दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ७

 

विद्या और अविद्या

 

चित्तिचित्तीं चिनवद् वि विद्वान्...।।

विद्वान् ज्ञान और अज्ञान मे भेद करे ।

                                  ऋग्वेद ४.२.११

 

द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।

क्षरं त्यविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ।।

 

अनंत की गुप्तता में ज्ञान और अज्ञान दोनों छिपे हुए हैं, नश्वर है

अज्ञान और अमर है ज्ञान । इन दोनों से भिन्न है 'वह' जो दोनों पर

शासन करता है, ज्ञान पर भी और अज्ञान पर भी ।

                                                                            श्वेरोपनिषद् ५.१

 

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानीशावजा ह्येका भोक्तृमोग्यार्थयुक्ता ।।

 

दो अजन्मे जिनमें एक है ज्ञानी, दूसरा जो नहीं जानता, एक है ईश

दूरा है अनीश; एक अजन्मा जिसमें दोनों है भोग्य वस्तु और

भोक्ता ।

                                                                 श्वेताश्वतरोपनिषद् १ .९

 

ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशु जज्ञतुर्वर्धयन्ती ।

 

ये दोनों एक साथ जुड़ी हैं ऋतायनी शक्तियां (ऋत-सत्य की

शक्तियां) और मायावी शक्तियां, उन्होनई शिशु की रचना की हैं,

उसे जन्म दिया है, वे ही उसकी वृद्धि का पोषण करती हैं ।

                                        ऋग्वेद १०.५.३

 

अस्तित्व के सात तत्त्वों की जांच करते हुए हमने देखा था कि वे अपने सारतत्त्व और आधारभूत वास्तविकता में एक हैं । क्योकि अगर अत्यधिक ज विश्व का जत्त्व भी आत्मा की सत्ता की एक स्थिति के सिवा कुछ नहीं है जिसे इन्द्रियों का विषय बनाया गया है, जिसे आत्मा की अपनी चेतना ने रूपों के द्रव्य के रूप में देखा है, तब तो प्राण-शक्ति जो अपने-आपको ज-तत्त्व के रूप में रूपायित करती है, और मानसिक चेतना जो अपने-आपको प्राण के रूप मे प्रक्षिप्त करती है और फिर अतिमानस जो मन को अपनी शक्तियों में से एक शक्ति के रूप में विकसित करता है, ये सब और भी अधिक, सिवाय आत्मा के अधिक कुछ नहीं हो सकते जो सच्चे सारतत्त्व मे अपरिवर्तित है, प्रतीयमान वस्तु और कर्म की

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विद्या और अविद्या

 

गतिशीलता में परिवर्तित हुई है । सभी सत् की एक्येव शक्ति की शक्तियां हैं और उस सर्व-सत् सर्व-चित् सर्व-इच्छा, सर्व-आनंद से भिन्न क्य नहीं हैं जो हर आभास के पीछे का सच्चा सत्य है । और वे अपनी वास्तविकता में एक ही नहीं बल्कि अपनी सप्त-विधा क्रियाओं मे अविभाज्य भी हैं । वे दिव्य चेतना के प्रकाश के सात रंग हैं, अनंत की सात रश्मिया हैं । आत्मा ने अपनी आत्मसत्ता के चित्रपट को धारणात्मक रीति से फैलाकर देश के वस्तुनिष्ठ ताने और काल के आत्मनिष्ठ बाने से बुनकर इन्हीं सातों के द्वारा अपनी उस आत्मसृष्टि को अनगिनत श्चर्यों से भरा है जो अपने आद्य नियमों और बृहत् ढांचों में महान् सरल और सममित हैं, अपने रूपों और अपनी क्रियाओं के वैचित्र्य में और संबंधों कई जटिलताओ मे सबपर हर एक के और हर एक पर सब के पारस्परिक प्रभावों की जटिलताओं में अनंत रूप से विलक्षण और दुर्बोध है । ये प्राचीन मनीषियों के सात शब्द 'सप्त-वाक्' हैं । हम जिस जगत् को जानते हैं और पीछे स्थित लोकों के, जिनका हमें परोक्ष ज्ञान है, विकसित और विकसनशील सामंजस्यों की सृष्टि इन्हीं सातों से हुई है । इनके अर्थ के प्रकाश में ही इन्हें कार्यान्वित किया जा सकता और समझाया जा सकता है । ज्योति एक ही है, ध्वनि एक ही है लेकिन उनकी क्रियाएं सप्तविध हैं ।

 

   लेकिन यहां एक ऐसा जगत् है जो आद्य निश्चेतना पर आधारित है । यहां चेतना ने अपने-आपको ऐसे अज्ञान का रूप दे दिया है जो ज्ञान की दिशा मे प्रयास कर रहा है । हमने देखा है कि स्वयं सत्ता के स्वभाव मे या उसके सप्त तत्त्वों के आद्यस्वरूप आधारभूत संबंधों में ऐसा कोई तात्त्विक कारण नहीं है जिससे अज्ञान की यह घुस-पैठ असंगति की सामंजस्य में, अंधकार की प्रकाश मे और विभाजन तथा परिसीमन की भागवत सृष्टि की आत्मचेतन अनंतता में घुस-पैठ हो । क्योकि हम कल्पना कर सकते हैं और चूंकि हम कर सकते हैं इसलिये भगवान् और भी अधिक कल्पना कर सकते हैं--और चूंकि कल्पना है इसलिये कहीं पर कार्यान्वयन भी होना चाहिये, सृजन चाहे वास्तविक हो या अभिप्रेत--एक वैश्व सामंजस्य की जिसमें ये विपरीत तत्त्व प्रवेश नहीं पा सकते । वैदिक ऋषि ऐसी दिव्य अभिव्यक्ति के बारे मे सचेतन थे और उसे इस छोटे जगत् के परे ज्यादा बड़े जगत्, चेतना और सत्ता के अधिक मुक्त और अधिक विस्तृत लोक, स्रष्टा की सत्य-सृष्टि के रूप मे देखते थे जिसका वर्णन वे ''सदनम् ऋतस्य"  ''स्वे दमे ऋतस्यं"  ''ऋतस्य बृहते" ''ऋतं, सत्य बृहत्" कहकर करते थे यानी वह सत्य का सदन या स्वधाम. है, बृहत् सत्य है या सत्य, ऋत् वृहत् है । और फिर यह वर्णन भी है कि वह सत्य से छिपा सत्य है जहां ज्ञान का सूर्य अपनी यात्रा पूरी करता है और अपने घोड़ों के -जूए उतार देता है, जहां चेतना की हजार रश्मिया इकट्ठी होकर खड़ी रहती हैं जिससे वहां दिव्य पुरुष का परम रूप 'तत् एकम्ं है । लेकिन यह जगत्, जिसमें हम निवास करते हैं, उन्हें मिला-जुला ताना-बाना-सा दिखायी दिया जिसमें सत्य प्रचुर

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मिथ्यात्व द्वारा विकृत है ''अनृतस्य भूरे:'' । यहां उस एक ज्योति को अपनी ही बृहत् शक्ति के प्रयास से प्राथमिक अंधकार या निश्चेतना के समुद्र 'अप्रकेत सलिलम्' मे से जन्म लेना होता है, एक ऐसे जीवन मे से जो मृत्यु अज्ञान, दुर्बलता, कष्ट और परिसीमन के जूए के नीचे है, अमरता और देवत्व का निर्माण करना होता है । इस आत्म-निर्माण को उन्हो इस रूप मे कहा मानों वह मनुष्य द्वारा उसके अपने अंदर उस दूसरे लोक का या अनंत सत्ता के उच्च कोटि के सामंजस्य का सृजन है जो पहले ही पूर्ण और शाश्वत रूप मे भागवत अनंत के अंदर विद्यमान है । हमारे लिये निम्नतर उच्चतर की पहली अवस्था है, अंधकार प्रकाश का घन शरीर है, निश्चेतना अपने अंदर समस्त प्रच्छन्न अतिचेतना की रक्षा करती है । विभाजन और मिथ्यात्व की शक्तियां एकत्व और सत्य की समृद्धि और सारतत्त्व को अपनी अवचेतना की गुहा मे छिपाकर रखती हैं, वे उन्हें हमारे लिये छिपाती हैं ताकि हम उन्हें उनसे जीत लें । उनकी दृष्टि मे यह प्राचीन गुह्यवेत्ताओं की बहुत ही रूपक-रहस्यमयी वाणी मे व्यक्त, मनुष्य के यथार्थ जीवन तथा जाने-अजाने भगवान् की ओर किये जानेवाले उसके प्रयास का तात्पर्य और औचित्य था । उसकी उस धारणा का जो उसके ठीक विपरीत मालूम होनेवाले जगत् मे पहली नजर मे, इतनी अधिक विरोधाभासी लगती है, उसकी उस अभीप्सा का तात्पर्य और औचित्य था जो अमरता, ज्ञान, शक्ति और आनंद की पूर्णता के लिये एवं दिव्य और अविनाशी जीवन के लिये है और इतने क्षणक, दुर्बल, अज्ञानी, सीमित जीव मे होने के कारण ऊपरी दृष्टि से असंभव है

