दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २५

 

त्रिविध रूपांतर

 

... पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति ।

... ईशानो भूतभव्यस्य... ।।

... ज्योतिरिवाघूमक: ।।

तं स्वाच्छीरात् प्रवृहेत्. . .  धैर्येण ।।

 

एक सचेतन सत्ता ही आत्मा का केंद्र है जो भूत और भविष्य का

ईश है ।... वह धुएं के बिना आग जैसा है... उसे हमें अपने

शरीर से धैर्य के साथ अलग करना होगा ।

कठोपनिषद् २.१. १२, १३; २.३.

 

तदयं केतो हृद आ वि चष्टे ।

 

हृदय में एक अंतर्भास इस सत्य को देखता है ।

ऋग्वेद १.२४.१२

 

..... अहमज्ञा तम: ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।

 

मैं आध्यात्मिक सत्ता में निवास करता हूं और वहां से ज्ञान के

भास्वर ज्ञान-दीप द्वारा अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को नष्ट करता हूं ।

गीता १०.

 

नीचीनाः स्थुरुपरि बुघ्न एषामस्मे अंतर्निहिता: केतव: स्यु: ।

... वरुणेह बोध्युरुशंस. . . ।।

अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्वाम ।

 

ये रश्मियां नीचे की ओर अभिमुख की गयी हैं । उनकी नींव ऊपर

है । वे हमारे अंदर गहराई में जमे... है वरुण, यहां जागो, अपना

राज्य विगत करो, हम तुम्हारी क्रियाओं के विधान में निवास करें

और अनंत मां (अदिति) के आगे निष्कलंक रहें ।

ऋग्वेद १.२४.७, ११, १५

 

हंस: शुचिषत्. . . .

ऋतजा: ऋतं वृहत ।।

वह हंस जो शुचिता में निवास करता है... ऋत से उत्पन्न... वह

स्वयं ऋत और बृहत् है ।

कठोपनिषद् ११..

 

आध्यात्मिक मनुष्य के विकास में अगर प्रकृति का एकमात्र अभिप्राय हो उसे परम

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सद्‌वस्तु की ओर जगाना और उसे अपने से या उस अज्ञान से मुक्त करना जिसमें उसने शाश्वत की शक्ति के रूप में रहते हुए अपने-आपको आच्छादित कर रखा है, इसमें से कहीं अन्यत्र सत्ता की किसी उच्चतर अवस्था में गमन द्वारा यह मुक्ति मिल सकती है, अगर यह चरण विकास मे इति और निर्गम-द्वार है तब तो सारतः उसका काम पूरा हो चुका है और अब करने के लिये कुछ बाकी नहीं रहा । रास्ते बन चुके हैं, उनका अनुसरण करने की क्षमता विकसित हो चुकी है, लक्ष्य या सृष्टि का अंतिम शिखर अभिव्यक्त है । अब जो कुछ बाकी है वह इतना ही कि हर आत्मा व्यक्तिगत रूप से उचित अवस्था और अपने विकास के मोतक जा पहुंचे, आध्यात्मिक पथों में प्रवेश करे और अपने चुने हुए मार्ग से इस निम्नतर जीवन में से निकल जाये । लेकिन हमने माना है कि एक और आगे का इरादा भी है -केवल अध्यात्म-पुरुष का अंत: -प्रकाश ही नहीं बल्कि प्रकृति का आमूल और संपूर्ण रूपांतर । प्रकृति में यह इच्छा है कि अध्यात्म पुरुष के सशरीर जीवन की एक सच्ची अभिव्यक्ति को चरितार्थ करे, उसने जो शुरू किया है उसे अज्ञान से ज्ञान की ओर जाकर पूरा करे, अपने मुखौटे को उतार फेंके और अपने-आपको ऐसी प्रकाशमान चित्-शक्ति के रूप में प्रकट करे जो अपने अंदर शाश्वत सत्ता और उसकी सत्ता के वैश्व आनंद को वहन कर रही है । तब यह स्पष्ट हो जाता है कि कुछ ऐसा है जो अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है । दृष्टि के सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है भूरि अस्पष्ट कर्त्वम् -एक ऐसा शिखर है जिसपर अभी पहुंचना है, एक विस्तार है जिसे अंतर्दृष्टि की आख से, इच्छा के पंखों से, भौतिक विश्व में अध्यात्म-पुरुष के आत्म-प्रतिष्ठापन द्वारा अबतक ग्रहण करना बाकी है । विकसनशील शक्ति ने जो किया है वह यही है कि कुछ व्यक्तियों को अपनी अंतरात्मा के बारे में अभिज्ञ कर दिया, अपनी आत्मा के बारे में सचेतन कर दिया, वे जो शाश्वत सत्ता हैं उसके बारे में अभिज्ञ कर दिया, उन्हें उस दिव्यता या सदवस्तु के साथ संपर्क में ला दिया जो अपने रंग-रूप के अंदर छिपी हुई है; इस प्रबोध के पीछे प्रकृति का कोई परिवर्तन तैयार होता है, उसके साथ चलता या उसका अनुसरण करता है । लेकिन यह पूर्ण और आमूल परिवर्तन नहीं है जो पार्थिव प्रकृति के क्षेत्र में सुरक्षित और नये व्यवस्थित तत्त्व की, नयी सृष्टि, सत्ता की स्थायी नूतन व्यवस्था की स्थापना करता है । आध्यात्मिक पुरुष विकसित हो गया है परंतु अतिमानसिक पुरुष नहीं जो आगे चलकर उस प्रकृति का नेता बनेगा ।

 

     यह इस कारण है कि आध्यात्मिकता के तत्त्व को अभी पूर्ण स्वाधिकार और प्रभुत्व के साथ अपने-आपको स्थापित करना है । यह तत्त्व अबतक मानसिक सत्ता के अपने-आपसे भाग निकलने या अपने-आपको आध्यात्मिक स्थिति तक परिष्कृत करने और उठाने के लिये एक शक्ति रहा है, उसने इसका उपयोग मन से आत्मा

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की मुक्ति और आध्यात्मभावापन्न मन और हृदय में सत्ता की वृद्धि के लिये किया है, लेकिन अध्यात्म पुरुष की स्वप्रतिष्ठा के लिये अपने ऐसे सक्रिय और प्रभुता- सपन्न अधिकार की प्रतिष्ठा के लिये नहीं -या यूं कहें अभीतक पर्याप्त रूप से नहीं -जो मन की सीमाओं और मानसिक यंत्र-विन्यास से मुक्त हो । एक और क्रिया-विन्यास का विकास शुरू हो गया है लेकिन अभी उसका पूर्ण और प्रभावी होना बाकी है । और इसके अतिरिक्त उसे आद्य अज्ञान में शुद्ध रूप से ऐसा व्यक्तिगत आत्म-सृजन होना बंद कर देना चाहिये, पार्थिव जीवन के लिये कोई ऐसी अधिसामान्य वस्तु न रहना चाहिये जिसे हमेशा कठिन प्रयास द्वारा व्यक्तिगत उपलब्धि के रूप में प्राप्त किया जाये । उसे एक नये प्रकाश की सत्ता के लिये सामान्य प्रकृति हो जाना चाहिये; जैसे मन यहां अज्ञान के आधार पर प्रतिष्ठित है और ज्ञान की खोज कर रहा और ज्ञान में बढ़ रहा है उसी तरह यहांपर अतिमानस को ज्ञान के आधार पर प्रतिष्ठित होना चाहिये और अपने बृहत्तर प्रकाश में बढ़ना चाहिये । लकिन यह तबतक नहीं हो सकता जबतक कि आध्यात्मिक-मानसिक सत्ता पूरी तरह अतिमानसतक न उठ जाये और उसको शक्तियों को पार्थिव जीवन में न उतार लाये । क्योकि मन और अतिमानस के बीच की खाई को पाटना है, बंद रास्तों को खोलना है और जहां अभी शून्य और नीरवता है वहां आरोहण और अवरोहण के नये रास्ते बनाने हैं । यह केवल त्रिविध रूपांतर द्वारा ही किया जा सकता है जिसका हम सरसरी तौर पर उल्लेख पहले ही कर आये हैं । पहले चैत्य परिवर्तन होना चाहिये, हमारी पूरी वर्तमान प्रकृति का आत्मा के साधन के रूप में परिवर्तन होना चाहिये, उसके ऊपर या उसके साथ आध्यात्मिक परिवर्तन होना चाहिये, समस्त सत्ता में, यहांतक कि प्राण और शरीर की निम्नतम गुफाओं में भी, हमारी अवचेतना के अंधकार में भी उच्चतर प्रकाश, ज्ञान, शक्ति, बल, आनंद, शुद्धि का अवतरण होना चाहिये और अंत में आध्यात्मिक रूपांतर का हस्तक्षेप होना चाहिये, शीर्षस्थ गति के रूप में अतिमानस में आरोहण और हमारी समस्त सत्ता और प्रकृति में अतिमानसिक चेतना का रूपांतरकारी अवरोहण होना चाहिये ।

 

     आरंभ में प्रकृति में स्थित अंतरात्मा, चैत्य सत्ता -जिसका खुलना ही ध्यात्मिक परिवर्तन की ओर पहला चरण है -हमारा पूरी तरह से अवगुंठित भाग होता है यद्यपि यह वही है जिसके द्वारा हम जीवित हैं और प्रकृति में व्यक्तिगत सत्ताओं के रूप में बने हुए हैं । हमारे प्राकृतिक संघटन के अन्य भाग केवल परिवर्तनशील ही नहीं, नश्वर हैं लेकिन हमारे अंदर चैत्य सत्ता बनी रहती है और आधारभूत रूप में हमेशा वही बनी रहती है । उसके अंदर हमारी अभिव्यक्ति की सभी सारगत संभावनाएं रहती हैं लेकिन वह उनसे नहीं बनी है । वह जिसे अभिव्यक्त करती है उससे सीमित नहीं है, अभिव्यक्ति के अपूर्ण रूपों में समायी हुई नहीं है, सतही सत्ता की अपूर्णताओं और अशुद्धियों से, दोषों और विकृतियों से

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कलंकित नहीं है । वह वस्तुओं में दिव्यता की सदा पवित्र ज्वाला है और उसमें जो कुछ भी आये, जो कुछ भी हमारे अनुभव में प्रवेश करे, वह उसकी शुद्धि को गंदा नहीं कर सकता, उस ज्वाला को बुझा नहीं सकता, यह आध्यात्मिक द्रव्य निर्मल और ज्योतिर्मय है और चूंकि वह पूर्णतया ज्योतिर्मय है अतः वह प्रत्यक्ष, अंतरंग और तात्कालिक रूप से सत्ता के सत्य और प्रकृति के सत्य से अभिज्ञ रहता है । वह सत्य, शिव और सुंदर के बारे में गभीरता से सचेतन रहता है क्योकि सत्य, शिव और सुंदर उसके सहज स्वभाव के सजातीय हैं, किसी ऐसी चीज के रूप हैं जो उसके अपने पदार्थ के अंतर्गत है । वह उस सबसे भी अभिज्ञ है जो इन चीजों का खडन करता है, उस सबसे भी जो उसके स्वाभाविक गुण से उल्टा है, जो मिथ्या, अशुभ, कुरूप और अभद्र है; लेकिन वह स्वयं ये वस्तुएं नहीं बनता, न ही अपने इन विरोधी तत्त्वो से प्रभावित या परिवर्तित होता है, जब कि उसके बाहरी उपकरणों -मन, प्राण और शरीर -पर इनका इतना जोरदार प्रभाव होता है । क्योकि, हमारे अंदर स्थायी सत्ता, अंतरात्मा, मन, प्राण और शरीर को अपने उपकरणों के रूप में प्रस्तुत करती और व्यवहार में लाती है, उनकी अवस्थाओं के आच्छादन को सहती है लेकिन वह अपने अंगों से भिन्न और महत्तर है ।

 

     अगर चैत्य सत्ता शुरू से ही अनावृत और अपने मंत्रियों को ज्ञात होती, पर्दे के पीछे छिपे एकांतवासी राजा की तरह न होती तो मानव-विकास तेज आत्म-प्रस्फुटन होता, वह कठिन, उतार-चढ़ाववाला विकृत विकास न होता जैसा कि अब है । लेकिन पर्दा मोटा है और हम अपने भीतर के गुप्त प्रकाश को नहीं जानते, वह प्रकाश जो हृदय के अंतर्तम गर्भगृह के तहखाने में छिपा है । चैत्य से हमारी सतहतक संकेत उठते हैं लेकिन हमारा मन उनके उद्‌भव को नहीं पकड़ता, वह  उन्हें अपने ही क्रिया-कलाप मानता है क्योकि उनके सतहतक आने से पहले वे मानसिक पदार्थ से आवेष्टित हो जाते हैं अतः उनके अधिकार से अनभिज्ञ, उस क्षण की प्रवृत्ति या मो के अनुसार वह उनका अनुसरण करता या नहीं करता है । अगर मन प्राणिक अहं की प्रेरणा को मानता है तो इसकी संभावना नहीं के बराबर रहती है कि चैत्य थोड़ा भी प्रकृति पर शासन करे या हमारे अंदर अपने गुप्त आध्यात्मिक पदार्थ को और अपनी सहज क्रिया को अभिव्यक्त करे । या अगर मन को अति विश्वास है और वह अपने छोटे प्रकाश के अनुसार ही कार्य करता है, अपने ही मूल्यांकन या निर्णय, इच्छा और ज्ञान की क्रिया से लगा रहता है तब भी अंतरात्मा पर्दे में और निष्क्रिय ही रहेगी और मन के अधिक विकास के लिये प्रतीक्षा करेगी । क्योकि हमारे अंदर का चैत्य भाग प्राकृतिक विकास को सहारा देने के लिये है और पहला स्वाभाविक विकास होना चाहिये क्रमश: शरीर, प्राण और मन का । और इनमें से हर एक को अपनी तरह से या मिलकर अपने कुवर्गित साझे में काम करना चाहिये ताकि वे ब सकें, अनुभव पा सकें और विकसित हो

