जा- क्रियाएं अपने स्वरूप से ही व्यक्तीकरण द्वारा हुआ चयन होंगी । क्रिया वैश्व ऊर्जा की होती है लेकिन उसका सजीव डायनमो में वैयक्तिक रूपायण ही उसकी क्रिया करने की विधि है । क्योंकि वैयक्तिकता के डायनमो का उपयोग ही है, चुनना, चुनी हुई ऊर्जाओं को केन्द्रित करना और रूप देना और उन्हें रूपायित और श्रेणीबद्ध
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धाराओं में प्रक्षिप्त करना । संपूर्ण ऊर्जा के प्रवाह का अर्थ यह होगा कि अब इस डायनमो का कोई उपयोग नहीं रह गया, उसे समाप्त या क्रिया से अलग कर दिया जा सकता है । वैयक्तिक मन, प्राण और शरीर की क्रियाशीलता की जगह एक वैयक्तिक और साथ ही निर्वैयक्तिक केन्द्र या माध्यम होगा जिसके द्वारा वैश्व शक्तियां बिना बाधा के, चयनशील न रहते हुए प्रवाहित होंगी । यह हो सकता है लेकिन इसके लिये सामान्य मानसिक स्तर से बहुत परे का उच्चतर आध्यात्मीकरण चाहिये । तादात्म्य द्वारा वैश्व ज्ञान के स्थैतिक (निष्क्रिय) ग्रहण में विश्वभावापत्र अंतस्तलीय अपने-आपको वैश्व आत्मा के साथ और सबकी प्रच्छन्न आत्मा के साथ एक अनुभव कर सकता है परंतु उस ज्ञान का क्रियात्मक रूप इससे आगे न जायेगा कि वह इस तादात्म्य के भाव का सबके साथ चेतना के प्रत्यक्ष संपर्क की अधिक बड़ी शक्ति और घनिष्ठता में अनुवाद हो, वस्तुओं पर और पुरुषों पर चेतना की शक्ति के अधिक बड़े, अधिक अंतरंग, अधिक स्रशक्त और समर्थ आघात में अनूदित हो, प्रभावकारी समावेश और भेदन की, क्रियाशील अंतरंग दृष्टि और अनुभव की, इस विशालतर प्रकृति के उपयुक्त ज्ञान और कर्म की अन्य शक्तियों के सामर्थ्य में भी अनुवाद हो ।
अतः अंतस्तलीय में, चाहे वह विश्व चेतना में वर्धित क्यों न हो गया हो, हमें महत्तर ज्ञान तो मिलता है परंतु पूर्ण और मौलिक ज्ञान नहीं । और आगे जाने और यह देखने के लिये कि अपने शुद्ध रूप में तादात्म्य द्वारा ज्ञान क्या है और वह ज्ञान की दूसरी शक्तियों को किस तरह और किस हदतक शुरू करता, स्वीकार करता और उपयोग में लाता है, हमें आंतरिक मन, प्राण और सूक्ष्म भौतिक के परे अंतस्तलीय के दो अन्य छोरोंतक जाना होगा, अवचेतना की जांच-पड़ताल करनी होगी और अतिचेतन के साथ संपर्क करना या उसमें प्रवेश करना होगा । लेकिन अवचेतना में सब कुछ अंधा है, एक धुंधली विश्व-भावना है जैसी कि भीड़-चेतना में देखने में आती है और एक धुंधली व्यष्टि-भावना भी है, या तो वह हमारे लिये असामान्य है या अध-गढ़ी और सहजवृत्तिवाली है । यहां अवचेतन में तादात्म्य द्वारा अंधेरा ज्ञान ही आधार है जैसा हम अब भी निश्चेतना में पाते हैं, लेकिन वह अपने- आपको या अपने रहस्य को प्रकट नहीं करता । श्रेष्ठतर अतिचेतन क्षेत्र मुक्त और ज्योतिर्मय आध्यात्मिक चेतना पर आधारित हैं और वहीं पर हम ज्ञान की मौलिक शक्ति को खोज सकते हैं और तादात्म्य द्वारा ज्ञान और पृथक्कारी ज्ञान, इन दो स्पष्ट कोटियों के उद्गम और अंतर को देख सकते हैं ।