 

    क्योकि वस्तुत: जहां आदर्श सृष्टि का आधार-शब्द है पूर्ण आत्म-चेतना, अनंत आत्मा में पूर्ण आत्मवत्ता और पूर्ण एकत्व, वहां उस सृष्टि का आधार-शब्द उससे बिल्कुल उल्टा है जिसका हमें वर्तमान अनुभव है । वह है ऐसी मूल निश्चेतना जो प्राण में एक सीमित और विभक्त आत्म-चेतना में विकसित होती है । एक अंधी स्वयंभू शक्ति के संचालन के प्रति मौलिक जवत् अधीनता जो प्राण में आत्म-सचेतन जीव के अपने-आपको और सभी चीजों को अधिकार में करने और इस अंधी यांत्रिक शक्ति के राज्य मे एक प्रबुद्ध इच्छा और ज्ञान का शासन प्रतिष्ठित करने के लिये संघर्ष मे विकसित होती है । और चूंकि अंधी यांत्रिक शक्ति--अब हम जानते हैं कि वस्तुत: वह ऐसी कोई चीज नहीं है--हमारे सामने हर जगह, मूल, सर्वव्यापक, मौलिक विधान, महान् समग्र ऊर्जा के रूप में आती है और चूंकि हम जिस एकमात्र प्रबुद्ध इच्छा को जानते हैं, वह हमारी अपनी इच्छा, एक परवर्ती व्यापार, एक परिणाम, एक आशिक, अधीनस्थ, परिसीमित, अनियमित ऊर्जा की तरह प्रकट होती है अतः यह संघर्ष हमें अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में भी बहुत संकटपूर्ण और संदिग्ध जोखिम प्रतीत होता है । हमारी दृष्टि मे निश्चेतना ही अथ

 

   १ ऋग्वेद ७.६०.५

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और इति है, आत्म-चेतन अंतरात्मा मुश्किल से एक आकस्मिक संयोग, विश्व के इस विशाल, अंधकारमय और विकराल अश्वत्थ-वृक्ष पर एक सुकुमार फूल प्रतीत होता है । अथवा अगर हम जीव को शाश्वत मानें तो कम-से-कम यह तो लगता ही है कि वह एक विदेशी, विजातीय है और इस विशाल निश्चेतना के राज्य मे ऐसा मेहमान है जिसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता । अगर वह निश्चेतना अंधकार मे एक दुर्घटना नहीं है तो शायद एक मूल या अतिचेतन प्रकाश का नीचे की ओर ढ़ुलकना है ।

 

   अगर चीजों के बारे में यह दृष्टि पूरी तरह प्रामाणिक होती तो केवल पूर्णतया आदर्शवादी ही-जिसे शायद किसी उच्चतर जीवन से भेजा गया हो, जो अपने उद्देश्य को भूलने मे असमर्थ हो, जो अदम्य उत्साह मे किसी दिव्य उन्माद द्वारा गुंथा हुआ या अदृष्ट देव की ज्योति, शक्ति और वाणी द्वारा शांत तथा अनंत धीरता मे स्थिर हो--ऐसी परिस्थितियों मे अपने आगे, और उससे भी कहीं अधिक बढ़कर अविश्वासी और संदेही जगत् के आगे मानव उद्यम की पूर्ण सफलता की आशा रख सकता है । वास्तव मे, अधिकतर मनुष्य या तो इसे शुरू से अस्वीकार कर देते हैं या कुछ प्रारंभिक उत्साह के बाद उसे प्रमाणित असंभता मानकर उससे अंतत: मुंह मो लेते हैं । सतत जड़वादी एक आशिक या अल्पजीवी शक्ति, ज्ञान, सुख की खोज करता है, बस उतने ही की जितने की अनुमति प्रकृति की प्रमुख निश्चेतना व्यवस्था मनुष्य की संघर्षरत आत्म-चेतना को देती है, और वह भी तब जब वह सीमाओं को स्वीकार करे, उसके नियमों का पालन करे और अपनी प्रबुद्ध इच्छा द्वारा उनका अच्छे-से-अच्छा उतना उपयोग करे जितना उनकी कठोर यांत्रिकता सह सकें । धार्मिक आदमी प्रबुद्ध इच्छा, प्रेम या दिव्य त्ता के राज्य की खोज करता हैं । वह परलोक मे भगवान् का राज्य खोजता है जहां ये चीजें अमिश्रित और शाश्वत हैं । दार्शनिक तत्त्वज्ञानी इन सबको मन का भ्रम कहकर अस्वीकार कर देता है और किसी निर्वाण मे आत्म-लोपन के लिये या निर्गुण निराकार निरपेक्ष मे मिल जाने के लिये अभीप्सा करता है । अगर भ्रम से प्रेरित व्यक्ति की अंतरात्मा या मन ने इस अज्ञान के क्षणभंगुर जगत् मे दिव्य उपलब्धि का स्वप्न देखा हैं तो उसे अंत मे अपनी भूल स्वीकारनी पड़ती है और अपने व्यर्थ उद्यम को त्यागना पड़ता है । फिर भी, चूंकि जीवन के ये दो पहलू हैं, प्रकृति का अज्ञान और आत्मा का प्रकाश और चूंकि उन दोनों के पीछे एकमेव सद्वस्तु है इसलिये समाधान पाना या कम-से-कम खाई का पटना तो संभव होना ही चाहिये जिसकी वेद के रहस्यमय रूपकों ने भविष्यवाणी की थी । इस संभावना की तीक्ष्णा भावना ही भिन्न-भिन्न रूप लेकर शताब्दियों से चली आ रही है--मनुष्य के पूर्ण होने की संभावना, समाज के पूर्ण होने की संभावना, विष्णु तथा अन्य देवों के पृथ्यी पर अवतरण के बारे मेळवारों का अंतर्दर्शन, साधूनां राज्यम्, भगवान् का नगर, सत्ययुग, भविष्यवाणी का नया स्वर्ग और नयी धरती । परंतु इन अंतर्भासों मे

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निश्चित ज्ञान का आधार नहीं था और मनुष्य का मन उज्जल भावी आशा और धूसर वर्तमान निश्चिति के बीच डोलता रहा है । परंतु धूसर निश्चिति उतनी निश्चित नहीं है जितनी वह दीखती है और यह जरूरी नहीं है कि पार्थिव प्रकृति में विकसित होता होता या तैयारी करता हुआ दिव्य जीवन एक असंगत ख-पुष्प हो । अपनी हार या अपने परिसीमन की सभी स्वीकृतियों का आरंभ पहले इस अव्यक्त या स्पष्ट मान्यता से होता है कि एक तात्त्विक द्वैत है और इन दोनों तत्त्वों के बीच ऐसा विरोध है जिसका समाधान नहीं हो सकता-सचेतन और अचेतन के बीच, स्वर्ग और धरती के बीच, भगवान् और जगत् के बीच असीम एक और सीमित बहु के बीच, ज्ञान और अज्ञान के बीच । अपनी तर्क-शृंखला द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह ऐन्द्रिय मन तथा आंशिक अनुभव पर आधारित तार्किक बुद्धि की भूल से बढ़कर कुछ नहीं है । हमने देखा है कि हमारी विजय के लिये पूर्णतया बुद्धि-संगत आधार और आशा हो सकती है और है । क्योंकि हम सत्ता के जिस निम्नतर पद में अब रहते हैं, उसके अपने अंदर उसका अतिक्रमण करनेवाला तत्त्व और अभिप्राय रहता है । उसमें अपना अतिक्रमण और रूपांतर करके ही वह अपने वास्तविक सारतत्त्व को, पूर्ण रूप को पा और उसमें विकसित हो सकती है ।

 