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सकें । अंतरात्मा हमारे समस्त मानसिक, प्राणिक और शारीरिक अनुभूति के सारतत्त्व को इकट्‌ठा करती और प्रकृति में हमारे अस्तित्व के अगले विकास के लिये उसे आत्मसात् करती है; लेकिन यह क्रिया गुह्य होती है और सतह पर थोपी नहीं जाती । सत्ता के विकास की प्रारभिक भौतिक और प्राणिक अवस्थाओं में निश्चय ही अंतरात्मा की कोई चेतना नहीं होती, चैत्य क्रियाएं होती हैं पर इन क्रियाओं के रूप, यंत्र-विन्यास प्राणिक और भौतिक होते हैं और जब मन सक्रिय हो तो मानसिक भी । क्योंकि, मन भी जबतक कि वह आदिम अवस्था में है या अगर विकसित भी है तो बहुत ज्यादा बाहरी है, उनके गभीरतर स्वरूप को नहीं पहचानता । अपने- आपको भौतिक सत्ताएं या प्राणिक सत्ताएं या ऐसी मानसिक सत्ताएं मानता है जो प्राण और शरीर का उपयोग कर रही हैं, और अंतरात्मा के अस्तित्व की पूरी तरह से अवहेलना करना आसान है । क्योंकि, अंतरात्मा के बारे में एकमात्र निश्चित भाव हमारे पास यही है कि वह कोई ऐसी चीज है जो हमारे शरीर की मृत्यु के बाद भी बनी रहती है लेकिन हम नहीं जानते कि यह है क्या; क्योंकि अगर हम कभी उसकी उपस्थिति के बारे में सचेतन भी होते हैं तो भी हम सामान्यत: उसकी पृथक् वास्तविकता के बारे में सचेतन नहीं होते और न ही स्पष्ट रूप से अपनी प्रकृति में उसकी प्रत्यक्ष क्रिया का अनुभव करते हैं ।

 

     जैसे-जैसे विकास आगे बढ़ता है, प्रकृति धीरे-धीरे प्रयोगात्मक रूप में हमारे गुह्य भागों को प्रकट करने लगती है । वह हमें अधिकाधिक अपने अंदर देखने के लिये प्रवृत्त करती है या सतह पर अधिक स्पष्टता के साथ पहचाने जा सकनेवाले उनके संकेतों और रूपायणों को शुरू करने में लग जाती है । हमारी अंतरात्मा, चैत्य तत्त्व अबतक गुप्त रूप धारण करना शुरू कर चुका है; वह अपने प्रतिनिधि के रूप में एक आतरात्मिक व्यक्तित्व, एक सुस्पष्ट चैत्य सत्ता को सामने करता और विकसित करता है । यह चैत्य सत्ता फिर भी पर्दे के पीछे हमारे अंतस्तलीय भाग में रहती है हमारे अंदर के सच्चे मन, प्राण और सूक्ष्म भौतिक सत्ता की तरह; लेकिन उन्हींकी तरह वह सतही जीवन पर फेंक गये संकेतों और प्रभावों द्वारा उस सतह पर कार्य करती है । वे सतह की समष्टि का भाग बनते हैं और यह समष्टि आतरिक प्रभावों और लहरों का सामूहिक परिणाम है और वह दृश्य रूपायन और अधिरचना है जिसे हम साधारणत: अपनी सत्ता अनुभव करते और मानते हैं । इस अज्ञानमय सतह पर हम धुंधले रूप से किसी ऐसी चीज के बारे में अभिज्ञ होते हैं जिसे मन, प्राण और शरीर से स्पष्ट रूप में भिन्न अंतरात्मा कह सकते हैं । हम उसे केवल अपने मानसिक भाव या अपने बारे में अस्पष्ट सहज बोध के रूप में ही नहीं बल्कि अपने जीवन, चरित्र और क्रिया में गोचर प्रभाव के रूप में अनुभव करते हैं । जो कुछ सत्य, शिव और सुंदर, सूक्ष्म, शुद्ध और उदात्त है उस सबके प्रति विशेष संवेदनशील भाव, उसके प्रति उत्तर, उसके लिये मांग, मन और प्राण पर दबाव

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ताकि वे उसे स्वीकार कर लें और हमारे विचार, भावना, आचार, चरित्र में रूपायित करें -यह बहुधा जाना-माना और व्यापक विशिष्ट लक्षण है, यद्यपि यह चैत्य के इस प्रभाव का एकमात्र चिह्न नहीं है । जिस मनुष्य के अंदर यह तत्त्व नहीं है या जो इस प्रेरणा को बिल्कुल उत्तर नहीं देता, उसके बारे में हम कहते हैं कि उसमें आत्मा नहीं है क्योकि यही वह प्रभाव है जिसे हम बहुत आसानी से अपने अंदर सूक्ष्मतर या अधिक दिव्य भाग के रूप में जान या स्वीकार कर सकते हैं, अपनी प्रकृति में पूर्णता के किसी लक्ष्य की ओर धीमे-धीमे मोने के लिये सबसे अधिक सबल अंग के रूप में जान सकते हैं ।

 

     लेकिन यह चैत्य प्रभाव या क्रिया सतह पर बिल्कुल शुद्ध रूप में नहीं आती या अपनी शुद्धि में सुव्यक्त नहीं रहती । अगर ऐसा होता तो हम स्पष्ट रूप से अपने अंदर आतरात्मिक तत्त्व को पहचान सकते और सचेतन रूप से पूरी तरह उसके आदेश के अनुसार चलते । एक गुह्य मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म-भौतिक क्रिया हस्तक्षेप करती है और उसमें मिल जाती है, उसका उपयोग करने और उसे अपने हित में बदलने की कोशिश करती है, उसके अंदर की दिव्यता क बौना बना देती है, उसकी आत्माभिव्यक्ति को विकृत करती या घटा देती, यहांतक कि उसके पथभ्रष्ट होने और लड़खड़ा का कारण बनती है या उसपर मन, प्राण और शरीर की अशुद्धि, क्षुद्रता और भ्रांति का दाग लगाती है । जब वह इस तरह मिश्रित होकर घटे हुए रूप में सतह पर पहुंचती है तो सतही प्रकृति उसे धूंधली-सी ग्रहणशीलता और अज्ञान-भरे रूपायन में ग्रहण करती है और इस कारण और भी अधिक पथच्युति और मिश्रण हो सकते या होते हैं । उसे एक मरो दी जाती है, गलत निर्देशन दिया जाता हैर जो अपने-आपमें हमारी आध्यात्मिक सत्ता का शुद्ध द्रव्य और क्रिया है उसका यह एक गलत प्रयोग, गलत रचना, क भूल-भरा परिणाम है । इसीके अनुसार चेतना का रूपायण बनाया जाता है जो चैत्य प्रभाव और उसकी सूचनाओं के साथ मानसिक भावों, मतों, प्राणिक कामनाओं और लालसाओं, अभ्यासगत भौतिक प्रवृत्तियों की खिचड़ी होता है । अस्पष्ट आत्मिक प्रभाव के साथ इन बाहरी अंगों के उच्चतर दिशा की ओर होनेवाले अज्ञान-भरे लेकिन सदिच्छापूर्ण प्रयास भी मिल जाते हैं; एक बहुत ही मिश्रित प्रकृति की मानसिक उद्‌भावना जो प्रायः अपने आदर्शवाद में भी अंधकारमय होती है और कभी-कभी यहांतक कि विनाशक रूप में भूत- भरी होती है, भावनात्मक सत्ता का भाव-भरा आवेग और आवेश जो अनुभवों, भावनाओं और भावुकता की फुहारें और फेन उछालता रहता है, प्राणिक भागों का क्रियाशील उत्साह, शारीरिक सत्ता के उत्सुक प्रत्युत्तर, स्नायु और शरीर की रोमांचकारिता और उत्तेजनाएं -ये सारे प्रभाव एक मिले-जुले रूपायन में एक हो जाते हैं जिसे प्रायः अंतरात्मा और उसकी मिली-जुली भ्रमपूर्ण क्रिया को अंतरात्मा का स्पंदन, चैत्य विकास और क्रिया या

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सिद्ध आंतरिक प्रभाव मान लिया जाता है । स्वयं चैत्य पुरुष दाग या मिश्रण से अछूता होता है लेकिन उसमें से जो निकलता है उसे इस निरापदता की रक्षा प्राप्त नहीं होती और इसी कारण यह गड़बड़झाला संभव हो जाता है ।

 

     और इसके अतिरिक्त चैत्य पुरुष, हमारे अंदर स्थित आंतरात्मिक व्यक्तित्व, पूरी तरह विकसित और प्रकाशमान होकर उदित नहीं होता, यह विकसित होता है धीमे विकास और संघटन में से गुजरता है । उसकी सत्ता की आकृति शुरू में अस्पष्ट हो सकती है और बाद में लंबे समयतक दुर्बल और अविकसित रह सकती है, अशुद्ध नहीं अपूर्ण । क्योंकि वह अपने रूपायण, अपने सक्रिय आत्म-निर्माण को अंतरात्मा की उस शक्ति पर आश्रित रखता है जो विकास के दौरान, अविद्या और निश्चेतना के विरोध .के बावजूद कम या ज्यादा सफलता के साथ बाहरी सतह पर वस्तुत: प्रकट की गयी है । उसका प्रकट होना प्रकृति में अंतरात्मा के उद्‌भव का चिह्न है और अगर वह उद्‌भव अभी लधु और दोषपूर्ण है तो चैत्य व्यक्तित्व भी बौना और दुर्बल होगा । वह हमारी चेतना के अंधेरे के कारण अपनी भीतरी सद्‌वस्तु से अलग रहता है, सत्ता की गहराइयों में अपने उद्‌गम से अधकचरे संचार में रहता है क्योंकि रास्ता अभीतक ठीक तरह बना हुआ नहीं होता, बाधाएं आसानी से आती हैं और बहुधा तार या तो कट जाते हैं या किसी और उद्‌गम से आनेवाले किसी और तरह के संचारों से भरे रहते हैं । उसे जो कुछ प्राप्त होता है उसे अपने बाहरी यंत्रों पर अंकित करने की उसकी शक्ति भी अधूरी रहती है । उसे अपनी दरिद्रता के कारण अधिकतर चीजों के लिये इन यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ता है और अभिव्यक्ति और क्रिया की ओर अपनी प्रेरणा को उसे एकमात्र चैत्य सत्ता के निर्भ्रान्त प्रत्यक्ष बोध के अनुसार नहीं बल्कि इन बाहरी उपकरणों से मिलनेवाले तथ्यों के आधार पर बनाना पड़ता है । इन परिस्थितियों में वह सच्चे चैत्य प्रकाश को मन में क्षीण या विकृत होकर केवल एक भाव या मत बन जाने से, चैत्य अनुभूति को हृदय में भ्रम - भरे भावावेग या केवल भालुकता बन जाने से, चैत्य की कर्म की इच्छा को प्राणिक अंगों में अंधे प्राणिक उत्साह या आवेगभरी उत्तेजना बन जाने से नहीं रोक सकता । यहांतक कि किसी और श्रेष्ठतर वस्तु के अभाव में वह इन गलत अनुवादों को स्वीकार करके उनके द्वारा अपनी परिपूर्ति करने की कोशिश करता है । क्योंकि यह अंतरात्मा के काम का भाग है कि वह मन, हृदय और प्राणिक सत्ता पर प्रभाव डाले और उनके भावों, अनुभवों, उत्साहों, क्रियाशीलताओं को उस दिशा में मोड़े जो दिव्य और प्रकाशमय है। लेकिन पहले तो यह अधूरे रूप से ही धीरे- धीरे और मिश्रण के साथ करना होगा । जैसे-जैसे चैत्य व्यक्तित्व ज्यादा मजबूत होता जाता है वह अपने पीछे स्थित चैत्य सत्ता के साथ अपना संस्पर्श बढ़ाने और सतह. के साथ अपने संचार को सुधारने लगता है तब वह मन, हृदय और प्राण को अपनी सूचनाएं ज्यादा विशुद्धता और बल के साथ भेज

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 सकता है क्योंकि वह अधिक प्रबल नियंत्रण करने और मिथ्या मिश्रण के विरुद्ध प्रतिक्रिया करने के अधिक योग्य होता है । अब वह प्रकृति में अपने-आपको अधिकाधिक स्पष्ट रूप से शक्ति के रूप में अनुभव कराने में समर्थ होता है । लेकिन इस तरह भी यह विकास धीमा और दीर्घ होगा यदि उसे पूरी तरह विकसनशील ऊर्जा की स्वचालित गति पर छोड़ दिया जाये । केवल तभी जब मनुष्य अंतरात्मा के ज्ञान की ओर जागता है और उसे सामने लाने की और उसे अपने जीवन और क्रिया का स्वामी बनाने की आवश्यकता का अनुभव करता है, तभी विकास की ज्यादा तेज सचेतन पद्धति हस्तक्षेप करती है और चैत्य रूपांतर संभव होता है ।

 

