Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
विज्ञानमय सत्ता
अभूदु पारमेतवे पन्या ऋतस्थ साधुया । अदर्शि वि स्त्रुतिर्दिव: ।। अंधकार से परे उस दूसरे तट की यात्रा के लिये सत्य का परम पथ प्रकट हो गया है । ऋग्वेद १.४६. ११ ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिकिइध्यृतस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वी- ।। हे ऋत-चेतन, ऋत के प्रति सचेतन होओ । ॠत की बहुत-सी धाराएं काटकर निकालो । ऋग्वेद ५.१२.२ अग्रीषोमा चेति तद् वीर्य बाम्. . . अविन्दर्त ज्योतिरेंक बहुभ्यः । हे अग्नि, हे सोम, तुम्हारी शक्ति सचेतन हो गयी है । तुमने बहु के लिये उस एक ज्योति का आविष्कार किया है । ऋग्वेद १. ९३ .४ एषा बेनी भवति द्विबर्हा. . . । ऋतस्य पन्यामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ।। शुद्ध- धवला, अपनी प्रचुरता में द्विविधा, वह, जाननेवाले की तरह सत्य के पथ का प्रभावी रूप से अनुसरण करती है और उसकी दिशाओं को संकीर्ण नहीं बनाती । ऋग्वेद ५.८० .४ ऋतेन ऋतं धरुण धारयन्त यज्ञस्थ शाके परमे व्योमन् । वे ऋत द्वारा उस ऋत को धारण करते हैं जो यज्ञ की शक्ति से परम व्योम में सबको धारण करता है । ऋग्वेद ५.१५.२ अजीजनो अमृत म्रर्त्येषांव ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुण: । ... ... ... ... ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत् ।। हे अमर, मर्त्यों में तू ऋत, अमृत और सौंदर्य के विधान मै जन्मा है ।... ऋत से उत्पन्न वह ऋत से हीं बढ़ता है -वह राजा, देव, ऋत और बृहत् है । ऋग्वेद ९. ११०.४ १०८. ८
अभूदु पारमेतवे पन्या ऋतस्थ साधुया ।
अदर्शि वि स्त्रुतिर्दिव: ।।
अंधकार से परे उस दूसरे तट की यात्रा के लिये सत्य का परम पथ
प्रकट हो गया है ।
ऋग्वेद १.४६. ११
ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिकिइध्यृतस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वी- ।।
हे ऋत-चेतन, ऋत के प्रति सचेतन होओ । ॠत की बहुत-सी
धाराएं काटकर निकालो ।
ऋग्वेद ५.१२.२
अग्रीषोमा चेति तद् वीर्य बाम्. . . अविन्दर्त ज्योतिरेंक बहुभ्यः ।
हे अग्नि, हे सोम, तुम्हारी शक्ति सचेतन हो गयी है । तुमने बहु के
लिये उस एक ज्योति का आविष्कार किया है ।
ऋग्वेद १. ९३ .४
एषा बेनी भवति द्विबर्हा. . . ।
ऋतस्य पन्यामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ।।
शुद्ध- धवला, अपनी प्रचुरता में द्विविधा, वह, जाननेवाले की तरह
सत्य के पथ का प्रभावी रूप से अनुसरण करती है और उसकी
दिशाओं को संकीर्ण नहीं बनाती ।
ऋग्वेद ५.८० .४
ऋतेन ऋतं धरुण धारयन्त यज्ञस्थ शाके परमे व्योमन् ।
वे ऋत द्वारा उस ऋत को धारण करते हैं जो यज्ञ की शक्ति से
परम व्योम में सबको धारण करता है ।
ऋग्वेद ५.१५.२
अजीजनो अमृत म्रर्त्येषांव ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुण: ।
... ... ... ...
ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत् ।।
हे अमर, मर्त्यों में तू ऋत, अमृत और सौंदर्य के विधान मै जन्मा
है ।... ऋत से उत्पन्न वह ऋत से हीं बढ़ता है -वह राजा, देव,
ऋत और बृहत् है ।
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जब हम अपने विचार की उस रेखापर पहुंचते हैं जहां मन का अधिमन की ओर होनेवाला विकास अधिमानस का अतिमानस की ओर होनेवाले विकास में बदल जाता है, तो हमारा सामना एक कठिनाई से होता है जो लगभग असंभवता है । क्योंकि, हम अतिमानसिक या विज्ञानमय सत्ता के किसी ऐसे यथार्थ भाव को, ऐसे स्पष्ट मानसिक वर्णन को खोजने के लिये प्रवृत्त होते हैं जिसे जन्म देने के लिये विकसनशील प्रकृति अज्ञान में प्रसव-पीड़ा में से गुजर रही है; लेकिन उदात्तीकृत मन की इस चरम सीमा को लांघकर चेतना मानसिक दर्शन और ज्ञान के गोलार्द्ध में से निकल जाती है, उसकी पकड़ में से बच निकलती है और उसकी विशिष्ट क्रियाओं से आगे चली जाती है । निश्चय ही यह स्पष्ट है कि अतिमानसिक प्रकृति को आध्यात्मिक प्रकृति और अनुभव का संपूर्ण समाकलन और परिपूर्ति होना चाहिये, विकसनशील तत्त्व के स्वभाव के कारण वह अपने अंदर पार्थिव प्रकृति के समग्र आध्यात्मीकरण को लिये रहेगी, यद्यपि वह इस परिवर्तन से सीमित न होगी । हमारे विकास के इस चरण में हमारे जगत्-अनुभवों को लिया जायेगा और उसकी दिव्यता के अंशों के रूपांतर द्वारा, उसकी अपूर्णताओं और छद्मवेशों की सृजनात्मक अस्वीकृति करके वे किसी दिव्य सत्य और प्रचुरतातक पहुंचेंगे । लेकिन ये सामान्य सूत्र हैं और हमें परिवर्तन का ठीक-ठीक भाव नहीं देते । आध्यात्मिक और सांसारिक वस्तुओं के बारे में हमारा सामान्य दर्शन, हमारी कल्पना या हमारा रूपायन मानसिक होता है लेकिन विज्ञानमय परिवर्तन में विकास एक ऐसी रेखा को पार कर जाता है जिसके परे चेतना का एक परम और आमूल परावर्तन हो जाता है, वहां मानसिक ज्ञान के मान-दण्ड और रूप काफी नहीं रहते । मानसिक विचार के लिये अतिमानसिक प्रकृति को समझना या उसका वर्णन करना कठिन है ।
मानसिक प्रकृति और मानसिक विचार सांत की चेतना पर आधारित होते हैं । अतिमानसिक प्रकृति अपनी धातु में ही अनंत की चेतना और शक्ति है । अतिमानसिक प्रकृति हर चीज को एकता की दृष्टि से देखती है, सभी चीजों को, यहांतक कि महानतम बहुलता और विभिन्नता को तथा उन चीजों को भी, जो मन के लिये अत्यधिक प्रबल विरोधी हैं, उस एकत्व के प्रकाश मे ही देखती है । उसकी इच्छा, भाव, भावनाएं संवेदन एकता के पदार्थ के बने हैं, उसकी क्रिया इसी आधार से शुरू होती है । इसके विपरीत, मानसिक प्रकृति विभाजन को ही आरंभ-बिंदु मानकर सोचती, देखती, इच्छा करती, अनुभव करती और बोध पाती है । उसमें केवल एक रची हुई ऐक्य समझ होती है, यहांतक कि जब उसे एकता की अनुभूति भी होती है, उसे सीमाओं और भेदों के आधार पर बनी एकता से काम करना होता है । लेकिन अतिमानसिक, दिव्य जीवन तात्त्विक, सहज और अंतर्विष्ठ ऐक्य का जीवन है । मन के लिये पहले से ही यह व्यौरेवार रूप-रेखा
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बनाना असंभव है कि अतिमानसिक परिवर्तन को अपनी जीवन-क्रिया के अपने अंशों में और बाह्य व्यवहार में कैसा होना चाहिये या यह निर्धारित करना असंभव है कि वह वैयक्तिक या सामुदायिक जीवन के लिये कैसे रूप गढ़ेगा । क्योंकि, मन बौद्धिक नियम या साधन द्वारा या इच्छा के तर्कसंगत चुनाव, मानसिक आवेश या प्राणावेग के प्रति आज्ञापालन से कार्य करता है, लेकिन अतिमानसिक प्रकृति मानसिक भाव या नियम या किसी निम्न आवेग की अधीनता में काम नहीं करती, उसका एक-एक चरण अंतर्जात आध्यात्मिक दृष्टि, व्यापक और यथार्थ रूप से सभी के सत्य और हर चीज के सत्य में अंतःप्रवेश द्वारा निर्देशित होता है । वह सदा अंतस्थ वास्तविकता के अनुसार कार्य करती है, मानसिक भाव द्वारा नहीं, ऊपर से आरोपित व्यवहार-शास्त्र या निर्माणात्मक विचार या इंद्रियबोध उपाय से भी नहीं । उसकी गति स्थिर, आत्म-प्रतिष्ठ, स्वतः स्फूर्त और नमनीय होती है । वह स्वाभाविक और अनिवार्य रूप से सत्य के सामंजस्यपूर्ण तादात्म्य से उभरती है जिसका अनुभव सचेतन सत्ता की धातु में, एक आध्यात्मिक पदार्थ में होता है जो वैश्व है और इसलिये जो कुछ सत्ता के ज्ञान में सम्मिलित होता है वह उसके साथ अंतरंग रूप से एक है । अतिमानसिक प्रकृति का मानसिक वर्णन या तो एकदम अमूर्त्त वाक्यों में या मानसिक आकृतियों में हो सकता है जो उसे उसकी वास्तविकता से एकदम भिन्न चीज में बदल दें । इसलिये मन के लिये यह असंभव मालूम होता है कि वह पहले से यह कह सके या इशारा दे सके कि अतिमानसिक सत्ता कैसी होगी या कैसे कार्य करेगी, क्योंकि यहां मानसिक भाव या रूपायन किसी चीज का निश्चय नहीं कर सकते और न किसी यथार्थ परिभाषा या निर्धारणतक ही पहुंच सकते हैं, क्योंकि, वे अतिमानसिक प्रकृति के विधान या आत्मदर्शन के काफी नजदीक नहीं हैं । साथ ही, प्रकृति की इस भिन्नता के तथ्य से ही कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं जो कम-से-कम अधिमानस से अतिमानसतक के संक्रमण के साधारण-से विवरण के रूप में प्रामाणिक हो सकते हैं या हमारे लिये विकसनशील अतिमानसिक सत्ता की पहली स्थिति का एक भाव अस्पष्ट रूप से बना सकते हैं ।
यह संक्रमण वह स्थिति है जिसमें अतिमानसिक विज्ञान विकास का नेतृत्व अधिमानस से अपने हाथ में लेकर अपनी विशिष्ट अभिव्यक्ति और अनावृत क्रियाओं के पहले आधार बना सकता है । अतः अज्ञान में होते हुए विकास से ज्ञान में होनेवाले सदा प्रगतिशील विकास की ओर एक निर्णायक लेकिन लंबी तैयारी के बाद आनेवाला संक्रमण, वहां जरूर मिलेगा । वह निरपेक्ष अतिमानस तथा अतिमानसिक सत्ता, जैसे वे अपने लोक में हैं, उनका अचानक आविर्भाव या कार्यान्वयन न होगा, न ही नित्य अपने-आपमें पूर्ण और संपूर्ण आत्मज्ञानमय ऋत-चिन्मय सत्ता का तेजी से होनेवाला रहस्योद्घाटन ही होगा । वह अतिमानसिक सत्ता का विकसनशील संभूतिवाले जगत् में अवतरण और वहांपर उसका रूपायन होगा,
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पार्थिव प्रकृति में विज्ञान की शक्तियों का उन्मीलन होगा । वस्तुत: समस्त पार्थिव सत्ता का यही तत्त्व है । क्योंकि, पार्थिव जीवन की प्रक्रिया उस अनंत सद्वस्तु की लीला है जो अपने-आपको पहले तो अंधकारमय सीमित धूमिल और अधूरी अर्द्ध-आकृतियों की परंपरा में छिपाती है, जो आकृतियां जिस सत्य को जन्म देने की कोशिश कर रही हैं उसे अपनी अपूर्णता और अपने छद्मवेश के स्वभाव के कारण विकृत कर देती हैं, लेकिन बाद में अपने उन अर्द्ध-आलोकित रूपोंतक अधिकाधिक पहुंचती हैं जो, अगर अतिमानसिक अवतरण हो चुका हो तो एक सच्चा प्रगतिशील अंतःप्रकाश हो सकती हैं । आद्य अतिमानस से अवतरण, विकसनशील अतिमानस का रूप-ग्रहण; यह एक ऐसा कदम है जिसे अतिमानसिक विज्ञान अपने विशिष्ट स्वभाव को बदले बिना आसानी से ले सकता है और संपादित कर सकता है । वह उस ऋत-चित् जीवन की विधि को अपना सकता है जो अंतस्थ आत्मज्ञान में आधारित हो, लेकिन साथ ही अपने अंदर मानसिक प्रकृति और प्राणिक और भौतिक शरीर की प्रकृति को भी लिये हुए हो । क्योंकि अनंत की ऋत-चेतना के रूप में अतिमानस अपने सक्रिय तत्त्व में स्वतंत्र आत्मनिर्धारण की अनंत शक्ति रखता है । वह अपने अंदर समस्त ज्ञान धारण कर सकता है फिर भी रूपायन में केवल उतना ही बाहर प्रस्तुत करता है जितने की विकास की हर अवस्था में जरूरत है । वह वही रूपायित करता है जो अभिव्यक्ति में दिव्य इच्छा के साथ और अभिव्यक्त की जानेवाली वस्तु के सत्य के साथ अनुकूल हो । इसी शक्ति द्वारा वह अपने ज्ञान को रोके रख सकता है, अपने स्वभाव और कर्म के विधान को छिपा सकता और अधिमानस को अभिव्यक्त कर सकता है और अधिमानस के नीचे अज्ञान के उस जगत् को अभिव्यक्त कर सकता है जिसमें जीव सतह पर जानने की इच्छा नहीं करता, यहांतक कि अपने-आपको व्यापक निर्ज्ञान के आधीन कर देता है । लेकिन इस नयी स्थिति में इस तरह डाला हुआ पर्दा हटा दिया जायेगा । हर कदम पर विकास ऋत-चेतना की शक्ति में बहेगा और उसके क्रमश: निर्धारण सचेतन ज्ञान द्धारा किये जायेंगे, अज्ञान या निश्चेतना के रूपों में नहीं ।
जैसे धरती पर मानसिक चेतना और शक्ति स्थापित हो गयी है, जो मानसिक सत्ताओं की जाति को रूप देती है और पार्थिव प्रकृति की उन सब चीजों को अपने अंदर ले लेती है जो परिवर्तन के लिये तैयार हैं, उसी तरह अब पृथ्वी पर एक विज्ञानमय चेतना और शक्ति प्रतिष्ठित होगी जो विज्ञानमय आध्यात्मिक सत्ताओं की जाति को रूप देगी और पार्थिव प्रकृति की उन सब चीजों को अपने अंदर ले लेगी जो इस नये रूपांतर के लिये तैयार हैं । वह ऊपर से, क्रमश: अपने ही पूर्ण प्रकाश, शक्ति और सुंदरता के क्षेत्र से उस सबको ग्रहण कर लेगी जो उस क्षेत्र से पार्थिव सत्ता में उतरने को तैयार है । क्योंकि, भूतकाल में क्रम-विकास हर क्रांतिक
