दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ८

 

वैदांतिक ज्ञान की प्रणाली

 

       एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते ।

       दृश्थते त्वग्र्यया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि: ।।

 

       सभी भूतों में यह आस्था गूढ़ है, प्रकट नहीं है परंतु सूक्ष्मदृष्टिवाले उसे सूक्ष्म परा बुद्धि के द्वारा देखते हैं ।

                                                              कठोपनिषद् ३.१२

 

लेकिन तब इस सच्चिदानंद की इस जगत् में क्या क्रिया है और वस्तुओं की किस प्रक्रिया से उसके और उसे रूप देनेवाले अहं के बीच पहले संबंध बनते और फिर अपनी पूर्णतातक ले जाये जाते हैं ? क्योंकि उन संबंधों और जिस पद्धति का वे संबंध अनुसरण करते हैं उसपर मनुष्य के लिये दिव्य जीवन का समस्त दर्शन और अभ्यास निर्भर है ।

 

    हम इन्द्रियों की साक्षी का अतिक्रमण करके और भौतिक मन की दीवार को भेदकर भगवान् के अस्तित्व की कल्पना और उसके ज्ञानतक पहुंचते हैं । जबतक हम अपने-आपको इन्द्रियों की साक्षी और भौतिक चेतनातक सीमित रखें तबतक हम भौतिक जगत् और उसके तथ्यों को छोड़कर और कुछ नहीं समझ या जान सकते । लेकिन हमारे अंदर कुछ क्षमताएं ऐसी हैं जिनसे हमारा मन ऐसी धारणाओं पर पहुंच सकता है जिनका अनुमान तो हम भौतिक जगत् के दीखते तथ्यों से तर्कणा या कल्पना-भेद के द्वारा लगा सकते हैं किंतु इनका समर्थन शुद्ध भौतिक तथ्य या भौतिक अनुभव के द्वारा नहीं होता । इन साधनों में सबसे पहला है विशुद्ध बुद्धि ।

 

    मानव बुद्धि की दो तरह की क्रिया होती है, एक मिश्रित या पराश्रित, दूसरी शुद्ध या स्वाधीन । बुद्धि जब अपने-आपको हमारी इन्द्रियों की अनुभूति के चक्र में बंद रखती, उसके नियमों को ही चरम सत्य मानती और केवल प्रकट तथ्यों के अध्ययन से ही, अर्थात् वस्तुओं के बाह्य रूपों, उनके परस्पर संबंधों, प्रक्रियाओं तथा उपयोगिताओं से ही संबंध रखती है, तब वह मिश्रित क्रिया को अपनाती है । तर्कबुद्धि की यह क्रिया जो है उसे जानने में असमर्थ रहती है । वह केवल उसीको जानती है जो दीखता है । उसके पास ऐसा कोई साहुल नहीं होता जिससे वह सत्ता की गहराइयों की थाह ले सके । वह केवल संभूति के क्षेत्रों का सर्वेक्षण कर सकतीं है । लेकिन तर्कबुद्धि, इसके विपरीत, अपनी शुद्ध क्रिया का आग्रह तब करती है जब हमारी इन्द्रियों के अनुभवों को आरंभबिंदु मानकर परंतु उनसे सीमित होने से इंकार करके वह उनके पीछे जाती, अपने निर्णय करती और अपने ही

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अधिकार से क्रिया करती है और ऐसी व्यापक और अपरिवर्तनशील धारणाओंतक पदुंचने का प्रयास करती है जो चीजों के बाहरी रूपों के साथ नहीं बल्कि जो उन रूपों के पीछे स्थित है उसके साथ नाता जोड़ती हैं । वह यह भी कर सकती है कि बाहरी रूपों से निकलकर, उनके पीछे जो कुछ है उसमें तुरंत प्रवेश कर जाये और सीधे निर्णय द्वारा अपने परिणामतक पहुंच जाये । उस अवस्था में जो धारणाएं बनती हैं वे इन्द्रियों की अनुभूति का परिणाम और उनपर निर्भर मालूम हो सकती हैं लेकिन सचमुच वह स्वयं अपने अधिकार से कार्य करती हुई बुद्धि का प्रत्यक्ष दर्शन होता है । लेकिन यह भी संभव है कि शुद्ध बुद्धि के प्रत्यक्ष दर्शन--जिनकी लाक्षणिक क्रिया ऐसी ही होती है--जिस अनुभव से आरंभ करते हैं उसे केवल निमित्त रूप में काम में लायें और अपने परिणामतक पहुंचते-पहुंचते उसे कहीं दूर छोड़ आयें, इतनी दूर कि ऐसा मालूम हो कि हमारी इन्द्रियों का अनुभव हमारे ऊपर जो बात लादना चाहता है, उससे यह परिणाम एकदम विपरीत है । यह क्रिया न्यायसंगत और अनिवार्य है क्योंकि हमारा साधारण अनुभव न केवल वैश्व तथ्य के एक छोटे से भाग को ही ले पाता है बल्कि अपने क्षेत्र की सीमाओं में भी ऐसे साधनों का उपयोग करता है जो त्रुटिपूर्ण हैं और गलत माप और भार बतलाते हैं । अगर हम वस्तुओं के सत्य की काफी अच्छी धारणाओं तक पहुंचना चाहें तो इस (साधारण अनुभव) के पार जाना, उसे दूर रखना और उसके आग्रहों को नकारना जरूरी है । मनुष्य ने जो मूल्यवान् शक्तियां विकसित की हैं उनमें से एक है ऐंद्रिय मन की भूलों को तर्कबुद्धि के प्रयोग से ठीक करना, और यह पार्थिव सत्ताओं में उसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण है ।