     इस धीमे विकास में सहायता मिल सकती है मन के अपने अंदर की किसी ऐसी चीज के बारे में स्पष्ट बोध पाने, उसपर आग्रह करने और उसका स्वरूप जानने के प्रयास से, जो शरीर की मृत्यु के बाद भी बनी रहती है । लेकिन शुरू में ज्ञान के इस तथ्य से बाधा पड़ती है कि हमारे अंदर ऐसे बहुत से तत्त्व हैं, बहुत-से रूपायण हैं जो अपने-आपको आंतरात्मिक तत्त्व के रूप में प्रकट करते हैं और उन्हें भूल से चैत्य माना जा सकता है । पारलौकिक जीवन के बारे में प्राचीन यूनानी तथा कुछ अन्य परंपराओं में दिये गये वर्णन स्पष्ट रूप से बताते हैं कि सत्ता के किसी अवचेतन रूपायण को अवभौतिक संस्कार-शरीर या छाया-रूप को या फिर व्यक्तित्व के प्रेतबिंब या प्रेत को ही अंतरात्मा मान लेने की भूल की गयी थी । यह भूत, जिसे भूल से आत्मा कहा जाता है कभी-कभी एक प्राणिक रूपायण होता है जो मनुष्य की विशेषताओं, उसकी सतही जीवन-पद्धतियों की फिर से रचना करता है और कभी-कभी उसके मानसिक कोष के सतही रूप का सूक्ष्म भौतिक दीर्घीकरण होता है । अच्छे-से-अच्छे रूप में यह प्राणिक व्यक्तित्व का कोष होता है जो शरीर छोड़ने के बाद भी कुछ समयतक सामने रहता है । मृत्यु के बाद व्यक्तित्व के कोषों के परित्यक्त अवशेषों या कल्पित आकारों से होनेवाले संपर्क से उत्पन्न इन भ्रांतियों के अतिरिक्त कठिनाई का कारण यह भी होता है कि हमें अपनी प्रकृति के अंतस्तलीय भागों का ज्ञान नहीं होता, उनकी क्रियाओं के अध्यक्ष ''पुरुष'' के स्वरूप और शक्तियों का भी ज्ञान नहीं होता और इस अनुभवहीनता के कारण हम आसानी से आंतरिक मन या प्राणिक सत्ता की किसी भी चीज को चैत्य मानने की भूल कर सकते हैं । क्योंकि, जैसे सत् एक होते हुए बहु भी है वही विधान हमारे और हमारे भागों में भी लागू होता है : आत्मा, पुरुष एक है लेकिन वह अपने-आपको प्रकृति के रूपायणों के अनुसार बना लेता है । हमारी सत्ता के हर वर्ग पर आत्मा की एक शक्ति प्रमुख होती है । हमारे अंदर एक मनोमय आत्मा है, प्राणमय आत्मा है, भौतिक आत्मा है और जब हम काफी दूरतक अंदर की गहराइयों में पैठते हैं तो उन्हें खोज पाते हैं । एक मनोमय पुरुष है जो हमारी  

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मानसिक प्रकृति के विचारों, प्रत्यक्ष अनुभवों और क्रियाओं में अपना कोई अंश हमारी बाहरी सतह पर प्रकट करता है, एक प्राणमय पुरुष है जो हमारी प्राणिक प्रकृति के आवेगों, अनुभवों, संवेदनों, कामनाओं और बाहरी जीवन की क्रियाओं में अपना कोई अंश व्यक्त करता है, एक भौतिक सत्ता, शरीर की सत्ता है जो अपना कुछ अंश सहज-वृत्तियों, आदतों, हमारी भौतिक प्रकृति की रूपायित क्रियाओं में व्यक्त करती है । ये सत्ताएं, आत्मा की अंश-सत्ताएं हमारे अंदर आत्मा की शक्तियां हैं और इस कारण अपनी अस्थायी अभिव्यक्ति से सीमित नहीं हैं, क्योंकि जो इस तरह से रूपायित होता है वह उसकी संभावनाओं का खंड मात्र होता है; लेकिन यह अभिव्यक्ति एक अस्थायी मानसिक, प्राणिक या भौतिक व्यक्तित्व की रचना करती है जो उसी तरह बढ़ता और विकसित होता है जैसे हमारे भीतर चैत्य सत्ता या आंतरात्मिक व्यक्तित्व बढ़ता और विकसित होता है । हमारे समग्र पर हर एक का अपना स्पष्ट पृथक् स्वभाव, अपना प्रभाव और अपनी क्रिया होती है; लेकिन हमारी सतह पर ये सब प्रभाव और ये सब क्रियाएं जैसे-जैसे हमारी बाहरी सतह पर आती हैं, वहां घुल-मिल जाती हैं और एक मिली-जुली सतही सत्ता का निर्माण करती हैं जो उन सबका मिश्रित, एक संयुक्त रूप होती है, इस जीवन और उसके सीमित अनुभव के लिये एक बाहरी आग्रहपूर्ण और फिर भी सचल और परिवर्तनशील रूपायण होती है ।

 

     लेकिन यह समुच्चय अपने संघटन के कारण पचमेल मिश्रण होता है, एक सामंजस्यपूर्ण सजातीय समग्र नहीं, इसी कारण हमारे भागों में हमेशा अस्तव्यस्तता रहती है और संघर्ष भी । हमारी मानसिक बुद्धि और इच्छा इन्हें नियंत्रित करने और इनमे सामंजस्य लाने चलती हैं और उन्हें बहुधा इनकी अस्तव्यस्तता और संघर्ष में से किसी तरह की व्यवस्था और पथ-प्रदर्शन पैदा करने में बहुत कठिनाई होती है । फिर भी हम सामान्यत: अपनी प्रकृति के प्रवाह में बहुत ज्यादा बह जाते या उसके द्वारा परिचालित होते हैं और उस समय जो कुछ उसके सबसे ऊपरी भाग में आता है और विचार तथा कर्म के यंत्रों को पकड़ लेता है, उसीके अनुसार काम करते हैं -हमारा सुविवेचित लगनेवाला चुनाव भी, हमारी कल्पना से कहीं अधिक स्वतः - क्रिया होता है; हमारे बहुविध तत्त्वों और हमारे परिणामगत विचारों, भावनाओं, आवेगों, क्रियाओं का बुद्धि और इच्छा द्वारा हमारा सहयोजन अपूर्ण और अधकचरा होता है । पशु-सत्ता में प्रकृति अपनी ही मानसिक और प्राणिक सहज-वृत्तियों द्वारा कार्य करती है । वह अभ्यास और सहज-वृत्ति की बाध्यता के द्वारा एक ऐसी व्यवस्था कार्यान्वित करती है जिसका पशु इतने निर्विवाद रूप से पालन करता है कि उसकी चेतना के स्थानांतरण से कोई फर्क नहीं पड़ता । लेकिन मनुष्य अपनी मानवता के परम अधिकार को खोये बिना ठीक उसी तरह से क्रिया नहीं कर सकता । वह अपनी सत्ता को प्रकृति के स्वचालन द्वारा नियंत्रित सहज-वृत्तियों और

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आवेगों की अस्तव्यस्तता में नहीं छोड़ सकता । उसमें मन सचेतन हो चुका है अत: वह अपने-आप बाधित होता है कुछ प्रयास करने के लिये, वह बहुतों मैं चाहे कितना भी प्रारंभिक क्यों न हो, देखने और नियंत्रित करने और अंतत: अधिकाधिक पूर्णता के साथ विविध घटकों, विभिन्न संघर्षरत प्रवृत्तियों में, जो उसको सतही सत्ता को बनाती हुई मालूम होती हैं, सामंजस्य लाने का प्रयास करता है । वह अपने अंदर एक तरह की नियंत्रित अस्तव्यस्तता या व्यवस्थित घपला प्रस्तुत करने में सफलता पा लेता है या कम-से-कम यह सोचने में सफल होता है कि वह अपने- आपको मन और इच्छा द्वारा निर्देशित कर रहा है, यद्यापि तथ्य है कि वह निर्देशन केवल आंशिक होता है क्योंकि अभ्यासगत प्रेरक शक्तियों का कोई विषम संकाय ही नहीं बल्कि नयी उभरनेवाली प्राणिक और भौतिक प्रवृत्तियां और आवेग भी, जिनका हमेशा हिसाब नहीं रखा जा सकता, या नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, बहुत- से असंगत, असामंजस्यपूर्ण मानसिक तत्त्व भी उसकी बुद्धि और इच्छा का उपयोग करते हैं, उसमें प्रवेश करते और उसके आत्म-निर्माण, प्रकृति-विकास और जीवन- क्रिया का निर्धारण करते हैं । मनुष्य अपनी आत्मा में अद्वितीय पुरुष है लेकिन आत्मा की अभिव्यक्ति में बहु-पुरुष भी है । वह अपने ऊपर प्रभुत्व पाने में तबतक सफल न होगा जबतक कि पुरुष अपने-आपको अपने बहु-पुरुषत्व पर आरोपित न करे और उसपर शासन न करे । लेकिन यह सतही मानसिक इच्छा और बुद्धि के द्वारा अधूरे रूप में ही किया जा सकता है; यह पूरी तरह तभी किया जा सकता है जब वह अपने अंदर पैठे और वहां जो केंद्रीय सत्ता अपने प्रधान प्रभाव से उसकी सारी अभिव्यक्ति और कर्म की अध्यक्षता करती है उसे खोज सके । अंतर्तम सत्य में उसकी अंतरात्मा ही यह केंद्रीय सत्ता है लेकिन बाहरी वास्तविकता यह होती है कि प्रायः उसकी अंश-सत्ताओं में से एक या दूसरी उसपर शासन करती है और वह अंतरात्मा के इस प्रतिनिधि को, इस अवर-आत्मा को अंतर्तम आतरात्मिक तत्त्व मान बैठने की भूल कर सकता है ।

 

     मानव व्यक्तित्व के विकास की स्थितियों के नल में हमारे अंदर विभिन्न पुरुषों का यह शासन ही है और इनके भेद को स्पष्ट करने का अवसर हमें मिल चुका है । अब हम आंतरिक तत्त्व द्वारा प्रकृति पर शासन का दृष्टि से इनपर फिर से विचार कर सकते हैं । कुछ मनुष्यों में भौतिक पुरुष या शरीर की सत्ता मन, इच्छा और क्रिया पर अधिकार जमाती है; उससे भौतिक मनुष्य की रचना होती है जो मुख्य रूप से अपने शारीरिक जीवन, अभ्यासगत आवश्यकताओं, आवेगों, प्राणगत अभ्यासों, मानसिक अभ्यासों, शारीरिक अभ्यासों में ही व्यस्त रहता है, उनके परे बहुत ही कम या बिल्कुल नहीं देखता, अपनी अन्य सभी प्रवृत्तियों और संभावनाओं को उस संकीर्ण रूपायन के आधीन और वहींतक सीमित रखता है । लेकिन भौतिक मनुष्य में भी अन्य तत्त्व होते हैं और वह पूरी तरह मानव-पशु की तरह नहीं रह

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सकता जो जन्म, मरण और प्रजनन तथा सामान्य आवेगों और कामनाओं से संतुष्ट रहे और प्राण तथा शरीर के भरण-पोषण में ही व्यस्त रहे । यह उसके व्यक्तित्व का सामान्य प्रकार है लेकिन उसे पार किया जा सकता है, चाहे जितने क्षीण रूप में क्यों न हों, ऐसे प्रभावों द्वारा -अगर उन्हें विकसित किया जाये -जिनसे वह उच्चतर मानव विकास की ओर आगे बढ़ सकता है । अगर आंतरिक सूक्ष्म-भौतिक पुरुष आग्रह करे तो वह सूक्ष्मतर, अधिक सुंदर और पूर्ण भौतिक जीवन के भावतक पहुंच सकता है और उसे स्वयं अपने या सामुदायिक या दलीय जीवन में चरितार्थ करने की कोशिश या आशा कर सकता है । औरों में प्राण पुरुष यानी प्राणिक सत्ता हीं मन, इच्छा और क्रिया पर आधिपत्य रखती और शासन करती है । तब प्राणिक मनुष्य की रचना होती है जो अपने प्रतिष्ठापन, विवर्धन और प्राण- परिवर्धन से, महत्त्वाकांक्षा, आवेग, आवेश और कामना की तुष्टि से, अहंकार के दावों, प्रभुता, शक्ति, उत्तेजना, युद्ध और संघर्ष से, भीतरी और बाहरी साहसिक कार्य में ही रस लेता है; बाकी सब आनुषंगिक होता है या प्राणिक अहं की इस गति, रचना और अभिव्यक्ति के आधीन रहता है । लेकिन फिर भी, प्राणिक मनुष्य में भी बढ़ते हुए मन या आध्यात्म स्वरूप के अन्य तत्त्व होते या हो सकते हैं, चाहे वे उसके प्राणिक व्यक्तित्व और प्राण-शक्ति से कम विकसित क्यों न हों । प्राणिक मनुष्य का स्वभाव अधिक सक्रिय, अधिक बलवान् और गतिशील अधिक अस्त- व्यस्त और अव्यवस्थित, यहांतक कि प्रायः उस भौतिक मनुष्य की अपेक्षा एकदम अनियंत्रित होता है जो धरा को हो पकड़े रहता है जिसमें जड़ संतुलन और समतोल होता है, लेकिन प्राणिक मनुष्य अधिक गत्यात्मक और सृजनात्मक होता है क्योंकि प्राणिक सत्ता का तत्त्व पृथ्वी नहीं, वायु है; उसमें अधिक गति और कम स्थिति होती है । ओजस्वी प्राणिक मन और इच्छा गतिज प्राणिक ऊर्जाओं को ग्रहण कर सकती और उनपर शासन कर सकतीं है लेकिन यह सत्ता के सामंजस्य की अपेक्षा बलपूर्वक बाध्यता और नियंत्रण के कारण होता है । फिर भी अगर एक प्रबल प्राणिक व्यक्तित्व को मन और इच्छा को दृढ़ समर्थन देने के लिये तर्क- सम्मत बुद्धि मिल जाये और वह उसकी मंत्री बन जाये तो एक प्रकार का सशक्त रूपायण बनाया जा सकता है जो न्यूनाधिक रूप से संतुलित, सदा शक्तिशाली, सफल और प्रभावशाली होगा जो अपने-आपको प्रकृति और परिवेश पर आरोपित कर सकता है और जो जीवन में और क्रिया में प्रबल आत्म-प्रतिष्ठापनतक पहुंच सकता है । प्रकृति के आरोहण में यह सामंजस्यपूर्ण रूपायण का दूसरा संभव चरण है ।