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बिंदु पर, एक प्रच्छन्न शक्ति का निश्चेतना में अपने अंतर्लय से उमड़ने पर आगे बढ़ा है, लेकिन साथ ही ऊपर से उस शक्ति के अपने लोक से अवरोहण द्वारा भी जो अपने स्वाभाविक प्रदेश मे आत्मसिद्ध है । इन सभी पहले को अवस्थाओं में सतही पुरुष और चेतना और अंतस्तलीय आत्मा और चेतना के बीच में विभाजन रहा है । सतह का निर्माण मुख्य रूप से नीचे से उमड़नेवाली शक्ति के धक्के से, निश्चेतना द्वारा आध्यात्म पुरुष की प्रच्छन्न शक्ति के एक धीमे उभरते हुए रूपायन के विकास से हुआ । अंतस्तलीय अंशत: इसी तरह, किंतु मुख्य रूप से ऊपर से उसी शक्ति की विशालता के युगपत् अंतःस्राव से बना । मानसिक या प्राणिक सत्ता अंतस्तलीय भागों में उतरी और वहां उसने अपने गुह्य स्थान से मनोमय या प्राणमय व्यक्तित्व का निर्माण सतह पर किया । लेकिन अतिमानसिक परिवर्तन शुरू हो सकने से पहले यह जरूरी है कि सतही और अंतस्तलीय भागों के बीच का पर्दा फट चुका हो । अंतः-स्राव, अवरोहण समस्त चेतना में समग्र रूप से होगा, वह अंशत: पर्दे के पीछे न होगा । इसकी प्रक्रिया छिपी हुई, अस्पष्ट और संदिग्ध प्रक्रिया न होगी बल्कि एक मुक्त प्रस्फुटन होगी जिसका अनुभव और अनुसरण समग्र सत्ता अपने रूपांतर में सचेतन रूप से करेगी । अन्य रीतियों में प्रक्रिया एक- सी होगी -ऊपर से अतिमानसिक बाढ़, प्रकृति में विज्ञानमय सत्ता का अवरोहण और नीचे से छिपी हुई अतिमानसिक शक्ति का आविर्भाव । अज्ञान की प्रकृति का जो कुछ बच रहा है उसे यह बाढ़ और उनके बीच का उद्घाटन दूर कर देगा । निश्चेतना का राज्य गायब हों जायेगा; क्योकि निश्चेतना अपने अंदर की विशालतर प्रच्छन्न चेतना के, प्रच्छन्न प्रकाश के प्रस्फोटन द्वारा उसमें बदल जायेगी जो वह वास्तव में सदा थी अतिचेतना का प्रच्छन्न सागर । इसके निष्कर्ष होंगे विज्ञानमय चेतना और प्रकृति के प्रथम रूपायन ।
इस विकास का एकमात्र परिणाम पृथ्वी पर अतिमानसिक सत्ता, प्रकृति और जीवन के सृजन का परिणाम ही न होगा; वह अपने साथ उन चरणों की परिपूर्त्ति भी लिये रहेगा जिन्होंने उसे वहांतक पहुंचाया है; क्योंकि वह पार्थिव जन्म में अधिमानस, अंतर्भास और आध्यात्मिक प्रकृति-शक्ति की सभी श्रेणियों को लिये रहेगा और विज्ञानमय सत्ताओं की एक जाति और क्रम-परंपरा को स्थापित करेगा जो पार्थिव प्रकृति में विज्ञानमय ज्योति और शक्ति के संघटक रूपायनों और चढ़ती श्रेणियों का चमकता हुआ सोपान होगा । क्योंकि विज्ञान का वर्णन उस समस्त चेतना पर लागू होता है जो सत्ता के सत्य पर आधारित है, अज्ञान या निर्ज्ञान पर नहीं । मानसिक अज्ञान के परे उठने के लिये तैयार समस्त जीवन तथा सभी जीवित सत्ताएं लेकिन जो अभी अतिमानसिक ऊंचाई के लिये तैयार नहीं हैं; उन्हें एक तरह की सीढ़ी या आपस में गुंथी सीढ़ियों का क्रम मिलेगा जिसमें उन्हें परम सद्वस्तु की ओर के मार्ग में अपना निश्चित आधार, अपने आत्म-रूपायन के बीच के चरण
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मिलेंगे, आध्यात्मिक जीवन के लिये उपलब्ध क्षमता की अपनी अभिव्यक्ति मिलेगी । लेकिन यह आशा भी की जा सकती है कि मुक्त और अब प्रभुसत्तात्मक अतिमानसिक प्रकाश और शक्ति की उपस्थिति, जो विकसनशील प्रकृति के शीर्षस्थानीय है, उसके परिणाम समस्त विकास पर हों । विकास की निचली भूमिकाओं पर भी एक स्पर्श, एक निर्णायक दबाव का प्रभाव पड़ेगा । प्रकाश की कोई चीज, शक्ति की कोई चीज नीचे की ओर प्रवेश करेगी और प्रकृति में सब जगह छिपी हुई ऋत-शक्ति को महत्तर क्रिया के लिये जाग्रत् करेगी । सामंजस्य का एक प्रमुख तत्त्व अज्ञान के जीवन पर अपने-आपको आरोपित करेगा । विषमता, अंधी खोज, संघर्ष की टक्कर, अतिशयता, अवसाद, अपसामान्य उलट-फेर, अपने मिश्रण और संघर्ष में लगी अंधी शक्तियों का अस्थिर संतुलन -इन्हें उस प्रभाव का अनुभव होगा और ये अपना स्थान एक अधिक व्यवस्थित गति और सत्ता के विकास के अधिक सामंजस्यपूर्ण चरणों को, एक अधिक प्रगतिशील जीवन और चेतना की प्रकट करनेवाली व्यवस्था, एक उत्तम जीवन-व्यवस्था को देंगे । मानव जीवन में अंतर्भास, सहानुभूति और समझ की अधिक मुक्त लीला प्रवेश करेगी, आत्मा और वस्तुओं के सत्य का अधिक स्पष्ट बोध, जीवन के अवसरों और कठिनाइयों के साथ अधिक प्रबुद्ध व्यवहार होगा । चेतना की वृद्धि और निश्चेतना की शक्ति के बीच सतत मिला-जुला और अस्त-व्यस्त संघर्ष, प्रकाश की शक्तियों और अंधकार की शक्तियों के बीच संघर्ष की जगह विकास कम प्रकाश से अधिक प्रकाश की ओर क्रमिक प्रगति बन जायेगा । उसकी हर स्थिति में उस स्थिति की सचेतन सत्ताएं भीतर चित्-शक्ति को उत्तर देंगी और वैश्व प्रकृति के अपने विधान को उस प्रकृति की उच्चतर कोटि की संभावना की ओर विस्तृत करेंगी । कम-से-कम यह एक प्रबल संभावना है और इसे विकास पर अतिमानस की प्रत्यक्ष क्रिया के स्वाभाविक परिणाम के रूप में देखा जा सकता है । यह हस्तक्षेप विकसनशील तत्त्व को रद्द नहीं करेगा क्योंकि अतिमानस में यह शक्ति होती है कि वह अपनी ज्ञान-शक्ति को रोके रखे या आरक्षित रखे और उसे पूर्ण या आंशिक रूप में क्रियान्वित करे । लेकिन वह विकासशील आविर्भाव की कठिन और आक्रांत प्रक्रिया को सामंजस्य, स्थिरता, सुविधा और प्रशांति देगा और बहुत हदतक सुखमय बनायेगा ।
अतिमानस की प्रकृति में ही ऐसा कुछ है जो इस महान् परिणाम को अनिवार्य बनायेगा । अपने आधार में वह अद्वैतात्मक, समाकलनकारी और सामंजस्य लानेवाली चेतना है और अपने अवरोहण और अनंत की विविधता को विकास में कार्यान्वित करते हुए वह अपनी अद्वैत प्रवृत्ति, अपनी समाकलनकारी प्रेरणा या सामंजस्यकारी प्रभाव न खोयेगा । अधिमानस विभिन्नताओं और विभिन्न संभावनाओं का अनुसरण उन्हींकी अपनी-अपनी विभिन्न रेखाओं पर करता है; वह विरोधों और
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वैषम्यों को अनुमति दे सकता है लेकिन वह उन्हें वैश्व समग्र के तत्त्व बनाता है जिससे वे चाहे जितनी अनिच्छा के साथ क्यों न हों, स्वयं अपने बावजूद क्यों न हों, उसकी समग्रता में अपना भाग देने के लिये बाधित होते हैं । या हम कह सकते हैं कि वह विरोधों को स्वीकार करता बल्कि प्रोत्साहित करता है लेकिन उन्हें एक-दूसरे के अस्तित्व को सहारा देने के लिये बाधित भी करता है ताकि, सत्ता, चेतना और अनुभव के अलग-अलग रास्ते हो सकें जो उस एकमेव से और आपस में एक-दूसरे से अलग ले जाते हों, लेकिन फिर भी अपने-आपको उस एकत्व पर संरक्षित रखते हों और फिर से हर एक को अपने-अपने रास्ते से उस एकत्वतक वापिस ला सकते हों । हमारे अज्ञान-जगत् का गूढ़ रहस्य भी यही है । वह निश्चेतना के आधार से काम करता है लेकिन अधिमानसिक तत्त्व का विश्वत्व उसके मूल में होता है । लेकिन ऐसी सृष्टि में व्यष्टिगत सत्ता को इस गुप्त तत्त्व के ज्ञान पर न अधिकार होता है न वह अपने कर्म उसके आधार पर करती है । यहां अधिमानसिक सत्ता इस रहस्य को देख सकेगी लेकिन फिर भी वह प्रकृति की अपनी रेखाओं पर और अपने स्वभाव, स्वधर्म के अनुसार, अंतःप्रेरणा के अनुसार, क्रियाशील शासन या आत्मा के या अंतस्थ भगवान् के आंतरिक नियंत्रण द्वारा कार्य करे और बाकी सबको समष्टि की अपनी-अपनी रेखा पर छोड़ दे । अत: अज्ञान में अधिमानस की ज्ञान-सृष्टि अपने चारों ओर के अज्ञान-जगत् से अलग हो सकती है और हो सकता है कि उसके अपने तत्त्व की पृथक् करनेवाली और घेरा डालनेवाली प्रकाशमय दीवार उसकी अज्ञान से रक्षा करे । इसके विपरीत, अतिमानसिक विज्ञानमय सत्ता अपने सारे अस्तित्व को केवल अपने ही भीतरी और बाहरी जीवन या सामुदायिक जीवन में ही सामंजस्यपूर्ण एकत्व के अंतरंग बोध और प्रभावशाली चरितार्थता पर प्रतिष्ठित नहीं करेगी बल्कि अभीतक बचे हुए मानसिक जगत् के साथ भी सामंजस्यपूर्ण एकत्व की रचना करेगी, चाहे वह जगत् पूरी तरह अज्ञानमय ही क्यों न हो । क्योंकि, उसके अंदर की विज्ञानमय चेतना अज्ञान के रूपायन में छिपे हुए सामंजस्य के तत्त्व और विकसनशील सत्य को देख और बाहर ला सकेगी । वह उसके समग्रता के भाव के लिये स्वाभाविक होगा और उसे अपने विज्ञानमय तत्त्व के साथ और अपनी महत्तर जीवन-सृष्टि के विकसित सत्य और सामंजस्य के साथ एक सच्ची व्यवस्था में जोड़ना उसकी सामर्थ्य में होगा । यह जगत् के जीवन में एक बड़े परिवर्तन के बिना असंभव हो सकता है लेकिन इस तरह का परिवर्तन प्रकृति में एक नयी शक्ति के प्रादुर्भाव और उसके वैश्व प्रभाव का स्वाभाविक परिणाम होगा । विज्ञानमय सत्ता के आविर्भाव में पार्थिव प्रकृति में अधिक सामंजस्यपूर्ण विकास-व्यवस्था की आशा होगी ।
अतिमानसिक या विज्ञानमय सत्ताओं की जाति एक ही प्ररूप के अनुसार, एक निश्चित नमूने में ढली नहीं होगी क्योंकि अतिमानस का विधान है विभिन्नता में
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परिपूरित होता हुआ एकत्व । अत: विज्ञानमय चेतना की अभिव्यक्ति में अनंत विविधता होगी यद्यपि वह चेतना फिर भी अपने आधार और उपादान में, सब कुछ प्रकट करने और सबको एक करने की व्यवस्था में एक होगी । यह स्पष्ट है कि अतिमानस की त्रिविध स्थिति इस नयी अभिव्यक्ति में अपने-आपको एक तत्त्व के रूप में पुन: प्रस्तुत करेगी । उसके नीचे अधिमानस और अंतर्भास-विज्ञान की कोटियां होंगी जो होंगी उसीकी, वहां के जीव होंगे जिन्होंने ऊपर चढ़ती हुई चेतना की ये कोटियां प्राप्त कर ली हैं । फिर जैसे-जैसे ज्ञान का विकास बढ़ेगा, शिखर पर ऐसे व्यष्टि-जीव भी होंगे जो अतिमानस-रूपायन से आगे चढ़ जायेंगे और अतिमानस के उच्चतम शिखर से शरीर में ही अद्वैत-आत्मोपलब्धि की उन चोटियों पर जा पहुंचेगे जो अवश्य ही सृष्टि के प्रभु-प्रकाश की अंतिम और परम अवस्था होंगी, लेकिन स्वयं अतिमानसिक जाति में, उसकी कोटियों की विभिन्नता में, व्यक्ति व्यक्तित्व के एक ही प्ररूप में न ढाले जायेंगे । हर एक दूसरे से भिन्न, सत्ता का अनोखा रूपायन होगा यद्यपि आत्मा के आधार और एकत्व के भाव में तथा आत्म-सत्ता के तथ्य में सबके साथ एक रहेगा । हम अतिमानसिक सत्ता के इस व्यापक तत्त्व का ही विचार बनाने का प्रयास कर सकते हैं, फिर वह मानसिक विचार और मानसिक भाषा के कारण कितना भी क्षीण क्यों न हो जाये । विज्ञानमय सत्ता का अधिक जीवंत चित्र केवल अतिमानस ही बना सकेगा, क्योंकि मन के लिये तो केवल कुछ अमूर्त रूप-रेखाएं ही संभव हैं ।
विज्ञान आध्यात्म पुरुष का प्रभावी तत्त्व, आध्यात्मिक जीवन की उच्चतम ऊर्जा है, विज्ञानमय व्यक्ति आध्यात्मिक मनुष्य का चरमोत्कर्ष होगा, उसकी रहने, सोचने, जीने और कार्य करने की सारी विधि विशाल वैश्व आध्यात्मिकता की शक्ति से शासित होगी । परमात्मा के सभी त्रित्व उसकी अभिज्ञता के लिये वास्तविक और उसके आंतरिक जीवन में उपलब्ध होंगे । उसकी समस्त सत्ता परात्पर और वैश्व आत्मा और आध्यात्म पुरुष के साथ एक हो जायेगी, उसकी समस्त क्रिया परमात्मा और आध्यात्म पुरुष से आरंभ होगी और उसीकी दिव्य प्रकृति के अनुसार चलेगी । सारे जीवन में उसे यह बोध होगा कि चिन्मय सत् ही, अंतस्थ पुरुष ही प्रकृति में अपनी अभिव्यक्ति पा रहा है; उसका जीवन और जीवन के सारे विचार, भावनाएं और कार्य उसके लिये उसी अर्थ से भर जायेंगे ओर जीवन की वास्तविकता के उसी आधार पर खड़े होंगे । वह अपनी चेतना के हर केंद्र में, अपनी प्राण-शक्ति के हर स्पंदन में, अपने शरीर के हर कोषाणु में भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करेगा । अपनी प्रकृति की शक्ति की सभी क्रियाओं में वह परम विश्व जननी, अति-प्रकृति की क्रियाओं के बारे में अभिज्ञ होगा । वह अपनी प्राकृत सत्ता को विश्व जननी की शक्ति की संभूति और अभिव्यक्ति की तरह देखेगा । वह इस चेतना में समस्त परात्पर मुक्ति, आत्मा के पूर्ण आनंद, वैश्व आत्मा के साथ पूर्ण