 

    शुद्ध बुद्धि का पूर्ण उपयोग हमें अंत में भौतिक से तत्त्वज्ञानात्मक ज्ञानतक ले आता है परंतु तत्त्वज्ञानात्मक ज्ञान की धारणाएं स्वयं अपने-आपमें हमारी संपूर्ण सत्ता की मांग को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं करतीं । वे निश्चय ही स्वयं तर्कबुद्धि के लिये पूर्णत: संतोषप्रद हैं क्योंकि वे उसके ही अस्तित्व के उपादान हैं । लेकिन हमारी प्रकृति चीजों को हमेशा दो आंखों से देखती है, क्योंकि वह उन्हें दोहरे रूप में, भाव तथा तथ्य के रूप में देखती है अतः हमारे लिये हर धारणा अपूर्ण रहती है और हमारी प्रकृति के एक भाग के लिये तबतक अवास्तविक रहती है जबतक कि वह एक अनुभव न बन जाये । लेकिन अभी हम जिन सत्यों की बात कर रहे हैं वे उस श्रेणी के हैं जो हमारे साधारण अनुभव के अधीन नहीं होते, वे अपनी प्रकृति में ''इन्द्रियों के बोध के परे परंतु तर्क-बुद्धि के द्वारा ग्राह्य हैं ।'' अतः अनुभव की किसी और क्षमता की जरूरत है जिसके द्वारा हमारी प्रकृति की मांग पूरी की जा सके और चूंकि हम अतिभौतिक के बारे में बात कर रहे हैं, यह केवल मनोवैज्ञानिक अनुभूति के प्रसार द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।

 

    एक अर्थ में हमारी सारी अनुभूतियां मनोवैज्ञानिक होती हैं क्योंकि हम जो कुछ

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इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं उसका हमारे लिये तबतक कोई अर्थ या मूल्य नहीं होता जबतक कि उसका ऐंद्रिय मन की, भारतीय दार्शनिक परिभाषा में कहें तो 'मानस' की भाषा में अनुवाद न हो जाये । जैसा कि हमारे दार्शनिक कहते हैं मानस छठी इन्द्रिय है । लेकिन हम यह भी कह सकते हैं कि यही एकमात्र इन्द्रिय है और बाकी सब दर्शन, श्रवण, स्पर्श, गंध और रस केवल ऐंद्रिय मन की विशेषताएं हैं । यह मन यद्यपि साधारणत: अपनी अनुभूति के आधार-स्वरूप इन्द्रियों का उपयोग करता है फिर भी वह उनका अक्रिमण करता और सीधा अनुभव करने की क्षमता भी रखता है जो उसकी अपनी अंतर्निष्ठ क्रिया का स्वधर्म है । इसके फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक अनुभव बुद्धि के ज्ञान की भांति मनुष्य में दोहरी क्रिया करने की क्षमता रखता है । वह क्रिया मिश्रित या निर्भर या फिर शुद्ध और स्वाधीन हो सकती है । उसकी मिश्रित क्रिया साधारणत: तब होती है जब मन बाह्य जगत् के, विषय के बारे में अभिज्ञ होना चाहता है, और शुद्ध क्रिया तब होती है जब वह अपने बारे में, कर्ता के बारे में अभिज्ञ होना चाहता है । पहली क्रिया में वह इन्द्रियों पर निर्भर होता है और उनकी साक्षी के अनुसार ही अपने प्रत्यक्ष दर्शन बनाता है और दूसरी क्रिया में वह अपने ही अंदर क्रिया करता है और उनके साथ एक प्रकार के तादात्म्य द्वारा वस्तुओं के बारे में सीधी अभिज्ञता रखता है । इस प्रकार हम अपने भावों के बारे में अभिज्ञ होते हैं । जैसा कि चुभती भाषा में कहा गया है 'हम क्रोध के बारे में अभिज्ञ होते हैं क्योंकि हम क्रोध बन जाते हैं' । हम स्वयं अपने अस्तित्व के बारे में भी इसी प्रकार अभिज्ञ होते हैं और यहां तादात्म्य द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का स्वरूप प्रकट हो जाता है । वास्तव में, समस्त अनुभूति अपने गुप्त स्वरूप में तादात्म्य द्वारा ज्ञान ही है लेकिन उसका सच्चा स्वरूप हमसे छिपा रहता है क्योंकि हमने अपने-आपको बाकी सारे जगत् से बहिष्करण के द्वारा, यह मानकर कि हम विषयी हैं और बाकी सब विषय, अलग कर लिया है और हम ऐसी प्रक्रियाएं और ऐसी इन्द्रियां विकसित करने के लिये बाधित होते हैं जिनके द्वारा हम फिर से उस सबके साथ संपर्क में आ सकें जिसे हमने अलग कर दिया है । हमें सचेतन तादात्म्य द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान के स्थान पर परोक्ष ज्ञान को लाना होता है, जिसके बारे में ऐसा लगता है कि वह भौतिक संपर्क और मानसिक सहानुभूति के कारण आया है । यह परिसीमन मूलतः अहंकार की रचना है और उसकी उस रीति का उदाहरण है जिसका उसने हर जगह उपयोग किया है, जिसमें वह एक आदिम मिथ्यात्व से शुरू करके चीजों के सच्चे सत्य को आनुषंगिक मिथ्यात्वों से ढक देता है । यही मिथ्यात्व हमारे लिये संबंधों के व्यावहारिक सत्य बन जाते हैं ।