परम कालातीत सत्ता में, जहांतक कि हम आध्यात्मिक अनुभव में उसके प्रतिबिंब द्वारा जानते हैं सत् और चित् एक हैं, हम चेतना को मानसता और इन्द्रियों की अमुक क्रियाओं के साथ जुड़ा हुआ मानने के अभ्यस्त हैं और जहां ये न हों या निष्क्रिय हों तो हम सत्ता की उस स्थिति को अचेतन कह देते हैं । लेकिन चेतना
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वहां भी रह सकती है जहां कोई बाहरी क्रियाएं न हों, उसे प्रकट करनेवाले कोई चिह्न न हों, वहां भी जहां वह वस्तुओं में से खींच ली गयी हो और शुद्ध सत् में समा गयी हो या असत् की प्रतीति में अंतर्लीन हो वहां भी उसका अस्तित्य हो सकता है । वह सत्ता में अंतर्निहित है, स्वयंभू है, वह शांति, निष्क्रियता, अवगुण्ठन या आच्छादन से, जड़लीनता या निवर्तन से नष्ट नहीं होती । वह सत्ता में तब भी विद्यमान होती है जब उसकी अवस्था निःस्वप्न निद्रा या जड़ समाधि या अभिज्ञता के लोप या अभाव की मालूम होती है । परम कालातीत स्थिति में, जहां चेतना सत् के साथ एक और निश्चल होती है, वह कोई अलग वास्तविकता नहीं होती, केवल सत् में अंतर्निहित सीधी-सादी आत्म-अभिज्ञता होती है । वहां ज्ञान की कोई जरूरत नहीं होती और ज्ञान की कोई क्रिया नहीं होती । सत्ता अपने लिये स्वतः -सिद्ध है । उसे अपने-आपको जानने या यह सीखने के लिये कि वह है, अपने-आपको देखने की जरूरत नहीं होती । लेकिन अगर यह स्पष्ट रूप से शुद्ध सत् के बारे में सच है तो यह आदि सर्व-सत् के बारे में भी सच है क्योंकि जैसे आध्यात्मिक आत्म-सत्ता अपने स्वरूप के बारे में आंतरिक रूप से अभिज्ञ है उसी तरह वह अपनी सत्ता में रहनेवाले सब कुछ के बारे में भीतरी रूप से अभिज्ञ है । यह अभिज्ञता आत्मावलोकन और आत्म-प्रक्षेपण में बनी हुई किसी ज्ञान-क्रिया द्वारा नहीं बल्कि उसी अंतस्थ अभिज्ञता द्वारा होती है । इसलिये जो कुछ है उसके बारे में वह इस तथ्य के कारण कि वही सब कुछ है, वह आंतरिक रूप से सर्वचेतन है । इस तरह अपनी कालातीत स्वयंभू सत्ता से सचेतन आत्मा, सत्ता -आंतरिक रूप से, पूर्णतया, समग्र रूप से, जिसे ज्ञान की दृष्टि या क्रिया की जरूरत नहीं होती क्योंकि वह सर्व है -काल सत्ता और जो कुछ काल में है उसके बारे में उसी तरह अभिज्ञ होती है । यह तादात्म्य द्वारा तात्त्विक अभिज्ञता है । अगर इसे वैश्व सत्ता पर लगाया जाये तो इसका मतलब होगा आत्मा के द्वारा विश्व के बारे में स्वतः-सिद्ध, स्वत:चालित चेतना क्योंकि वह आत्मा सब कुछ है और सब कुछ उसकी सत्ता है ।