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तादात्म्य और विश्व में सबके साथ सहज सहानुभूति में जियेगा और कार्य करेगा । उसके लिये सभी सत्ताएं उसकी अपनी आत्माएं होंगी, चेतना के सभी तरीके और शक्तियां उसको अपनी सार्विकता के तरीके और शक्तियों के रूप होंगे । लेकिन उस समावेशकारी सार्विकता मे निचली शक्तियों के साथ कोई बंधन न होगा, उसके अपने उच्चतर सत्य से स्खलन न होगा क्योंकि यह सत्य वस्तुओं के सभी सत्यों को आवेष्टित रखेगा और हर एक को अपने स्थान पर विभिन्नतापूर्ण सामंजस्य के संबंध में रखेगा । वह किसी अस्त-व्यस्तता, संघर्ष, सीमाओं के उल्लंघन को या समग्र सामंजस्य का निर्माण करनेवाले विभिन्न सामंजस्यों में विकृति को न आने देगा । उसके लिये उसका अपना जीवन और जगत्-जीवन एक संपूर्ण कलाकृति की न्याईं होगा । वह मानों एक वैश्व, सहज प्रतिभा की रचना होगा जो बहुत्वपरक व्यवस्था का अचूक क्रियान्वयन होगा । विज्ञानमय व्यक्ति जगत् में और जगत् का होगा लेकिन साथ ही अपनी चेतना में उसका अतिक्रमण करेगा और उसके ऊपर अपनी परात्परता की आत्मा में निवास करेगा; वह वैश्व होगा पर विश्व में मुक्त होगा, व्यक्ति होगा पर पृथक् करनेवाले व्यक्तित्व से सीमित नहीं । सच्चा पुरुष कोई अलग- थलग सत्ता नहीं है, उसका व्यक्तित्व वैश्व है क्योंकि वह विश्व को व्यक्तित्व देता है : साथ ही वह परात्पर अनंतता की आध्यात्मिक हवा में दिव्य रूप से आविर्भूत होता है, बादलों से ऊंचे ऊपर जाते हुए शिखर की तरह, क्योंकि वह दिव्य परात्परता को व्यष्टिरूप देता है ।
जो तीन शक्तियां अपने-आपको हमारे जीवन के आगे उसके रहस्य की तीन चाबियों के रूप में प्रस्तुत करती हैं वे हैं व्यष्टि, वैश्व सत्ता और वह सद्वस्तु जो इन दोनों में और इनके परे विद्यमान है । जीवन के ये तीन रहस्य अतिमानसिक जीव के जीवन में अपने सामंजस्य की सम्मिलित परिपूर्ति पायेंगे । वह पूर्णताप्राप्त संपूर्ण व्यक्ति होगा जो अपने विकास और आत्माभिव्यक्ति की तुष्टि में परिपूर्ण होगा क्योंकि उसके सभी तत्त्व उच्चतम कोटितक ले जाये जायेंगे और किसी तरह की व्यापक विशालता में समाकलित होंगे । हम जिसकी ओर प्रयास कर रहे हैं वह है पूर्णता और सामंजस्य । हम भीतर-ही-भीतर जिससे सबसे अधिक कष्ट पाते हैं वह है अपूर्णता और अक्षमता या अपनी प्रकृति की असंगति । लेकिन यह है हमारी सत्ता की अपूर्णता, हमारे अपूर्ण आत्म-ज्ञान, अपनी आत्मा और अपनी प्रकृति पर हमारे अपूर्ण अधिकार के कारण । सभी वस्तुओं में और सब समय पूर्ण आत्म-ज्ञान अतिमानसिक विज्ञान का उपहार है और उसके साथ है पूर्ण आत्म-संयम, केवल प्रकृति पर नियंत्रण के अर्थ में नहीं बल्कि प्रकृति में पूर्ण आत्माभिव्यक्ति की शक्ति के अर्थ में । आत्मा का जो कुछ ज्ञान होगा वह आत्मा की इच्छा में पूरी तरह से मूर्त होगा और वह इच्छा पूरी तरह आत्मा की क्रिया में मूर्त होगी और परिणाम होगा आत्मा का अपनी प्रकृति में पूर्ण क्रियाशील आत्म-रूपायन । विज्ञानमय पुरुष
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के निचले स्तरों पर प्रकृति के प्रकार के अनुसार आत्माभिव्यक्ति का सीमांकन होगा, एक सीमित पूर्णता होगी जो किसी पार्श्व, तत्त्व या किसी दिव्य समग्रता के तत्त्वों के संयुक्त सामंजस्य का रूपायन करेगी । अनंत रूपों में अभिव्यक्त एकमेव, दिव्य समग्रता के वैश्व रूप में से शक्तियों का सीमित संकलन होगा । लेकिन अतिमानसिक सत्ता में पूर्णता के लिये सीमांकन की यह आवश्यकता गायब हो जायेगी । विविधता सीमांकन के द्वारा नहीं प्राप्त की जायेगी बल्कि परा प्रकृति की शक्ति और रंग की भिन्नता द्वारा आयेगी । सत्ता का वही समग्र और प्रकृति का वही समग्र अपने-आपको अनंतविध भिन्न प्रकारों से प्रकट करेंगे क्योंकि हर सत्ता एकमेव सत्ता की एक नयी समग्रता, सामंजस्य और आत्म-समीकरण होगी । कौन- सी चीज किस क्षण सामने रखी जाये या पीछे रोक रखी जाये यह क्षमता या अक्षमता पर नहीं, बल्कि आत्मा के अपने सक्रिय चुनाव पर, उसके आत्माभिव्यक्ति के आनंद पर, भागवत इच्छा के सत्य पर और व्यष्टि के अपने अंदर आनंद पर निर्भर होगा और गौण रूप से उस चीज के सत्य पर जिसे समग्र के सामंजस्य के लिये व्यक्ति के द्वारा करना हो । क्योंकि पूर्ण व्यष्टि वैश्व व्यष्टि है, क्योंकि जब हम विश्व को अपने अंदर ले लें और उसका अतिक्रमण कर जाएं तभी हमारा व्यक्तित्व पूर्ण हो सकता है ।
अतिमानसिक सत्ता अपनी वैश्व चेतना में सर्व को अपने समान देखने और अनुभव करने के कारण उसी भाव से कार्य करेगी, वह अपनी व्यष्टिगत आत्मा के समग्र आत्मा के साथ, अपनी व्यष्टिगत इच्छा के समग्र इच्छा के साथ, अपनी व्यष्टिगत क्रिया के समग्र क्रिया के साथ सामंजस्य में और वैश्व अभिज्ञता में कर्म करेगी । क्योंकि हम अपने बाह्य जीवन में जिस कारण सबसे अधिक कष्ट पाते हैं और जिसकी प्रतिक्रियाएं हमारे आंतरिक जीवन पर होती हैं वह है जगत् के साथ हमारे संबंधों की अपूर्णता, औरों के बारे में हमारा अज्ञान, समस्त वस्तुओं के साथ हमारा असामंजस्य और हमारा जगत् से अपनी मांगों का, हमसे जगत् की मांगों का समीकरण न कर पाना । एक ऐसा संघर्ष है जिसका अपने-आपसे और जगत् से बच निकलने के सिवा कोई और अंतिम परिणाम नहीं दिखायी देता -ऐसा संधर्ष जिसमें एक ओर हमारा आत्म-प्रतिष्ठापन और दूसरी ओर वह जगत् है जिसपर हमें यह प्रतिष्ठापन आरोपित करना है, वह जगत् जो हमें अपने लिये अत्यधिक विशाल लगता है और लक्ष्य की ओर अपनी गति के बहाव में हमारी अंतरात्मा, मन, प्राण और शरीर के ऊपर से उदासीन भाव से निकलता हुआ प्रतीत होता है । हमारे पथ और लक्ष्य का जगत् के पथ और लक्ष्य के साथ संबंध हमारे लिये अप्रकट है और अपने-आपको उसके साथ सामंजस्य में बिठाने के लिये हमें या तो अपने- आपको उसपर आरोपित करना होगा और उसे अपना आज्ञाकारी बनाना होगा या अपने-आपको दबा कर उसके आज्ञाकारी बन जाना होगा या फिर, व्यक्ति की
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अपनी नियति और वैश्व समग्र तथा उसके गूढ़ उद्देश्य के बीच संबंध की इन दोनों आवश्यकताओं के मध्य एक कठिन संतुलन संपादित करना होता है । लेकिन विश्व-चेतना में रहनेवाली अतिमानसिक सत्ता के लिये कठिनाई का अस्तित्व न होगा, चूंकि उसमें अहंकार नहीं होता । उसका वैश्व व्यक्तित्व वैश्व शक्तियों, उनकी गतिविधि और उनके अर्थ को अपने ही भाग के रूप में देखेगा और उसके अंदर ऋत-चेतना हर कदम पर उचित संबंध को देखेगी और उस संबंध की ठीक क्रियाशील अभिव्यक्ति को पा लेगी ।
क्योंकि, वास्तव में व्यष्टि और विश्व दोनों एक ही परात्पर सत् की युगपत् और आपस में संबद्ध अभिव्यक्तियां हैं । यद्यपि अज्ञान में और उसके विधान के अधीन कुसमंजन और संघर्ष रहता है फिर भी एक सच्चा संबंध और समीकरण होना चाहिये जिसमें सब कुछ आ पहुंचता है । लेकिन हम अपने अहंकार के अंधेपन में, सबमें आध्यात्म पुरुष को प्रतिष्ठित करने की जगह अहंकार का समर्थन करने के प्रयत्न में उसे खो बैठते हैं । अतिमानसिक चेतना में संबंधों का वह सत्य उसके स्वाभाविक स्वत्व और विशेषाधिकार के रूप में उसके अंदर रहता है क्योंकि अतिमानस ही वैश्व संबंधों और विश्व के साथ व्यष्टि के संबंधों का निर्धारण करता है, परात्पर की शक्ति के रूप में वह उनका निर्धारण प्रभुता से और आजादी के साथ करता है । मानसिक सत्ता में अहं को अभिभूत करनेवाली विश्व-चेतना का दबाव और विश्वातीत सद्वस्तु की अभिज्ञता, ये दोनों ही अपने-आपमें कोई क्रियाशील समाधान नहीं ला सकते क्योंकि उसकी मुक्त आध्यात्मिक मानसता और वैश्व अज्ञान के अंधकारमय जीवन में एक असंगति हो सकती है जिसके समाधान या अतिक्रमण की सामर्थ्य मन में नहीं होगी । लेकिन अतिमानसिक सत्ता में, जो न केवल स्थैतिक रूप से सचेतन होगी बल्कि पूरी तरह क्रियाशील होगी और परात्पर की सृजनात्मक ज्योति और शक्ति, अतिमानसिक प्रकाश, ' ॠतमू ज्योति:' में कार्य करेगी, वह शक्ति होगी । क्योंकि वहां विश्वात्मा के साथ एकत्व तो होगा लेकिन विश्व-प्रकृति के अज्ञान के निचले रूपायनों की दासता न होगी; इसके विपरीत, उस अज्ञान पर सत्य के प्रकाश में कार्य करनेवाली शक्ति होगी । आत्माभिव्यक्ति की एक विशाल सार्वभौमता, जगत् सत्ता की विशाल सामंजस्यपूर्ण सार्वभौमता, ये विज्ञानमय प्रकृति में स्थित अतिमानसिक पुरुष का लक्षण होंगी ।
अतिमानसिक सत्ता का अस्तित्व एकमेव सत्ता के आनंद के लिये एकमेव सत्ता और एकमेव चेतना की बहुविध और बहुल रूपों में अभिव्यक्त होती हुई ऋत- शक्ति की लीला होगा । विज्ञानमय जीवन का अर्थ होगा परम आत्मा के अपनी सत्ता के सत्य में अभिव्यक्त होने का आनंद । उसकी सारी गतिविधियां परम आत्मा के सत्य का और साथ ही परम आत्मा के आनंद का रूपायन होंगी -वह आध्यात्मिक सत्ता का प्रतिष्ठापन, आध्यात्मिक चेतना का प्रतिष्ठापन और सत्ता के
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आध्यात्मिक आनंद का प्रतिष्ठापन होगा । लेकिन यह प्रतिष्ठापन अहं-केंद्रित या पृथक्कारी या औरों के आत्म-प्रतिष्ठापन या उनकी जीवन से की गयी मांग के प्रति विरोधी या उदासीन या अपर्याप्त रूप से जीवंत रहनेवाला न होगा जैसा कि अंतर्निहित एकत्व के बावजूद हमारे अंदर का आत्म-प्रतिष्ठापन रहने के लिये प्रवृत्त होता है । आत्मा में सबके साथ एक होता हुआ अतिमानसिक पुरुष अपने अंदर आध्यात्म पुरुष की आत्माभिव्यक्ति के आनंद को खोजेगा लेकिन साथ ही सबके अंदर भगवान् के आनंद को भी खोजेगा । उसे वैश्व आनंद प्राप्त होगा और साथ ही औरों के लिये परम आत्मा के आनंद को, सत्ता के आनंद को लाने की शक्ति भी उसमें होगी क्योंकि उनका आनंद उसके अपने सत्ता के आनंद का भाग होगा । सभी सत्ताओं के भले के लिये लगा रहना, औरों के सुख-दुःख को अपना बना लेना -इन्हें मुक्त और पूर्णताप्राप्त आध्यात्मिक पुरुष का चिह्न कहा गया है । अतिमानसिक सत्ता को इसके लिये इस परोपकारमय आत्म-विलोपन की जरूरत न होगी क्योंकि यह कार्य उसकी आत्म-परिपूर्ति के लिये, सभीके अंदर उस ''एक'' की परिपूर्ति के लिये अंतरंग होगा, उसके अपने भले और औरों के भले के बीच कोई विरोध या संघर्ष न होगा । उसे अज्ञान के प्राणियों के सुख-दुःख के आधीन होकर वैश्व सहानुभूति प्राप्त करने की भी कोई जरूरत न होगी । उसकी वैश्व सहानुभूति उसमें उत्पन्न सत्ता के सत्य का एक भाग होगी जो निम्नतर सुख-दुःख में व्यक्तिगत रूप से भाग लेने पर आश्रित न होगी । वह जिसका आलिंगन करेगा उसका अतिक्रमण कर जायेगा और उस अतिक्रमण में ही उसकी शक्ति होगी । उसका वैश्व भाव का अनुभव, उसका वैश्व भाव का कर्म हमेशा सहज स्थिति और स्वाभाविक गतिविधि होंगे, सत्य की स्वत:चालित अभिव्यक्ति होंगे, परम आत्मा की स्वयंभू सत्ता के आह्वाद का कार्य होंगे । उसमें सीमित आत्मा या कामना के लिये, सीमित आत्मा के संतोष अथवा कुंठा के लिये या कामना के संतोष या कुंठा के लिये कोई स्थान न होगा, हमारी सीमित प्रकृति में आनेवाले और उसे दुःख देनेवाले सापेक्ष और पराश्रित सुख या दुःख के लिये स्थान न होगा क्योंकि ये चीजें अहं और अज्ञान की हैं, आध्यात्म पुरुष की स्वतंत्रता और सत्य की नहीं ।
विज्ञानमय पुरुष में कर्म की इच्छा तो होती है, साथ हीं यह ज्ञान भी होता है कि किस चीज की इच्छा करनी चाहिये और अपने ज्ञान को कार्यान्वित करने का बल भी होता है । अज्ञान उसे जो नहीं करना चाहिये उसे करने के लिये प्रवृत्त नहीं कर सकता । और फिर उसका कर्म किसी फल या परिणाम की खोज नहीं होता, उसका आनंद है होने और करने में, आध्यात्म सत्ता की शुद्ध स्थिति में, आध्यात्म सत्ता की शुद्ध क्रिया में, आध्यात्म सत्ता के शुद्ध आनंद में । जिस तरह उसकी स्थैतिक चेतना सब अपने अदंर समाये रखेगी और फलस्वरूप सदा आत्म-परिपूर्त होगी उसी तरह उसकी चेतना की क्रियाशीलता भी पग-पग पर, हर कर्म में