    लेकिन हमारे तर्क में एक बात ऐसी है जिसे हमने अभीतक कुछ-कुछ अस्पष्ट छोड़ दिया है और वह है ठीक इसी विषय में, ज्ञान और अज्ञान के सह-अस्तित्व के बारे में । निःसंदेह यहां हम ऐसी अवस्थाओं से शुरू करते हैं जो आदर्श दिव्य सत्य के विपरीत हैं और उस विरोध की सारी परिस्थतियां सत्ता के अपने बारे में और सबकी आत्मा के बारे में अज्ञान पर आधारित हैं : यह अज्ञान आद्य वैश्व अज्ञान का परिणाम है जिसका निष्कर्ष है आत्म-परिसीमन और जीवन का सत्ता में विभाजन पर आधारित होना, चेतना में विभाजन, इच्छा और शक्ति में विभाजन, प्रकाश में विभाजन, ज्ञान, शक्ति और प्रेम का विभाजन और परिसीमन और परिणाम-स्वरूप निश्चित रूप से विपरीत व्यापार, अहंकार, अंधकार, असामर्थ्य, ज्ञान और इच्छा का दुरुपयोग, असामंजस्य, दुर्बलता, दुःख-कष्ट आते हैं । हमने देखा है कि यद्यपि जड़ और प्राण भी इस अज्ञान के हिस्सेदार हैं लेकिन उसकी जड़ें मन की प्रकृति में हैं जिसका काम ही है मापना, सीमित करना, ऐक-ऐक करके उल्लेख करना और इस तरह विभाजन करना । लेकिन मन भी एक वैश्व तत्त्व है, एक है, ब्रह्म है अतः उसमें एकीकरण और सर्वसामान्य बनानेवाले ज्ञान की ओर प्रवृत्ति भी है साथ-ही-साथ विभेद और वैशिष्टय करनेवाले ज्ञान की ओर भी । मन की वैशिष्टय करनेवाली शक्ति केवल तब अज्ञान बनती है जब वह अपने-आपको उन उच्चतर तत्त्वों से अलग कर लेता हैं जिनकी वह शक्ति है, और जब वह अपनी विशेष प्रवृत्ति से ही नहीं बल्कि बाकी सारे ज्ञान का बहिष्कार करने की प्रवृत्ति से काम करता है, पहले, मुख्य रूप से, सदा विशिष्ट करना और एकत्व को एक ऐसी अस्पष्ट धारणा के

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रूप मे छोड़ देना चाहता है जिसकी ओर बाद में विशेषीकरण पूरा हो जाने पर विशेषों के कुल योग के द्वारा ही जाना है । यह अनन्यता ही अज्ञान की आत्मा है ।

 

    तो हमें चेतना की इस विचित्र शक्ति को पकड़ना होगा जो हमारे सब रोगों की जड़ है । उसकी कार्य-पद्धति के सिद्धांत को जांचना होगा और उसके सारगत स्वभाव और मूल का ही नहीं बल्कि उसकी शक्ति और कार्य-पद्धति का और उसके अंतिम छोर और उसे हटाने के उपायों का भी पता लगाना होगा । अज्ञान का अस्तित्व ही कैसे है ? अनंत आत्म-अभिज्ञता में कोई तत्त्व या शक्ति आत्म-ज्ञान को पीछे डालकर, अपनी ही विशेष सीमित क्रिया के सिवा बाकी सब का बहिष्कार कैसे कर पायी ? कुछ मनीषियों ने धोषणा की है कि इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता, यह एक आद्य रहस्य है और आंतरिक रूप से इसकी व्याख्या करना असंभव है, केवल तथ्य और प्रक्रिया बतलाये जा सकते हैं । वे परम आद्य सत् या असत् के स्वरूप के प्रश्न को या तो यह कहकर टाल देते हैं कि इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता, या इसका उत्तर देना जरूरी नहीं हैं । कहा जा सकता है कि माया अपने आधारभूत तत्त्व अज्ञान या भ्रम के साथ बस अस्तित्व रखती है और ब्रह्म की इस शक्ति में ज्ञान और अज्ञान की द्विविध शक्ति इसमें अंतर्निहित रूप से संभाव्य है । हमें बस इतना ही करना है कि इस तथ्य को मान लें और जीवन को त्यागकर वस्तुओं की सार्वभौम अस्थिरता और विश्व-जीवन की व्यर्थता को मानते हुए अज्ञान में से-ज्ञान द्वारा, लेकिन उसमें जो ज्ञान और अज्ञान दोनों से परे है-बच निकलने का साधन ढूंढ निकालें ।

 

    लेकिन सारे मामले की जड़ में ही इस तरह टाल-मटोल करने से हमारा मन संतुष्ट न होगा, स्वयं बौद्ध भी इससे संतुष्ट नहीं हुए । पहली बात तो यह है कि ये दर्शन मूल प्रश्न को एक ओर रखते हुए वस्तुत: ऐसे व्यापक प्रतिपादन करते हैं जो अज्ञान की किसी विशेष क्रिया या लक्षणों को ही नहीं बल्कि अज्ञान के एक आधारभूत स्वभाव को मान लेते हैं और उसी के आधार पर उनके उपचार के नुस्खे तैयार होते हैं । और यह स्पष्ट है कि ऐसे मूलभूत निदान के बिना बनाये गये दवाई के नुस्खे नीमहकीमी के सिवा कुछ न होंगे । लेकिन अगर हम मूल प्रश्न को टाल दें तो हमारे पास यह फैसला करने के लिये कोई साधन नहीं है कि ये प्रस्तुत

 

    बुद्ध ने इस दार्शनिक समस्या पर विचार करने से इंकार कर दिया । उन्होने कहा कि हमारा मिथ्या व्यक्तित्व कैसे बना, किस प्रक्रिया से बना, दुःखमय जगत् का अस्तित्व कैसे बना हुआ है, उससे बच निकलने का क्या उपाय हैं--बस इसी का महत्त्व है । कर्म एक तथ्य है । वस्तुओं का निर्माण, एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण जिसका सचमुच अस्तित्व नहीं है--यही दुःख का कारण है । हमारा एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये कर्म से, व्यक्तित्व से, दुःख-दर्द से पिंड छुड़ाना । इसका निष्कासन करके हम किसी ऐसी अवस्था में पहुंच सकते हैं जो इन सबसे मुक्त हैं, चिरस्थायी और सत्य है । बस, मुक्ति का मार्ग ही महत्त्व रखता हैं ।

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प्रतिपादन ठीक हैं या नहीं या नुस्खे में दिये गये उपचार ठीक हैं या नहीं या ये ऐसे दूसरे उपचार हैं या नहीं जो इतने उग्र, विनाशक रूप से परिवर्तनकारी या अंगभंग करनेवाली शल्य-क्रिया की तरह के या रोगी का अंत करनेवाले न हों, फिर भी अधिक सर्वांगीण और स्वाभाविक रोग-मुक्ति ले आयें । दूसरी बात यह कि विचारशील मनुष्य का सदा यह कार्य रहता है कि वह जाने । हो सकता है कि वह मानसिक साधनों से अज्ञान या विश्व में किसी भी और चीज के सार को, उसकी विशेषता को इस तरह न जान पाये कि वह उसकी व्याख्या कर सके । क्योंकि मन उस अर्थ में ही चीजों के चिन्हों, लक्षण, रूप, गुण, कर्म और दूसरी चीजों के साथ संबंध के द्वारा ही जान सकता है, उनकी गुह्य आत्म-सत्ता और सारतत्त्व में नहीं । लेकिन हम अज्ञान के बाहरी रूप और क्रिया-व्यापार के अपने अवलोकन को तबतक अधिकाधिक आगे-आगे बढ़ा सकते हैं, अधिकाधिक स्पष्ट कर सकते हैं जबतक हमें ठीक प्रकाशित करनेवाला शब्द न मिल जाये, उस चीज का संकेतात्मक बोध न मिल जाये और इस तरह हमें उसका ज्ञान बुद्धि द्वारा नहीं, बल्कि सत्य के दर्शन और अनुभव द्वारा स्वयं अपनी सत्ता में सत्य की उपलब्धि द्वारा न मिल जाये । मनुष्य के उच्चतम बौद्धिक ज्ञान की सारी प्रक्रिया इसी मानसिक परिचालन और विवेक के द्वारा उस हदतक जाती है जहां पर्दा फट जाता है और वह देख सकता है । अंत में आध्यात्मिक ज्ञान आता है ताकि हमें वह बनने में सहायता दे जिसे हम देखते हैं, उस प्रकाश में प्रवेश करने दे जिसमें कोई अज्ञान नहीं है ।

 