 

    आज हमारे अंदर मानसिक और ऐद्रिय ज्ञान जिस तरह व्यवस्थित है उससे यही परिणाम निकलता है कि हमारी इन वर्तमान सीमाओं की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं है । वे एक ऐसे विकास का परिणाम हैं जिसमें मन ने कुछ

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शारीरिक क्रियाओं और उनकी प्रतिक्रियाओं को भौतिक विश्व के साथ नाता जोड़ने के लिये साधन के रूप में स्वीकार करके उनपर निर्भर रहने का अपने-आपको अभ्यासी बना लिया है अतः यद्यपि नियम तो यही है कि जब हम बाहरी जगत् के साथ अभिज्ञता प्राप्त करना चाहें तो परोक्ष रूप से इन्द्रियों के द्वारा ही कर सकते हैं और मनुष्यों और वस्तुओं के सत्य के बारे में केवल उतना ही अनुभव कर सकते हैं जितना इन्द्रियां हमें बतलाये लेकिन यह नियम केवल एक प्रधान आदत की नियमितता ही है । मन के लिये यह संभव है --और उसके लिये यह स्वाभाविक भी होगा, बशर्तें कि जड़ भौतिक के आधिपत्य को जो उसने स्वीकृति दी हुई है उससे उसे मुक्त होने के लिये मनाया जा सके-कि वह इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना सीधा प्राप्त कर सके । सम्मोहन और सजातीय मानसिक व्यापारों के परीक्षणों में यही बात होती है । चूंकि हमारी जाग्रत् चेतना मन और जड़ के बीच के उस संतुलन द्वारा निश्चित और सीमित होती है जो जीवन के अपने विकासक्रम में अबतक प्राप्त किया गया है, यह सीधा बोध पाना हमारी साधारण जाग्रत् अवस्था में सामान्यत: संभव नहीं होता अतः यह ज्ञान पाने के लिये जाग्रत् मन को निद्रा की अवस्था में डाल दिया जाता है जिससे सच्चा या अंतस्तलीय मन मुक्त हो जाता है । तब मन अपने इस सच्चे स्वरूप को स्थापित करने में समर्थ होता है कि वही एकमात्र और सर्वपर्याप्त इन्द्रिय है और इन्द्रियों के विषयों पर अपनी मिश्रित एवं अधीनस्थ क्रिया की जगह शुद्ध और स्वाधीन क्रिया का प्रयोग करने के लिये स्वतंत्र है । इस क्षमता का विस्तार, वास्तव में, असंभव नहीं है, केवल इतना है कि जाग्रत् अवस्था में यह अधिक कठिन है, जो लोग मनोवैज्ञानिक परीक्षण के कुछ विशेष मार्गों पर काफी दूर तक जा सके हैं, उन सबको यह भली-भांति ज्ञात है ।

 

    जिन पांच इन्द्रियों का हम साधारणत: उपयोग करते हैं उनके अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों को विकसित करने के लिये भी ऐंद्रिय मन की स्वाधीन क्रिया का उपयोग किया जा सकता है । उदाहरण के लिये भौतिक साधनों के बिना, हाथ में ली हुई चीज का ठीक-ठीक भार जान सकने की क्षमता विकसित करना संभव है । यहां स्पर्श और दबाव के भाव का केवल आरंभ-बिंदु के रूप में उपयोग किया जाता है जैसे शुद्ध बुद्धि ऐंद्रिय अनुभूति से प्राप्त सामग्री का उपयोग करती है । सचमुच स्पर्श मन को भार का माप नहीं देता, मन अपने स्वतंत्र प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा सच्चा मूल्य आंकता है और स्पर्श का उपयोग वस्तु के साथ नाता जोड़ने के लिये ही करता है । और जैसा शुद्ध बुद्धि के साथ होता है उसी तरह ऐंद्रिय मन के लिये भी इन्द्रियानुभूति का उपयोग केवल एक प्रथम बिंदु के रूप में किया जा सकता है जहां से वह ऐसे ज्ञान की ओर जाता है जिसका इन्द्रियों के साथ कोई संबंध नहीं, जो प्रायः उनकी साक्षी का खंडन करता है । क्षमता का विस्तार केवल बाहरी विस्तार या ऊपरी