लेकिन आध्यात्मिक अभिज्ञता की एक और स्थिति है जो हमें शुद्ध आत्मचेतना की इसी स्थिति और शक्ति से विकसित या शायद उससे पहला विचलन मालूम होती है, लेकिन सचमुच उसके लिये सामान्य और अंतरंग है क्योंकि तादात्म्य द्वारा अभिज्ञता सदा आत्मा के समस्त आत्मज्ञान का उपादान ही होती है । लेकिन वह अपनी शाश्वत प्रकृति में कोई परिवर्तन या कुछ हेर-फेर किये बिना अपने अंदर समावेश और अंतर्निवास द्वारा एक अधीनस्थ और युगपत् अभिज्ञता को स्वीकार कर लेती है । सत् पुरुष, स्वयंभू सभी सत्ताओं को अपनी एक सत्ता में देखता है । उन सबको धारण करता है और उन्हें अपनी सत्ता की सत्ता, अपनी चेतना की चेतना, अपनी शक्ति की शक्ति, अपने आनंद के आनंद के रूप में जानता है और
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साथ ही आवश्यक रूप से वह उनके अंदर स्थित आत्मा है और उनके अंदर की हर चीज को अपनी व्यापक अंतरात्मता द्वारा जानता है । फिर भी यह सारी अभिज्ञता अंतस्थ, स्वयंसिद्ध, स्वचालित रूप से अस्तित्व रखती है, उसे ज्ञान की किसी क्रिया, दृष्टि या प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यहां ज्ञान कोई क्रिया नहीं है बल्कि एक शुद्ध, सतत और अंतस्थ स्थिति है । समस्त आध्यात्मिक ज्ञान के आधार में तादात्म्य की या तादात्म्य द्वारा चेतना है जो सब कुछ को अपने-आपके रूप में जानती या इस रूप में अभिज्ञ है । हमारी चेतना के तौर-तरीके में अनुवाद किया जाये तो यह चेतना उपनिषदों में इस प्रकार प्रतिपादित त्रिविध ज्ञान हो जाती है, ''वह जो समस्त सत्ताओं को आत्मा में देखता है'' "वह जो आत्मा को सभी अस्तित्वों में देखता है,'' ''वह जिसके अंदर आत्मा ही सर्वभूत बन गयी है ।" समावेश, अंतर्निवास और तादात्म्य । लेकिन आधारभूत चेतना में यह देखना आध्यात्मिक आत्म-संवेदन है, एक ऐसा देखना है जो सत्ता का आत्म-प्रकाश है, पृथक्करी अवलोकन या आत्मा का ऐसा अवलोकन नहीं जो उस आत्मा को ही विषय बना दे । लेकिन इस आधारभूत आत्मानुभव में चेतना का ऐसा अवलोकन अभिव्यक्त हो सकता है जो आंतरिक रूप से संभव होते हुए भी, आत्मा की अनिवार्य रूप से आत्म-पूर्ण शक्ति होते हुए भी परम चेतना का अंतर्लीन, अंतर्निहित, आत्मा दीप्त, स्वयंसिद्ध प्रथम सक्रिय तत्त्व नहीं है । यह दृष्टि परम आध्यात्मिक चेतना की एक और स्थिति की चीज है या उसे लाती है -एक ऐसी स्थिति जिसमें उस ज्ञान का आरंभ होता है जिसे हम जानते हैं । चेतना की एक स्थिति है और उसमें उसके साथ अंतरंग जानने की क्रिया होती है । आत्मा अपने-आपको देखती है, वह ज्ञाता और ज्ञात बन जाती है, एक तरह से अपने ही आत्म-ज्ञान का विषयी और विषय--बल्कि एक साथ विषयी-विषय-बन जाती है । लेकिन यह अवलोकन, यह ज्ञान फिर भी अंतःस्थित, स्वयंप्रकाश, तादात्म्य-क्रिया ही रहता है । हम जिसे पृथक्कारी ज्ञान के रूप में अनुभव करते हैं उसका आरंभ अभीतक नहीं होता ।