    यह सच है कि अज्ञान का प्रथम मूल मानसिक सत्ताएं होने के नाते हमारी पहुंच के परे है क्योंकि हमारी बुद्धि स्वयं अज्ञान में ही रहती और गति करती है । वह उस बिंदुतक नहीं पहुंच पाती या उस स्तरतक नहीं चढ़ सकतीं जहां वह विभाजन हुआ था जिसका परिणाम है व्यक्तिगत मन । लेकिन पहले उद्गम के बारे में यह सच है और यह सभी चीजों का आधारभूत सत्य है और इस सिद्धांत पर हमें सामान्य अज्ञेयवाद से संतुष्ट रहना चाहिये । मनुष्य को अज्ञान में कार्य करना है, उसकी परिस्थितियों में सीखना है, उसे उसके अंतिम छोरतक जानना है ताकि वह उसकी सीमाओंतक पहुंच सके जहां वह सत्य से मिलता है, उसके प्रकाशमय धुंधलेपन के अंतिम ढक्कन का स्पर्श कर सके और ऐसी क्षमताएं विकसित कर सके जो उसे उस शक्तिशाली परंतु सचमुच निःसत्व अवरोध को लांघने के योग्य बनायें ।

 

    हमने अज्ञान के इस तत्त्व या इस शक्ति की प्रकृति और क्रिया की अभीतक जितनी जांच की हैं उससे ज्यादा गहराई से करनी होगी और उसकी प्रकृति और उसके उद्गम की अधिक स्पष्ट धारणा प्राप्त करनी होगी । और पहले हमें अपने मन में दृढ़ता से यह बिठाना होगा कि इस शब्द से हमारा ठीक मतलब क्या है । ज्ञान और अज्ञान का भेद ऋग्वेद के मंत्रों से ही शुरू होता है । यहां ऐसा लगता है

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कि ज्ञान का अर्थ है सत्य की, ऋत की चेतना, सत्यम् ऋतम्, और वह सब जो सत्य और ऋत की कोटि का है । अज्ञान है सत्य और ऋत के बारे में अचेतना, अचित्ति, सत्य और ऋत की क्रियाओं का विरोध और मिथ्या या प्रतिकूल क्रियाओं की सृष्टि । अज्ञान है प्रत्यक्ष दर्शन की उस दिव्य आंख का अभाव जो हमें अतिमानसिक सत्य की दृष्टि देती है । वह हमारी चेतना में सत्य-द्रष्टा, सचेतन दृष्टि और ज्ञान के विरोध में न खनेवाला तत्त्व है, चित्ति के विरोध में अचित्ति है । अपनी वास्तविक क्रिया में यह न देखनेवाला पूर्ण निश्चेतना, निश्चेतन सागर नहीं है जिसमें से यह जगत् निकला है बल्कि या तो सीमित या फिर मिथ्या ज्ञान है, ऐसा ज्ञान जो अविभक्त सत्ता के विभाजन पर आधारित है, जिसका आधार खंडित और जरा-सा है, जो उसके ठीक विपरीत हैं जो वस्तुओं की प्रचुर, वृहत् और प्रकाशमय पूर्णता है । यह एक ऐसा ज्ञान है जो अपने परिसीमन के अवसर के कारण मिथ्यात्व में बदल गया है और उस रूप में इसका समर्थन करते हैं अंधकार और विभाजन के पुत्र, मनुष्य के अंदर दिव्य प्रयास के शत्रु, आक्रमण करनेवाले डाकू, ज्ञानालोक को ढकनेवाले (वृत्रपुत्र, दस्यु) । यह माना जाता था कि यह एक अदैवी माया है जो मिथ्या मानसिक रूप और आभासों की सृष्टि करती है--और इसी कारण बाद के युग में इस शब्द का यही अर्थ हो गया । लेकिन ऐसा लगता है कि पहले इसका अर्थ था ज्ञान की रचना करनेवाली शक्ति, परम जादूगर, दिव्य ऐन्द्रजालिक का सच्चा जादू । लेकिन इसका उपयोग निम्नतर ज्ञान की विरोधी रचना करनेवाली शक्ति, छल, भ्रम और राक्षस का धोखा देनेवाले जादू के अर्थ में भी हुआ । दैवी माया वस्तुओं के सत्य का ज्ञान, उसके सारतत्त्व, विधान, क्रिया का ज्ञान है जो देवों के अधिकार में होती है और उसपर वे अपनी शाश्वत क्रिया और सृजन की और मनुष्यों में अपनी शक्तियों की रचना की नींव रखते हैं । वैदिक रहस्यवादियों का यह विचार एक अधिक तत्त्व-मीमांसात्मक विचार और भाषा में इस धारणा द्वारा व्यक्त किया जा सकता है कि अपने मूल में अज्ञान एक विभाजनकारी मानसिक ज्ञान है जो वस्तुओं के एकत्व को, सारतत्त्व, आत्म-विधान को उनके मूल रूप या सार्वभौमिकता में नहीं पकड़ा पाता बल्कि विभक्त विशिष्टताओं, पृथक् आभासों, आंशिक संबंधों पर क्रिया करता है मानों ये ही वे सत्य हैं जिन्हें हमें ग्रहण करना है, या वे उनके विभाजन के पीछे वापस एकत्वतक गये बिना, छितराव के पीछे सार्वभौमिकतातक गये बिना जरा भी सचमुच समझ में आ सकते हों । ज्ञान वह है जो एकीकरण की ओर प्रवृत्त होता है और अतिमानसिक क्षमता को पाकर अस्तित्व के एकत्व, सार और स्वधर्म को ग्रहण करता है और वस्तुओं के बहुत्व को उसी प्रकाश और पूर्णता में से देखता और उसके साथ व्यवहार करता है, कुछ-कुछ

 

  अचित्ति और चित्ति अप्रकेतमू सलिलम् देवानाम् अदब्धा व्रतानि ।

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उसी तरह जैसे स्वयं भगवान् अपनी उच्चतम ऊंचाइयों से करते हैं जहां से वे जगत् को आलिंगन में लेते हैं । फिर भी यह देखना है कि इस धारणा में अज्ञान एक प्रकार का ज्ञान ही है लेकिन, चूंकि वह सीमित है अत: वह किसी भी स्थान पर मिथ्यात्व और भ्रांति की घुस-पैठ के लिये खुला रहता है, वह चीजों की गलत धारणा में मुड़ जाता है जो सच्चे ज्ञान के विपरीत खड़ी होती है ।

 

    उपनिषदों के वेदांती विचारों में हम वेद की मूल परिभाषा चित्ति और अचित्ति की जगह विद्या और अविद्या के सुपरिचित विरोध को स्थान लेते हुए पाते हैं और परिभाषाओं के परिवर्तन के साथ ही अर्थ में भी एक विशेष परिवर्तन आ गया है । कारण, चूंकि ज्ञान का स्वभाव है सत्य को खोजना और आधारभूत सत्य है एकमेव जिसके बारे में वेद बार-बार कहता है वह सत्य और वह एक--तत्सत्यम् और तदेकम् । इसलिये विद्या (ज्ञान) का अर्थ, उसके उच्चतम आध्यात्मिक भाव में विशुद्ध और तीक्ष्ण रूप से उस एक का ज्ञान माना जाने लगा और अविद्या (अज्ञान) का अर्थ शुद्ध और तीक्ष्ण रूप से किया जाने लगा विभक्त बहु का ज्ञान--एकत्व लानेवाली 'अद्वयद्वस्तु' की चेतना से अलग-थलग जैसा कि वह हमारे जगत् में उससे अलग-थलग है । वैदिक शब्दों की धारणा में जो विविध और उपलक्षित भावों और सारगर्भित रूपकों के बहुमुखी संयोग थे, उनकी समृद्ध अंतर्वस्तुएं ज्योतिर्मय उपच्छायाएं थीं, उनका एक बड़ा भाग अधिक सुनिश्चित और दार्शनिक किंतु कम मनोवैज्ञानिक और कम लचीली भाषा में खो गया । फिर भी आत्मा और आध्यात्मिक सत्ता के सच्चे सत्य से पूरे-पूरे अलगाव का, एक आद्य भ्रम का, स्वप्न और विभ्रम के साथ बसबरी करनेवाली चेतना का भाव-जो बाद में अतिशयोक्तिपूर्ण विचार बन गया--पहले-पहल वेदांत की अज्ञानसंबंधी कल्पना में नहीं आया । अगर उपनिषदों में यह कहा गया है कि जो अविद्या के अंदर निवास और विचरण करता है वह ऐसे अंधे की तरह ठोकरें खाता हुआ घूमता-फिरता है जिसे दूसरा अंधा रास्ता दिखा रहा हैं और वह लौट कर हमेशा मृत्यु के जाल में आ जाता है जो उसके लिये फैला रहता है तो उपनिषदों में कहीं और यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जो विद्या का ही अनुसरण करता है वह अविद्या का अनुसरण करनेवाले की अपेक्षा मानों अधिक घने अज्ञान में प्रवेश करता हे और जो ब्रह्म को विद्या और अविद्या, एक और बह संभूति और असंभूति दोनों रूपों में जानता है वह अविद्या द्वारा, बहुत्व के अनुभव द्वारा मृत्यु को पार कर जाता है और विद्या के द्वारा अमृतत्व को पाता है क्योकि वह स्वयंभू ही ये बहुत-सी सत्ताएं बन गया है । उपनिषद् भागवत पुरुष से पूर्ण गंभीरता के साथ, बहकाने  के किसी भाव के बिना, कह सकता है, ''तुम ही अपनी लाठी लेकर चलनेवाले यह बूढ़े हों, तुम ही वह लड़का और वह लड़की हो, यह नीले पंखोंवाला और यह लाल आंखोंवाला पक्षी हो,''  अपने-आपको धोखा देनेवाले अज्ञान के मन की तरह