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सतहतक ही सीमित नहीं है । एक बार हम किसी बाहरी वस्तु के साथ किसी भी इन्द्रिय के द्वारा संपर्क बना लें तो मनस् को इस तरह लगाया जा सकता है कि हम वस्तु के भीतर की चीजों का भी परिचय प्राप्त कर लें । उदाहरण के लिये दूसरों के विचारों या भावों को उनके वचन, भाव-भंगिमा, क्रिया या चेहरे के भाव के बिना, बल्कि इन एकांगी और प्रायः भ्रामक संकेतों के विपरीत देख या पढ़ सकना । अंतत: भीतरी इन्द्रियों के उपयोग द्वारा यानी स्वयं इन्द्रिय शक्ति के उपयोग से, उनकी शुद्ध मानसिक या सूक्ष्म क्रियाओं के द्वारा जो भौतिक क्रियाओं से भिन्न होती हैं, --भौतिक क्रियाएं तो उनकी समग्र और सामान्य क्रियाओं मैं से बाह्य जीवन के प्रयोजन के लिये एक संकलन मात्र होती हैं --हम अपने जड़ भौतिक वातावरण की व्यवस्था से भिन्न चोजों के इन्द्रियानुभवों, रूपों और बिंबों को जान सकते हैं । क्षमता के इन सभी प्रसारणों को भौतिक मन हिचकिचाहट और अविश्वास के साथ लेता है क्योंकि वे हमारे सामान्य जीवन और अनुभूतियों की अभ्यस्त पद्धति के लिये असामान्य हैं, उन्हें क्रिया में लगाना कठिन है । उन्हें इस प्रकार क्रमबद्ध करना और भी कठिन है कि वे सुव्यवस्थित और उपयोगी यंत्र बन सकें । फिर भी उन्हें स्वीकार तो करना ही पड़ेगा क्योंकि क्षमताओं के वे प्रसारण चाहे अप्रशिक्षित प्रयास और अनियमित, अव्यवस्थित प्रभाव द्वारा हों या वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित अभ्यास द्वारा, फिर भीं हैं तो निरपवाद रूप से सतही क्रियाशील चेतना के क्षेत्र को अधिक विस्तृत करने के लिये किये गये प्रयास का परिणाम ।

 

    फिर भी इनमें से कोई हमें उस लक्ष्यतक नहीं ले जाता जो हमारी दृष्टि में है --उन सत्यों का मनोवैज्ञानिक अनुभव जो ''इन्द्रियों की पकड़ के परे और बुद्धि के लिये ग्राह्य है'' - बुद्धियाह्यमतीनिन्द्रयम् (गीता ६.२१) । वे हमें केवल प्रपंच का एक विशालतर क्षेत्र और उसका अवलोकन करने के लिये अधिक प्रभावकारी साधन भर देते हैं । वस्तुओं का सत्य हमेशा इन्द्रियों की पकड़ से बाहर छटक जाता है । फिर भी स्वयं वैश्व रचना के अंदर ही यह एक यथार्थ नियम अंतर्निहित है कि जहां कहीं ऐसे सत्य हैं जो बुद्धि द्वारा पाये जाते हैं वहां उस बुद्धि से अधिकृत शरीर में ऐसे साधन होने चाहियें जिनसे अनुभूति द्वारा उन सत्यों तक पहुंचा जा सके या उन्हें अनुभूति द्वारा कसौटी पर कसा जा सके । हमारे मानस में जो एक साधन बच रहा है वह है तादात्म्य द्वारा ज्ञान के उस रूप का विस्तार जो हमें अपने निजी अस्तित्व की अभिज्ञता देता है । हमारे अंदर की वस्तुओं का ज्ञान वास्तव में न्यूनाधिक रूप से सचेतन, हमारी धारणा में न्यूनाधिक रूप से उपस्थित आत्म-अभिज्ञता पर आधारित होता है। अथवा इसे ज्यादा सामान्य सूत्र में कहें तो अंतर्वस्तुओं का ज्ञान अंतर्वस्तुओं के धारक के ज्ञान में समाया रहता है । तो यदि हम अपनी आत्म-अभिज्ञता की मानसिक क्षमता को अपने से परे और बाहर 'आत्मा' की, उपनिषदों की आत्मन् या ब्रह्म की, अभिज्ञता तक विस्तृत कर सकें तो हम अनुभूति में उन

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सत्यों पर अधिकार पा सकते हैं जो विश्व में आत्मा या ब्रह्म की अंतर्वस्तु बनते हैं । भारतीय वेदांत ने अपने-आपको इसी संभावना पर आधारित किया है । उसने आत्मा के ज्ञान द्वारा विश्व के ज्ञान की खोज की है ।

 