लेकिन जब विषयी अपने-आपको विषय के रूप से कुछ पीछे खींच लेता है तब आध्यात्मिक ज्ञान की, तादात्म्य द्वारा ज्ञान की अमुक तृतीय शक्तियों का सूत्रपात होता है । एक आध्यात्मिक अंतरंग दृष्टि, एक आध्यात्मिक व्यापक प्रवेश और बेधन, एक आध्यात्मिक अनुभव होता है जिसमें व्यक्ति सब कुछ को आत्मवत् देखता, सभी को आत्मवत् अनुभव करता और सबके साथ आत्मवत् संपर्क में आता है । विषय और वह जो कुछ है या जो कुछ धारण किये हुए है उस सबको आध्यात्मिक रूप से प्रत्यक्ष देखने की एक शक्ति होती है, वह सब आवृत करनेवाले, व्यापक तादात्म्य में दिखायी देता है, तादात्म्य ही उस प्रत्यक्ष दर्शन का उपादान होता है । एक आध्यात्मिक अवधारणा ही विचार का आद्य पदार्थ है, उस विचार का नहीं जो अज्ञान को खोज निकालता है बल्कि उसका जो अंतस्थ
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रूप से ज्ञात है, उसे आत्म-सत्ता में से बाहर लाता और उसे आत्म-देश में, आत्म-अभिज्ञता की विस्तारित सत्ता में, धारणात्मक आत्म-ज्ञान के विषय के रूप में रखता है । एक आध्यात्मिक भाव होता है, एक आध्यात्मिक संवेद होता है, एकत्व का एकत्व के साथ, सत्ता का सत्ता के साथ, चेतना का चेतना के साथ, सत्ता के आनंद का सत्ता के आनंद के साथ आपस में मिश्रण होता है । तादात्म्य में अंतरंग पृथक्ता का हर्ष होता है, एक परम एकत्व में प्रेम के साथ जुड़े प्रेम के संबंधों का हर्ष होता है, शाश्वत एकत्व की बहुत-सी शक्तियों, सत्यों और सत्ताओं का, निराकार के आकारों का एक आनंद होता है, सत् में संभूति की सारी लीला अपनी आत्माभिव्यक्ति को आध्यात्म चेतना की इन्हीं शक्तियों पर प्रतिष्ठित करती है । लेकिन अपने आध्यात्मिक मूल में सभी शक्तियां तात्त्विक हैं, यंत्र रूप नहीं, संगठित, कल्पित या रची हुई नहीं । ये शक्तियां अपने-आप पर और अपने अंदर क्रिया करती हुई अभिन्न आत्मा का प्रदीप्त, आत्म-अभिज्ञ पदार्थ हैं । यह आत्मा ही दृष्टि बन जाती है, आत्मा ही अनुभूति के रूप में स्पन्दित होती है, आत्मा ही प्रत्यक्ष दर्शन और धारणा के रूप में आत्म-प्रदीप्त होती है । वस्तुत:, सब कुछ तादात्म्य द्वारा ज्ञान है, आत्म-शक्तिमान् एकत्व-अभिज्ञता की अपनी बहुल आत्मता में अपने-आप गतिशील है । आत्मा का अनंत आत्म-अनुभव शुद्ध तादात्म्य और बहुविध तादात्म्य के अंतरंग रूप से पृथक् एकत्व के आनंद और आत्म समाविष्ट आत्मानंद के बीच गति करता है ।
जब पृथक्कारी बोध तादात्म्य-बोध को अभिभूत कर देता है तो पृथक्कारी ज्ञान का उद्धव होता है । आत्मा तब भी विषय के साथ अपने तादात्म्य का ज्ञान रखती है लेकिन अंतरंग पृथक्ता की क्रीड़ा को उसकी चरम सीमातक धकेल देती है । पहले आत्मा और अनात्मा का भाव नहीं होता केवल आत्मा और दूसरी आत्मा का भाव रहता है । वहां फिर भी तादात्म्य का और तादात्म्य द्वारा ज्ञान रहता है लेकिन आदान-प्रदान और संपर्क द्वारा मिलनेवाला ज्ञान पहले तो उस ज्ञान पर बड़ी इमारत खड़ी करता है फिर उसमें डूब जाता है और फिर उसका स्थान इस तरह ले लेने को प्रवृत्त होता है कि वह एक गौण अभिज्ञता रह जाता है मानों