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यह नहीं कि ''तुम ये सब चीजें प्रतीत होते हो'' । संभवन की स्थिति सत् की स्थिति से नीची है फिर भी सत् ही तो विश्व में जो कुछ है वह सब बनता है ।

 

    लेकिन अलगाव के विभेद की प्रगति को यहीं पर नहीं रुकना था, उसे अपने न्याय-संगत अंततक पहुंचना था । चूंकि एकमेव का ज्ञान तो ज्ञान है और बहु का ज्ञान अज्ञान है अतः कठोर विश्लेषणात्मक और तार्किक दृष्टि के लिये इन दो परिभाषाओं से निर्दिष्ट चीजों में शुद्ध विरोध के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता, उनमें कोई तात्त्विक ऐक्य नहीं है और कोई समाधान संभव नहीं है । अतः केवल विद्या ही ज्ञान है, अविद्या शुद्ध अज्ञान है और अगर शुद्ध अज्ञान भावात्मक रूप लेता है तो इसलिये कि वह केवल सत्य को न जानना ही नहीं हैं बल्कि भ्रांतियों और भ्रमों की सृष्टि है, वास्तविक दीखनेवाली अवास्तविकताओ की, अल्प समय के लिये वैध मिथ्यात्वों की सृष्टि है, तो स्पष्ट हैं कि अविद्या की विषय-वस्तु का कोई सच्चा और स्थायी अस्तित्व नहीं हो सकता, बहु एक भ्रांति है, जगत् की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है । निःसंदेह जबतक वह रहता है तबतक उसका एक तरह का अस्तित्व होता है, जैसे स्वप्न का या उन्मत्त या विक्षिप्त मस्तिष्क के लंबे समयतक रहनेवाले विभ्रम का अस्तित्व होता है, इससे बढ़कर कुछ नहीं । 'एक' न तो 'बहु' हुआ है न कभी हो ही सकता है, आत्मा न तो ये सब चीजें बनीं है न बन सकती है । ब्रह्म ने अपने अंदर न तो वास्तविक जगत् को अभिव्यक्त किया है न कर सकता है । मन ही या वह तत्त्व जिसका परिणाम है मन, निर्गुण एकत्व पर-जो एकमात्र वास्तविकता है -नाम, रूप आरोपित करता हैं । तत्त्वत: निर्गुण होने के कारण वह वास्तविक रूपों और विभिन्नताओं को अभिव्यक्त नहीं कर सकता या फिर, अगर वह इन चीजों को अभिव्यक्त करता भी है तो वह कालिक या अस्थायी वास्तविकता होती हैं जो गायब हो जाती है और सच्चे ज्ञान के प्रकाश द्वारा अवास्तविकता के लिये दोषी ठहरायी जाती है ।

 

    अंतिम सद्वस्तु और माया के सच्चे स्वरूप के बारे में हमारी दृष्टि ने हमें तार्किक बुद्धि की इन परवर्ती पैनी अतिशयताओं से हटकर मौलिक वेदांती धारणाओं की ओर लौटने के लिये बाधित किया है । इन चरम निष्कर्षों की तेजस्वी निर्भयता, इन सिद्धांतों की अनन्य तार्किक शक्ति और तीक्ष्णता की हम पूरी सराहना करते हैं । जबतक हम इनके आधार वाक्यों को मानते हैं ये निष्कर्ष अकाटय रहते हैं । हम इनके दो मुख्य दावों के सत्य को भी मानते हैं; यह कि ब्रह्म एकमात्र सच्ची सद्वस्तु है और यह तथ्य कि स्वयं अपने बारे में और जगत्-सत्ता के बारे में हमारी सामान्य धारणाएं अज्ञान की छाप लिये हैं, अपूर्ण हैं और बहकानेवाली हैं । इन बातों को मानते हुए भी माया की इस धारणा ने बुद्धि पर जो इतना जोरदार अधिकार पा लिया है, हम उससे अपने-आपको खींच लेने के लिये बाधित हैं । लेकिन जबतक हम अज्ञान के सच्चे स्वरूप की थाह न ले लें और ज्ञान के सच्चे, पूर्ण स्वरूप की

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भी थाह न ले लें तबतक दीर्धकाल से प्रतिष्ठित वस्तुओं के बारे में इस दृष्टि के सम्मोहन से पूरी तरह पिंड नहीं छुड़ा सकते । क्योंकि अगर ये दोनों चेतना की स्वतंत्र, समान और आद्य शक्तियां हों तो विश्व-भ्रम की संभावना हमारा पीछा करती है । अगर अज्ञान वैश्व जीवन का स्वधर्म है तो स्वयं विश्व नहीं तो हमारा विश्व का अनुभव अवश्य ही भ्रम हो जाता है । अथवा अगर अज्ञान हमारी प्रकृति का स्वधर्म तो न हो पर फिर भी चेतना की आदि और शाश्वत शक्ति हो तो यह संभव है कि वह विश्व का सत्य तो हो परंतु विश्व में अस्तित्व रखनेवाले जीव के लिये, जबतक वह विश्व में रहता है, उसके सत्य को जानना असंभव हो । वह यथार्थ ज्ञानतक तभी पहुंच सकेगा जब वह मन और विचार के परे चला जाये, इस जगत्-संगठन से परे चला जाये और सभी चीजों को ऊपर से किसी विश्वातीत या विश्वोत्तर चेतना से उन लोगों की तरह देख सके जो शाश्वत पुरुष से एक-स्वरूप हो चुके हैं और उसी में निवास करते हैं, जो सृष्टि में अजन्मे हैं और अपने से नीचे के जगतों के प्रलयंकर विनाश से अछूते रहते हैं । लेकिन इस समस्या का समाधान संतोषप्रद रूप से शब्दों और भावों की परीक्षा के आधार पर नहीं खोजा या पाया जा सकता और न ही तार्किक वाद-विवाद से । वह चेतना के साथ संबंध रखनेवाले सभी तथ्यों, सतही और साथ ही सतही स्तर से नीचे या ऊपर के या सामने की सतह से पीछे के तथ्यों के संपूर्ण अवलोकन, उनके अंदर प्रवेश और उनके अर्थ की थाह लेंने में सफलता का ही परिणाम होगा ।

 

    क्योंकि तार्किक बुद्धि तत्त्विक या आध्यात्मिक सत्यों के बारे में पर्याप्त रूप से निर्णायक नहीं है; और फिर बहुधा शब्दों और अमूर्त भावों के साथ ऐसे व्यवहार करने की प्रवृत्ति के कारण मानों वे बाध्यकारी वास्तविकताएं हों, वह उन्हें जंजीरों की तरह पहने रहती है और उनके परे, हमारे जीवन के सारगत और समग्र तथ्यों की ओर निर्बाध रूप से नहीं देखती । बौद्धिक वक्तव्य उस पहले से उपस्थित दृष्टि का हमारी बुद्धि के आगे विवरण और तर्क द्वारा समर्थन है, वस्तुओं के ऐसे दृश्य का जो हमारे मन या स्वभाव के किसी विशेष प्रकार के झुकाव या हमारी प्रकृति की किसी विशेष प्रवृत्ति में पहले से ही रहता है और गुप्त रूप से उस तर्क को निश्चित करता है जो उस दृष्टितक ले जाने का दावा करता है । वह तर्क अपने-आपमें तभी निर्णायक हो सकता है जब वस्तुओं का वह प्रत्यक्ष दर्शन, जिसपर वह खड़ा होता है, अपने-आप सच्चा और साथ-ही-साथ समग्र दर्शन हो । यहां हमें जो चीज सचाई के साथ और सर्वांगीण रूप से देखनी है वह है अपनी चेतना की प्रकृति और उसकी प्रामाणिकता, अपनी मानसिकता का मूल और उसका क्षेत्र, क्योंकि तभी हम अपनी सत्ता और प्रकृति और जगत्-सत्ता और जगत्-प्रकृति के सत्य को जान सकते हैं । इस तरह की जांच में हमारा नियम होना चाहिये देखना