 

     व्यक्तित्व के विकास की एक उच्चतर स्थिति में मन की सत्ता शासन कर सकती है । तब मानसिक मनुष्य की रचना होती है जो मुख्य रूप से मन में निवास करता है जैसे दूसरे प्राणिक या भौतिक प्रकृति में निवास करते हैं । मानसिक मनुष्य अपनी बाकी सत्ता को अपनी मानसिक अभिव्यक्ति, मानसिक लक्ष्य, मानसिक हित या

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मानसिक भाव या आदर्श के अधीन रखने की ओर प्रवृत्त होता है । इस अधीनता की कठिनाई और जब वह प्राप्त हो जाये तो उसके प्रबल प्रभाव के कारण मनुष्य के लिये अपनी प्रकृति में सामंजस्यतक पहुंचना अधिक कठिन भी है और साथ ही अधिक आसान भी । आसान है क्योंकि मानसिक संकल्प एक बार अधिकार जमा ले तो तर्क-बुद्धि की शक्ति द्वारा वह आश्वस्त कर सकता है और साथ ही प्राण, शरीर और उनकी मांगों पर प्रभुत्व जमा सकता, उन्हें संक्षिप्त कर सकता या दबा सकता है, उन्हें व्यवस्थित कर सकता या उनमें सामंजस्य ला सकता है, उन्हें अपना उपकरण बनने के लिये बाधित कर सकता या उन्हें इतना छोटे-से-छोटा रूप दें सकता है कि वे मानसिक जीवन में बाधा न दे सकें या उसे उद्‌भावना करनेवाली या आदर्श बनानेवाली गति से नीचे न खींच सकें । यह अधिक कठिन है क्योंकि प्राण और शरीर पहली शक्तियां हैं और अगर वे जरा भी शक्तिशाली हैं तो अपने-आपको लगभग अबाध्य आग्रह के साथ मानसिक शासक पर आरोपित कर सकती हैं । मनुष्य मानसिक सत्ता है और मन उसके प्राण और शरीर का नेता है । लेकिन है ऐसा नेता जिसके अनुयायी उसका बहुत अधिक पथ-प्रदर्शन करते हैं और कभी-कभी तो उनकी थोपी हुई इच्छा के सिवा उसकी कोई इच्छा नहीं होती । अपनी सारी शक्ति के बावजूद मन बहुधा निश्चेतना और अवचेतना के आगे असमर्थ होता है जो उसकी स्पष्टता को धुंधला कर देती हैं और उसे सहज प्रवृत्ति या आवेग की लहरों पर ले जाती हैं । उसकी स्पष्टता के बावजूद प्राणिक और भावमय सुझाव उसे मूर्ख बनाकर अज्ञान और भ्रांति, गलत विचार और गलत क्रिया के लिये स्वीकृति ले लेते हैं या फिर वह देखते रहने के लिये बाधित होता है जब प्रकृति ऐसी लीक अपनाती है जिसे वह गलत, भयानक या अशुभ जानता है । जब मन प्रबल, स्पष्ट और प्रमुख हो तब भी, वह यद्यपि एक तरह का निश्चित मानसिक सामंजस्य आरोपित करता है फिर भी, वह सारी सत्ता और प्रकृति को समाकलित नहीं कर सकता । और फिर अवर नियंत्रण द्वारा किये गये ये सामंजस्य अनिर्णायक ही रहते हैं क्योंकि प्रकृति का एक भाग शासन करता और अपने- आपको पूर्ण बनाता है और दूसरों को दबाया जाता और पूर्णता से वंचित रखा जाता है । ये सामंजस्य मार्ग के चरण हो सकते हैं परंतु अंतिम नहीं; अतः अधिकतर मनुष्यों में ऐसा एकमात्र प्रभुत्व और निष्पादित आंशिक सामंजस्य नहीं होता, केवल एक की प्रधानता होती है और बाकी के लिये तो एक ऐसे व्यक्तित्व की एक अस्थायी साम्यावस्था होती है जिसकी आधी रचना हो चुकी है और आधी हो रही है और कभी-कभी केंद्रीय शासन के अभाव से या किसी पूर्वप्राप्त आंशिक साम्यावस्था में खलल पड़ने से असाम्यावस्था या असंतुलन की अवस्था हो जाती है । सब कुछ सांक्रांतिक ही होगा जबतक कि अपने वास्तविक केंद्र को खोजकर, अंतिम तो नहीं पर पहला सच्चा सामंजस्य प्राप्त न हो जाये । क्योंकि, सच्ची केंद्रीय

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सत्ता है अंतरात्मा और यह सत्ता साधारणत: पीछे खड़ी रहती है और अधिकतर मानव प्रकृतियों में केवल गुप्त साक्षी या यूं कहें एक संवैधानिक शासक होती है जो अपनी ओर से अपने मंत्रियों को शासन करने देती है, उन्हें अपने साम्राज्य के अधिकार सौंप देती है, उनके फैसलों पर मौन स्वीकृति दे देती है और केवल कभी-कदास ही एक-आध शब्द कह देती है जिसकी वे किसी भी समय अवहेलना कर सकते हैं और उससे उल्टा काम कर सकते हैं । लेकिन यह तभीतक होता है जबतक चैत्य सत्ता द्वारा निसृत आंतरात्मिक व्यक्तित्व काफी विकसित न हो, लेकिन जब यह इतना काफी मजबूत हो कि अंतरिक सत्ता उसके द्वारा अपने-आपको आरोपित कर सके तो अंतरात्मा सामने आकर प्रकृति का शासन कर सकती है । इस सच्चे राजा के सामने आने और शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने से हमारी सत्ता और हमारे जीवन का सच्चा सामंजस्य हो सकता है ।

 

     अंतरात्मा के पूरी तरह से बाहर आने की पहली शर्त है सतही सत्ता का आध्यात्मिक सदवस्तु के साथ सीधा संपर्क । चूंकि चैत्य तत्त्व वहीं से आता है इसलिये दृश्य प्रकृति में जो कुछ उच्चतर सद्‌वस्तु की चीज मालूम होती है, उसके चिह्न या स्वरूप की तरह स्वीकार की जा सकतीं है, वह सदा उसीकी ओर मुड़ता है । पहले वह इस सद्‌वस्तु को शुभ, सत्य, सुंदर के द्वारा, उस सबके द्वारा खोजता है जो शुद्ध, उत्कृष्ट उच्च और उदात्त है । लेकिन यद्यपि बाहरी चिह्नों और लक्षणों द्वारा यह स्पर्श प्रकृति में हेर-फेर कर सकता है, उसे तैयार कर सकता है लेकिन वह उसे पूरी तरह से या अंदर की गहराइयों में बदल नहीं सकता । इस तरह के अंतरतम परिवर्तन के लिये स्वयं सद्‌वस्तु के साथ प्रत्यक्ष संपर्क अनिवार्य है क्योंकि और कोई चीज हमारी सत्ता के आधार को इतनी गहराईतक छूकर आलोड़ित नहीं कर सकती या अपने आलोड़न से प्रकृति को तत्वांतरण के खमीर में नहीं डाल सकती । मानसिक प्रतिरूपों, भावात्मक और क्रियाशील रूपों का अपना उपयोग और मूल्य होता है । सत्य, शुभ और सुंदर अपने-आपमें सद्‌वस्तु की प्रारंभिक और सशक्त आकृतियां हैं और उन्हें जिन रूपों में मन देखता है, हृदय जैसे अनुभव करता है और जीवन में उन्हें जैसे चरितार्थ किया जाता है वे भी आरोहण की रेखाएं हो सकते हैं लेकिन उनके और जिस तत् का वे प्रतिनिधित्व करते हैं उसके आध्यात्मिक पदार्थ और सत्ता में ही उसे हमारे अनुभव में आना होगा ।

 

     अंतरात्मा इस संपर्क को पाने के लिये मुख्य रूप से मननशील मन को माध्यम और यंत्र बनाकर प्रयास कर सकती है । वह बुद्धि पर अंतर्दृष्टि के बृहत्तर मन और अंतभासिक बुद्धि पर चैत्य छाप लगाकर उन्हें उस दिशा में मोड़ देती है । अपने उच्चतम रूप में विचारशील मन सदा अवैयक्तिक की ओर खिंचता है, अपनी खोज में वह आध्यात्मिक सारतत्त्व के बारे में, निराकार सदवस्तु के बारे में सचेतन होता है जो इन सभी बाहरी चिह्नों और लक्षणों में अपने-आपको अभिव्यक्त करती

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है लेकिन वह किसी भी रूपायण या किसी भी अभिव्यक्त करनेवाली आकृति से बढ़कर कुछ और होती है । मन किसी ऐसी चीज को अनुभव करता है जिसके बारे में वह घनिष्ठ और अदृश्य रूप से अभिज्ञ है -परम सत्य, परम शुभ, परम सौंदर्य, परम शुद्धि, परम आनंद का उसे अनुभव होता है । वह एक बढ़ते हुए स्पर्श का अनुभव करता है जो क्रमश: कम अगोचर और अमूर्त, अधिकाधिक आध्यात्मिक रूप से वास्तविक और ठोस होता है, वह उस शाश्वतता और अनंतता का स्पर्श और चाप है जो वह सब है जो यहां है और उससे बढ़कर भी है । इस निर्वैयक्तिकता का एक दबाव होता है जो समूचे मन को अपने ही रूप में ढालना चाहता है, साथ ही वस्तुओं का निर्वैयक्तिक रहस्य और विधान भी अधिकाधिक दृष्टिगोचर होने लगता है । मन विकसित होकर ज्ञानी का मन बन जाता है, पहले उच्चतर मनीषी मन फिर आध्यात्मिक संत का मन जो विचार की अमूर्तताओं के परे प्रत्यक्ष अनुभूतियों के आरंभतक चला जाता है । परिणाम-स्वरूप मन शुद्ध, विशाल, शांत, निर्वैयक्तिक बन जाता है, प्राण के भागों पर भी ऐसा ही शामक प्रभाव होता है क्योंकि अन्यथा परिणाम अधूरा रह सकता है क्योंकि मानसिक परिवर्तन ज्यादा स्वाभाविक रूप से एक आंतरिक स्थिति और बाह्य अचंचलता की ओर ले जाता है लेकिन इसे शुद्ध करनेवाली निश्चलता में स्थित रहकर, प्राण के भागों की तरह नयी प्राणिक ऊर्जाओं की खोज की ओर अनाकर्षित रहकर वह प्रकृति पर पूरे गतिशील प्रभाव के लिये दबाव नहीं डालता ।

 

     मन के द्वारा उच्चतर प्रयास इस संतुलन को नहीं बदलता क्योंकि आध्यात्मिकभावापन्न मन की प्रवृत्ति ऊपर चढ़ने की होती है और चूंकि अपने से ऊपर के क्षेत्र में मन रूपों पर अधिकार खो बैठता है अतः वह बृहत् निराकार, अलक्षण निर्वैयक्तिकता में प्रवेश करता है । वह अपरिवर्तनशील आत्मा के बारे में, शुद्ध आध्यात्म पुरुष के बारे में, तात्त्विक सत् की शुद्ध अनुर्वरता, रूपहीन अनंत और नामहीन निरपेक्ष के बारे में अभिज्ञ हो जाता है । इस चरम परिणतितक ज्यादा सीधी तरह पहुंचा जा सकता है, तुरंत सभी रूपों और आकारों, सभी शुभ-अशुभ, सत्य और मिथ्या, सुंदर और असुन्दर के सभी भावों के परे, सकल द्वंद्वों से अतीत तत् की ओर, उस परम एकत्व, अनंतता, शाश्वतता की अनुभूति या आत्मा या आध्यात्म सत्ता के विषय में मन के चरम और परम ज्ञान के किसी और अनिर्वचनीय उदात्तीकरण की अनुभूति की ओर प्रवृत्त होने से । आध्यात्मभावापन्न चेतना प्राप्त होती है और प्राण अचंचल हो जाता है, शरीर की आवश्यकताएं और मांगें बंद हो जाती हैं, स्वयं अंतरात्मा आध्यात्मिक नीरवता में लीन हो जाती है । लेकिन मन द्वारा यह रूपांतर हमें पूर्ण रूपांतर नहीं देता । चैत्य रूपांतरण की जगह सूक्ष्म और उच्च शिखरों पर आध्यात्मिक परिवर्तन आ जाता है परंतु यह प्रकृति का पूर्ण रूप से दिव्य गतिशील बन जाना नहीं है ।