वह अलग-अलग आत्माओं के परस्पर-संपर्क, उनके अभीतक व्यापक और आच्छादक स्पर्श, उनकी एक-दसरे में प्रवेश करती हुई अंतरंगता का कारण नहीं परिणाम हो । और अंत में तादात्म्य परदे के पीछे गायब हो जाता है और सत्ता का अन्य सत्ताओं के साथ, चेतना का अन्य चेतनाओं के साथ खेल रह जाता है । एक आधारभूत तादात्म्य फिर भी बना रहता है लेकिन उसका अनुभव नहीं होता । उसका स्थान सीधी पकड़ और अंदर भेदते हुए संपर्क, अंतर्मिश्रण और आदान-प्रदान ले लेते हैं । इस परस्पर क्रिया के कारण न्यूनाधिक रूप से अंतरंग ज्ञान, परस्पर अभिज्ञता या विषय की अभिज्ञता संभव रहती है । आत्मा का आत्मा से मिलने का भाव नहीं रहता लेकिन
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एक पारस्परिकता रहती है, अभीतक पूरी पृथकता, पूरी तरह भिन्नता और अज्ञान नहीं आता । यह घटी हुई चेतना है परंतु यह मौलिक ज्ञान की कुछ शक्ति बनाये रखती है जो विभाजन के कारण, अपनी आद्य सारभूत पूर्णता की क्षति के कारण कम हो जाती है, विभाजन के द्वारा क्रिया करती है, सामीप्य तो लाती है परंतु ऐक्य नहीं । विषय के चेतना में समावेश की शक्ति तो होती है, घेरे रहनेवाली अभिज्ञता और ज्ञान तो होता है लेकिन अभी यह समावेश बहिर्मुखी है जिसे हमें उपलब्ध या पुनरुपलब्ध ज्ञान द्वारा, विषय पर चेतना के निवास द्वारा, एकाग्रता द्वारा, उसे अस्तित्व का भाग मानते हुए उसपर अधिकार करके अपनी आत्मा का एक तत्त्व बनाना है । भेदन शक्ति तो है परंतु उसमें कोई स्वाभाविक व्यापकता नहीं होती और वह तादात्म्य की ओर नहीं ले जाती, वह जितना कर सकती है इकट्ठा करती है, इस तरह जो मिले उसे लेती और ज्ञान के विषय की अंतर्वस्तुओं को विषयीतक ले जाती हैं । अब भी चेतना का चेतना के साथ सीधा और बोधक संपर्क हो सकता है जो स्पष्ट और अंतरंग ज्ञान की रचना करे लेकिन वह संपर्क के बिंदुओं या संपर्क की मात्रातक सीमित होता है । अब भी सीधा संवेद, चेतना-दृष्टि, चेतना- अनुभव होता है जो विषय के अंदर और बाहर तथा सतह पर जो है उसे देख और अनुभव कर सकता है । अब भी सत्ता और सत्ता के, चेतना और चेतना के बीच, सब तरह के विचारों, अनुभवों, ऊर्जाओं की तरंगों के बीच परस्पर-अंतःप्रवेश और आदान-प्रदान है जो सहानुभूति और मिलन की गति हो सकता है या विरोध और संघर्ष की । वहां दूसरों पर अधिकार करते हुए या अन्य चेतना या अन्य सत्ता के द्वारा अपना अधिकृत होना स्वीकार करते हुए एकीकरण के लिये प्रयत्न हो सकता है या पारस्परिक समावेश, आच्छादन और पारस्परिक अधिकार द्वारा ऐक्य की ओर दबाव हो सकता है । प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा जाननेवाला इन सब क्रियाओं और पारस्परिक क्रियाओं के बारे में अभिज्ञ होता है और इसी आधार पर वह अपने चारों ओर के जगत् के साथ अपने संबंधों की व्यवस्था करता है । यह चेतना के अपने विषय के साथ सीधे संपर्क द्वारा ज्ञान का मूल स्रोत है जो आंतर सत्ता के लिये तो सामान्य है पर हमारी सतही प्रकृति के लिये विजातीय या अपूर्ण रूप से ज्ञात है ।