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आध्यात्मिक स्वतंत्रता और आत्म-परिपूर्ति पायेगी । सबको समग्र के साथ उसके संबंध में देखा जायेगा ताकि हर कदम अपने-आपमें प्रकाशमय, उल्लासमय और संतोषजनक हो, क्योंकि हर एक प्रकाशमय समग्रता के साथ सुसंगत है । यह चेतना, आध्यात्मिक समग्रता में यह जीना और वहां से कार्य करना, सत्ता के सार- तत्त्व में संतुष्ट समग्रता, सत्ता की क्रियाशील गतिविधि में संतुष्ट समग्रता, हर कदम के साथ उस समग्रता के साथ संबंध का भाव, वस्तुत: अतिमानसिक चेतना का विशेष निशान है और उसे अज्ञान में हमारी चेतना के असंबद्ध अज्ञानमय क्रमिक चरणों से अलग करता है । विज्ञानमय सत्ता और सत्ता का आनंद वैश्व और समग्र सत्ता और आनंद है और हर अलग गति में उसकी समग्रता और उसके वैश्व भाव की उपस्थिति होगी, हर एक में आत्मा की आंशिक अनुभूति या उसके आनंद का लवलेश न होकर समग्र सत्ताओं की संपूर्ण गति का भाव होगा और उसकी सत्ता के संपूर्ण और समस्त आनंद की उपस्थिति होगी । क्रिया में आत्मानुभूत विज्ञानमय सत्ता का ज्ञान कोई काल्पनिक ज्ञान न होकर अतिमानस का सत्य-संकल्प होगा, चेतना की सारभूत ज्योति का यंत्र-विन्यास समस्त सत् और संभूति का स्व-प्रकाश होगा जो अपने-आपको हमेशा उंडेलता रहेगा और हर क्रिया-विशेष तथा क्रियाशीलता में अपनी आत्म-सत्ता के शुद्ध और समग्र आनंद को भरता रहेगा क्योंकि हर एकात्म के साथ ज्ञानवाली अनंत चेतना के लिये हर विशिष्टीकरण में अभिन्नता का आनंद और अनुभव होता है और हर सांत में अनंत की अनुभूति होती है ।
विज्ञानमय चेतना का विकास अपने साथ हमारी जगत्-चेतना और जगत्-क्रिया का रूपांतर लाता है क्योंकि वह अभिज्ञता की नयी शक्ति में केवल आंतरिक जीवन को ही नहीं बल्कि हमारी बाहरी सत्ता और हमारी जगत्-सत्ता को भी ले लेता है; दोनों का पुनर्निर्माण होता है, आध्यात्मिक जीवन की शक्ति और भाव में उनका समाकलन होता है । इस परिवर्तन में हमारे अंदर एक ही साथ हमारी वर्तमान जीवन-विधि का उल्टाव और त्याग और साथ ही उसकी आंतरिक प्रवृत्ति और धारा की परिपूर्ति अवश्य आनी चाहिये; क्योंकि अब हम दो स्थितियों के बीच खड़े हैं; एक, जड़ भौतिक और प्राण का बाहरी जगत् जिसने हमें बनाया है और दूसरा, स्वयं हमारे द्वारा विकसनशील आत्मा के भाव में जगत् का पुनर्निर्माण । हमारी वर्तमान जीवन-पद्धति एक साथ प्राण-शक्ति और जड़-पदार्थ के आधीन और प्राण और जड़ के साथ संघर्ष में है । अपने पहले आविर्भाव में बाहरी जीवन अपने प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं से एक भीतरी या मानसिक जीवन की रचना करता है । अगर हम अपने-आपको आकार देते भी हैं तो अधिकतर लोगों में वह अंदर से स्वतंत्र अंतरात्मा या प्रज्ञा के सचेतन दबाव द्वारा कम और हमपर क्रिया करनेवाले पर्यावरण और जगत्-प्रकृति की प्रतिक्रिया के रूप में अधिक होता है । लेकिन हम
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अपनी सचेतन सत्ता के विकास में जिसकी ओर गति करते हैं वह एक भीतरी जीवन है जो अपने ज्ञान और शक्ति द्वारा अपने जीवन के बाहरी रूप और जीवन के आत्माभिव्यक्ति करनेवाले पर्यावरण का निर्माण करता है । विज्ञानमय प्रकृति में यह गति अपना चरम उत्कर्ष पा लेगी, वहां जीवन का स्वरूप वह सिद्ध आंतरिक जीवन होगा जिसकी ज्योति और शक्ति बाहरी जीवन में पूर्ण शरीर धारण कर लेगी । ज्ञानमय पुरुष प्राण और जड़तत्त्व के जगत् को अपने हाथ में ले लेगा लेकिन वह उसे अपने सत्य और जीवन के प्रयोजन की ओर मोड़कर उसके अनुकूल कर लेगा । वह स्वयं जीवन को अपनी आध्यात्मिक प्रतिमा के रूप में गढ़ लेगा और वह ऐसा कर सकेगा क्योंकि उसके पास आध्यात्मिक सृजन का रहस्य है और वह अपने भीतर के स्रष्टा के साथ सायुज्य और एकत्व में है । इसका पहला प्रभाव उसके अपने आंतरिक और बाह्य वैयक्तिक जीवन को आकार देने में दिखायी देगा लेकिन हर विज्ञानमय सामूहिक जीवन में वही शक्ति और तत्त्व क्रियाशील होंगे । विज्ञान-पुरुष के साथ विज्ञान-पुरुष के संबंध उनकी एकमेव विज्ञानात्मा और पराप्रकृति की अभिव्यक्ति होंगे । वह पराप्रकृति सारे सामूहिक जीवन को इस तरह गढ़ेगी कि वह उसकी सार्थक शक्ति और सार्थक रूप हो जाये ।
समस्त आध्यात्मिक जीवन में आंतरिक जीवन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है । आध्यात्मिक मनुष्य हमेशा भीतर निवास करता है और अज्ञान के ऐसे जगत् में, जो बदलने से इंकार करता है, उससे उसे एक अर्थ में अलग रहना पड़ता और अज्ञान की अंधेरी शक्तियों की घुस-पैठ और उनके प्रभाव से अपने आंतरिक जीवन की रक्षा करनी पड़ती है । जगत् में रहते हुए भी वह उसके बाहर होता है । अगर वह उसपर क्रिया करता है तो अपनी भीतरी आध्यात्मिक सत्ता के दुर्ग से जहां अंतरतम गर्भगृह में वह परम सत्ता के साथ एक है या आत्मा और परमात्मा अकेले साथ-साथ होते हैं । विज्ञानमय जीवन एक आंतरिक जीवन होगा जिसमें भीतरी और बाहरी की असंगति, आत्मा और जगत् की असंगति का उपचार और अतिक्रमण हो जायेगा । वस्तुत: विज्ञानमय पुरुष का एक अंतरतम अस्तित्व होगा जिसमें वह भगवान् के साथ अकेला होगा -शाश्वत के साथ एक, अनंत की गहराइयों में अपने-आप डूबा हुआ, उसकी ऊंचाइयों और उसके ज्योतिर्मय गुह्य गह्वरों के साथ अंतर्युक्त । कोई भी चीज इन गहराइयों में विक्षोभ न ला सकेगी, न उनपर आक्रमण कर सकेगी, उसे इन शिखरों से नीचे न उतार सकेगी न जगत् में जो कुछ है, न उसके कर्म, न जो कुछ उसके चारों ओर है । यह आध्यात्मिक जीवन का परात्पर रूप है और आत्मा की स्वाधीनता के लिये यह आवश्यक है, क्योंकि नहीं तो, प्रकृति में जगत् के साथ तादात्म्य एक बांधनेवाला परिसीमन होगा, मुक्त तादात्म्य नहीं । लेकिन, साथ ही उस आंतरिक सायुज्य और ऐक्य की हार्दिक
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अभिव्यक्ति होंगे भागवत प्रेम और भागवत आनंद; और वह प्रेम और आनंद समस्त जीवन का आलिंगन करने के लिये अपने-आपको विस्तृत करेंगें । भीतर भगवान् की शांति विश्व की विज्ञानमय अनुभूति में, समता की वैश्व अचंचलता में विस्तृत होगी, वह भी केवल निष्क्रिय नहीं बल्कि सक्रिय होगी; वह एकत्व में मुक्ति की अचंचलता में विस्तृत होगी, उसे जो कुछ मिले उसपर छा जायेगी, जो कुछ उसमें प्रवेश करे वह उसे शांत करेगी, अतिमानसिक सत्ता जिस जगत् में निवास करती है उसके साथ के उस सत्ता के संबंधों पर शांति के विधान को आरोपित करेगी । उसके सभी कार्यों में आंतरिक ऐक्य, आंतरिक सायुज्य उसके साथ रहेंगे और उसके अन्यों के साथ संबंधों में प्रवेश करेंगें । वे उसके लिये अन्य नहीं होंगे बल्कि एक ही अस्तित्व में उसकी अपनी आत्माएं उसका अपना वैश्व जीवन होंगे । परमात्मा के अंदर यह संतुलन और स्वाधीनता उसे समस्त जीवन को अपने अंदर लेंने योग्य बनायेंगे और वह अज्ञान में प्रवेश किये बिना, अपने-आप आध्यात्म पुरुष रहते हुए इस अज्ञानमय जगत् को भी अपने आलिंगन में ले सकेगा ।
क्योंकि, उसका विश्व-जीवन का अनुभव अपने प्राकृतिक रूप के कारण और वैयक्तीकृत केंद्रण के कारण एक ऐसे का अनुभव होगा जो विश्व में जी रहा है लेकिन साथ-ही-साथ, एकत्व में आत्म-विस्तार और प्रसार के कारण एक ऐसे का अनुभव होगा जो विश्व और उसकी सभी सत्ताओं को अपने अंदर लिये रहता है । सत्ता की यह विस्तृत अवस्था केवल आत्मा के एकत्व में विस्तार या धारणात्मक भाव और दृष्टि में विस्तार नहीं होगी बल्कि हृदय में, इंद्रिय-संवेदनों में, स्थूल शारीरिक चेतना में एकत्व का विस्तार होगी । उसकी चेतना, उसका संवेदन, उसकी अनुभूति वैश्व होगी और फलस्वरूप सारा बाहरी जीवन उसके आत्मपरक जीवन का अंग हो जायेगा जिसके द्वारा वह सभी रूपों में भगवान् को पा लेगा, उनका प्रत्यक्ष-बोध और अनुभव पायेगा, उनका दर्शन और श्रवण करेगा, सभी रूपों और गतिविधियों में उसे यही अनुभव और बोध होगा, वह उन्हें इसी रूप में देखेगा, सुनेगा और अनुभव करेगा मानों ये उसकी अपनी बृहत् सत्ता के अंदर हो रहे हों । जगत् केवल उसके बाहरी नहीं, भीतरी जीवन के साथ भी संबद्ध होगा । वह जगत् के साथ केवल बाहरी रूप में बाहरी संपर्क द्वारा नहीं मिलेगा, वह भीतर से वस्तुओं के और सत्ताओं के आंतरिक जीवन के साथ संपर्क में होगा । वह सचेतन रूप से उनकी भीतरी और बाहरी प्रतिक्रियाओं से मिलेगा, वह उनके भीतर उससे अभिज्ञ होगा जिससे वे स्वयं अभिज्ञ न होंगे, सब पर भीतरी ज्ञान से क्रिया करेगा, सबके साथ पूर्ण सहानुभूति और एकत्व-भाव से मिलेगा, साथ ही एक ऐसी स्वाधीनता के भाव से जिसपर कोई संपर्क अधिकार नहीं कर सकता । जगत् पर उसकी क्रिया अधिकतर एक ऐसी आंतरिक क्रिया होगी जो आत्मा की शक्ति द्वारा, अपने- आपको जगत् में रूपायित कर रही आध्यात्मिक-अतिमानसिक भाव-शक्ति द्धारा,
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गुह्य अनुच्चारित शब्द द्वारा, हृदय की शक्ति द्वारा, क्रियाशील प्राण-शक्ति द्वारा, जो आत्मा सब चीजों के साथ एक है उसको आवेष्टित करने और भेदन करनेवाली शक्ति द्वारा होगी । बाहरी, प्रकट और दृश्य क्रिया इस एक, बृहत्तर और समग्र क्रियाशीलता का केवल एक किनारा, एक अंतिम प्रक्षेप होगी ।
साथ ही, व्यक्ति का आंतरिक वैश्व जीवन केवल भौतिक जगत् में अंतर्व्याप्त और केवल उसी जगत् को अपनी परिधि में लेनेवाले संपर्कतक सीमित न होगा; वह सत्ता के अन्य स्तरों के साथ अंतस्तलीय आंतरिक सत्ता के स्वाभाविक संबंध के पूर्णतया चरितार्थ होने के द्वारा उसके परे पहुंच जायेगा । उनकी शक्तियों और प्रभावों का ज्ञान आंतरिक अनुभूति का सामान्य तत्त्व बन गया होगा, और इस जगत् की घटनाएं केवल अपने बाह्य रूप में ही नहीं बल्कि, साथ ही उस समस्त के प्रकाश में देखी जायेंगी जो भौतिक और पार्थिव सृष्टि और गतिविधि के पीछे छिपा है । विज्ञानमय पुरुष को अपने भौतिक जगत् पर 'अध्यात्म सत्ता' की सिद्ध शक्ति का केवल ऋत-चिन्मय नियंत्रण ही प्राप्त नहीं होगा बल्कि उसे मानसिक लोकों और प्राणिक लोकों की पूरी शक्ति पर और भौतिक जीवन की पूर्णता के लिये उनकी अधिक बड़ी शक्तियों पर भी अधिकार होगा । समस्त सत्ता का यह महत्तर ज्ञान और उसपर यह अधिकार विज्ञानमय पुरुष की अपने परिवेश और भौतिक प्रकृति के जगत् पर क्रिया करने की शक्ति को बहुत बढ़ा देगा ।
स्वयंभू सत् में, अतिमानस जिसका क्रियाशील ऋत-चित् है, ''होने'' के सिवा सत्ता का कोई और लक्ष्य नहीं हो सकता, सत्ता के बारे में सचेतन होने के सिवा चेतना का कोई और लक्ष्य नहीं हो सकता, सत्ता के आनंद के सिवा उसके आनंद का कोई और लक्ष्य नहीं हो सकता । सब कुछ स्वयंभू और स्वयं-संपूर्ण शाश्वतता है । अभिव्यक्ति का, संभूति का अपनी मूल अतिमानसिक गतिविधि में यही स्वभाव होता है । वह स्वयंभू और स्वयं-पूर्ण छंद में सत्ता की ऐसी क्रियाशीलता को धारण किये रहती है जो अपने-आपको बहुविध संभूति के रूप में देखती है, चेतना की ऐसी क्रियाशीलता को धारण किये रहती है जो बहुविध आत्मज्ञान का रूप लेती है, सचेतन सत्ता की शक्ति की ऐसी क्रियाशीलता को धारण किये रहती है जो अपनी बहुविध सत्ता की शक्ति की महिमा और सौंदर्य के लिये अस्तित्व में रहती है, आनंद की ऐसी क्रियाशीलता को धारण किये रहती है जो आनंद के अनंत रूप धारण करती है । यहां जड़ में अतिमानसिक सत्ता के अस्तित्व और चेतना का मूलभूत रूप से वही स्वभाव होगा लेकिन कुछ गौण लक्षण भी होंगे जो अपने स्वधाम में रहते अतिमानस तथा पार्थिव सत्ता में अपनी अभिव्यक्त शक्ति में कार्य करते अतिमानस के बीच में फर्क दिखायेंगे । क्योकि यहां एक विकसनशील सत्ता, विकसनशील चेतना होगी, सत्ता का विकसनशील आनंद होगा । विज्ञानमय पुरुष अज्ञान की चेतना से सच्चिदानंद-चेतना की ओर विकास के चिह्न के रूप में प्रकट