 

  गीता

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और जानना । तार्किक बुद्धि का उपयोग उसी हदतक होना चाहिये जहांतक वह हमारी व्यवस्था को स्पष्ट करती, अंतर्दर्शन और ज्ञान की हमारी व्याख्या को न्याय-संगत ठहराती है लेकिन उसे हमारी धारणाओं पर शासन करने और ऐसे सत्य का बहिष्कार करने नहीं दिया जा सकता जो उसके न्याय के कठोर ढांचे में नहीं आता । भ्रम, ज्ञान और अज्ञान हमारी चेतना के पद या परिणाम हैं और केवल अपनी चेतना में गहराई में देखने से ही हम ज्ञान और अज्ञान के या माया के -अगर उसका अस्तित्व है तो -और सद्वस्तु के लक्षण या संबंधों का पता लगा सकते और उन्हें निर्धारित कर सकते हैं । निःसंदेह सत्ता ही हमारी जांच का आधारभूत विषय है, हमें जानना है कि वस्तुएं अपने-आपमें और अपने स्वभाव में कैसी हैं, लेकिन हम चेतना द्वारा ही सत्तातक पहुंच सकते हैं । अथवा अगर यह स्थापना की जाये कि चूंकि सत्ता या सत् अतिचेतन है इसलिये उसतक पहुंचने के लिये, उसमें प्रवेश पाने के लिये हमें चेतना का विलोपन या अतिक्रमण करना होगा या यह उसके अपने अतिक्रमण या रूपांतर द्वारा ही हो सकेगा फिर भी हमें इस आवश्यकता का ज्ञान और इस विलोपन या आत्मातिक्रमण, इस रूपांतर के संपादन की प्रक्रिया या शक्ति का ज्ञान चेतना द्वारा ही होता है । अतः चेतना द्वारा अतिचेतन सत्य को जानना परम आवश्यक हो जाता है और जिस शक्ति या प्रक्रिया द्वारा चेतना अतिचेतना में जा सकती है उसका आविष्कार ही परम आविष्कार हो जाता है ।

 

    लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे अंदर चेतना और मन एकरूप हैं । बहरहाल मन हमारी सत्ता का इतना प्रमुख तत्त्व है कि उसकी आधारभूत गतियों की जांच करना हमारी पहली आवश्यकता है । वस्तुत: मन ही हमारा सब कुछ नहीं है, हमारे अंदर प्राण और शरीर भी हैं, अवचेतना और निश्चेतना भी हैं, एक आध्यात्मिक सत्ता भी है जिसका मूल और गुप्त सत्य हमें एक गुप्त भीतरी चेतना और अतिचेतना में ले जाता है । अगर मन ही सब कुछ होता या वस्तुओं में विद्यमान आदि चेतना का स्वरूप भी मन जैसा ही होता तो यह धारणा बनायी जा सकती थी कि भ्रम या अज्ञान हमारे प्राकृत जीवन का मूल हैं क्योंकि मानस-प्रकृति द्वारा ज्ञान का परिसीमन और धुंधलापन ही भूल और भ्रम की रचना करते हैं । हमारे मन की क्रिया के बनाये हुए भ्रम ही हमारी चेतना के पहले तथ्यों में से हैं । इसलिये यह धारणा की जा सकतीं है कि मन एक ऐसे अज्ञान का उत्पत्ति-स्थान है जो हमसे एक मिथ्या जगत् का, एक ऐसे जगत् का, जो चेतना की आत्मनिष्ठ रचना से बढ़कर कुछ नहीं हैं, निर्माण करवाता या हमारे सामने एक मिथ्या जगत् का निरूपण करवाता है । या फिर मन एक ऐसा उत्पत्ति-स्थान हो सकता है जिसमें कोई मौलिक भ्रम या अज्ञान, माया या अविद्या, मिथ्या, अस्थायी विश्व का बीज बोते हैं । मन तब भी मां होगा लेकिन एक ''बांझ मां'' -क्योंकि बालक फिर भी अवास्तविक होगा -और माया या अविद्या को विश्व की नानी माना जा सकता है क्योंकि स्वयं

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मन माया का उत्पादन या प्रतिरूप होगा । लेकिन इस अस्पष्ट और रहस्यमयी नानी की आकृति को पहचानना कठिन है क्योंकि तब हमें शाश्वत सद्वस्तु पर वैश्व कल्पना या भ्रम-चेतना का आरोपण करना होगा । तब सद्वस्तु-स्वरूप ब्रह्म या तो स्वयं निर्माण करनेवाला मन होगा या मन से बड़ी, रचना करनेवाली परंतु उसी के जैसी कोई चेतना होगा या वह मन या चेतना उसकी होगी या वह उन्हें सहारा देता होगा । वह अपनी क्रिया या अपने अनुमोदन द्वारा भ्रम और भूल-भ्रांति का रचयिता या हो सकता है कि मन की तरह ही उनमें किसी तरह से भाग लेने के कारण उनका शिकार भी हो । अगर मन केवल एक माध्यम या दर्पण हो जिसमें आद्य भ्रम का प्रतिबिंब या सद्वस्तु के मिथ्या रूप का प्रतिबिंब या छाया दिखायी देती है तो भी समस्या कम जटिल न होगी, क्योंकि प्रतिबिंब के इस माध्यम के मूल की व्याख्या न की जा सकेगी और उसपर पड़नेवाले मिथ्या प्रतिबिंब के मूल की भी व्याख्या न की जा सकेगी । अनिर्देश्य ब्रह्म का प्रतिबिंब भी अनिर्देश्य ही होगा, बहुविध विश्व जैसा नहीं । या अगर प्रतिबिंबित करनेवाले माध्यम की असमानता के कारण, उसका रूप तरंगोंवाले और चंचल जल के जैसा होने के कारण ही सद्वस्तु के खंडित बिंब बनते हैं, तो भी प्रतिबिंबित होनेवाले रूप सत्य के ही खंडित और विकृत रूप होंगे न कि वस्तुओं के मिथ्या नाम-रूपों के अंकुरों की भीड, जिनका सद्वस्तु मे कोई स्रोत या आधार न था । एक ही सद्वस्तु का बहुविध सत्य होना चाहिये जो, चाहे जितने मिथ्या और अपूर्ण रूप में क्यों न हो, मन के विश्व की बहुविध प्रतिमाओं में प्रतिबिंबित होता हैं । तब यह भली-भांति हो सकता है कि जगत् एक वास्तविकता हो और मन की उसके बारे में रचना या उसका चित्र गलत या अपूर्ण हो । लेकिन इसका यह अर्थ होगा कि हमारे मानसिक विचार और प्रत्यक्ष दर्शन से भिन्न, जो केवल ज्ञान के लिये प्रयास है, कोई ज्ञान है, कोई सच्चा ज्ञान जो सद्वस्तु के बारे में अभिज्ञ है और उसके अंदर वास्तविक विश्व के सत्य के बारे में अभिज्ञ है ।

 

    क्योंकि, अगर हमें पता लगे कि केवल उच्चतम सद्वस्तु और अज्ञानी मन का ही अस्तित्व है तो हमारे पास यह मानने के सिवा कोई उपाय न रहेगा कि अज्ञान ब्रह्म की एक मौलिक शक्ति है और हमें अविद्या या माया को सभी चीजों का स्रोत मानना होगा । माया आत्माभिज्ञ ब्रह्म की शाश्वत शक्ति होगी जिससे वह अपने-आपको भ्रम में डालता है या माया की बनायी हुई किसी ऐसी चीज को भ्रम में डालता है जिसे वह अपना आपा समझता है । मन एक ऐसी अंतरात्मा की अज्ञानी चेतना होगी जो केवल माया के एक अंश के रूप में अस्तित्व रखती है । माया ब्रह्म की ऐसी शक्ति होगी जिससे वह अपने ऊपर नाम और रूप आरोपित कर लेता है, मन उसकी उन्हें ग्रहण करने की और वास्तविकताओं के रूप में स्वीकार करने की शक्ति है । या फिर माया यह जानते हुए कि ये भ्रम हैं, भ्रमों का सृजन करनेवाली ब्रह्म की शक्ति होगी और मन यह भूलकर कि वे भ्रम हैं, उन्हें ग्रहण