स्पष्टतः यह पहला पृथक्कारी अज्ञान अभीतक ज्ञान की, परंतु सीमित पृथक्कारी ज्ञान की लीला है, एक विभक्त सत्ता की आधारभूत एकता की वास्तविकता पर क्रिया की लीला है और प्रच्छन्न ऐक्य का अपूर्ण परिणाम या निष्कर्ष है । तादात्म्य की पूर्ण आंतरिक अभिज्ञता और तादात्म्य द्वारा ज्ञान की क्रिया हमारे जीवन के उच्चतर गोलार्द्ध की चीजें हैं । सीधे संपर्क द्वारा यह ज्ञान चेतना के उच्चतम अतिभौतिक मानसिक लोकों का मुख्य गुण है । हमारी सतही सत्ता अज्ञान की एक दीवार द्वारा उन लोकों की ओर से बंद है । एक घटे हुए और अधिक पृथक्कारी
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रूप में यह मन के न्यूनतर अतिभौतिक लोकों का गुण है । जो कुछ अतिभौतिक है उस सबमें यह तत्त्व है या हो सकता है । यह हमारी अंतस्तलीय आत्मा का मुख्य यंत्र, उसकी अभिज्ञता का मुख्य साधन है क्योंकि अंतस्तलीय आत्मा या आंतरिक सत्ता इन उच्चतर लोकों से अवचेतना से मिलने के लिये प्रक्षेपण है और उन उद्गम के लोकों के, साथ सगोत्रता के साथ अंतरंग रूप से संबद्ध है, और उस चेतना के गुणों को उत्तराधिकार में पाती है । अपनी बाहरी सत्ता में हम निश्चेतना के बालक हैं, हमारी आंतरिक सत्ता हमें मन, प्राण और आत्मा की उच्चतर ऊंचाइयों का उत्तराधिकारी बनाती है । हम जितना भीतर की ओर खुलते हैं, भीतर की ओर जाते हैं, भीतर निवास करते हैं, भीतर से प्राप्त करते हैं, उतना ही अपने निश्चेतन मूल की अधीनता से दूर होते जाते हैं और उसकी ओर बढ़ते हैं जो अभी हमारे अज्ञान के लिये अतिचेतन है ।
सत्ता के सत्ता से पूरी तरह अलग होने पर अज्ञान पूरा हो जाता है, तब चेतना के साथ चेतना का सीधा संपर्क पूरी तरह छिप जाता है या उसपर भारी परत आ जाती है, भले ही वह हमारे अंतर्लीन भागों में चलता रहे जैसे आधार में स्थित गुप्त तादात्म्य और एकत्व बना रहता है, यद्यपि वह पूरी तरह गुप्त रहता है, वह कोई सीधी क्रिया नहीं करता । सतह पर पूरा अलगाव, आत्मा और अनात्मा में विभाजन होता है । अनात्मा के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता तो होती है लेकिन उसे जानने या उसपर शासन करने का कोई सीधा साधन नहीं होता । तब प्रकृति परोक्ष साधनों का निर्माण करती है, भौतिक इन्द्रियों द्वारा संपर्क, स्नायविक धाराओं द्वारा बाहरी आघातों का प्रवेश, भौतिक अंगों की क्रिया के पूरक के रूप में और उनकी सहायता करते हुए मन की प्रतिक्रियाएं और समन्वय -ये सब परोक्ष ज्ञान की विधियां हैं क्योंकि चेतना इन यंत्रों पर निर्भर रहने के लिये बाधित होती है और विषय पर सीधी क्रिया नहीं कर सकती । इन विधियों के साथ जुड़ जाते हैं तर्क-बुद्धि, समझ और अंतर्भास जो इस तरह