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होगा । अज्ञान में हम प्रथमत: बढ़ने के लिये, जानने के लिये और करने के लिये या ज्यादा ठीक कहें तो किसी चीज में विकसित होने के लिये, ज्ञान द्वारा किसी चीजतक पहुंचने के लिये, किसी चीज को निष्पन्न करने के लिये होते हैं । अपूर्ण होने के कारण हमें अपनी सत्ता से संतोष नहीं होता, हमें जबरदस्ती कठिनाई और परिश्रम के साथ किसी ऐसी चीज में विकसित होने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है जो हम नहीं हैं । अज्ञ और अपने अज्ञान की चेतना के भार से दबे होने के कारण हमें किसी ऐसी चीजतक पहुंचना होता है जिसके द्वारा हम यह अनुभव कर सकें कि हम जानते हैं । अक्षमता से बंधे होने के कारण हमें बल और शक्ति की खोज करनी होती है, दुःख की चेतना से पीड़ित होने के कारण हमें किसी ऐसी चीज को निष्पन्न करने का प्रयास करना होता है जिससे हम किसी सुख को पकड़ सकें या जीवन की संतोषप्रद वास्तविकता को हस्तगत कर सकें । निश्चय ही, अस्तित्व को बनाये रखना ही हमारी पहली व्यस्तता और आवश्यकता है, लेकिन यह केवल आरंभबिंदु है क्योंकि एक अपूर्ण जीवन को बनाये रखना, जिसमें दुःख के उतार-बढ़ाव हों, हमारी सत्ता का पर्याप्त लक्ष्य नहीं हो सकता । अस्तित्व की सहजवृत्तिगत इच्छा, अस्तित्व का सुख ही बस वह चीज है जिसे अज्ञान गुप्त अंतर्निहित शक्ति और आनंद में से निकाल पाता है -इसे पूरा करना होता है कुछ करने और बनने की आवश्यकता से । लेकिन हमें स्पष्ट पता नहीं है कि क्या करें और क्या बनें । हम जो कुछ ज्ञान पा सकते हैं पाते हैं, जो शक्ति, बल, शुद्धि, शांति पा सकते हैं, आनंद पा सकते हैं पाते हैं और जो हो सकते हैं होते हैं । लेकिन हमारे लक्ष्य और उनकी प्राप्ति के लिये, हमारे प्रयत्न और उपलब्धि के रूप में हम जो थोड़ा-सा रख पाते हैं, वे सब हमें बांधनेवाले पाश में बदल जाते हैं, वे ही हमारे लिये जीवन के लक्ष्य बन जाते हैं । अपनी आत्माओं को जानना और अपने-आप होना, जिसे हमारी सत्ता की सच्ची विधि का आधार होना चाहिये, एक ऐसा रहस्य है जो हमसे बाहरी ज्ञानार्जन, ज्ञान के बाहरी निर्माण, बाहरी क्रिया की प्राप्ति, बाहरी आनंद और सुख में व्यस्त रहने के कारण बच निकलता है । आध्यात्मिक मनुष्य वह है जिसने अपनी अंतरात्मा को खोज लिया है, उसने अपनी आत्मा को पा लिया है और उसमें निवास करता है, उसके बारे में सचेतन है, उसे उसका आनंद प्राप्त है । उसे अपने जीवन की संपूर्णता के लिये किसी बाहरी चीज की जरूरत नहीं रहती । विज्ञानमय पुरुष इस नये आधार से आरंभ करके हमारी अज्ञानमय संभूति को अपने हाथ में लेकर उसे ज्ञान की ज्योतिर्मय संभूति और सत्ता की सिद्ध शक्ति में बदल देता है । अत: अपने अज्ञान में हम जो कुछ होने का प्रयास करते हैं उसे वह ज्ञान में पूरा कर देगा । वह समस्त ज्ञान को सत्ता के आत्मज्ञान की अभिव्यक्ति में बदल देगा, समस्त शक्ति और क्रिया को सत्ता की आत्मशक्ति के बल और कर्म में, समस्त आनंद को आत्म-सत्ता के वैश्व आनंद में बदल देगा । आसक्ति और बंधन
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गिर जायेंगे क्योंकि पग-पग पर, हर चीज में आत्म-सत्ता को पूर्ण संतोष होगा, चेतना की ज्योति अपने-आपको परिपूर्ण कर रही होगी, सत्ता के आनंद का उल्लास अपने-आपको पा रहा होगा । ज्ञान में क्रम-विकास की प्रत्येक स्थिति सत्ता की इस इच्छा और इस शक्ति और होने के इस आनंद का उन्मीलन होगी, अनंत के बोध द्वारा, परात्पर सत्ता की ज्योतिर्मय स्वीकृति द्वारा समर्थित एक मुक्त संभूति होगी ।
अतिमानसिक रूपांतर, अतिमानसिक विकास को अपने साथ मन, प्राण और शरीर को उनके स्व में से उठाकर सत्ता की महत्तर रीति में लाना चाहिये जिसमें फिर भी उनकी अपनी रीतियों और शक्तियों को दबाया या लुप्त नहीं किया जायेगा बल्कि अपने अतिक्रमण द्वारा उन्हें पूर्ण किया जायेगा और उनकी परिपूर्ति होगी । क्योंकि, अज्ञान में सभी मार्ग उस आध्यात्म पुरुष के मार्ग हैं जो अपने-आपको अंधेपन में या बढ़ती हुई ज्योति में ढूंढ़ रहा है । विज्ञानमय सत्ता और जीवन होंगे आध्यात्म पुरुष के आत्माविष्कार और इन सब मार्गों के लक्ष्यों को देखना और उनतक पहुंचना और साथ ही उसका सत्ता के अपने ही प्रकट तथा सचेतन सत्य की महत्तर रीति से यह करना । मन प्रकाश की, ज्ञान की खोज करता है, सबके आधार एकमेव सत्य के ज्ञान की, आत्मा और वस्तुओं के सारभूत सत्य के ज्ञान की लेकिन साथ ही वह उस एकत्व की विभिन्नता के पूरे सत्य की, उसके सभी व्यौरों, परिस्थितियों, बहुविध क्रियारीतियों, रूप, गतिविधि और घटना के विधान, विभिन्न अभिव्यक्ति और सृजन की भी खोज करता है । क्योंकि चिंतनशील मन के लिये सत्ता का आनंद है ज्ञान के साथ आनेवाले सृजन के रहस्य का अन्वेषण और भेदन । विज्ञानमय परिवर्तन इसे पर्याप्त मात्रा में परिपूरित करेगा लेकिन यह उसे एक नया स्वरूप देगा । वह अज्ञात की खोज द्धारा नहीं बल्कि ज्ञात को बाहर लाकर क्रिया करेगा । सब कुछ ''आत्मा की आत्मा द्वारा आत्मा में'' खोज होगी क्योंकि विज्ञान-पुरुष की आत्मा मानसिक अहंकार न होकर परमात्मा होगी जो सबके अंदर एक है; वह जगत् को परमात्मा के विश्व के रूप में देखेगी । सभी चीजों के नीचे रहनेवाले एक सत्य की खोज 'अभिन्न' के द्वारा सब जगह अभिन्नता और अभिन्न सत्य की खोज और उसी अभिन्नता की शक्ति और क्रियाओं और संबंधों की खोज होगी । व्यौरे का, परिस्थिति का, अभिव्यक्ति के बहुत से तरीकों और रूपों का प्रकटन उसी अभिन्नता के सत्यों के अपार वैभव का, उसकी आत्मा के रूपों और शक्तियों का, उसके एकत्व को अंतहीन रूप से प्रकट करती उसके रूपों की विलक्षण विविधता और बहुलता का अनावरण होगा । यह ज्ञान सबके साथ तादात्म्य द्वारा, सबमें प्रवेश करके, ऐसे संपर्क द्वारा अग्रसर होगा जो अपने साथ आत्मानुसंधान की छलांग और पहचान की ज्वाला लायेगा, मन जहांतक पहुंच सकता है उससे बड़े और अधिक निश्चित सत्य के अंतर्भास को लायेगा । देखे हुए सत्य को मूर्तरूप देने और उपयोग में लाने के साधन का भी एक अंतर्भास होगा,
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उसकी क्रियाशील प्रक्रियाओं का संचालक अंतर्भास होगा । एक प्रत्यक्ष और अंतरंग अभिज्ञता आयेगी जो जब प्राण और जड़ में इस प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिये प्राण और शारीरिक इंद्रियों को उपकरण के रूप में लाने की जरूरत होगी तो उनकों उनकी क्रिया और परमात्मा की सेवा के हर चरण पर मार्ग दिखायेगी ।
ज्ञान की और ज्ञान की क्रिया की प्रत्येक विज्ञानमय गति का लक्षण होगा बौद्धिक खोज के स्थान पर अतिमानसिक तादात्म्य और उस तादात्म्य में अंतर्वस्तुओं के विज्ञानमय अंतर्भास की प्रतिष्ठा, अध्यात्म की सर्वव्यापकता जिसमें उसका प्रकाश ज्ञान की समस्त प्रक्रिया और उसके पूरे उपयोग में प्रवेश करे ताकि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय में, संचालन करनेवाली चेतना, यंत्र-विन्यास और की हुई वस्तु में समाकलन हों, जब कि एकमेव आत्मा समस्त समाकलित गतिविधि पर नजर रखती है और अपने-आपको घनिष्ठ रूप से उसमें परिपूरित करती है, उसे आत्म-सिद्धि की दोषरहित इकाई बनाती है । मन अवलोकन और तर्क करता हुआ अपने-आपको अलग करके वस्तुनिष्ठ रूप से देखता है और सच्चाई के साथ यह जानने की कोशिश करता है कि उसे क्या जानना चाहिये । वह उसे अनात्म, स्वतंत्र अन्य वास्तविकता के रूप में जानने की कोशिश करता है और व्यक्तिगत विचारणा की प्रक्रिया या आत्मा की उपस्थिति से प्रभावित नहीं होता । विज्ञानमय चेतना अपने विषय को एकदम अंतरंग और यथार्थ रूप में उसके साथ बोधगम्य और भेदक तादात्म्य द्वारा जान लेगी । उसे जो जानना है उसे वह पार कर जायेगी, लेकिन उसे अपने अंदर सम्मिलित करके; वह विषय को अपने अंग के रूप में उसी तरह जानेगी जैसे अपनी सत्ता के किसी भाग या गति को जान सकती है । और वह यह अपने-आपको तादात्म्य द्वारा संकुचित किये बिना या अपने विचार को उसमें इस तरह फंसाये बिना करेगी जिससे वह ज्ञान में बंध या सीमित न हो जाये । प्रत्यक्ष आंतरिक ज्ञान की अंतरंगता, यथार्थता और संपूर्णता होगी लेकिन व्यक्तिगत मन द्वारा वह भ्रांत निर्देशन नहीं जिसके कारण हम हमेशा भूल करते हैं; क्योंकि वह चेतना अहंकार में बंधी, अवरुद्ध व्यक्तिगत चेतना न होकर वैश्व व्यक्ति की चेतना होगी । वह समस्त ज्ञान की ओर बढ़ेगी, यह देखने के लिये कि कौन टिकता और बचता है, सत्य को सत्य के विरुद्ध खड़ा न करेगी बल्कि एकमेव सत्य के प्रकाश में, जिसके सभी पार्श्व हैं, सत्य को सत्य से पूर्ण बनायेगी । समस्त भाव, दृष्टि और प्रत्यक्षण में भीतरी दृष्टि का यह लक्षण होगा एक अंतरंग विस्तृत आत्म-प्रत्यक्षण, विशाल आत्म-समाकलन करनेवाला ज्ञान, अविभाज्य संपूर्ण जो सत्यमय सत्ता के स्वयं-कार्यकारी सामंजस्य में प्रकाश में प्रकाश की क्रिया द्वारा संपादित होगा । वहां उन्मीलन होगा अंधकार में से प्रकाश के छुटकारे के रूप में नहीं बल्कि स्वयं प्रकाश में से प्रकाश के निःसरण के रूप में; क्योंकि, अगर कोई अतिमानसिक
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चेतना अपनी आत्म-अभिज्ञता की अंतर्वस्तुओं के किसी भाग को अपने अंदर पीछे की ओर खींचे रखे तो वह यह अज्ञान के चरण या उसकी क्रिया के रूप में नहीं करती बल्कि कालातीत ज्ञान को जान-बूझकर कालाभिव्यक्ति की प्रक्रिया में लाने के लिये । एक आत्म-प्रकाश, प्रकाश में से प्रकाश का आविर्भाव, यही इस विकासात्मक अतिमानसिक प्रकृति की ज्ञान-रीति होगी ।
जैसे मन प्रकाश को खोजता है, ज्ञान को और ज्ञान द्वारा प्रभुत्व को खोजता है वैसे ही प्राण अपनी शक्ति के विकास और शक्ति द्वारा प्रभुत्व को खोजता है । उसे तलाश होती है वृद्धि, शक्ति, विजय, अधिकार, संतोष, सृजन, उल्लास, प्रेम, सौंदर्य की । उसकी सत्ता का आनंद है सतत आत्माभिव्यक्ति में, विकास में, क्रिया की विभिन्न बहुरूपता, सृजन, उपभोग में, अपनी और अपनी शक्ति की प्रचुर और प्रबल तीव्रता में । विज्ञानमय विकास उसे उसकी उच्चतम और पूर्णतम अभिव्यक्तितक ऊंचा उठायेगा, लेकिन वह मानसिक या प्राणिक अहं की शक्ति, तुष्टि या भोग के लिये कार्य न करेगा और न ही उसके अपने-आपपर संकीर्ण प्रभुत्व के लिये, और उसके औरों या और चीजों के लिये उत्सुक, महत्त्वाकांक्षापूर्ण पकड़ के लिये, या उसकी महत्तर आत्म-प्रतिष्ठापना या बढ़े-चढ़े मूर्त्त रूप के लिये; क्योंकि इस तरह से कोई आध्यात्मिक परिपूर्ति या पूर्णता नहीं आ सकती । विज्ञानमय जीवन अपने अंदर और जगत् में, सब में भगवान् के लिये जियेगा और कार्य करेगा । विज्ञानमय पुरुष के लिये जीवन का अर्थ होगा भागवत उपस्थिति, ज्योति, शक्ति, प्रेम, आनंद और सौंदर्य का व्यष्टि-सत्ता और जगत् पर बढ्ता हुआ अधिकार । उस बढ्ती हुई अभिव्यक्ति की अधिकाधिक पूर्ण तुष्टि में व्यक्ति की तुष्टि होगी, उसकी शक्ति उस महत्तर प्राण और प्रकृति को अंदर लाने और विस्तृत करने के लिये अति-प्रकृति की शक्ति का यंत्र- विन्यास होगी, जो कोई विजय या साहसिक कार्य वहां होगा वह बस उसीके लिये होगा, किसी व्यष्टिगत या सामुदायिक अहं के राज्य के लिये नहीं । उसके लिये प्रेम आत्मा का आत्मा के साथ, अध्यात्म सत्ता का अध्यात्म सत्ता के साथ संपर्क, मिलन और ऐक्य होगा, सत्ता का एकीकरण होगा, अंतरात्मा के साथ अंतरात्मा की, उस 'एक' के साथ 'एक' की अंतरंगता और समीपता, आनंद और शक्ति होगा, तादात्म्य का और नानाविध तादात्म्य के परिणाम का आनंद होगा । उस 'एक' की अंतरंग आत्म-प्रकटनकारी विविधता का यह आनंद, उस एक का बहुविध ऐक्य और उस तादात्म्य में सुखद पारस्परिक क्रिया, ये ही उसके लिये जीवन का पूरा प्रकट अर्थ होंगे । सौंदर्यपरक या क्रियाशील सृजन, मानसिक सृजन, प्राणिक सृजन, जड़-भौतिक सृजन का उसके लिये वही अर्थ होगा । यह शाश्वत शक्ति, प्रकाश, सौंदर्य, सदवस्तु के सार्थक रूपों का सृजन होगा -उसके रूपों और शरीरों के सौंदर्य और सत्य का, उसके गुणों और शक्तियों के सौंदर्य और सत्य का, उसकी आत्मा के सौंदर्य और सत्य का, उसकी अपनी सत्ता और सार की अरूप सुंदरता का सृजन होगा ।