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प्रत्यक्ष संपर्क की ओर अंतरात्मा का दूसरा उपगमन हृदय द्वारा होता है । यह उसका अपना अधिक निकटस्थ और तेज मार्ग है क्योंकि इसका गुह्य आसन वहीं एकदम पीछे हृदय-केंद्र में, हमारी भावात्मक सत्ता के साथ घनिष्ठ संपर्क में होता हे । परिणामत: शरू में वह भावों के द्वारा ही अपनी सहज शक्ति से, ठोस अनुभव की अपनी जीवंत शक्ति द्वारा उत्तम रूप से क्रिया कर सकता है । सर्व-सुंदर, सर्व- आनंद, सर्व-शुभ, सत्य, प्रेम की आध्यात्मिक सद्‌वस्तु का प्रेम और आराधना के द्वारा ही उपगमन किया जाता है; सौंदर्यग्राही और भावुक भाग साथ मिलकर, वे जिसे पूजते हैं उसके प्रति अंतरात्मा, प्राण और समस्त प्रकृति को अर्पित करते हैं । पूजा द्वारा यह उपगमन अपनी पूरी शक्ति और पूरा आवेग तभी पा सकता है जब मन निर्वैयक्तिकता के परे परम वैयक्तिक पुरुष की अभिज्ञतातक जा पहुंचता है, तब सब कुछ तीव्र, स्पष्ट, ठोस हो जाता है; हृदय के आवेश, अनुभव, आध्यात्मिकभावापन्न बोध अपनी पराकाष्ठातक जा पहुंचते हैं, संपूर्ण आत्मदान संभव, अनिवार्य हो जाता है । उदीयमान आध्यात्मिक मनुष्य भावनाशील प्रकृति में भक्त बनकर प्रकट होता है । इसके अतिरिक्त अगर वह अपनी अंतरात्मा और उसके आदेशों की प्रत्यक्ष अभिज्ञता पा लेता है, अपने भावप्रधान व्यक्तित्व को अपने चैत्य व्यक्तित्व के साथ मिला देता है और अपने जीवन और प्राणिक अंगों को शुद्धि, भागवत-आनंद, भगवान्, मनुष्यों और सभी प्राणियों के लिये प्रेम के द्वारा आध्यात्मिक सौंदर्य की चीज में बदल देता है जो भागवत प्रकाश और शुभ से भरी हो तो वह संत बन जाता है और उच्चतम आंतरिक अनुभूतियोंतक, प्रकृति के उस अधिकतम परिवर्तनतक पहुंच जाता है जो दिव्य सत्तातक पहुंचने के इस मार्ग के लिये उचित है । लेकिन संपूर्ण रूपांतर के लिये यह भी पर्याप्त नहीं है । चिंतनशील मन और चेतना के समस्त प्राणिक और भौतिक अंगों का स्वधर्म में रूपांतर होना जरूरी है ।

 

     यह विशालतर परिवर्तन हृदय की अनुभूतियों के साथ व्यावहारिक इच्छा-शक्ति के उत्सर्ग को जोड़ने से आंशिक रूप से सिद्ध हो सकता है । यह जरूरी है कि यह उत्सर्ग अपने साथ उस व्यावहारिक प्राणिक अंग को लिये रहे जो मानसिक क्रियाशीलता को आधार देती है और बाहरी क्रिया के लिये हमारा पहला यंत्र है, क्योंकि अगर ऐसा न हो तो उत्सर्ग प्रभावी नहीं हो सकता । कर्म में इच्छा का यह उत्सर्ग अहंकारमय इच्छा और उसकी कामना की प्रेरक शक्ति को धीरे-धीरे विलोपन करके आगे बढ़ता है, अहंकार अपने- आपको किसी उच्चतर विधान के अधीन करके अंतत: अपने-आपको मिटा देता है और ऐसा लगता है कि उसका अस्तित्व ही नहीं है और अगर है भी तो किसी उच्चतर शक्ति या उच्चतर सत्य की सेवा करने के लिये या अपनी इच्छा और अपनी क्रिया को यंत्र के रूप में दिव्य सत्ता की भेंट करने के लिये । तब सत्ता और कर्म का जो विधान या सत्य का जो

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प्रकाश जिज्ञासु का पथ-प्रदर्शन करता है वह एक ऐसी स्पष्टता या शक्ति या तत्त्व हो सकता है जिसे वह अपनी अधिक-से-अधिक ऊंचाई से देख सकता है, जहांतक उसके मन की पहुंच है या फिर वह दिव्य इच्छा का सत्य हो सकता है जिसे वह अपने अंदर उपस्थित और कार्य करते हुए पाता है या एक प्रकाश, एक शब्द, एक शक्ति, एक दिव्य पुरुष या उपस्थिति द्वारा मार्ग-निर्देशन करते हुए पाता है । अंत में इस मार्ग से मनुष्य ऐसी चेतना में जा पहुंचता है जहां उसे अनुभव होता है कि शक्ति या उपस्थिति उसमें क्रिया कर रही है और सभी कर्मों को चला रही है और उनपर शासन कर रही है और व्यक्तिगत इच्छा पूरी तरह महत्तर सत्य- संकल्प, सत्य-शक्ति या सत्य-उपस्थिति को समर्पित या उसके साथ एकात्म है । इन तीनों उपगमनों का मेल -मन का उपगमन, इच्छा- शक्ति का उपगमन, हृदय का उपगमन -सतही सत्ता और प्रकृति की एक आध्यात्मिक या चैत्य अवस्था बना देता है जिसके अंदर विशालतर और जटिलतर उन्मीलन होता है, हमारे भीतर के चैत्य प्रकाश, आध्यात्मिक पुरुष या ईश्वर के प्रति, उस सद्‌वस्तु के प्रति जिसका अनुभव अभी हमारे ऊपर, हमें आवृत करते हुए या हमें भेदते हुए होता है । प्रकृति में अधिक सशक्त और बहुमुखी परिवर्तन होता है । एक आध्यात्मिक निर्माण आत्म-सृजन होता है, संत, निःस्वार्थ कार्य-कर्ता और आध्यात्मिक ज्ञानवाले मनुष्य की संयुक्त पूर्णता का आविर्भाव होता है ।

 

     लेकिन यह परिवर्तन अपनी विशालतम समग्रता और गहनतम संपूर्णतातक पहुंचे इसके लिये जरूरी है कि चेतना अपने केंद्र और अपनी गतिशील और स्थैतिक स्थिति को सतह से भीतरी सत्ता में ले जाये । हमें वहींपर अपने विचार, जीवन और क्रिया की नींव खोजनी होगी । बाहर अपनी सतह पर खड़े होकर आंतरिक सत्ता से सूचनाएं पाना और उनका अनुसरण करना काफी रूपांतर नहीं है । हमें बाहरी व्यक्तित्व होना बंद करके भीतरी व्यक्ति, पुरुष बनना चाहिये । लेकिन यह कठिन है, पहले तो इस कारण कि बाहरी प्रकृति इस गति का विरोध करती और अपनी सामान्य अभ्यस्त स्थिति और बाहर की ओर मुड़े हुए जीवन-मार्ग से चिपकी रहती है और इसपर यह कि सतह से उन गहराइयोंतक का रास्ता लंबा है जहां चैत्य सत्ता हमसे छिपी रहती है और यह बीच का स्थान अंतस्तलीय प्रकृति और प्रकृति-गतियों से भरा रहता है और किसी हालत में भी वे सब अंतर्मुखी गति को पूरा करने के लिये अनुकूल नहीं होतीं । बाहरी प्रकृति को स्थिति के परिवर्तन, अपने द्रव्य और ऊर्जा के शांतिकरण, शुद्धि और सूक्ष्म परिवर्तन में से गुजरना होगा जिससे उसमें रहनेवाली कई बाधाएं क्षीण हों जायें, झड़ जायें या किसी तरह गायब हो जायें । तब हमारी सत्ता की गहराइयोंतक पहुंचना संभव होता है और इस तरह पहुंची हुई गहराइयों से एक नयी चेतना बन सकतीं है, बाहरी आत्मा के पीछे भी और उसके अंदर भी, जो गहराइयों को सतह के साथ जोड़ेगी । हमारे अंदर एक

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ऐसी चेतना को विकसित या अभिव्यक्त होना चाहिये जो गहनतर और उच्चतर सत्ता की ओर अधिक-से-अधिक खुली हो, जो वैश्व आत्मा और शक्ति तथा जो परात्पर से नीचे आता हो उसके प्रति अधिकाधिक अनावृत हो, जो उच्चतर शांति की ओर मुड़ी हुई हो, विशालतर प्रकाश, शक्ति और आनंद के लिये प्रवेश्य हो, एक ऐसी चेतना हों जो लघु व्यक्तित्व का व्यतिक्रम करे, सतही मन के सीमित प्रकाश और अनुभूति को, सामान्य प्राण-चेतना की सीमित शक्ति और अभीप्सा को, शरीर की अंधेरी और सीमित प्रत्युत्तरशीलता को पार कर गयी हों ।

 

     बाहरी चेतना की शांतिदायिनी शुद्धि के कार्यान्वित होने से पहले या उसके पर्याप्त होने से पहले भी आदमी पुकार और अभीप्सा की प्रबल शक्ति, जोरदार इच्छा-शक्ति या उग्र प्रयास या प्रभावकारी अनुशासन या प्रक्रिया द्वारा उस दीवार को ढा सकता है जो हमारी आंतरिक चेतना और बाहरी अभिज्ञता को एक दूसरे से अलग करती है; लेकिन यह असामयिक गति हो सकती है जो अपने गंभीर खतरों से खाली नहीं । हो सकता है कि भीतर प्रवेश करते हुए हम अपने-आपको अपरिचित और अधिसामान्य अनुभवों के कोलाहल के बीच में पायें जिनकी चाबी हमारे पास नहीं है या अपने- आपको अवचेतन, मानसिक, प्राणिक, सूक्ष्म भौतिक प्रकार की ऐसी अंतस्तलीय या वैश्व शक्तियों की भीड़- भाड़ के बीच में पायें जो सत्ता को अनुचित रूप से डुला सकती या इतस्तत: हांक सकती, उसे अंधेरे की गुफा में घेर सकती, या तड़क-भड़क के, प्रलोभन या धोखा- धड़ी के बीहड़ में भटकाती रख सकती हैं या ऐसे अंधेरे रणक्षेत्र में धकेल सकती हैं जो गुप्त, धोखेबाज, भ्रामक या खुले आम उग्र विरोधों से भरा हो । आंतरिक इन्द्रियों, दृष्टि और श्रवण के आगे ऐसी सत्ताएं आवाजें और प्रभाव प्रकट हो सकते हैं जो दिव्य सत्ता या उसके संदेश-वाहक या प्रकाश की शक्तियां या उसके देव या उपलब्धि के मार्ग-दर्शक होने का दावा करें जब कि सचमुच वे बहुत ही भिन्न स्वभाव के होते हैं । अगर जिज्ञासु के स्वभाव में बहुत अधिक अहंकार है या प्रबल आवेग या अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा, दर्प या अन्य प्रमुख दुर्बलता है या मन का धुंधलापन या ढ़ुलमुल इच्छाशक्ति या प्राण-शक्ति की कमजोरी है या उसमें अस्थिरता है या संतुलन का अभाव है तो संभावना यह है कि इन त्रुटियों द्वारा वह पकड़ लिया जाये और कुंठित हो जाये, विपथगामी बन जाये, आंतरिक जीवन और जिज्ञासा के सच्चे मार्ग से मिथ्या मार्गों में भटका दिया जाये या अनुभवों की मध्यवर्ती अस्तव्यस्तता में भटकने के लिये छोड़ दिया जाये और सच्ची उपलब्धि का मार्ग खोजने में असफल हो जाये । अतीत के आध्यात्मिक अनुभव को इन संकटों का भली-भांति पता था और इनका सामना किया गया दीक्षा की आवश्यकता, अनुशासन और अग्रिपरीक्षा द्वारा शुद्धि के और जांचने के तरीकों की आवश्यकता को आरोपित करके, ऐसे मार्ग खोजनेवाले या मार्ग-निर्देशक के आदेशों के प्रति

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पूर्ण समर्पण द्वारा जिसने सत्य पा लिया है, जिसने प्रकाश पर अधिकार पा लिया है और जो औरों को भी प्रकाश और अनुभूति दें सकता है, एक ऐसा मार्गदर्शक जो इतना मजबूत हो कि हर कठिन मार्ग में से हाथ पकड़कर पार लगा सके, सच्चा मार्ग दिखाकर मार्ग-दर्शन कर सके । लेकिन इसके बावजूद संकट तो रहेंगे ही और उन्हें तभी पार किया जा सकता है अगर पूरी-पूरी सचाई हो या शुद्धि के लिये इच्छा, सत्य की आज्ञा मानने के लिये तैयारी, उच्चतम के प्रति समर्पण के लिये तैयारी, सीमित करनेवाले, स्वाग्रही अहंकार को खोने या भागवत जूए के अधीन कर देने के लिये तैयारी हो या ये चीजें विकसित हो रही हों । ये चीजें इस बात की निशानी हैं कि उपलब्धि के लिये, चेतना के परिवर्तन, रूपांतर के लिये सच्ची इच्छा मौजूद है, विकास का आवश्यक चरण आ गया है । उस अवस्था में मानव सत्ता की प्रकृति के दोष मानसिक से आध्यात्मिक स्थिति में परिवर्तन के मार्ग में स्थायी बाधा नहीं हो सकते । हो सकता है कि यह प्रक्रिया कभी बिल्कुल सरल न हो पाये फिर भी रास्ता खुल जायेगा और व्यवहार लायक बन जायेगा ।

 