परोक्ष रूप में लाये गये संदेशों को पकड़ लेते हैं, सबको एक क्रम में रखते हैं और उनकी आधार-सामग्री का उपयोग अनात्मा का ज्ञान, या उसपर जितना प्रभुत्व या अधिकार पाया जा सके उतना पाने के लिये या उसके साथ उतना आंशिक ऐक्य पाने के लिये करते हैं जितने के लिये आद्य विभाजन पृथक् सत्ता को अनुमति दे । यह तो स्पष्ट है कि ये साधन प्रायः अपर्याप्त और प्रायः अदक्ष होते हैं और मन की क्रियाओं का यह परोक्ष आधार ज्ञान में आधारभूत अनिश्चित ला देता है लेकिन यह आरंभिक अपर्याप्तता हमारी भौतिक सत्ता के स्वभाव में और उस सारी सत्ता के स्वभाव में अंतर्निहित है जो अभीतक उन्मुक्त नहीं हुई है और निश्चेतना में से उभर रही हैं ।
निश्चेतना परम अतिचेतना की उल्टी प्रतिकृति है, उसमें भी सत्ता की वही निरपेक्षता और स्वचालित क्रिया है लेकिन है विशाल अंतर्लीन समाधि में, वह है
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सत्ता ही जो अपने-आपमें खोयी हुई है, अनन्तता की अपनी गहराइयों में डूबी हुई है, आत्म-सत्ता में ज्योतिर्मय लीनता की जगह उसमें अंधकारपूर्ण निवर्तन है । ऋग्वेद के शब्दों में 'तम आसीत् तमसा गढम्' यानी अंधकार अंधकार में आवृत है जिसके कारण वह असत्-सा दिखायी देता है । एक ज्योतिर्मय अंतर्निहित आत्म- अभिज्ञता की जगह एक ऐसी चेतना है जो आत्म-विस्मृति के रसातल में डूबी हुई है, जो सत्ता में अंतर्निहित तो है लेकिन सत्ता में जाग्रत् नहीं है । फिर भी यह अंतर्ग्रस्त चेतना तादात्म्य द्वारा ज्ञान है जो है प्रच्छन्न । यह अपने अंदर अस्तित्व के सभी सत्यों की अभिज्ञता को वहन करती है जो उसके अंधकारमय अनंत में छिपे होते हैं । जब यह क्रिया या सृजन करती है, हां यह पहले चेतना नहीं ऊर्जा के रूप में क्रिया करती है, तो हर चीज एक अंतर्भूत ज्ञान की पूर्णता और यथार्थता में व्यवस्थित होती है । सभी भौतिक चीजों में एक मूक और अंतर्निहित सत्य-संकल्प, एक सारवान् और आत्म-प्रभावक अंतर्भास निवास करता है, एक चक्षुहीन यथार्थ प्रत्यक्ष दर्शन, एक स्वचालित बुद्धि होती है जो अनभिव्यक्त और अविचारित धारणाओं को कार्यान्वित करती है, ऐसी दृष्टि है जो अंधी होते हुए भी निर्भ्रान्त है, निरुद्ध भाव की मूक और अचूक सुनिश्चिती है जिसपर असंवेदनशीलता का लेप है । जिसे कार्यान्वित करना है उस सबको यह कार्यन्वित करती है । निश्चेतन की यह सारी स्थिति और क्रिया, बहुत स्पष्ट रूप से शुद्ध अतिचेतन की उसी स्थिति और क्रिया के अनुरूप होती है लेकिन मूल आत्म-ज्योति की जगह आत्म-अंधकार में अनूदित होकर । ये शक्तियां भौतिक आकार में निहित होने पर भी उस आकार के अधिकार में नहीं होतीं फिर भी उसकी मूक अवचेतना में क्रिया करती हैं ।