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चेतना का यह संपूर्ण परिवर्तन और परावर्तन मन, प्राण और जड़ के साथ आध्यात्म सत्ता से एक नया संबंध स्थापित करेगा और उस संबंध में एक नया अर्थ और पूर्णता आने के परिणामस्वरूप आत्मा और उस शरीर के बीच, जिसमें वह निवास करता है, संबंधों में भी परावर्तन, पूर्णता लानेवाला नया अर्थ आयेगा । हमारी वर्तमान जीवन-विधि में अंतरात्मा मन और प्राण द्वारा जितनी अच्छी तरह हो सके उतनी अच्छी तरह या जितनी बुरी तरह करना पड़े उतनी बुरी तरह अपने- आपको प्रकट करती है या बहुधा मन और प्राण को अपने समर्थन से काम करने देती है, शरीर इस क्रिया का यंत्र है । लेकिन शरीर आज्ञापालन में भी, मन और प्राण की आत्माभिव्यक्ति को स्वयं भौतिक यंत्र-विन्यास की सीमित संभावनाओं और अर्जित स्वभाव द्वारा सीमित और निर्धारित करता है; और इसके अतिरिक्त उसकी अपनी क्रिया का अपना ही विधान होता है, उसकी अपनी सत्ता की अवचेतन या अर्द्ध-आविर्भूत सचेतन शक्ति की गति और इच्छा या शक्ति या गति की प्रेरणा होती है जिन्हें मन और प्राण केवल अंशत: और उस अंश में भी प्रत्यक्ष की अपेक्षा अप्रत्यक्ष रूप में अधिक और प्रत्यक्ष भी हो तो इच्छित और सचेतन क्रिया की जगह अधिक अवचेतन क्रिया द्वारा, प्रभावित या परिवर्तित कर सकते हैं । लेकिन सत्ता और जीवन की विज्ञानमय विधि में आध्यात्म पुरुष की इच्छा ही शरीर की गतिविधियों और उसके विधान का सीधा नियंत्रण और निर्धारण करेगी । क्योंकि शरीर का विधान अवचेतन या निश्चेतन से ऊपर उठता है; लेकिन विज्ञानमय पुरुष में अवचेतन सचेतन हों चुका होगा और अतिमानसिक नियंत्रण के अधीन, उसके प्रकाश और क्रिया से अनुप्राणित होगा । अपनी अंधता और अस्पष्टता, अपनी बाधा या मंद प्रतिक्रियाओं के साथ निश्चेतना का आधार अतिमानसिक आविर्भाव के कारण निम्नतर या सहारा देनेवाले अति-चैतन्य में रूपांतरित हो जायेगा । संसिद्ध उच्चतर मानसिक सत्ता में और अंतर्भासात्मक और अधिमानसिक सत्ता में शरीर भाव और इच्छा-शक्ति के प्रभाव को उत्तर देने के लिये काफी हदतक सचेतन हो चुका होगा जिससे शारीरिक अंगों पर मन की क्रिया, जो हमारे अंदर प्रारंभिक अस्तव्यस्त और प्रायः अनैच्छिक रूप में होती है, एक महत्त्वपूर्ण बल प्राप्त कर चुकी होगी : लेकिन अतिमानसिक पुरुष में हर चीज का शासन वह चेतना करेगी जिसके अंदर सत्य-भाव निवास करता है । यह सत्य-भाव एक स्वयंप्रभावी सत्य- दर्शन है क्योंकि यह परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप से क्रियारत भाव और इच्छा-शक्ति है जो सत्ता के पदार्थ की ऐसी गति को आरंभ करती है जो अपने-आपको सत्ता की स्थिति और क्रिया में अनिवार्य रूप से चरितार्थ करेगी । अपनी उच्चतम कोटि में स्थित ऋत-चित् की यह क्रियाशील, अप्रतिरोध्य आध्यात्मिक वास्तविकता है जो यहां विकसित विज्ञान-पुरुष में सचेतन और सचेतन रूप से समर्थ हुई होगी । वह वर्तमान की तरह प्रतीयमान निश्चेतना में ढंकी हुई और यांत्रिक विधान से सीमित
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रहकर नहीं, बल्कि आत्म-प्रभावी कार्य में प्रभुसत्तात्मक सद्वस्तु की तरह काम करेगी । यही है जो संपूर्ण ज्ञान और शक्ति के साथ जीवन पर शासन करेगी और शरीर की वृत्ति और क्रिया को अपने शासन में सम्मिलित कर लेगी । आध्यात्मिक चेतना की शक्ति से शरीर आत्मा के सच्चे और उपयुक्त और पूरी तरह अनुकूल उपकरण में बदल जायेगा ।
अध्यात्म और शरीर का यह नया संबंध भौतिक प्रकृति के त्याग की जगह सारी-की-सारी प्रकृति की मुक्त रूप से स्वीकृति को अंगीकार करता और संभव बनाता है । प्रकृति से पीछे हटना, समस्त तादात्म्य या स्वीकृति से इंकार करना -जो आध्यात्मिक चेतना की मुक्ति के लिये पहली सामान्य आवश्यकता है -अब अनिवार्य नहीं रहता । शरीर के साथ तदात्म न रहना, अपने-आपको शारीरिक चेतना से अलग कर लेना -ये आध्यात्मिक मुक्ति या आध्यात्मिक पूर्णता और प्रकृति पर प्रभुत्व का जाना-माना और आवश्यक कदम है । लेकिन, एक बार यह उद्धार प्राप्त हो जाये तो आध्यात्मिक प्रकाश और शक्ति का अवतरण आक्रमण कर, शरीर को भी ले सकता है और जड़-भौतिक प्रकृति का एक नया, मुक्त और प्रभुत्वपूर्ण स्वीकरण भी हो सकता है । वस्तुत: यह तभी संभव है जब आत्मा और जड़-पदार्थ के बीच संबंध का परिवर्तन हो, वर्तमान क्रिया-प्रतिक्रिया का, जो भौतिक प्रकृति को आत्मा को छिपाने और अपना आधिपत्य जमाने देती है, उसपर नियंत्रण और क्रिया-प्रतिक्रिया के वर्तमान संतुलन का उल्टाव हो । विशालतर ज्ञान के प्रकाश में जड़ को भी ब्रह्म के रूप में देखा जा सकता है, ब्रह्म द्वारा निर्मित वह उसीकी आत्म-शक्ति है, वह ब्रह्म का ही रूप, उसीका पदार्थ है । जड़ द्रव्य में अंतस्थ गूढ़ चेतना को जाननेवाली, इस विशालतर ज्ञान में सुरक्षित रहती विज्ञानमय ज्योति और शक्ति इस रूप में देखे गये जड़ के साथ अपने-आपको एक कर सकती है और उसे आध्यात्मिक अभिव्यक्ति के उपकरण के तौर पर स्वीकार कर सकती है । जड़ के लिये एक आदर-भाव और उसके साथ सारे व्यवहार में एक सांस्कारिक भाव भी संभव है । जैसे गीता में भोजन की क्रिया को भौतिक संस्कार, यज्ञ, ब्रह्म द्वारा, ब्रह्म को, ब्रह्म का अर्पण कहा गया है उसी भांति विज्ञानमय चेतना और बोध जड़ के साथ परमात्मा की सब क्रियाओं को देख सकते हैं । परमात्मा ने अपने-आपको जड़-पदार्थ बना लिया है ताकि अपने-आपको वहांपर सृष्ट सत्ताओं के योगक्षेम और आनंद के लिये, वैश्व भौतिक उपयोगिता और सेवा में आत्मार्पण के लिये उपकरण के रूप में रख सके । विज्ञानमय पुरुष भौतिक या प्राणिक आसक्ति या कामना के बिना जड़ का उपयोग करते हुए यह अनुभव करेगा कि वह इस रूप में परमात्मा का उनकी सहमति और स्वीकृति के साथ, उन्हीकई उद्देश्य के लिये उपयोग कर रहा है, उसमें भौतिक चीजों के लिये एक तरह का आदर होगा, उनमें स्थित गुह्य चेतना की, उसकी उपयोगिता और सेवा की मूक इच्छाशक्ति की अभिज्ञता
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होगी; वह जिसका उपयोग कर रहा है उसमें भगवान् की, ब्रह्म की पूजा होगी, अपनी दिव्य सामग्री के पूर्ण और निर्दोष उपयोग के लिये, जड़ के जीवन में, जड़- पदार्थ के उपयोग में सच्ची लय और सुव्यवस्थित सामंजस्य, सौंदर्य के लिये सावधानता होगी ।
अध्यात्म तत्त्व और शरीर में इस नये संबंध के परिणामस्वरूप विज्ञानमय विकास भौतिक सत्ता का आध्यात्मीकरण, पूर्णता और परिपूर्त्ति संपन्न करेगा । वह शरीर के लिये भी उसी तरह करेगा जैसे मन और प्राण के लिये । अंधकार, दुर्बलताओं और सीमाओं के अतिरिक्त, जिन्हें यह परिवर्तन जीतेगा, शारीरिक चेतना एक धीरज धरनेवाली सेविका है और संभावनाओं के अपने आरक्षित भंडार में व्यष्टिगत जीवन का एक समर्थ यंत्र हो सकती है और वह अपने लिये कोई मांग नहीं करती, वह जिसके लिये लालायित है वह है कालावधि, स्वास्थ्य, बल, भौतिक पूर्णता, शारीरिक सुख, कष्ट-मुक्ति, आराम । ये मांगे अपने-आपमें अस्वीकार्य, तुच्छ या अवैध नहीं हैं क्योंकि ये जड़ की भाषा में रूप और पदार्थ की पूर्णता, शक्ति और आनंद अनूदित करती हैं जिन्हें अध्यात्म का स्वाभाविक बहाव, उसकी व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति होना चाहिये । जब विज्ञानमय शक्ति शरीर में कार्य कर सके तो ये चीजें स्थापित की जा सकती हैं क्योंकि उनकी विरोधी चीजें भौतिक मन पर, स्नायविक और जड़-भौतिक जीवन पर, शारीरिक संस्थान पर बाहरी शक्तियों के दबाव से आती हैं, ऐसे अज्ञान से आती हैं जो इन शक्तियों से मिलना नहीं जानता या उनके साथ उचित रूप में या शक्ति के साथ नहीं मिल सकता या वे किसी ऐसे अंधकार से आती हैं जो भौतिक चेतना के पदार्थ में व्याप्त होने और भौतिक चेतना के प्रत्युत्तरों को विकृत करने के कारण उन शक्तियों के प्रति गलत तरीके से प्रतिक्रिया करता है । इस अज्ञान का स्थान लेती हुई अतिमानसिक स्वचालित, अपने-आपको कार्यान्वित करनेवाली अभिज्ञता और ज्ञान शरीर के अंदर अंधकारग्रस्त और बिगड़ी हुई अंतर्भासात्मक सहज वृत्तियों को मुक्त और पुन: स्थापित करेंगे और महत्तर सचेतन क्रिया से आलोकित और संपूर्ण करेंगे । यह परिवर्तन शरीर द्वारा विषयों के ठीक-ठीक प्रत्यक्ष बोध का, पदार्थों और ऊर्जाओं के साथ उचित संबंध और उचित क्रिया का, मन, स्नायु और दैहिक संगठन के एक ठीक छंद का आरंभ करेगा और उन्हें बनाये रखेगा । वह शरीर के अंदर एक उच्चतर आध्यात्मिक शक्ति को और वैश्व प्राण-शक्ति के साथ संयुक्त और उससे आहरण कर सकनेवाली एक महत्तर प्राण-शक्ति लायेगा । वह जड़-प्रकृति के साथ एक दीप्तिवान् सामंजस्य स्थापित करेगा और शाश्वत विश्राम का विशाल और प्रशांत स्पर्श ला सकेगा जो उसे उसका दिव्यतर बल और सुख दे सकता है । और सबसे बढ़कर -क्योंकि यह ऐसा परिवर्तन है जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है और जो है आधारभूत -वह सारी सत्ता को चित्-शक्ति की परम ऊर्जा से भर देगा जो
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शरीर को घेरनेवाली और उसपर दबाव डालनेवाली जीवन की सभी शक्तियों का सामना करेगी, उन्हें आत्मसात् करेगी या अपने साथ सामंजस्य में ले आयेगी ।
मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता में अभिव्यक्त चित्-शक्ति की अपूर्णता और दुर्बलता, उसपर डाले गयें वैश्व ऊर्जा के संपर्कों को अपनी इच्छा के अनुसार ग्रहण करने या अस्वीकार करने की अक्षमता, या यदि ग्रहण किया हो तो आत्मसात् करने या सामंजस्य पैदा करने की अक्षमता ही दुःख-दर्द का कारण है । जड़- भौतिक क्षेत्र में प्रकृति पूरी असंवेदनशीलता से शुरू करती है और यह देखने लायक बात है कि प्राण के शुरू में, पशु में, आदिम या कम विकसित मनुष्य में या तो अपेक्षाकृत असंवेदनशीलता या कम संवेदनशीलता या प्रायः ही दुःख-दर्द के प्रति अधिक सहनशक्ति और दृढ़ता मिलती है । जैसे-जैसे मानव सत्ता विकास में बढ़ती है, वह संवेदनशीलता में भी बढ़ती है और मन, प्राण तथा शरीर में अधिक तीक्ष्णता के साथ कष्ट पाती है । क्योंकि चेतना में वृद्धि के साथ-ही-साथ शक्ति में वृद्धि का पर्याप्त सहारा नहीं मिलता । शरीर ज्यादा सूक्ष्म हो जाता है, उसकी सामर्थ्य अधिक परिमार्जित हो जाती है लेकिन उसकी बाहरी ऊर्जा में उसकी निपुणता भी कम ठोस हो जाती है । मनुष्य को अपनी स्नायविक सत्ता को सक्रिय, संशोधित और नियंत्रित करने के लिये अपनी इच्छा-शक्ति को, अपने मानसिक बल को बुलाना पड़ता है, वह अपने यंत्रों से जिन कठिन कामों की मांग करता है उनके हेतु अपनी स्नायविक सत्ता को विवश करना होता है, उसे दुःख और विपदा के आगे इस्पात बनाना होता है । आध्यात्मिक आरोहण में यंत्रों पर चेतना की यह शक्ति और उसकी इच्छा-शक्ति, बाहरी मानसिकता और स्नायविक सत्ता और शरीर पर आत्मा और आंतरिक मन का नियंत्रण बहुत बढ़ जाता है । सभी आघातों और संपर्कों के प्रति आत्मा की प्रशांत और विशाल समता का प्रवेश होता है और यही अभ्यासगत स्थिति बन जाती है और यह मन से प्राणिक भागों में जा सकती है और वहां भी बल और शांति की विपुल और स्थायी विशालता की स्थापना कर सकती है, यहांतक कि यह अवस्था शरीर में रूप धारण कर सकतीं है और भीतर से दुःख-दर्द के और सब प्रकार के कष्टों के आघात सह सकती है । यहांतक कि इच्छित भौतिक असंवेदनशीलता का सामर्थ्य भी हस्तक्षेप कर सकता है या फिर सभी आघातों और चोटों से मानसिक अलगाव की शक्ति प्राप्त की जा सकती है जो यह दिखलाती है कि सामान्य प्रतिक्रियाएं और जड़-प्रक्रति के सामान्य प्रत्युत्तर- अभ्यासों के प्रति शारीरिक सत्ता का दुर्बल समर्पण अनिवार्य या अपरिवर्तनशील नहीं है । और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है वह शक्ति जो दर्द के स्पंदनों को आनंद के स्पंदनों में बदलने के लिये आध्यात्मिक मन या अधिमानस के स्तर पर आती है । अगर यह किसी विशेष-बिंदु तक ही जाये तो भी वह प्रतिक्रिया करनेवाली चेतना के सामान्य नियम के पूरी तरह बदले जाने की संभावना की ओर संकेत करती है ।