    लेकिन वेदांत ने हमेशा यह माना है कि मानसिक अनुभूति और बुद्धि की अव-धारणाएं अपने उच्चतम स्तर पर भी परम स्वयंभू तादात्म्य न होकर मानसिक तादात्म्यों में प्रतिबिंब मात्र हैं । हमें मन और बुद्धि के परे जाना चाहिये । हमारी जाग्रत् चेतना में सक्रिय रहनेवाली बुद्धि उस अवचेतन 'सर्व', जिसमें से हम अपने विकास में ऊपर आते हैं और अतिचेतन सर्व, जिसकी ओर यह विकास हमें प्रेरित करता है, उन दोनों के बीच मध्यस्थ मात्र है । अवचेतन और अतिचेतन एक ही सर्व के दो भिन्न रूपायण हैं । अवचेतन का महा-शब्द या व्याहृति है 'प्राण' और अतिचेतन का महा-शब्द है प्रकाश । अवचेतना में ज्ञान या चेतना क्रिया में अंतर्लीन है क्योंकि क्रिया ही प्राण का सारतत्त्व है । अतिचेतन में क्रिया फिर से प्रकाश में प्रवेश करती है और अपने अंदर अंतर्लींन ज्ञान को नहीं रखती बल्कि अपने-आप परम चेतना में अंतर्लीन रहती है । इन दोनों में अंतर्भासात्मक ज्ञान समान रूप से रहता है और अंतर्भासात्मक ज्ञान का आधार है ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सचेतन या प्रभावकारी तादात्म्य । यह दोनों की आत्म-सत्ता की वह समान अवस्था है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय ज्ञान द्वारा एक होते हैं । परंतु अवचेतना में अंतर्भास अपने-आपको क्रिया में, प्रभावकारिता में, प्रकट करता है और ज्ञान या सचेतन तादात्म्य पूरी तरह या न्यूनाधिक रूप में क्रिया में छिपा रहता है । इसके विपरीत अतिचेतन में प्रकाश ही नियम और सिद्धांत है अतः अंतर्भास अपने-आपको अपने सच्चे स्वरूप में, सचेतन तादात्म्य में से उभरते हुए ज्ञान के रूप में प्रकट करता है । क्रिया की प्रभावकारिता मौलिक तथ्य का मुखौटा न होकर उसका संगत या आवश्यक परिणाम होती है । इन दो अवस्थाओं के बीच बुद्धि और मन मध्यस्थ के रूप में काम करते हैं, वे सत्ता को इस योग्य बनाते हैं कि ज्ञान क्रिया के कारागार से मुक्त हो सके और अपनी तत्त्वगत प्रमुखता को फिर से प्राप्त करने के लिये तैयार हो जाये । जब मन की आत्म-अभिज्ञता दोनों पर अंतर्वस्तु और अंतर्वस्तु के धारक पर, अपने पर और दूसरों पर प्रयुक्त होती है तो वह ज्योतिर्मय, स्वतः-प्रकट तादात्म्य में उन्नत हो जाती है, बुद्धि भी अपने-आपको स्वतः प्रकाशमान, अंतर्भासात्मक ज्ञान के रूप में बदल

 

    १हम अंग्रेजी के 'इंटयूशन' शब्द के लिये अंतर्भास, सहज ज्ञान, संबोधि आदि शब्दों का प्रयोग करते है । यहांपर श्रीअरविंद इंट्युशन के बारे में कहते हैं, ''मैं ज्यादा उपयुक्त शब्द के अभाव में इंटयूशन शब्द का व्यवहार करता हूं । उससे जिस भाव की मांग की जाती है उसके लिये यह कामचलाऊ और अपर्याप्त है । यही बात कानशसनेस तथा कई और शब्दों के बारे में कही जा सकती है । हमारी शब्दों की दरिद्रता हमें इन शब्दों का अवैध विस्तार करने के लिये बाधित करती है ।'' -अनू०

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लेती है । यह हमारे ज्ञान की संभवनीय उच्चतम स्थिति है जब मन अतिमानस में अपनी परिपूर्ति कर लेता है ।

 

   यही मनुष्य की समझ की वह योजना है जिसपर प्राचीनतम वेदांत के निष्कर्ष खड़े किये गये थे । प्राचीन ऋषियों ने इस आधार पर जो निष्कर्ष निकाले थे उनको विकसित करना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है । अभी हम केवल दिव्य जीवन की समस्या के साथ संबंध रखते हैं । यहां उसके साथ संबंध रखनेवाले वेदांत के कुछ मुख्य निष्कर्षों पर संक्षेप में नजर डाल लेना जरूरी है । क्योंकि हम जिसका पुनर्निर्माण करना चाहते हैं उसके लिये इससे पहले का सर्वोत्तम आधार हम इन्हीं विचारों में पा सकेंगे और यद्यपि, जैसा कि समस्त ज्ञान के साथ होता है, पुरानी अभिव्यंजना को एक हदतक हटाकर उसके स्थान पर ऐसी नयी अभिव्यंजना को लाना होगा जो बाद की मानसिकता के अनुकूल हो और एक उषा के बाद आनेवाली दूसरी उषा की तरह पुरातन प्रकाश को नूतन प्रकाश में विलीन हो जाना होगा । फिर भी सदा परिवर्तनशील और साथ ही सदा अपरिवर्तनशील अनंत के साथ अपने नये व्यापार में हम तभी अधिक-से-अधिक लाभ इकट्ठा कर पायेंगे जब हम अपने प्राचीन खजाने या उसके उतने भाग को जिसे हम फिर से पा सकें, अपना मूलधन बनाकर चलें ।

 