हम इस ज्ञान में चेतना के अंतर्लयन से विकसित प्रकटनतक की भूमिकाओं को ज्यादा स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, जिसकी एक सामान्य धारणा बनाने का हम पहले भी प्रयास कर चुके हैं । भौतिक सत्ता का केवल एक स्थूल भौतिक व्यक्तित्व होता है, मानसिक व्यक्तित्व नहीं । लेकिन उसमें एक अंतस्तलीय उपस्थिति होती है, अचेतन चीजों में एक सचेतन विद्यमान होता है, वही उसमें निवास करनेवाली ऊर्जाओं की क्रियाओं का निर्देशन करता है । अगर जैसा कि प्रतिपादित किया गया है कोई भौतिक विषय अपने चारों ओर की चीजों के संपर्क की छाप ग्रहण करता है और उसे बनाये रखता है और उससे ऊर्जाएं निकलती हैं जिससे गुह्य ज्ञान अपने अतीत के बारे में अभिज्ञ हो सकता है, इन निःसृत होते हुए प्रभावों के बारे में हमें सचेतन कर सकता है तो इस ग्रहणशीलता और इन क्षमताओं का कारण होना चाहिये वह आंतरिक, अव्यवस्थित अभिज्ञता जो रूप के चारों ओर व्यापक तो है पर अभीतक उसे प्रदीप्त नहीं कर रही । बाहर से हम इतना ही देखते हैं कि वनस्पतियों या खनिजों जैसे भौतिक पदार्थों में अपनी शक्तियां, गुण और अंतस्थ प्रभाव तो होते हैं लेकिन चूंकि उनमें संचार की कोई क्षमता या साधन नहीं है
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उसके पीछे विषयों की एक अस्पष्ट चित्-दृष्टि और अनुभूति । भावावेश स्पन्दित होकर बाहर आता हैं और औरों के साथ आदान-प्रदान की खोज करता है । अंत में धारणा, विचार और तर्क-बुद्धि बाहरी सतह पर आते हैं जो अपनी प्राप्त ज्ञान- सामग्री को इकट्ठा करते हुए विषय के अवधारण और प्रज्ञान की ओर प्रवृत्त होते हैं । लेकिन ये सब अपूर्ण हैं, उन्हें पृथक्कारी अज्ञान और पहली अंधकार से घेरनेवाली निश्चेतना विकलांग किये रहती है । ये सब बाहरी साधनों पर निर्भर हैं । वे अपने बल पर क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं । चेतना सीधी चेतना पर क्रिया नहीं कर सकती । मानसिक चेतना का वस्तुओं पर रचनात्मक आच्छादन और भेदन तो होता है लेकिन वास्तविक अधिकार नहीं, तादात्म्य द्वारा ज्ञान नहीं होता । अंतर्लीन सत्ता जब अपनी गुप्त क्रियाओं में से कुछ को मानसिक बुद्धि के सामान्य रूपों में अनूदित किये बिना शुद्ध रूप में अग्र भाग के मन और इन्द्रियों पर बलपूर्वक आरोपित करने में समर्थ होती है तभी ज्यादा गहरे साधनों की प्राथमिक क्रिया सतह पर आती है । लेकिन ऐसे उन्मज्जन अपवाद ही होते हैं । वे हमारे प्राप्त किये हुए और सीखे हुए ज्ञान की सामान्यता के बीच अस्वाभाविक और अतिप्राकृतिक का पुट लिये दिखायी देते हैं । केवल अपनी आंतरिक सत्ता की ओर खुलकर या उसमें प्रवेश करके हम प्रत्यक्ष अंतरंग अभिज्ञता को अपनी बाहरी परोक्ष अभिज्ञता के साथ जोड़ सकते हैं । केवल अपनी अंतरतम आत्मा या अतिचेतन आत्मा के प्रति जागकर ही उस आध्यात्मिक ज्ञान का आरंभ हो सकता है जिसका आधार, जिसकी घटक-शक्ति, जिसका अंतस्थ पदार्थ है तादात्म्य ।
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