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उसका आत्मरक्षा की ऐसी शक्ति के साथ भी संबंध हो सकता है जो उन आघातों को दूसरी ओर मोड़ दे देती है जिन्हें रूपांतरित करना या सहना ज्यादा कठिन होता है । अमुक स्थिति में विज्ञानमय विकास को इस परावर्तन को और आत्मरक्षा की इस शक्ति को उसके पूर्ण रूप में सिद्ध करना होगा जो कि शरीर की अपनी सत्ता के लिये उन्मुक्ति, प्रशान्ति और दुःख-मोचन की मांग पूरी करेगी और उसे उसके अंदर अस्तित्व के समग्र आनंद की शक्ति की रचना करनी होगी । शरीर में एक आध्यात्मिक आनंद प्रवाहित हो सकता है और उसके सभी कोषाणुओं और ऊतकों में बाढ़ ला सकता है । इस उच्चतर आनंद का ज्योतिर्मय जड़ रूप ही अपने- आपमें, भौतिक प्रकृति की त्रुटिपूर्ण या प्रतिकूल संवेदनशीलताओं का संपूर्ण रूपांतर ला सकेगा ।
सत्ता के उच्चतम और संपूर्ण आनंद की अभीप्सा, मांग गुप्त रूप से हमारी सत्ता के ताने-बाने में रहती है लेकिन वह हमारी प्रकृति के अंगों के अलगाव और उनकी असमान प्रवृत्तियों में छिप जाती है और केवल ऊपरी सुख से अधिक किसी चीज की कल्पना करने या उसे पाने में उनकी असमर्थता के कारण ढक जाती है । शारीरिक चेतना में यह मांग शारीरिक सुख की आवश्यकता का रूप ले लेती है, हमारे प्राणिक भागों में प्राणिक सुख की लालसा, अनेक प्रकार के हर्ष और आह्लाद और सब तरह के तुष्टि-विस्मय के प्रति तीक्ष्ण स्पंदनशील प्रतिक्रिया का रूप लेती है; मन में वह मानसिक हर्ष के सब प्रकार के रूपों के लिये उद्यत ग्रहणशीलता का रूप धारण करती है । उच्चतर स्तर पर वह शांति और दिव्य उल्लास के लिये आध्यात्मिक मन की पुकार में प्रकट होती है । यह प्रवृत्ति सत्ता के सत्य में आधारित है क्योकि आनंद ब्रह्म का सार-तत्त्व है, वह सर्वव्यापक सद्धस्तु की परम प्रकृति है । स्वयं अतिमानस भी अभिव्यक्ति के अवरोहणकारी सोपान में आनंद से उभरता है और विकासात्मक आरोहण में आनंद के अंदर जा मिलता है । वस्तुत: -वह समाप्त हो जाने या विलीन होने के अर्थ में एक नहीं होता, बल्कि उसमें अंतर्विष्ठ होता है, उसे अभिज्ञता की सत्ता और सत्ता के आनंद की अपने-आपको कार्यान्वित करनेवाली शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता । विकसनशील पुनरागमन की तरह निवर्तनशील अवरोहण में भी अतिमानस को सत् के मौलिक आनंद का सहारा रहता है और वह उसे अपनी सभी क्रियाओं में अवलम्ब देनेवाले तत्त्व की तरह लिये रहता है । क्योंकि, हम कह सकते हैं कि आत्मा में चेतना उसकी मातृशक्ति है लेकिन आनंद वह आध्यात्मिक गर्भाशय है जिसमें से वह अभिव्यक्त होता है और वह पालनकर्ता स्रोत है जिसमें वह जीव को आत्मा की स्थिति की ओर पुनर्गमन में वापिस लें जाता है । ब्रह्मानन्द की अभिव्यक्ति अतिमानसिक अभिव्यक्ति के आरोहण में उसके आत्म-परिणाम का अगला क्रम और शिखर होगा । विज्ञानमय पुरुष के विकास के बाद आनंदमय पुरुष का विकास
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आयेगा और विज्ञानमय सत्ता के शरीर-धारण का परिणाम होगा आनंदमय सत्ता का देह-धारण । विज्ञानमय सत्ता में, विज्ञान के जीवन में, आनंद की कोई शक्ति सदा अतिमानसिक आत्मानुभव की एक अविच्छेद्य और व्यापक सार्थकता के रूप में रहेगी । अज्ञान में से जीव की मुक्ति में पहली नींव है शांति, अचंचलता, शाश्वत और अनंत की नीरवता और प्रशान्ति लेकिन आध्यात्मिक आरोहण का उत्कृष्ट बल और उसका श्रेष्ठतर रूपायन मुक्ति की इस शांति को शाश्वत आनंद की पूर्णानुभूति और पूर्ण उपलब्धि के आनंद में, शाश्वत और अनंत के आनंद में ऊपर उठा देता है । यह आनंद विज्ञानमय चेतना में सार्वभौम आनंद के रूप में निहित होगा और विज्ञानमय प्रकृति के विकास के साथ बढ़ता जायेगा ।
यह कहा गया है कि उल्लास एक निचला और अस्थायी मार्ग है और परम की शांति ही परम उपलब्धि और उत्कृष्ट, स्थायी अनुभव है । यह आध्यात्मिक मन के स्तर पर सच हो सकता है, वहां अनुभव होनेवाला पहला उल्लास निश्चय ही आध्यात्मिक हर्षातिरेक होता है लेकिन वह आत्मा द्वारा अपनाये गये प्राणिक अंगों के परम सुख के साथ मिला-जुला हो सकता है और बहुधा होता है; एक हर्षोद्रक, हर्षोन्माद और उत्तेजना आती है, हृदय के हर्ष और अंतर के शुद्ध आंतरात्मिक संवेदन की उच्चतम तीव्रता आती है । यह सब अद्धत मार्ग या ऊपर उठानेवाली शक्ति तो हो सकता है पर यह चरम स्थायी आधार नहीं है । लेकिन आध्यात्मिक आनंद के उच्चतम आरोहण में यह उग्र हर्षोन्माद और उत्तेजना नहीं होती । उसकी जगह एक ऐसे शाश्वत आनंद में भाग लेने की असीम तीव्रता होती है जो शाश्वत सत् पर और इस नाते शाश्वत शांति की आनंदप्रद प्रशांति पर आधारित है । शांति और आनन्दातिरेक अलग-अलग न रहकर एक हो जाते हैं । अतिमानस सभी भेदों और विरोधों को समन्वित और एक करके इस ऐक्य को बाहर लाता है । उसकी आत्मोपलब्धि के पहले चरणों में है विस्तृत अचंचलता और सर्वसत्ता का गहर आनंद । लेकिन यह अचंचलता और यह आनंद एक स्थिति के रूप में, एक साथ, बढ़ती हुई तीव्रता में उठते हैं और शाश्वत आहल्लाद में समाप्त होते हैं; उस आनंद में जो वह 'अनंत' है । विज्ञानमय चेतना में, किसी भी स्थिति में, किसी-न-किसी मात्रा में यह आधारभूत और आध्यात्मिक सचेतन सत्ता का आनंद सदा सत्ता की समस्त गहराई में रहेगा, साथ ही प्रकृति की सभी गतिविधियां भी उससे ओत-प्रोत होंगी और प्राण और शरीर की सभी क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं भी । आनंद के विधान से कोई भी बचकर नहीं निकल पायेगा । विज्ञानमय परिवर्तन से पहले ही सत्ता के इस आधारभूत आनंद का आरंभ बहुविध सौंदर्य और आनंद में अनूदित हो सकता है । मन में वह आध्यात्मिक अंतर्दर्शन, दृष्टि और ज्ञान के तीव्र आनंद की शांति में, हृदय में वैश्व ऐक्य और प्रेम और सहानुभूति के विशाल या गंभीर या अनुरागपूर्ण आनंद में और सत्ताओं के आह्लाद और वस्तुओं के आह्लाद में अनूदित होता है ।
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इच्छा-शक्ति और प्राणिक अंगों में उसका अनुभव होता है क्रियागत दिव्य जीवन- शक्ति के आनंद की ऊर्जा की तरह या एकमेव को हर जगह देखने और उससे मिलनेवाली उन इंद्रियों के आनंदातिरेक की तरह जो वस्तुओं के अपने सामान्य सौंदर्य-बोध में सृष्टि का विश्वव्यापी सौंदर्य और सृष्टि का गुप्त सामंजस्य ही देखती हैं । हमारा मन इनकी अधूरी झांकियां या विरल अधिसामान्य संवेदन ही पा सकता है । शरीर में वह अपने-आपको ऐसे आनंद के रूप में प्रकट करता है जो आध्यात्म सत्ता की ऊंचाइयों से अपने-आपको उंड़ेल रहा है, साथ ही आध्यात्मभावापन्न, शुद्ध भौतिक सत्ता की शांति और आनंद के रूप में । सत्ता का वैश्व सौंदर्य और महिमा प्रकट होना शुरू करते हैं । सभी चीजें सामान्य मन और भौतिक संवेदन से छिपी हुई रेखाएं स्पन्दन, शक्तियां, सामंजस्यपूर्ण अर्थ प्रकट करती हैं । वैश्व आभास में शाश्वत आनंद प्रकट होता है ।
आध्यात्मिक रूपांतर के ये प्रथम महत्त्वपूर्ण परिणाम हैं जो अतिमानस की प्रकृति के आवश्यक परिणाम के रूप में आते हैं । लेकिन अगर केवल आंतरिक जीवन, चेतना, जीवन के आंतरिक आनंद की ही पूर्णता नहीं बल्कि प्राण और क्रिया की पूर्णता भी चाहिये तो हमारे मानसिक दृष्टिकोण से दो और प्रश्न खड़े होते हैं जो हमारे जीवन और उसकी क्रियाशीलता के बारे में हमारे मानसिक विचार के लिये काफी बल्कि प्रथम महत्त्व रखते हैं : पहला है विज्ञानमय सत्ता में व्यक्तित्व का स्थान, क्या सत्ता की स्थिति और उसकी रचना, हम व्यक्ति के रूप और जीवन के बारे में जो अनुभव करते हैं उससे बिलकुल भिन्न होगी या उसी जैसी । अगर कोई व्यक्तित्व है और वह किसी तरह अपनी क्रियाओं के लिये उत्तरदायी है तो फिर अगला प्रश्न आ जाता है विज्ञानमय प्रकृति में नैतिक तत्त्व के स्थान का, और उसकी पूर्णता और परिपूर्त्ति का । सामान्यत: साधारण धारणा में विभाजन करनेवाला अहं ही हमारी आत्मा है और अगर अहं को किसी परात्पर या वैश्व चेतना में लुप्त होना है तो व्यक्तिगत जीवन और क्रिया को भी बंद हो जाना चाहिये; क्योंकि व्यष्टि गायब हो जाये तो केवल एक निर्वैयक्तिक चेतना, वैश्व आत्मा रह सकती है; लेकिन अगर व्यष्टि एकदम से समाप्त हो जाये तो फिर व्यक्तित्व या दायित्व या नैतिक पूर्णता का प्रश्न ही नहीं उठ सकता । एक और विचारधारा के अनुसार आध्यात्मिक पुरुष बना रहता तो है परंतु होता है स्वर्गिक सत्ता में अपनी प्रकृति में मुक्त, शुद्ध और पूर्ण । लेकिन यहां, हम अभीतक धरती पर हैं, फिर भी यह माना जाता है कि अहंकारमय व्यक्तित्व समाप्त हो गया है और उसका स्थान लिया है वैश्वभावापन्न आध्यात्मिक व्यष्टि ने जो परात्पर सत् का केन्द्र और शक्ति है । यह परिणाम निकाला जा सकता है कि विज्ञानमय या अतिमानसिक व्यष्टि एक आत्मा तो है पर व्यक्तित्व बिना, एक निर्वैयक्तिक पुरुष । बहुत से विज्ञानमय पुरुष तो हो सकते हैं पर कोई व्यक्तित्व न होगा, सभी सत्ता और प्रकृति में एक ही होंगे ।
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इससे फिर शुद्ध सत् के शून्य या रिक्तता का विचार पैदा होता है जिससे अनुभव करनेवाली चेतना की क्रिया या व्यापार शुरू होगा, लेकिन उस तरह के पृथक् किये गये व्यक्तित्व के बिना जैसा कि हम अपनी सतह पर देखते हैं और जिसे अपना आपा समझते हैं । लेकिन यह अहंकार के बाद बने रहनेवाले और अनुभव में आग्रही आध्यात्मिक व्यक्तित्व की समस्या का अतिमानसिक न होकर मानसिक समाधान होगा । अतिमानसिक चेतना में व्यक्तित्व और निर्व्यक्तित्व विरोधी तत्त्व नहीं हैं, वे एक ही सद्वस्तु के अविभाज्य पहलू हैं । यह सद्वस्तु अहंकार नहीं वह सत् है जो अपनी प्रकृति के पदार्थ में निर्वैयक्तिक और वैश्व है लेकिन उसमें से एक ऐसे अभिव्यंजक व्यक्तित्व की रचना करना है जो प्रकृति के परिवर्तनों के बीच उसका आत्म-रूप है ।