    विश्व के बारे में वैदांतिक विश्लेषण अपनी जिस अंतिम अवधारणा में पहुंचता है वह है सद्ब्रह्म, शुद्ध सत् अनिर्वचनीय अनंत, निरपेक्ष सत् । यही वह आधारभूत सद्वस्तु है जिसे वैदांतिक अनुभूति उन सभी गतिविधियों और रूपायणों के पीछे पाती है जिनसे आभासी सद्वस्तु बनी है । यह स्पष्ट है कि जब हम इस अवधारणा को अपनाते हैं तो अपनी साधारण चेतना की, अपनी सामान्य अनुभूति की धारण-सामर्थ्य और प्रामाणिकता से एकदम परे चले जाते हैं । इन्द्रियां या ऐंद्रिय मन किसी शुद्ध अथवा निरपेक्ष सत्ता के बारे में कुछ भी नहीं जानते । हमारी ऐंद्रिय अनुभूति केवल रूप और गति के बारे में ही हमें बताती है । रूप का अस्तित्व है लेकिन ऐसा अस्तित्व जो शुद्ध नहीं है बल्कि हमेशा मिश्रित, संयोजित, संकलित, संचित और सापेक्ष होता है । जब हम अपने अंदर पैठते हैं तो हम नियत आकारवाले रूप से पिंड छुड़ा सकते हैं पर गति से, परिवर्तन से अलग नहीं हों सकते । 'देश' में जड़ वस्तु की गति, 'काल' में परिवर्तन की गति अस्तित्व की अवस्थाएं मालूम होती हैं । अगर हम चाहें तो निश्चय ही यह कह सकते हैं कि यही अस्तित्व है और स्वयं अस्तित्व का भाव ही किसी खोजी जा सकनेवाली सद्वस्तु के साथ मेल नहीं खाता । अधिक-से-अधिक आत्म-अभिज्ञता के आभास में या उसके पीछे कभी-कभी हमें किसी अचल, अपरिवर्तनशील वस्तु की झांकी मिल जाती है, किसी ऐसी चीज की कि हम अस्पष्ट रूप से यह देखने या कल्पना करने लगते हैं कि हम समस्त जीवन और मृत्यु के परे हैं, समस्त परिवर्तन,

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रूपायण और क्रिया के परे हैं । हमारे अंदर यही वह द्वार है जो कभी-कभी परे के सत्य के वैभव की ओर खुल पड़ता है और दोबारा बंद होने से पहले एक रश्मि को हमें छू लेने देता है --यह एक प्रकाशमय संकेत है, जिसे अगर हमारे अंदर बल और दृढ़ता हों तो हम अपनी श्रद्धा के साथ पकड़े रह सकते हैं और उसे ऐंद्रिय मन से भिन्न चेतना की एक और लीला का, अतर्भास की लीला का आरंभ- बिंदु बना सकते हैं ।

 

    क्योंकि अगर हम सावधानी के साथ परीक्षा करें तो देखेंगे कि अंतर्भास ही हमारा प्रथम गुरु है । अंतर्भास हमेशा हमारी मानसिक क्रियाओं के पीछे पर्दे में खड़ा रहता है । अंतर्भास मनुष्यतक 'अज्ञात' से संदेश लाता है जो हमारे उच्चतर ज्ञान के आरंभ-बिंदु हैं । बुद्धि तो केवल पीछे से यह देखने आती है कि वह इस चमकती फसल से क्या लाभ उठा सकती है । हम जो कुछ जानते हैं और जो कुछ प्रतीत होते हैं उस सबके पीछे और परे की किसी चीज का भाव हमें अंतर्भास देता है । यह भाव मनुष्य की निम्नतर बुद्धि और उसके सारे सामान्य अनुभवों का प्रतिवाद करता हुआ मनुष्य का सतत रूप से पीछा करता है और उस आकाररहित बोध को ईश्वर, अमरता, स्वर्ग आदि अधिक भावात्मक सूत्रों में व्यक्त करने के लिये उसे प्रेरित करता है । इनके द्वारा ही हम उसे मन के आगे प्रकट करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि अतर्भास, स्वयं प्रकृति के जैसा ही बलवान् है जिसकी निज आत्मा से वह उत्पन्न हुआ है और वह बुद्धि के प्रतिवादों और अनुभव के खंडनों की परवाह नहीं करता । वह जानता है कि क्या है क्योंकि वह है, क्योंकि स्वयं वह उसीका है और उसीसे आया है और वह केवल संभवन और प्रतीति के मूल्यांकन के आगे झुकनेवाला नहीं है । अंतर्भास हमें जो कुछ बताता है वह सत्ता के बारे में इतना नहीं जितना स्वयं सत् के बारे में है क्योंकि वह हमारे अंदर स्थित उस ज्योतिबिंदु से चलता है जिससे उसे अपना लाभ प्राप्त होता है, जो कभी-कभी हमारी आत्म-अभिज्ञता में खुला द्वार होता है । प्राचीन वेदांत ने अंतर्भास के इस संदेश को ग्रहण किया और उपनिषदों के इन तीन महावाक्यों में व्यक्त किया । 'सोऽहम्', मैं वह हूं; 'तत्वमसि श्वेतकेतो, हे श्वेतकेतु तू वही है; ' सर्वं खल्विदं ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म, यह सब कुछ ब्रह्म है, यह आत्मा ब्रह्म है ।

 