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करने की शक्ति होगा । लेकिन अगर ब्रह्म आत्माभिज्ञता में तत्त्वतः सदा एक है तो यह चालाकी संभव न होगी । अगर ब्रह्म अपने-आपको इस तरह विभक्त कर सकता है यानी एक ही साथ जानता भी हो और न भी जानता हो या एक भाग जानता हो और दूसरा न जानता हो, या अगर वह अपना कुछ अंश माया में डाल सकता हो तो ब्रह्म में चेतना की द्विविध या बहुविध क्रिया की क्षमता होनी चाहिये, एक तो सद्वस्तु की चेतना, दूसरी भ्रम की चेतना या एक अज्ञानी चेतना और दूसरी अतिचेतन चेतना । तार्किक दृष्टि से यह द्वैत या बहुविधता प्रथम दृष्टि में असंभव मालूम होती है लेकिन इसी परिकल्पना के आधार पर उसे ही सत्ता का निर्णायक तथ्य, आध्यात्मिक रहस्य और अतिबौद्धिक विरोधाभास होना चाहिये । लेकिन एक बार हम स्वीकार कर लें कि चीजों का एक अतिबौद्धिक रहस्य है तो हम समान रूप से या ज्यादा अच्छी तरह दूसरे निर्णायक तथ्य को भी स्वीकार कर सकते हैं कि एक हमेशा अनेक बन जाता है या होता है और अनेक भी एक होता या बन जाता है । यह भी पहली दृष्टि में तार्किक रूप से असंभव है, एक अतिबौद्धिक विरोधाभास है फिर भी वह अपने-आपको एक शाश्वत तथ्य और जीवन के विधान के रूप में उपस्थित करता है । लेकिन अगर इसे स्वीकार कर लिया जाये तो फिर भ्रमात्मक माया के हस्तक्षेप की कोई जरूरत नहीं रहती । या समान रूप से, जैसा हमने स्वीकार कर लिया है, हम अनंत और शाश्वत की धारणा स्वीकार कर सकते है कि वह अपनी चेतना की अनंत शक्ति द्वारा अपनी सत्ता के अथाह और असीम सत्य को बहुत से पहलुओं और प्रक्रियाओं, अनगिनत अभिव्यक्त करनेवाले रूपों और गतियों में अभिव्यक्त करने में सक्षम है । ये पहलू, प्रक्रियाएं, रूप और गतियां उसकी अनंत सद्वस्तु की वास्तविक अभिव्यक्तियां, वास्तविक परिणाम माने जा सकते हैं । तव इनमें निश्चेतना और अज्ञान को भी विपरीत पहलू के रूप में माना जा सकता है, अन्तर्ग्रस्त चेतना और आत्म परिसीमित ज्ञान की शक्तियों के रूप में माना जा सकता है जिसे इसलिये प्रकट किया गया है क्योंकि वह काल में अमुक गति के लिये जरूरी है । वह है सद्वस्तु के विकास और प्रतिविकास की गति । यह अपने आधार में अतिबौद्धिक भले हो पर यह पूरी धारणा बिलकुल विरोधाभास नहीं है । यह अनंत के बारे में हमारी धारणा में परिवर्तन और विस्तार की मांग करती है ।

 

    लेकिन अगर हम केवल मन या अज्ञान के लिये मन की शक्ति पर ही विचार करें तो वास्तविक जगत् नहीं जाना जा सकता और इनमें से किसी संभावना की जांच नहीं की जा सकत । मन के अंदर सत्य के लिये भी शक्ति है । वह अपने विचार-कक्ष को विद्या और अविद्या दोनों के लिये खोलता है और अगर उसका आरंभ-बिंदु हो अज्ञान, उसका मार्ग भले भ्रांति के टेढ़े-मेढ़े रास्ते में से हो, फिर भी उसका लक्ष्य हमेशा ज्ञान ही रहता है । उसमें सत्यान्वेषण का एक आवेग होता है,

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सत्य-प्राप्ति और सत्य-सृष्टि के लिये शक्ति भी है, भले वह गौण और सीमित हो । चाहे वह हमें सत्य के केवल बिंब या आकृतियां या अमूर्त व्यंजनाएं ही दिखला सके फिर भी वे अपने तरीके से सत्य-प्रतिबिंब या सत्य-रूपायण ही हैं और वे जिन वास्तविकताओं के रूप हैं वे अपने अधिक ठोस सत्य में किसी गहरी गहराई में या हमारी चेतना की शक्ति के किसी उच्चतर स्तर पर मौजूद हैं । जड़ पदार्थ और प्राण उन वास्तविकताओं का रूप हो सकते हैं, मन जिनकी अपूर्ण आकृति को ही छूता है । आत्मा में ऐसी रहस्यमयी और ऊर्ध्वस्थ वास्तविकताएं हो सकती हैं जिनका मन एक आंशिक और प्रारंभिक ग्रहणकर्ता, प्रतिलिपिक या प्रेषक मात्र है । तब हम चेतना की अन्य अतिमानसिक और अवमानसिक, साथ हीं उच्चतर और गहनतर मानसिक शक्तियों की परीक्षा करके ही समग्र वास्तविकतातक पहुंच सकते हैं । और अंत में सब कुछ निर्भर होता है परम चेतना के सत्य पर जो उच्चतम सद्वस्तु की चीज है -या उसे अतिचेतन कह लो -उसपर और उसके साथ मन, अतिमानस, अवमानस और निश्चेतना के संबंध पर ।

 

    वस्तुत: सब कुछ बदल जाता है जब हम चेतना की निचली और उपरली गहराइयों में प्रवेश करते हैं और उन्हें एक सर्व-व्यापक सद्वस्तु के साथ जोड़ दते हैं । अगर हम अपनी और जगत् की सत्ता के तथ्यों को लें तो हम देखते हैं कि अस्तित्व सदा एक ही रहता है । एकत्व ही उसकी चरम बहुलता पर शासन करता है लेकिन प्रत्यक्ष रूप से देखने पर बहुलता भी ऐसी चीज है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता । हमने देखा है कि एकत्व हर जगह हमारा पीछा करता है, जब हम सतह के नीचे चले जाते हैं तो हम देखते हैं कि वहां भी कोई बाध्यकारी द्वैत नहीं है । बुद्धि जिंन विपरीतताओं और विरोधों का सृजन करती है वे केवल आद्य सत्य के पहलुओं के रूप में अस्तित्व रखते हैं । एकत्व और बहुत्व एक ही सद्वस्तु के दो ध्रुव हैं । जो द्वैत हमारी चेतना को परेशान करते हैं वे सत्ता के, एक और अभिन्न सत्य के विषमता दिखानेवाले सत्य हैं । इस तरह समस्त बहुत्व एक ही सत् की, सत् की एक ही चेतना की, सत् के एक ही आनंद की बहुविधता में स्वयं को विघटित कर लेता है । इस तरह सुख-दुःख के द्वैत में हमने देखा है कि दुःख सत्ता के एक ही आनंद का विपरीत प्रभाव है जो ग्रहणकर्ता की दुर्बलता का परिणाम होता है, उसे जो शक्ति मिलती है उसे हजम करने में असमर्थता, उसमें आनंद के जिस स्पर्श का अन्यथा अनुभव हुआ होता उसे सहने में असमर्थता का परिणाम है । वह आनंद का कोई मूलभूत विरोधी तत्त्व नहीं है बल्कि आनंद के प्रति चेतना की एक विकृत प्रतिक्रिया है । यह इस महत्त्वपूर्ण तथ्य से दिखायी देता है कि दुःख आनंद में और आनंद दुःख में बदल सकता है और दोनों मिलकर मौलिक आनंद में विघटित हो सकते हैं । इसी भांति दुर्बलता का प्रत्येक रूप वास्तव में एकमेव दिव्य इच्छा-शक्ति या एक ही वैश्व ऊर्जा की विशिष्ट क्रिया है । उस शक्ति में

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दुर्बलता का अर्थ है उसकी अपनी शक्ति की क्रिया को पीछे की ओर रोके रखने, मर्यादित करने, किसी विशेष रूप से विन्यास करने की क्षमता । दुर्बलता या असमर्थता शक्ति के मूलभूत विरोधी तत्त्व नहीं हैं बल्कि आत्मा का अपनी शक्ति-संपूर्णता को रोके रखना या शक्ति की अपर्याप्त प्रतिक्रिया हैं । अगर ऐसा है तो यह भी हो सकता है और वस्तुओं के स्वभाव में ऐसा होना चाहिये कि हम जिसे अज्ञान कहते हैं वह एक अभिन्न दिव्य ज्ञान-इच्छा या माया की शक्ति से भिन्न कुछ नहीं है । यह एकमेव चेतना की सामर्थ्य है कि वह अपने ज्ञान की क्रिया को नियंत्रित कर सके, पीछे की ओर रोके रख सके, मर्यादित कर सके, किसी विशेष रीति से विन्यस्त कर सके । तब ज्ञान और अज्ञान ऐसे तत्त्व नहीं होंगे जिनमें मेल न बैठाया जा सके, जिनमें एक जगत्-सत्ता का निर्माण करे और दूसरा उसको सहन न कर सके, उसका नाश करे, बल्कि दोनों साथ रहनेवाली शक्तियां होंगी जो स्वयं विश्व में उपस्थित हैं, उसकी प्रक्रियाओं मे अलग-अलग तरह से क्रिया करती हैं परंतु अपने सारतत्त्व में एक हैं और स्वाभाविक रूपांतर से एक-दूसरे में धुल-मिल सकती हैं । लेकिन अपने आधारभूत संबंध में अज्ञान समान सहवर्ती न होगा, वह ज्ञान पर निर्भर होगा, ज्ञान का परिसीमन या उसकी विपरीत क्रिया होगा ।