     आंतरिक सत्ता के अंदर इस प्रवेश को सरल बनाने का एक प्रभावी तरीका, जो प्रायः काम में आता है, यह है कि पुरुष को, सचेतन सत्ता को प्रकृति से, रूपायित प्रकृति से अलग किया जाये । अगर हम मन और उसके क्रिया-कलाप के पीछे खड़े हों ताकि वे हमारी इच्छा के अनुसार चुप हों सकें या ऐसी सतही गति पर चलते रहें जिसके हम अनासक्त और निष्काम साक्षी-मात्र हैं तो अंतत: यह संभव हो जाता है कि हम अपने-आपको मन के अंत: -पुरुष के रूप में, सच्ची शुद्ध मानसिक सत्ता, पुरुष के रूप में अनुभव करें, इसी भांति प्राणिक क्रियाओं से पीछे हटकर खड़े होने से यह संभव होता है कि हम अपने- आपको प्राण के अंत: -पुरुष, सच्ची शुद्ध प्राणिक सत्ता के रूप में अनुभव करें, शरीर का भी एक पुरुष है जिसके बारे में -सच्ची शुद्ध भौतिक सत्ता, पुरुष के बारे में -अभिज्ञ हुआ जा सकता है यदि शरीर उसकी मांगों और उसकी क्रियाओं से पीछे हटकर भौतिक चेतना की नीरवता में प्रवेश करे और वहांसे उसकी ऊर्जा की क्रिया का अवलोकन करे । इसी भांति प्रकृति के इन सभी क्रिया-कलापों से एक साथ या क्रमश: पीछे खड़े होने से अपनी आंतरिक सत्ता को नीरव निर्वैयक्तिक सत्ता या साक्षी पुरुष के रूप में अनुभव करना संभव होता है । यह आध्यात्मिक उपलब्धि और मुक्ति की ओर ले जायेगा पर आवश्यक रूप से रूपांतर नहीं लायेगा । क्योंकि हो सकता है कि अपने-आप मुक्त होने से संतुष्ट होकर पुरुष प्रकृति को निरवलंब क्रिया, यांत्रिक सातत्य द्वारा, जिसका उसकी स्वीकृति द्वारा न तो पुनर्नवीकरण हो, न जिसे नया बल, नया जीवन या दीर्धीकरण ही मिले, अपने संचित संवेग को खर्च कर डालने दे और इस अस्वीकृति को समस्त प्रकृति से हाथ खींच लेने का साधन बनाये । पुरुष को न केवल साक्षी बल्कि ज्ञाता और स्रोत, समस्त विचार और

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से-अधिक छिपे हुए छद्मवेशी, मूक, दुरूह हैं वे भी निर्भ्रांत चैत्य प्रकाश से आलोकित होते हैं, उनकी अस्त-व्यस्तताएं विच्छिन्न की जाती हैं, उनके जालों को सुलझा दिया जाता है, उनके धुंधलेपन, प्रवंचनाओं और आत्म-प्रवचनाओं को यथार्थ रूप से निर्दिष्ट किया जाता और हटा दिया जाता है । सब कुछ शुद्ध किया और ठीक बैठाया जाता है, सारी प्रकृति को समन्वित किया और चैत्य स्वरग्राम के अनुसार ठीक बिठाया और आध्यात्मिक व्यवस्था में रखा जाता है । प्रकृति में बचे हुए अंधकार और प्रतिरोध की राशि के अनुसार यह प्रक्रिया तेज या धीमी हो सकती है, लेकिन जबतक कि यह पूरी न हो जाये तबतक लड़खड़ाए बिना चलती रहती है । अंतिम परिणाम के रूप में समस्त सचेतन सत्ता को हर प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति के उपयुक्त बनाया जाता है, विचार, भाव, बोध, क्रिया के आध्यात्मिक सत्य की ओर मोड़ा जाता है और उचित प्रतिक्रियाओं के साथ ताल- मेल में बैठाया जाता है, तामसिक जड़ता के अंधकार और हठधर्मी से राजसिक आवेश की अशुद्धियों और गदलेपन और विक्षोभ से बेचैन, सामंजस्यहीन गतियों, प्रदीप्त कठोरताओं, सात्त्विक सीमाओं या निर्मित संतुलन के सधे हुए समतोल से मुक्त किया जाता है जो अज्ञान के विशेष लक्षण हैं ।

 

     यह पहला परिणाम है लेकिन दूसरा है सब तरह के आध्यात्मिक अनुभवों का मुक्त रूप से अंतर्वाह, आत्मा का अनुभव, ईश्वर और दिव्य शक्ति का अनुभव, वैश्व चेतना का अनुभव, वैश्व शक्तियों के साथ सीधा स्पर्श और वैश्व प्रकृति की गुह्य गतियों के साथ सीधा संपर्क, प्रकृति और अन्य सत्ताओं के साथ चैत्य सहानुभूति और ऐक्य, सब तरह का आंतरिक संचार और आदान-प्रदान, ज्ञान द्वारा मन की प्रदीप्ति, प्रेम, भक्ति और आध्यात्मिक हर्ष और आनंद द्वारा ह्रदय की प्रदीप्ति, उच्चतर अनुभव द्वारा इन्द्रियों और शरीर की प्रदीप्ति, शुद्ध मन, हृदय और अंतरात्मा के सत्य और उनकी विशालता में गतिशील क्रिया की प्रदीप्ति, दिव्य प्रकाश और पथ-प्रदर्शन की निश्चितियां, इच्छा-शक्ति और व्यवहार में कार्य करती हुई दिव्य शक्ति की सामर्थ्य और उसका आनंद -ये अनुभूतिया आंतरिक और अंतरतम सत्ता और प्रकृति के बाहर की ओर खुलने का परिणाम हैं क्योंकि तब अंतरात्मा की निर्भ्रांत अंतस्थ चेतना की शक्ति, उसकी दृष्टि, वस्तुओ पर उसका स्पर्श क्रीड़ा में आता है जो किसी भी मानसिक बोध से श्रेष्ठतर है वहां, चैत्य चेतना के लिये उसकी शुद्ध क्रिया में सहजात होता है जगत् और उसकी सत्ताओं का प्रत्यक्ष बोध, उनके साथ प्रत्यक्ष आतरिक संपर्क और आत्मा तथा परमात्मा के साथ प्रत्यक्ष संपर्क और साथ ही होता है प्रत्यक्ष ज्ञान, सत्य की और समस्त सत्यों की प्रत्यक्ष दृष्टि, आध्यात्मिक भाव और अनुभव की प्रत्यक्ष दृष्टि, आध्यात्मिक भाव और अनुभव का प्रत्यक्ष भेदन, सम्यक् इच्छा और सम्यक् क्रिया का प्रत्यक्ष अंतर्भास, ऊपरी सत्ता को टटोलने से नहीं बल्कि भीतर से, आत्मा के और वस्तुओं

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के आतरिक सत्य और प्रकृति की गुह्य वास्तविकताओं द्वारा सत्ता का शासन करने और उसकी व्यवस्था करने की शक्ति ।

 

     इनमें से कुछ अनुभूतियां अंतरात्मा या चैत्य सत्ता के पूरे आविर्भाव के बिना भी आंतरिक मानसिक और प्राणिक सत्ता के, हमारे अंदर आंतरिक विशालतर, सूक्ष्मतर मन, हृदय तथा जीवन के खुलने से भी प्राप्त हो सकती हैं क्योंकि वहां भी चेतना के प्रत्यक्ष संपर्क की शक्ति होती है, लेकिन तब अनुभूति मिश्रित प्रकार की हो सकती है क्योंकि तब केवल अंतस्तलीय ज्ञान का ही नहीं अंतस्तलीय अज्ञान का भी आविर्भाव हो सकता है । सत्ता का अपर्याप्त विस्तार, मानसिक विचार द्वारा सीमांकन, संकीर्ण और चयनात्मक भाव या स्वभाव के रूप द्वारा सीमांकन आसानी से हो सकता है जिससे केवल अपूर्ण आत्म-रचना और क्रिया हो सकती है, मुक्त आत्माविर्भाव नहीं । किसी या संपूर्ण चैत्य आविर्भाव के अभाव में, अमुक प्रकार के अनुभव, बृहत्तर ज्ञान और शक्ति की अनुभूतियां, सामान्य सीमाओं को लांघना, बढ़े हुए अहंकार की ओर ले जा सकते हैं और जो दिव्य या आध्यात्मिक है उसके प्रस्फुटन की जगह जो दानवी या राक्षसी है उसकी बाढ़ ला सकते हैं या ऐसी शक्तियों या माध्यमों को बुला सकते हैं जो भले इतनी अनर्थकारी प्रकार की न हों पर शक्तिशाली लेकिन निम्नतर वैश्व लक्षणों की हों । लेकिन अंतरात्मा का शासन और निर्देशन सभी अनुभूतियों में प्रकाश, एकीकरण, सामंजस्य और घनिष्ठ औचित्य की ओर झुकाव लाते हैं जो चैत्य तत्त्व के लिये सहज है । इस तरह का चैत्य, या ज्यादा विस्तृत अर्थ में कहें तो चैत्य-आध्यात्मिक रूपांतर, हमारी मानसिक मानव प्रकृति का एक बहुत विस्तृत परिवर्तन होगा ।

 

     लेकिन यह सारा परिवर्तन और यह सारा अनुभव, यद्यपि तत्त्वतः और स्वभावत: चैत्य और आध्यात्मिक है फिर भी वह जीवन पर अपना प्रभाव डालने में मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तर पर ही होगा । उसका क्रियाशील आध्यात्मिक परिणाम होगा आत्मा का मन, प्राण और शरीर में प्रस्फुटन परंतु क्रिया और रूप में वह एक अवर यंत्र-विन्यास की सीमाओं के अंदर बंधा होगा -चाहे वे सीमाएं कितनी भी विस्तृत, उन्नत और सूक्ष्म क्यों न हों । यह उन चीजों की एक प्रतिबिंबित और क्षीण अभिव्यक्ति होगी जिनके सत्य, शक्ति और आनंद की पूरी सत्यता, तीव्रता, विशालता, एकता और विविधता हमसे ऊपर, मन से ऊपर और परिणामस्वरूप हमारी वर्तमान प्रकृति की भित्तियों या अधिरचना की, मन के अपने सूत्रों में आनेवाली किसी भी पूर्णता से ऊपर है । चैत्य या चैत्य-आध्यात्मिक परिवर्तन पर उच्चतम आध्यात्मिक रूपांतर को हस्तक्षेप करना चाहिये । आंतरिक

 

      चैत्य या आध्यात्मिक उन्मीलन अपने अनुभवों और परिणामों के साथ जीवन से दूर या निर्वाण की ओर ले जा सकते हैं । लेकिन यहां उनपर केवल प्रकृति के रूपांतर के चरणों के रूप में विचार किया जा रहा है ।

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सत्ता, हमारे अंदर स्थित आत्मा या दिव्यता की ओर भीतरी चैत्य गति की पूर्ति ऊपर की ओर, परम आध्यात्मिक स्थिति या उच्चतर सत्ता की ओर उन्मीलन से होनी चाहिये । यह हमारे ऊपर जो है उसकी ओर खुलने से, चेतना के अधिमन और अतिमानसिक प्रकृति की श्रेणियों में आरोहण से हो सकता है जिनमें आत्मा या आध्यात्म पुरुष का बोध हमेशा अनावृत और स्थायी रहता है और जिनमें आत्मा और आध्यात्म पुरुष का आलोकमय माध्यम हमारी मानसिक प्रकृति, प्राणिक प्रकृति, और शारीरिक प्रकृति की तरह सीमित या विभक्त नहीं होता । चैत्य परिवर्तन इसे भी संभव बनाता है क्योंकि जैसे वह हमें वैश्व चेतना की ओर खोलता हे जो अभी व्यक्तित्व की सीमित करनेवाली बहुत-सी दीवारों से हमसे छिपी हुई है उसी तरह वह हमें उसके प्रति भी खोलता है जो अभी हमारी सामान्य अवस्था के लिये अतिचेतन है क्योंकि वह हमसे मन के मजबूत, कठोर और प्रकाशमय ढक्कन की वजह से छिपा हुआ है -ऐसे मन के जो संकुचित करता, विभाजन करता और अलग करता है । चैत्य-आध्यात्मिक परिवर्तन के अधीन और नयी आध्यात्मभावापन्न चेतना की स्वाभाविक प्रेरणा से, जिसकी वह यहांपर अभिव्यक्ति है, ढक्कन पतला हो जाता, फट जाता, टुकड़े-टुकड़े हो जाता है या खुलता और गायब हो जाता है । हो सकता है कि इस छिद्र का कार्यान्वयन और उसके परिणाम बिल्कुल न प्रकट हों यदि केवल एक आंशिक चैत्य आविर्भाव हो जो आध्यात्मभावापन्न मन की सामान्य श्रेणियों में दिव्य सदवस्तु की अनुभूति से संतुष्ट हों । लेकिन अगर इन उच्चतर अतिसामान्य स्तरों के अस्तित्व के प्रति कोई जागृति है तो उनके प्रति अभीप्सा इस ढक्कन को तोड़ सकती या उसमें दरार पैदा कर सकती है । यह चैत्य-आध्यात्मिक परिवर्तन के पूरा होने से बहुत पहले या उसके भली-भांति शुद्ध होने या दूरतक जाने से बहुत पहले भी हो सकता है क्योंकि चैत्य व्यक्तित्व अतिचेतन के बारे में अभिज्ञ हो जाता है और उसमें उसके लिये उत्सुक एकाग्रता होती है । अभीप्सा या किसी आंतरिक तैयारी के परिणामस्वरूप जल्दी ही ऊपर से प्रदीप्ति आ सकतीं है या ऊपरी झिल्ली फट सकतीं है, या वह बिना बुलाये भी या मन के किसी सचेतन भाग द्वारा बुलाये बिना -शायद किसी गुप्त अंतस्तलीय आवश्यकता द्वारा या उच्चतर स्तरों से किसी क्रिया या दबाव द्वारा, किसी ऐसी चीज द्वारा जो दिव्य सत्ता का स्पर्श, आत्मा का स्पर्श मालूम हो -आ सकती है और उसके परिणाम बहुत अधिक शक्तिशाली हो सकते हैं । लेकिन अगर उसे नीचे से अधकचरे दबाव द्वारा लाया जाता है तो उसके साथ कठिनाइयां और संकट लगे रह सकते हैं जो हमारे आध्यात्मिक विकास के उच्चतर क्षेत्रों में तब अनुपस्थित होते हैं जब इस पहले प्रवेश से पूर्व पूर्ण चैत्य-आविर्भाव हो । लेकिन यह चुनाव हमेशा हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर आध्यात्मिक विकास की क्रियाएं बहुत अधिक विभिन्न प्रकार की होती हैं, उसने जिस रेखा का अनुसरण किया है चित् शक्ति की