    किंतु अंतर्भास मनुष्य में पर्दे के पीछे से काम करता है, उसके अधिक अप्रबुद्ध, और कम व्यक्त अंगों में अधिक सक्रिय रहता है और पर्दे के अग्रभाग में स्थित, सीमित प्रकाशवाली जो हमारी जाग्रत् चेतना है उसमें केवल ऐसे यंत्र उसकी सेवा करते हैं जो उसके संदेशों को पूरी तरह आत्मसात् करने में असमर्थ हैं, तो मनुष्य में अपनी क्रिया के इस स्वरूप के कारण ही अंतर्भास हमें उस सुव्यवस्थित और सुव्यक्त रूप में सत्य नहीं दे सकता जिसके लिये हमारी प्रकृति मांग करती है । वह हमारे अंदर प्रत्यक्ष ज्ञान की कोई पूर्णता प्रतिष्ठित कर सके

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उससे पहले उसे अपने-आपको हमारी सतही सत्ता में संगठित करना और वहां प्रधान भाग पर अधिकार करना होगा । लेकिन हमारी सतही सत्ता पर अंतर्भास नहीं, बुद्धि संगठित है और हमारे प्रत्यक्ष बोधों, विचारों और कर्मों को सुव्यवस्थित करने में सहायता देती है । इसीलिये अंतर्भासात्मक ज्ञान के युग को, जिसका प्रतिनिधित्व उपनिषदों की प्राचीन वेदांत-विचारणा करती है, बौद्धिक ज्ञान के युग को अपना स्थान देना पड़ा, अंतःप्रेरित शास्त्रों ने अपना स्थान तत्त्वमीमांसा को दिया, वैसे ही जैसे आगे चलकर तत्त्वमीमांसा को अपना स्थान परीक्षणात्मक विज्ञान को देना पड़ा । अंतर्भासात्मक विचार अतिचेतन का संदेशवाहक और इस कारण हमारी उच्चतम क्षमता है, उसका स्थान शुद्ध बुद्धि ने ले लिया जो केवल एक तरह का प्रतिनिधि है और हमारी सत्ता की निचली ऊंचाइयों की चीज हैं । फिर शुद्ध बुद्धि का स्थान, अपनी बारी पर, कुछ समय के लिये बुद्धि की मिश्रित क्रिया ने ले लिया जो हमारे मैदानों और निचली ऊंचाइयों में निवास करती है और उसकी दृष्टि उस अनुभव के क्षितिज से परे नहीं जाती जो हमें भौतिक मन और इन्द्रियों तथा उनके लिये आविष्कृत सहायक उपकरणों से प्राप्त हो सकता है । और यह प्रक्रिया जो एक अवतरण मालूम होती है सचमुच प्रगति का एक चक्र है । क्योंकि हर दशा में निचली क्षमता इस बात के लिये बाधित होती है कि उपरली क्षमता को जो कुछ दे चुकी है उसके जितने अंश को वह आत्मसात् कर सकती है करे और फिर अपने ही तरीके से उसे फिर से प्रतिष्ठित करने का प्रयास करे । इस प्रयास से स्वयं उसका क्षेत्र विस्तृत होता है और अंततः वह उच्चतर क्षमताओं के प्रति अधिक नमनीय और अधिक विस्तृत आत्मानुकूलनतक आ पहुंचती है । इस अनुक्रम और अलग-अलग आत्मसात् करने के प्रयास के बिना हम अपनी प्रकृति के एक भाग के ऐकांतिक अधिकार में रहने को बाधित होते और बाकी भाग या तो अनुचित रूप से दबा हुआ और पराधीन रहता या अपने क्षेत्र में अलग-थलग और इस कारण अपने विकास में दरिद्र बना रहता । इस अनुक्रम और अलग-अलग प्रयास से संतुलन ठीक हो जाता है और हमारे ज्ञान के अंगों का एक अधिक संपूर्ण सामंजस्य तैयार हो जाता है ।

 

    हम यह अनुक्रम उपनिषदों और बाद के भारतीय दर्शनों में देखते हैं । वेद और वेदांत के ऋषि पूरी तरह अंतर्भास और आध्यात्मिक अनुभूति पर निर्भर थे । मूल से बड़े-बड़े विद्वान् उपनिषदों में वाद-विवाद या शास्त्रार्थो की बात करते हैं । जहां कहीं विवाद का आभास है वहां वह शास्त्रार्थ के द्वारा, तर्कशास्त्र या युक्ति के प्रयोग द्वारा नहीं बल्कि अंतर्भास और अनुभूतियों की तुलना द्वारा आगे बढ़ता है, जिसमें कम ज्योतिर्मय अधिक ज्योतिर्मय को, अधिक संकीर्ण, अधिक दोषपूर्ण या कम तात्त्विक, अधिक व्यापक, अधिक पूर्ण और अधिक तात्त्विक को स्थान देता है । एक ऋषि दूसरे से पूछता है, 'तुम क्या जानते हो ?' यह नहीं कि 'तुम्हारा क्या

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विचार है', यह भी नहीं कि 'तुम्हारा तर्क किस निष्कर्ष पर पहुंचा है ?' हम उपनिषदों में कहीं भी वेदांत के सत्यों के समर्थन में तर्कयुक्त विवेचन नहीं पाते । ऐसा लगता है कि ऋषि यह मानते थे कि अंतर्भास का संशोधन तर्कयुक्त विवेचन से नहीं अधिक पूर्ण अतर्भास सें करना चाहिये ।

 