 

    ज्ञान-प्राप्ति के लिये हमें हमेशा अज्ञानी और हठी बुद्धि की कठोर रचनाओं को विधटित करना और जीवन के तथ्यों का स्वतंत्र रूप से और लचीले भाव से अवलोकन करना होगा । जीवन का आधारभूत तथ्य है चेतना जो शक्ति है, और वस्तुत: हम देखते हैं कि इस शक्ति के कार्य करने के तीन तरीके हैं । पहले हम देखते हैं कि सबके पीछे चेतना है, सबका आलिंगन करती हुई, सबके भीतर, जो अपने बारे में शाश्वत रूप से, वैश्व रूप से पूर्णतया अभिज्ञ है । वह चाहे एकत्व में हो या बहुत्व में या दोनों में एक साथ या दोनों से परे विशुद्ध परम पद में । यह परम दिव्य आत्म-ज्ञान की पूर्णता है, यह दिव्य सर्वज्ञान की पूर्णता भी है । फिर चीजों के दूसरे छोर पर हम इस चेतना को अपने अंदर प्रतीयमान विरोधों में निवास करते हुए पाते हैं और सबसे अधिक चरम विरोध अपनी पराकाष्ठा की अवस्था में तब पहुंचता है जब हमें उसकी अपने-आपकी पूर्ण अचित्ति की अवस्था, प्रभावकारी, क्रियात्मक, सर्जनात्मक निश्चेतना प्रतीत होती है । यद्यपि हम जानते हैं कि यह केवल ऊपरी प्रतीति है और निश्चेतन की क्रियाओं में दिव्य ज्ञान परम सुरक्षित रूप से और निश्चयता के साथ काम कर रहा है । इन दो विरोधों के बीच एक मध्यवर्ती के रूप में हम चेतना को आंशिक, सीमित आत्म-अभिज्ञता के साथ काम करते देखते हैं जो समान रूप से ऊपरी है क्योंकि उसके पीछे और उसके द्वारा काम करता है दिव्य सर्व-ज्ञान । यहां अपनी मध्यवर्ती स्थिति में वह दो विरोधों के बीच, परम चेतना और अचित्ति के बीच, एक स्थायी समझौता प्रतीत होती है लेकिन हमारी प्राप्त सामग्री को विशालतर दृष्टि से देखा जाये तो यह सिद्ध हो सकता है कि वह

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सतह पर ज्ञान का अधूरा उभार है । इस समझौते या अपूर्ण उभार को ही हम अपने दृष्टिकोण से अज्ञान कहते हैं क्योंकि अज्ञान है हमारे विशिष्ट ढंग से आत्मा का पूर्ण आत्म-ज्ञान को अपने-आपसे रोके रखना । अगर हो सके तो हमें चेतना की शक्ति की इन तीन स्थितियों के मूल और उनके ठीक संबंधों को खोज निकालना है ।

 

    अगर हमने यह पता लगा लिया है कि अज्ञान और ज्ञान चेतना की दो स्वतंत्र शक्तियां हैं तो शायद हमें उनके भेद का अनुसरण चेतना के उस उच्चतम बिंदुतक करना होगा जहां दोनों की समाप्ति उस निरपेक्ष में होगी जहां से दोनों एक साथ प्रकट हुए थे । तब यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एकमात्र वास्तविक ज्ञान है अतिचेतन निरपेक्ष का सत्य । और चेतना का वह सत्य, विश्व का सत्य, विश्व के अंदर हमारा सत्य, अधिक-से-अधिक, एक आंशिक आकृति होगा जो सदा अज्ञान की सहवर्ती उपस्थिति, घेरे रहनेवाली उपच्छाया, और पीछा करनेवाली छाया के भार से दबी होगी । यह भी हो सकता है कि एक निरपेक्ष परम ज्ञान जो सत्य, सामंजस्य, व्यवस्था की प्रतिष्ठा करता है और एक परम निश्चेतना जो स्वैर कल्पना की क्रीड़ा को, असामंजस्य और अव्यवस्था को आधार देती है, अपने मिथ्यात्व, प्रमाद और दुःख की चरमता का अटल रूप से समर्थन करती है, मैनिकीवाद के आपस में संघर्ष करते हुए और आपस में मिलते-जुलते प्रकाश और अंधकार, शुभ और अशुभ के द्विविध तत्त्व की तरह वैश्व जीवन की जड़ में स्थित हैं । तब कुछ मनीषियों का यह विचार कि एक निरपेक्ष शुभ है लेकिन साथ ही एक निरपेक्ष अशुभ भी और दोनों ही परम निरपेक्ष की ओर ले जानेवाले साधन हैं, संगत हो सकता है । लेकिन अगर हम देखें कि ज्ञान और अज्ञान एक ही चेतना के प्रकाश और छाया हैं, कि अज्ञान का आरंभ है ज्ञान का परिसीमन, कि परिसीमन आंशिक भ्रम और भ्रांति की अधीनस्थ संभावना के द्वार खोलता है, कि यह संभावना ज्ञान द्वारा जड़ निश्चेतना में सार्थक डुबकी लगाने से ही पूरा रूप धारण करती है परंतु ज्ञान भी उभरनेवाली चेतना के साथ निश्चेतना में से उभरता है; तब हम इस बारे में निश्चित हो सकते हैं कि अज्ञान की यह पूर्णता स्वयं अपने विकास के एक सीमित ज्ञान की ओर पीछे लौटने द्वारा इस आश्वासन का अनुभव कर सकतीं है कि सीमाएं अपने-आप दूर कर दी जाएंगी और वस्तुओं का पूर्ण सत्य प्रकट होगा, वैश्व सत्य

 

       उपनिषदों में कहा गया है कि विद्या और अविद्या दोनों परब्रह्म में शाश्वत हैं । लेकिन इसे

इस अर्थ में स्वीकार किया जा सकता हैं कि ये एकत्व की चेतना और बहुत्व की चेतना हैं जो

परम आत्म-अभिज्ञता में एक साथ निवास करती हुई अभिव्यक्ति का आधार बन गयीं । वहां ये

शाश्वत आत्म-ज्ञान के दो पक्ष होंगी ।

       २ ईरान का एक पुराना समन्वयात्मक मत जो जड़-चेतन, शुभ-अशुभ के मेल और उनमें से

तपस्या द्वारा आत्मा की मुक्ति को मानता था ।

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अपने-आपको वैश्व अज्ञान से मुक्त कर लेगा । वस्तुत: हो यह रहा है कि अज्ञान अपने अंधकार के उत्तरोत्तर प्रबोध द्वारा अपने-आपको उस ज्ञान में रूपांतरित करने की चाह और तैयारी कर रहा है जो पहले से ही उसके अंदर छिपा हुआ है । इस रूपांतर द्वारा वैश्व  सत्य अपने वास्तविक सारतत्त्व और आकृति में अभिव्यक्त होकर अपने-आपको परम सर्वव्यापक सद्वस्तु के सारतत्त्व और आकृति में प्रकट करेगा । हम अस्तित्व की इस व्याख्या से चले थे लेकिन उसे परखने के लिये हमें अपनी सतही चेतना के ढांचे का अवलोकन करना चाहिये और उसके भीतर, ऊपर और नीचे जो है उसके साथ उसका संबंध देखना चाहिये तभी हम अज्ञान के स्वरूप और क्षेत्र को भली-भांति जान सकेंगे । उस प्रक्रिया में उसका अर्थात् ज्ञान  का स्वरूप और क्षेत्र भी हमारे आगे प्रकट हो जायेगा जिसका परिसीमन और विकार है अज्ञान--वह ज्ञान अपने पूर्ण रूप में आध्यात्मिक सत्ता का स्थायी आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान है ।

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