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क्रिया भी हर पर्व-संधि में उसके अनुरूप उच्चतर आत्माभिव्यक्ति की ओर और हमारी सत्ता के रूपायण की ओर अपनी प्रेरणा में मोड़ लेगी ।

 

     अगर मन के ढक्कन में दरार हो गयी है तो होता यह है कि दृष्टि हमसे ऊपर की किसी चीज की ओर खुल जाती है या हम उसकी ओर उठते हैं या उसकी शक्तियों का हमारी सत्ता में अवतरण होता है । दृष्टि के खुलने से हम जो देखते हैं वह है हमारे ऊपर अनंतता, एक शाश्वत उपस्थिति या एक अनंत सत् चेतना की अनंतता, आनंद की अनंतता -एक असीम आत्मा, असीम प्रकाश, असीम शक्ति, असीम आनंद । हो सकता है कि एक लंबे समयतक बस उसका कभी-कदास, बहुधा या सतत दर्शन ही मिले, उसकी चाह और अभीप्सा हो पर इससे अधिक कुछ नहीं क्योंकि यद्यपि मन में, हृदय में, या सत्ता के किसी और भाग में कोई चीज इस अनुभूति की ओर खुली हो परंतु सब मिलाकर निम्न प्रकृति इससे अधिक के लिये अभीतक बहुत भारी और अंधकारमय हो । लेकिन नीचे से इस पहली विस्तृत अभिज्ञता के बदले या उसके बाद मन का अपने से ऊपर की ऊंचाइयों की ओर आरोहण हो सकता है । हो सकता है कि हम इन ऊंचाइयों के स्वरूप को न जानें या स्पष्टता से उन्हें न पहचान सकें पर आरोहण के परिणाम का कुछ-कुछ अनुभव होता है । साथ ही अंनत आरोहण और पुनरामगन की अभिज्ञता तो होती है परंतु उस उच्चतर स्थिति का कोई आलेख या अनुवाद नहीं होता । इसका कारण यह है कि यह मन के लिये अतिचेतन रहा है अतः जब मन उसतक उठ पाता है तो पहले अपने सचेतन विवेक की और विवेचन की शक्ति के अनुभव को नहीं रख पाता । लेकिन जब यह शक्ति जागना और क्रिया करना शुरू करती है, जब मन, जो उसके लिये अतिचेतन था, उसमें क्रमश: सचेतन होना शुरू करता है तब सत्ता के श्रेष्ठतर स्तरों का ज्ञान और अनुभव शुरू होता है । यह अनुभव उसके साथ मेल खाता है जिसे दृष्टि का पहला उन्मीलन हमारे लिये लाया था । मन शुद्ध, नीरव, शांत, असीम आत्मा के उच्चतर लोक में या ज्योति या आनंद के लोकों में उठ जाता है या उन प्रदेशों में उठता है जिनमें उसे अनंत शक्ति या दिव्य उपस्थिति की अनुभूति होती है या दिव्य प्रेम या सौंदर्य के या विशालतर, श्रेष्ठतर, ज्योतिर्मय ज्ञान के वातावरण के संपर्क का अनुभव होता है । वापसी में आध्यात्मिक छाप तो रहती है लेकिन मानसिक आलेखन धुंधला पड़ जाता है और एक अस्पष्ट या खंडित स्मृति के रूप में रहता है; निम्नतर चेतना, जिसमें से आरोहण हुआ था, फिर से वहीं जा गिरती है जहां वह थी । उसमें बस जूड़ी होती है एक याद न रखी हुई या याद रखी हुई परंतु क्रियाशीलता-विहीन अनुभूति । कालक्रम में आरोहण अपनी इच्छा के अनुसार किया जा सकता है और चेतना आत्मा के उच्चतर देशों में अपनी अस्थायी यात्रा के कुछ प्रभाव या कुछ लाभ ले आती और उन्हें बनाये रखती है । बहुतों में ये आरोहण समाधि में होते हैं

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लेकिन ये जाग्रत् चेतना की एकाग्रता में पूरी तरह संभव हैं, या जहां वह चेतना पर्याप्त रूप से चैत्य बन गयी है वहां एकाग्रता के बिना ऊपर की ओर आकर्षण और सजातीयता के कारण भी आ सकते हैं । लेकिन अतिचेतन के साथ ये दोनों तरह के संपर्क यद्यपि सबल रूप से प्रकाशमान, आनंददायक या मुक्तिदायक हो सकते हैं फिर भी अपने-आपमें अपर्याप्त रूप से प्रभावकारी होते है । पूर्ण आध्यात्मिक रूपांतर के लिये और अधिक की जरूरत है -निचली चेतना से चिरस्थायी रूप से उच्चतर चेतना में आरोहण और निचली प्रकृति में उच्चतर प्रकृति का प्रभावी चिरस्थायी अवतरण ।

 

     यह तीसरी गति है उस अवतरण की जो स्थायी आरोहण लाने के लिये जरूरी है, ऊपर से बढ़ता हुआ अंत-प्रवाह, उतरती हुई आध्यात्म सत्ता या उसकी चेतना की शक्तियों और तत्त्वों को ग्रहण करने और बनाये रखने का अनुभव । अवतरण का यह अनुभव दूसरी दो गतियों के परिणाम-स्वरूप हो सकता है या उनमें से किसीके भी होने से पहले ढक्कन में अचानक दरार आ जाने या किसी अनुस्रवण, रिसने या अंतःप्रवाह से अपने-आप हो सकता है । एक ज्योति उतरती है और निचली सत्ता, मन, प्राण या शरीर को छूती है या उसपर छा जाती या उसमें प्रवेश करती है या एक उपस्थिति या शक्ति या ज्ञान की एक सरिता लहरों या तरंगों में बह निकलती है या आनंद की बाढ़ अथवा एक अचानक आनंदातिरेक आ जाता है, अतिचेतन के साथ संपर्क स्थापित हो जाता है । कारण इस तरह के अनुभव बार-बार आते रहते हैं जबतक कि वे सामान्य न बन जायें, परिचित और भली- भांति समझ में आनेवाले न बन जायें, अपनी उन अंतर्वस्तुओं और अर्थ को प्रकट न कर दें जो शुरू में गोपनीयता में, आवृत्त करनेवाली अनुभूति के आकार में संवृत और लिपटे हुए हों । क्योंकि ऊपर से बहुधा, सतत और फिर अबाध रूप से ज्ञान का अवतरण होता है और मन की अचंचलता या नीरवता में अभिव्यक्त होना आरंभ करता है । अंतर्भास और प्रेरणाएं और विशालतर दृष्टि, उच्चतर सत्य और प्रज्ञा से उत्पन्न अंतःप्रकाश सत्ता के अंदर प्रवेश करते हैं, प्रकाशमय, अंतर्भासात्मक विवेक कार्य करता है जो समझ के समस्त अंधकार या चुंधियानेवाली अस्तव्यस्तता को दूर कर देता है, सभीको व्यवस्था में रखता है । एक नयी चेतना रूप लेने लगती है; एक उच्च, विस्तृत स्वयंभू विचारशील ज्ञान का मन; या एक प्रदीप्त या अंतर्भासात्मक या अधिमानसिक चेतना जिसमें विचार या दृष्टि की नयी शक्तियां और प्रत्यक्ष आध्यात्मिक उपलब्धि की महत्तर शक्ति है जो विचार और दृष्टि से महान् है; हमारी वर्तमान सत्ता के आध्यात्मिक पदार्थ में बृहत्तर संभवन रूप लेने लगता है । हृदय और इन्द्रियां सूक्ष्म, तीव्र और विशाल हों जाते हैं ताकि पूरे अस्तित्व को आलिंगन में ले सकें, भगवान् को देख सकें, शाश्वत को अनुभव कर सकें, सुन सकें और उसका स्पर्श कर सकें, परात्पर उपलब्धि में आत्मा और जगत्

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में निकटतर और गहनतर ऐक्य ला सकें । अन्य निर्णायक अनुभव और चेतना के अन्य परिवर्तन, जो इस आधारभूत परिवर्तन के परिणाम और उपपरिणाम हैं, वे अपना निर्णय आप करते हैं । इस क्रांति की कोई सीमा नहीं बांधी जा सकतीं क्योंकि यह अपनी प्रकृति में अनंत का धावा है ।

 

     इसका थोड़ा- थोड़ा करके या महान् और द्रुत निश्चयात्मक अनुभवों के अनुक्रम में संपादन आध्यात्मिक रूपांतर की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया का निष्पादन और इसकी पराकाष्ठा एक ऊर्ध्वमुख आरोहण में होती है जिसका प्रायः पुनरावर्तन होता रहता है जिसके द्वारा अंत में चेतना अपने-आपको उच्चतर स्तर पर स्थिर कर लेती है और वहां से मन, प्राण और शरीर को देखती और उनपर शासन करती है । वह अपने-आपको उच्चतर चेतना और ज्ञान की शक्तियों के बढ़ते हुए अवतरण द्वारा भी निष्पादित करती है जो अधिकाधिक सामान्य चेतना और ज्ञान बन जाते हैं । एक प्रकाश और शक्ति ज्ञान और बल का अनुभव होता है जो पहले मन पर अधिकार कर लेते और उसे फिर से गढ़ते हैं, उसके बाद प्राण के भाग पर अधिकार करके उसे भी फिर से गढ़ते हैं और अंत में छोटी-सी भौतिक चेतना पर अधिकार कर लेते हैं और फिर उसे छोटा नहीं छोड़ा जाता बल्कि विस्तृत, नमनीय यहांतक कि अनंत बना दिया जाता है । क्योंकिं स्वयं इस नयी चेतना में अनंतता की प्रकृति होती है । वह हमारे अंदर अनंत तथा शाश्वत का स्थायी आध्यात्मिक भाव और अभिज्ञता लाती है जिसके साथ प्रकृति का बड़ा विस्तार होता है और उसकी सीमाओं का भंजन होता है । अमरता विश्वास या अनुभूति न रहकर सामान्य आत्म-अभिज्ञता बन जाती है । दिव्य सत्ता की सन्निकट उपस्थिति, उसका जगत् पर, हमारी आत्मा और प्रकृति के अंग पर शासन, हमारे अंदर और हर जगह उसकी शक्ति का क्रियाशील रहना, अनंत की शांति, अनंत का आनंद अब सत्ता में ठोस और सतत हो जाते हैं । सभी दृश्यों और रूपों में हम शाश्वत को, सद्‌वस्तु को देखते हैं, सब ध्वनियों में उसीको सुनते, सभी स्पर्शों में उसे अनुभव करते हैं, उसके रूपों, व्यक्तित्वों और अभिव्यक्तियों को छोड़कर कुछ नहीं है । हृदय का आनंद या उसकी आराधना, सर्व-सत् का आलिंगन, आत्मा का एकत्व स्थायी वास्तविकताएं हैं । मानसिक प्राणी की चेतना आध्यात्मिक सत्ता की चेतना में बदल रही है या पूरी तरह बदल चुकी है । तीन रूपांतरों में से यह दूसरा है । अभिव्यक्त सत्ता को उसके साथ जोड़ना जो उसके ऊपर है; यह तीन चरणों में से बीच का है, आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित होती हुई प्रकृति में निर्णायक संक्रमण है ।

 

     अगर आध्यात्म पुरुष शुरू से ही श्रेष्ठतर ऊंचाइयों पर निरापद रूप से रह सकता और मन तथा जड़ के कोरे, निष्कलंक पदार्थ के साथ व्यवहार कर सकता तो संपूर्ण आध्यात्मिक रूपांतर तेज और आसान भी हो पाता । लेकिन प्रकृति की वास्तविक प्रक्रिया ज्यादा कठिन है, उसकी गतिविधि अधिक विविध, मुड़ी-तुड़ी,