    परंतु फिर भी मानव तर्क-बुद्धि अपने ही तौर-तरीकों से संतुष्टि की मांग करती है । अत: जब युक्तिसंगत चिंतन का युग आया तो भूतकाल की परंपरा का मान करनेवाले भारतीय दार्शनिकों ने, वे जिस सत्य की खोज में थे उसके प्रति दोहरा मानक अपनाया । उन्होनई श्रुति को, जो पहले के अंतर्भास का परिणाम थी, या जैसा वे कहना पसंद करते थे, जो अंत:प्रेरित आगम या आप्त वचन थी, बुद्धि से श्रेष्ठतर माना । लेकिन साथ ही वे 'बुद्धि' से आरंभ करके उसके दिये गये परिणामों की परख करते थे और उन्हीं निष्कर्षों को स्वीकारते थे जो श्रेष्ठतर आप्तवाणी से अनुमोदित हों । इस भांति कुछ हदतक तत्त्वमीमांसा को घेरनेवाले इस दोष से बच जाते थे, उसकी बादलों में संघर्ष करने की वृत्ति से बच जाते थे । यह दोष इसलिये है क्योंकि तत्त्वमीमांसा शब्दों से ऐसे व्यवहार करती है मानों वे अनिवार्य तथ्य हों, न कि ऐसे प्रतीक जिन्हें हमेशा सावधानी के साथ जांचना और हमेशा उस आशय की ओर वापिस लाना पड़ता है जिसके वे प्रतिनिधि हैं । उनका चिंतन पहले-पहल अपने केंद्र को उच्चतम और गभीरतम अनुभूति के नजदीक रखने की कोशिश करता था और इन दो महान् प्रमाणों, 'बुद्धि' और 'अंतर्भास' की सम्मिलित सहमति से आगे बढ़ता था । फिर भी अपनी श्रेष्ठता प्रतिष्ठित करने की बुद्धि की स्वाभाविक वृत्ति ने उसे गौण मानकर चलने का जो सिद्धांत था उसपर यथार्थतः विजय पा ली । परिणामस्वरूप इतने सारे परस्पर-विरोधी मत-मतांतरों का उदय हुआ जिनमें से हर एक अपने-आपको सिद्धांततः वेद पर आधारित करता था और अन्यों का खंडन करने के लिये वेद के वचनों का अस्त्र के रूप में उपयोग करता था, क्योंकि उच्चतम अंतर्भासात्मक ज्ञान चीजों को उनकी समग्रता और विशालता में देखता है और ब्यौरों को केवल अविभाज्य समग्र के पार्श्वरूप में मानता हैं । उसकी प्रवृत्ति ज्ञान के तत्काल समन्वय और ऐक्य की ओर रहती है । इसके विपरीत बुद्धि विश्लेषण और विभाजन से चलती है और एक समग्र बनाने के लिये अपने तथ्यों को एकत्र करती है । लेकिन इस तरह से जो समवाय बनता है उसमें विरोध, विपरीतता और तार्किक दृष्टि से असंगतियां रह जाती हैं और बुद्धि की साधारण प्रवृत्ति होती है इनमें से कुछ को स्वीकार करने की और जो उसके चुने हुए निष्कर्षों के विपरीत हो उसे अस्वीकार करने की ताकि वह एक निर्दोष युक्तियुक्त प्रणाली बन सके । इस भांति पहले के अंतर्भासात्मक ज्ञान का ऐक्य टूट गया और तार्किकों की प्रवीणता हमेशा ऐसे उपाय, भाष्य-पद्धतियां और विभिन्न मृल्यों के मानक खोजने में सफल हुई जिनके द्वारा शास्त्रों के असुविधाजनक स्थलों

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को व्यावहारिक रूप से रद्द कर दिया जाये और उन्हें अपनी दार्शनिक परिकल्पना के लिये पूरी छूट मिल जाये ।

 

    फिर भी विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों में प्राचीन वेदांत की मुख्य अवधारणाएं आंशिक रूप में बनी रहीं और उन्हें फिर से जोड़कर अंतर्भासात्मक विचार की पुरानी उदारता और एकता का प्रतिरूप बनाने की समय-समय पर कोशिश की गयी और सभी के विचार के पीछे, विभिन्न रूपों में प्रतिपादित मूलभूत अवधारणा के रूप में 'पुरुष', 'आत्मा' या 'सद्ब्रह्म', उपनिषदों का शुद्ध 'सत् विद्यमान रहा है । बहुधा बुद्धि के सांचे में ढालकर उसे किसी भाव या मानसिक अवस्था का रूप दिया गया, फिर भी उस अनिर्वचनीय सद्वस्तु की पुरानी भावना की कोई चीज उसमें विद्यमान रही । संभूति की जिस गति को हम जगत् कहते हैं उसका निरपेक्ष इकाई के साथ क्या संबंध हो सकता है और अहं, चाहे वह गति से पैदा हुआ हो या उसका कारण हो, वेदांत द्वारा प्रतिपादित 'सद्-आत्मा', 'परमात्मा', 'परम सद्वस्तु' को फिर से कैसे प्राप्त कर सकता है, यही वे सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रश्न हैं जिन्होंने हमेशा भारतीय विचार को व्यस्त रखा है ।

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