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घुमावदार, व्यापक होती है । उसने जिस काम का बीड़ा उठाया है वह उसके सभी तथ्यों को पहचानती है और अपनी निजी जटिलताओं पर संक्षिप्त-सी विजय से संतुष्ट नहीं होती । हमारी सत्ता के हर अंग को उसके स्वभाव और स्वरूप में, अतीत के जो भी सांचे और लेख अभीतक उसमें हैं, उन्हें भी साथ लेना होता है । हर छोटे-से-छोटे अंश और गति को, यदि वह अयोग्य हो, नष्ट करना और उसकी जगह और को लेना होगा और अगर योग्य हो तो उसे उच्चतर सत्ता के सत्य में परिवर्तित करना होगा । अगर चैत्य-परिवर्तन पूर्ण हो तो यह पीड़ाहीन प्रक्रिया से किया जा सकता है लेकिन तब भी कार्यक्रम लंबा होगा, श्रमसाध्य होगा और प्रगति क्रमश: होगी अन्यथा आंशिक फल से ही संतुष्ट रहना होगा या अगर हममें पूर्णता के लिये निष्ठा या आध्यात्म तत्त्व की भूख अतृप्त हो तो एक कठिन, लगभग कष्टकर और अंतहीन मालूम होनेवाली क्रिया के लिये सहमत होना होगा । क्योंकि, साधारणत: चेतना उच्चतम क्षणों को छोड़कर शिखरों पर नहीं चढ़ती । वह मानसिक स्तर पर ही रहती है और ऊपर से अवतरणों को प्राप्त करती है । कभी- कभी ऐसी आध्यात्मिक शक्ति का एकाकी अवतरण होता है जो टिका रहता है और सत्ता को किसी प्रधान रूप से आध्यात्मिक वस्तु में ढाल देता है या अवतरणों का क्रम होता है जो उसमें अधिकाधिक आध्यात्मिक स्थिति और गतिशीलता ले आता है । लेकिन जबतक मनुष्य अपनी उपलब्ध उच्चतम स्थिति में निवास न कर सके तबतक पूर्ण या अधिक समग्र परिवर्तन नहीं हो सकता । अगर चैत्य परिवर्तन नहीं हुआ है, अगर उच्चतर शक्तियों को समय से पहले खींचा गया है तो उनका संपर्क प्रकृति के त्रुटिपूर्ण और अशुद्ध पदार्थ के लिये बहुत अधिक जोरदार हों सकता है और उसका तत्कालीन भाग्य वेद के उस कच्चे घट के जैसा हो सकता है जो दिव्य सोम-सुरा को धारण नहीं कर सकता । या उतरता हुआ प्रभाव पीछे हट सकता है या छलक सकता है क्योंकि प्रकृति उसे समो या रख नहीं सकती और फिर यदि शक्ति का अवतरण होता है तो अहंकारमय मन या प्राण उसे अपने ही उपयोग के लिये पकड़ने की कोशिश कर सकते हैं और उसका अप्रिय परिणाम हो सकता है; बढ़ा हुआ अहंकार या शक्तियों तथा अपने-आपको बड़ा बनानेवाली प्रभुताओं के पीछे शिकार में लग जाना । अगर बहुत अधिक काम-वासना की अशुद्धि एक नशा या गिरानेवाला मिश्रण पैदा कर दे तो अवतरित होते हुए आनंद को नहीं रखा जा सकता । अगर महत्त्वाकांक्षा, दर्प या निचली सत्ता का कोई और आक्रामक रूप हो तो शक्ति पीछे हट जाती है । अगर अंधकार या अज्ञान के किसी रूप के साथ लगाव हो तो ज्योति और अगर हृदय-कक्ष को शुद्ध नहीं किया गया है तो भागवत उपस्थिति वापिस लौट जाती है । या कोई अदिव्य शक्ति, स्वयं शक्ति को नहीं, क्योंकि वह तो पीछे हट जाती है, बल्कि यंत्र में पीछे छोड़े हुए शक्ति-परिणाम को हथियाने की कोशिश कर सकती है और उसे विरोधी के काम में लाने की कोशिश

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कर सकतीं है । अगर ये अधिक संकटाकीर्ण दोष या भूलें न भी हों तो भी ग्रहण करने की बहुत-सी भूलें या आधार की अपूर्णताएं रूपांतर में बाधा दे सकती हैं । शक्ति को अंतरालों में आना और इस बीच पर्दे के पीछे कार्य करना पड़ता है या वह अपने- आपको धूमिल आत्मसात्करण के लंबे कालों या प्रकृति के उद्दण्ड अंगों की तैयारी के लिये रोके रख सकती है । हमारे अंदर जो क्षेत्र अभीतक रात्रि में हैं उनमें ज्योति को अंधेरे या अर्द्ध-अंधकार में काम करना पड़ता है । किसी भी क्षण व्यक्तिगत रूप से इस जीवन के लिये काम बंद हो सकता है क्योंकि प्रकृति और अधिक ग्रहण करने या आत्मसात् करने लायक नहीं रहती -क्योंकि वह अपनी क्षमता की वर्तमान सीमाओंतक पहुंच चुकती है, या मन चाहे तैयार हो पर जब प्राण के आगे पुराने और नये जीवन में चुनाव का प्रश्न आता है तो वह इंकार कर देता है और अगर प्राण स्वीकार कर ले तो शरीर अपनी चेतना के आवश्यक परिवर्तन और उसके क्रियाशील रूपांतर के लिये अत्यधिक दुर्बल, अयोग्य या त्रुटिपूर्ण सिद्ध हो सकता है ।

 

     और फिर सत्ता के प्रत्येक भाग में परिवर्तन को अलग-अलग अपनी प्रकृति और स्वरूप में कार्यान्वित करने की आवश्यकता चेतना को बाधित करती है कि बारी-बारी से हर एक के अंदर उतरे और वहां उसकी स्थिति और संभावना के अनुसार कार्य करे । अगर कार्य ऊपर से, किसी आध्यात्मिक ऊंचाई से ही होता तो ऊपर से आनेवाले प्रभाव की शक्ति मात्र से बाधित होकर एक उदात्तीकरण या उत्थापन हो सकता था या किसी नये ढांचे का सृजन हो सकता था । लेकिन हो सकता है कि निम्नतर सत्ता  इस परिवर्तन को अपने लिये स्वाभाविक न माने । वह एक संपूर्ण वृद्धि, समग्र विकास न होकर एक आंशिक और आरोपित रूपायन होगा जो सत्ता के कुछ भागों पर प्रभाव डालेगा और उन्हें मुक्त करेगा और दूसरों को या तो दबा देगा या जैसा-का-तैसा छोड़ देगा । यह सामान्य प्रकृति से बाहर का सृजन, उसपर आरोपण होगा । वह अपनी पूर्णता में तभीतक टिकाऊ रह सकता है जबतक सृजन करनेवाला प्रभाव बना रहे । अत: निम्न स्तरों पर चेतना का अवतरण जरूरी है लेकिन इस तरह से भी उच्चतर तत्त्व की पूर्ण शक्ति को कार्यान्वित करना कठिन है । उसमें कुछ हेर-फेर होता है, कुछ अवमिश्रण और ह्रास होता है जो परिणामों में अपूर्णता और सीमांकन को बनाये रखता है । उच्चतर ज्ञान का प्रकाश नीचे उतरता है लेकिन धुंधला और परिवर्तित हो जाता है । उसके अर्थ की गलत व्याख्या होती है या उसका सत्य मानसिक या प्राणिक भ्रांति से मिल जाता है या उसकी अपने-आपको परिपूरित करने की शक्ति या समर्थता उसके प्रकाश के अनुरूप नहीं होती । अधिमानस की ज्योति और शक्ति, अपने ही क्षेत्र और अपने पूर्ण अधिकार के साथ कार्य करे यह एक चीज है लेकिन वही ज्योति भौतिक चेतना के अंधेरे में उसकी परिस्थितियों में काम करे तो यह बिल्कुल अलग चीज है और फीकेपन तथा मिश्रण

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के कारण अपने ज्ञान, शक्ति और परिणाम में बहुत नीचे की चीज है । एक विकृत शक्ति, आंशिक परिणाम या अवरुद्ध गति इसके परिणाम होते हैं ।

 

     प्रकृति में वस्तुत: चित्-शक्ति के धीमे और कठिन आविर्भाव का यही कारण है क्योंकि मन और प्राण को जड़ में उतरना और अपने-आपको उसकी परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ता है । वे जिस पदार्थ और शक्ति में क्रिया करते हैं उसके अंधकार और अनिच्छुक तमस् से परिवर्तित और ह्रसित होकर वे अपनी सामग्री को उपयुक्त उपकरण में और एक वैसी परिवर्तित धातु में संपूर्णतः- परिणत करने में असमर्थ रहते हैं जो उनकी सच्ची और सहज शक्ति को व्यक्त केर । प्राण-चेतना भौतिक सत्ता में अपने सशक्त या सुंदर आवेगों की अपनी महानता और आनंद को कार्यान्वित करने में असमर्थ रहती है । उसका आवेग निष्फल रह जाता है, उसकी कार्यान्वित करने की शक्ति उसको धारणाओं के सत्य की अपेक्षा घटिया है, रूप अपने अंदर के जिस प्राणिक अंतर्भास को प्राण--सत्ता की भाषा में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है उसके लिये काफी नहीं होता । मन अपने उच्च भावों को प्राण और भौतिक के माध्यम द्वारा बिना कुछ घटाये और समझौते किये बिना प्राप्त करने में असमर्थ रहता है जो उन्हें उनकी दिव्यता से वंचित कर देते हैं । मन में उसके ज्ञान और इच्छा की स्पष्टता के अनुरूप वह शक्ति नहीं जो इस निचले पदार्थ को इस तरह गढ़े कि वह मन का अनुसरण करे और उसे व्यक्त करे । इसके विपरीत, उसकी अपनी शक्तियां जीवन के गदलेपन और जड़ की अबोधता के कारण प्रभावित होती, उसकी इच्छा विभक्त होती, उसका ज्ञान अस्तव्यस्त और मेघाच्छन्न हो जाता है । न तो मन न प्राण जड़ अस्तित्व को बदलने या पूर्ण करने में सफल होता है क्योंकि वे स्वयं इन परिस्थितियों में अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते । उन्हें अपने-आपको मुक्त और परिपूर्ण करने के लिये एक उच्चतर शक्ति का आह्वान् करना पड़ता है । लेकिन उच्चतर आध्यात्मिक मानसिक शक्तियां जब प्राण और जड़ भौतिक में उतरती हैं तो उन्हें भी इसी अक्षमता को झेलना पड़ता है । वे बहुत अधिक कर सकती हैं, बहुत प्रकाशमय परिवर्तन प्राप्त कर सकती हैं लेकिन हेर-फेर, सीमांकन, जो चेतना नीचे आती है और कार्यान्वित करने की वह शक्ति जिसे वह मानसिक और भौतिक-भावापन्न कर सकती है उनके बीच की असमानता सदा बनी रहती है और परिणाम होता है एक घटी हुई सृष्टि । जो परिवर्तन आता है वह प्रायः असाधारण होता है, कोई ऐसी चीज भी होती है जो चेतना की अवस्था के पूर्ण परिवर्तन और परावर्तन और उसको गतियों के ऊपर उठने जैसी मालूम होती है लेकिन वह क्रियाशक्ति में पूर्ण नहीं होती ।

 

     केवल अतिमानस ही अपनी संपूर्ण क्रियाशक्ति को खोये बिना इस तरह उतर सकता है, क्योंकि उसका कर्म हमेशा अंतरंग और स्वचालित होता है, उसका ज्ञान और उसकी इच्छा तदात्म होते हैं और परिणाम समपरिमाण । उसका स्वभाव है

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आत्म-सिद्धि प्राप्त करनेवाला ऋत-चित् और अगर वह अपने-आपको या अपनी क्रिया को सीमित करता है तो बाधित होकर नहीं, अपने ही चुनाव और अपने इरादे से । वह जिन सीमाओं को चुनता है उनमें उसकी क्रिया और क्रिया के परिणाम सामंजस्यपूर्ण और अनिवार्य होते हैं । और फिर अधिमानस तो मन की तरह विभाजन करनेवाला तत्त्व है और उसकी विशेष क्रिया है एक स्वतंत्र रूपायन में चुना हुआ सामंजस्य कार्यान्वित करना । उसकी सार्वभौम क्रिया उसे वस्तुत: एक ऐसे सामंजस्य का निर्माण करने योग्य बनाती है जो अपने-आपमें संपूर्ण और समग्र हो या उसे इस योग्य बनाती है कि वह अपने सामंजस्यों को एक साथ मिलाकर उन्हें समन्वित करे; लेकिन मन, प्राण और जड़ भौतिक के प्रतिबंधों के आधीन क्रिया करने के कारण अधिमानस उसे अलग-अलग विभाग करके और फिर उन विभागों को जोड़ते हुए करने को बाधित होता है । उसकी समग्रता की वृत्ति में उसकी चयन-वृत्ति बाधा देती है; वह यहां मन और प्राण की जिस सामग्री में कार्य कर रहा है उसकी प्रकृति की वजह से यह चयन-वृत्ति और भी प्रबल हो उठती है । वह जो प्राप्त कर सकती है वह है अलग-अलग सीमित आध्यात्मिक सृष्टियां जिनमें से हर एक अपने-आपमें संपूर्ण होती है, पूर्ण ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति नहीं । इसी कारण और अपने सहज प्रकाश और शक्ति के घटने के कारण वह पूरी तरह से उसे करने में असमर्थ है जो करना चाहिये और उसे एक महत्तर शक्ति, अतिमानसिक शक्ति को अपनी मुक्ति और परिपूर्ति के लिये बुलाना पड़ता है । जैसे चैत्य परिवर्तन को अपनी पूर्ति के लिये आध्यात्मिक परिवर्तन को बुलाना पड़ता है उसी भांति पहले आध्यात्मिक परिवर्तन को अपनी पूर्ति के लिये अतिमानसिक रूपांतर को बुलाना पड़ता है; क्योंकि आगे के सभी चरण अपने से पहले के चरणों की तरह संक्रमणकालीन हैं । अज्ञान के आधार से शान के आधार की ओर विकास में पूर्ण और आमूल परिवर्तन केवल अतिमानसिक शक्ति के हस्तक्षेप से, पृथ्वी- जीवन में उसकी प्रत्यक्ष क्रिया से ही हो सकता है ।

 

     अतः यही तीसरे और अंतिम रूपांतर का स्वरूप होगा जो जीवन की अज्ञान में से यात्रा को समाप्त करता और उसकी चेतना और उसके प्राण, उसकी शक्ति और अभिव्यक्ति के रूप को एक पूर्ण और पूरी तरह प्रभावशाली आत्म-ज्ञान पर आधारित करता है, ऋत-चित् को विकसनशील प्रकृति को तैयार पाकर उसमें उतरना और उसे इस योग्य बनाना है कि वह अपने अंदर अतिमानसिक तत्त्व को मुक्त कर सके । इस तरह से अतिमानसिक और आध्यात्म पुरुष की रचना जड़ भौतिक विश्व में स्व तथा आत्मा के सत्य की पहली अनावृत अभिव्यक्ति के रूप में होगी ।

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