अपने मूल में निर्व्यक्तित्व आधारभूत और वैश्व है । वह सत्ता, शक्ति और चेतना है और अपनी सत्ता और ऊर्जा के अनेक आकार लेता है । ऊर्जा, गुण, शक्ति या बल का हर एक आकार अपने-आपमें सर्वसामान्य, निर्व्यक्तिक और वैश्व होते हुए भी व्यष्टिगत सत्ता द्वारा उसके व्यक्तित्व के निर्माण की सामग्री के रूप में लिया जाता है । इस भांति निर्व्यक्तित्व वस्तुओं के आद्य अविभाजित सत्य में सत, पुरुष की प्रकृति का शुद्ध द्रव्य है, वस्तुओं के गतिशील सत्य में वह अपनी शक्तियों में भेद करता है और उन्हें उनकी विभिन्नताओं द्वारा व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का निर्माण करने के लिये प्रयुक्त होने देता है । प्रेम प्रेमी का स्वभाव है, साहस योद्धा का स्वभाव है । प्रेम और साहस निर्व्यक्तिक और वैश्व शक्ति या वैश्व शक्ति के रूपायन हैं । वे परमात्मा की, उसकी वैश्व सत्ता और प्रकृति की शक्तियां हैं । पुरुष वह सत् है जो इस तरह निर्व्यक्तिक को सहारा देता, उसे अपने अंदर अपना बनाकर, अपनी आत्म-प्रकृति की तरह रखे रहता है । वह वह है जो प्रेमी और योद्धा है । हम जिसे पुरुष का व्यक्तित्व कहते हैं वह उसकी स्वभाव- स्थिति और स्वभाव-क्रिया में अभिव्यंजना है । वह व्यक्ति अपनी आत्म-सत्ता में आरंभ और अंत में उससे बहुत बढ़कर है । वह स्वयं उसका अपना रूप है जिसे वह अपनी विकसित हो चुकी अभिव्यक्त प्रकृति-सत्ता या प्रकृतिस्थ आत्मा की तरह अभिव्यक्त करता है । रूपायित और सीमित व्यक्ति में यह उसकी, उस तत्त्व की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है जो निर्व्यक्तिक है, या, यूं कहा जाये कि वह उसके द्वारा उस तत्त्व का व्यक्तिगत विनियोग है ताकि वह ऐसी सामग्री पा ले जिससे वह अभिव्यक्ति में अपनी सार्थक मूर्ति बना सके । अपनी अरूप और असीम आत्मा में, अपनी वास्तविक सत्ता में सच्चा पुरुष वह नहीं है परंतु वह अपने अंदर असीम और वैश्व संभावनाएं रखता है । लेकिन दिव्य व्यक्ति के रूप में वह उन्हें अभिव्यक्ति में एक अपना ही मोड़ देता है ताकि बहु में हर एक उन एकमेव भगवान् की अद्वितीय आत्मा हो । भगवान् शाश्वत अपने-आपको सत- चित्,
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आनंद, प्रज्ञा, ज्ञान, प्रेम, सौंदर्य के रूप में प्रकट करते हैं और हम उनके बारे में इन निर्वैयक्तिक और वैश्व शक्तियों के रूप में सोच सकते हैं उन्हें भगवान् और शाश्वत के स्वरूप के रूप में मान सकते हैं । हम कह सकते हैं कि भगवान् प्रेम हैं, भगवान् प्रज्ञा हैं, भगवान् सत् या ऋत हैं लेकिन वे अपने-आपमें कोई निर्वैयक्तिक स्थिति या स्थितियों और गुणों का सार नहीं हैं । वे सत् हैं -एक ही साथ निरपेक्ष, वैश्व और व्यष्टिगत । अगर हम उन्हें इस आधार से देखें तो स्पष्टत: निर्व्यक्तिक और व्यक्ति के सह-अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है, कोई असंगति या उनके एक होने में कोई असंभावना नहीं है । वे एक-दूसरे हैं, एक-दूसरे में रहते हैं, एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं और फिर भी एक् तरह से ऐसे प्रकट हो सकते हैं मानो एक ही सद्वस्तु के अलग- अलग सिरे, पार्श्व और चित तथा पट हैं । विज्ञानमय सत्ता भगवान् के स्वभाव की है । और इसलिये अपने अंदर जीवन के इस स्वाभाविक रहस्य को दोहराती है ।
अतिमानसिक विज्ञानमय व्यक्ति आध्यात्मिक पुरुष होगा लेकिन वह निर्धारित गुणों के निश्चित मिलन के लक्षणोंवाले नमूने के रूप में व्यक्तित्व नहीं होगा; वह ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि वह वैश्व और परात्पर की सचेतन अभिव्यक्ति है । लेकिन, ना ही उसकी सत्ता कोई मनमौजी निर्वैयक्तिक बाढ़ हो सकतीं है जो अपने विभिन्न रूपों की लहरें, व्यक्तित्व की लहरें काल में इतस्तत: फेंकती रहती है । इस तरह का कुछ अनुभव उन लोगों में हो सकता है जिनकी गहराइयों में मजबूत केंद्रीकरण करनेवाला पुरुष न हो, जो एक तरह के अस्तव्यस्त नाना-व्यक्तित्व से, उस समय उनमें जो भी तत्त्व प्रबल हो जाये उसके अनुसार क्रिया करते हैं । लेकिन विज्ञानमय चेतना सामंजस्य, आत्म-ज्ञान और आत्म-प्रभुत्व की चेतना है, उसमें ऐसी अव्यवस्था न दिखायी देगी । वस्तुत: इस विषय में विभिन्न धारणाएं हैं कि व्यक्तित्व किससे बनता है और चरित्र किससे । एक दृष्टि के अनुसार व्यक्तित्व पहचाने जा सकनेवाले गुणों की एक निश्चित रचना है जो सत्ता की शक्ति को अभिव्यक्त करती है लेकिन एक और विचार व्यक्तित्व और चरित्र में फर्क करता है, व्यक्तित्व है अपने-आपको व्यक्त करनेवाली या संवेदनशील और प्रतिक्रिया करनेवाली सत्ता का प्रवाह और चरित्र है प्रकृति की रचना में रूपायित स्थिरता । लेकिन प्रकृति का प्रवाह और प्रकृति की स्थिरता सत्ता के दो पहलू हैं जिनमें से कोई भी या वस्तुत: दोनों मिलकर भी व्यक्तित्व की व्याख्या नहीं कर सकते । क्योंकि, सभी मनुष्यों में एक दोहरा तत्त्व होता है, सत्ता या प्रकृति का अरूपायित फिर भी सीमित प्रवाह जिसमें से व्यक्तित्व गढ़ा जाता है और उस प्रवाह में से वैयक्तिक रूपायन । यह रूपायन कठोर होकर अस्थिवत् हो सकता है या हो सकता है कि वह काफी नमनीय रहे और बराबर बदलता और विकसित होता रहे । उसका विकास रूपायनकारी प्रवाह में से, व्यक्तित्व के परिवर्तन या अभिवर्द्धन या पुनर्गठन द्वारा
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होता है, न कि प्रस्तुत किये जा चुके रूपायन को नष्ट कर उसके स्थान पर सत्ता का एक नया रूप लाकर -यह केवल असामान्य मोड़ या अधिसामान्य परिवर्तन के द्वारा हो सकता है । लेकिन इस प्रवाह और इस स्थिरता के अतिरिक्त एक तीसरा और गुह्य तत्त्व भी है -पीछे स्थित वह पुरुष जिसकी आत्माभिव्यक्ति व्यक्तित्व है, पुरुष व्यक्तित्व को अभिव्यक्त जीवन के लंबे नाटक के वर्तमान अंक में अपने अभिनय, चरित्र और व्यक्ति के रूप में सामने लाता है । लेकिन पुरुष अपने व्यक्तित्व से बड़ा है और हो सकता है कि यह भीतरी विशालता सतही रूपायन में उफन पड़े । तब परिणाम होता है सत्ता की आत्माभिव्यक्ति जिसका वर्णन निश्चित गुणों, सामान्य भाव- दशाओं, यथार्थ आकृतियों से नहीं किया जा सकता, ना ही उसे किन्हीं संरचनात्मक सीमाओं द्वारा रेखांकित ही किया जा सकता है । लेकिन यह केवल अविभेद्य, बिल्कुल अनाकार और अग्राह्य प्रवाह भी नहीं है : यद्यपि उसकी प्रकृति की क्रियाओं की विशेषताएं तो बतलायी जा सकती हैं पर स्वयं उसकी नहीं, फिर भी उसे स्पष्ट तौर से अनुभव किया जा सकता है, उसकी क्रिया का अनुसरण करके उसे पहचाना जा सकता है यद्यपि आसानी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह कोई रचना न होकर सत्ता की शक्ति है । सामान्य सीमित व्यक्तित्व को उसके जीवन और विचार और क्रिया पर, उसकी सुनिश्चित सतही रचना और आत्माभिव्यक्ति पर लगी चरित्र की मुहर देखकर समझा जा सकता है, भले जो इस तरह अभिव्यक्त नहीं किया गया उसे हम न पकड़ पायें तो भी इससे हमारी समझ की सामान्य पर्याप्तता में शायद ही कुछ कमी आये क्योंकि जो तत्त्व बच गया है वह आकारहीन कच्चे माल से बढ़कर कुछ नहीं होगा, बस प्रवाह का एक भाग होगा जिसका उपयोग व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण भाग के बनाने में नहीं होता । लेकिन ऐसा वर्णन पुरुष की अभिव्यंजना के लिये दयनीय रूप से अपर्याप्त होगा जब उसके भीतर आत्म-शक्ति ज्यादा विस्तार से प्रकट होती और अपनी गुप्त संरक्षिका शक्ति को बाहरी रचना और जीवन में सामने लाती है । हम अपने-आपको चेतना के प्रकाश, सामर्थ्य और ऊर्जा के सागर के सामने अनुभव करते हैं, हम उसके कर्म और गुण की मुक्त लहरों को पहचान सकते हैं, उनका वर्णन कर सकते हैं लेकिन स्वयं उसे निर्दिष्ट नहीं कर सकते । फिर भी व्यक्तित्व का भान होता है, एक शक्तिशाली सत्ता की उपस्थिति, एक सबल, उच्च या सुंदर पहचान में आनेवाला कोई, एक व्यक्ति, प्रकृति का कोई सीमित जीव नहीं बल्कि आत्मा, आध्यात्म पुरुष या पुरुष है । विज्ञानमय व्यक्ति एक ऐसा अनुद्घाटित अंतःपुरुष होगा जो गहरांइयों -जो अब आत्म-प्रच्छन्न नहीं रहीं - और सतह दोनों को एकीकृत आत्म-अभिज्ञता में अधिकार में रखेगा । वह ऐसा सतही व्यक्तित्व न होगा जो अंशत: एक विशालतर गुह्य सत्ता को प्रकट करेगा, वह लहर नहीं, सागर होगा । वह पुरुष होगा, आंतरिक सचेतन, आत्म-प्रकाशित सत्ता होगा और उसे किसी कटे-छंटे अभिव्यंजक मुखौटे या भूमिका की जरूरते न होगी ।
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तो विज्ञानमय पुरुष का यह स्वरूप होगा : एक अनंत और वैश्व सत्ता जो अपनी शाश्वत आत्मा को व्यक्तिगत और कालिक आत्माभिव्यक्ति के सारगर्भित रूप और अभिव्यंजक शक्ति द्वारा प्रकट करती या हमारे मानसिक अज्ञान को संकेत देती है । लेकिन व्यक्तिगत प्रकृति-अभिव्यक्ति चाहे अपनी रूप-रेखा में सबल और स्पष्ट हो या बहुविध और नित्य परिवर्तनशील और साथ ही सामंजस्यपूर्ण, वह होगी उस पुरुष के संकेत के रूप में, संपूर्ण पुरुष के रूप में नहीं । उस पुरुष को पीछे की ओर अनुभव किया जा सकता है, उसे पहचाना जा सकता है पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह अनंत है । विज्ञानमय पुरुष की चेतना भी अनंत चेतना होगी जो आत्माभिव्यक्ति के रूपों को ऊपर उठायेगी परंतु सदा अपनी असीम अनंतता और विश्वजनीनता से अभिज्ञ, जो अपनी अनंतता और विश्वजनीनता का बल और बोध अभिव्यक्ति की ससीमता में भी लिये रहेगी और फिर वह आगे के आत्म- प्रकाशन की अगली गति में इससे बंधी न होगी । लेकिन तब भी यह अनियत और पहचान में न आनेवाला बहाव नहीं बल्कि आत्म-प्रकाशन की एक प्रक्रिया होगी जो उसके अस्तित्व की शक्तियों के अंतर्निहित सत्य को अनंत की समस्त अभिव्यक्ति के स्वाभाविक सामंजस्यपूर्ण विधान के अनुसार दिखा देगी ।
विज्ञानमय पुरुष के जीवन और कर्म का सारा स्वरूप उसके विज्ञानमय व्यक्तित्व के इस स्वभाव से आत्म-निर्धारित होकर ऊपर आयेगा । उसके अंदर नैतिक या किसी ऐसे ही भाव की अलग समस्या, शुभ या अशुभ का कोई द्वंद्व न रह सकेगा । वस्तुत: उसमें कोई समस्या ही न होगी क्योंकि समस्याएं ज्ञान की खोज में मानसिक अज्ञान की रचनाएं हैं और वे ऐसी चेतना में नहीं रह सकतीं जिसमें आत्मजात ज्ञान ऊपर उठता है और कर्म अपने-आप ज्ञान से सत्ता के पहले से ही मौजूद चिन्मय, आत्म-अभिज्ञ सत्य में से पैदा होता है । अपने-आपको अभिव्यक्त करनेवाला सत्ता का सारतः और वैश्व आध्यात्मिक सत्य, जो अपने-आपको अपनी प्रकृति में और अपने-आपको कार्यान्वित करनेवाली चेतना में स्वच्छन्द रूप से परिपूरित कर रहा है, सत्ता का वह सत्य जो अपने सत्य की अनंत विभिन्नता में भी सबमें एक है और जो सबको एक की भांति अनुभव कराता है, वह अपने स्वरूप में स्वभावत: सारतः और वैश्व रूप से शुभ भी होगा जो अपने-आपको अपनी प्रकृति में और अपने-आपको कार्यान्वित करती हुई चेतना में परिपूरित करता है, वह उस शुभ का सत्य भी होगा जो सबमें और सबके लिये अपनी शुभ की अनंत विभिन्नता में भी एक है । शाश्वत स्वयंभू की शुद्धि अपने-आपको समस्त क्रिया- कलाप में उंडेलेगी, सभी चीजों को शुद्ध करती और शुद्ध रखती हुई; तब अज्ञान न रहेगा जो गलत इच्छा और चरणों के मिथ्यात्व की ओर ले जाये, कोई भेदक अहं न होगा जो अपने अज्ञान और अलग विपरीत इच्छा द्वारा अपने-आपको या औरों को हानि पहुंचा सके, अपनी अंतरात्मा, मन, प्राण, शरीर के साथ गलत
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व्यवहार करने या औरों की अंतरात्मा, मन, प्राण और शरीर के साथ गलत व्यवहार करने के लिये स्वत-प्रवृत्त हो, जो समस्त मानव अशुभ का व्यावहारिक अर्थ है । पुण्य, पाप, शुभ और अशुभ के परे उठना मुक्ति के बारे में वैदांतिक विचार का आवश्यक अंग है और इस सहसंबंध में एक स्वतःस्पष्ट क्रम है । क्योंकि, मुक्ति का अर्थ है सत्ता की सच्ची आध्यात्मिक प्रकृति में उठना जहां समस्त क्रिया उस सत्य की स्वतःचालित आत्माभिव्यक्ति है, उसके सिवा कुछ नहीं हो सकता । हमारे अंगों की अपूर्णता और संघर्ष में आचरण के उचित मानदंड को पाने और उसे व्यवहार में लाने का प्रयत्न होता है । यही नीति है, गुण और पुण्य है, इससे उल्टा करना पाप या दुर्गुण है । नैतिक मन प्रेम के विधान, न्याय के विधान, सत्य के विधान और अनगिनत विधानों की घोषणा करता है जिनका पालन करना कठिन है, जिनमें मेल बैठाना कठिन होता है । लेकिन अगर औरों के साथ ऐक्य, सत्य के साथ ऐक्य पहले ही से पहुंची हुई आध्यात्मिक प्रकृति का सारतत्त्व हों तो सत्य या प्रेम के विधान की जरूरत नहीं रहती -उस विधान या मानदंड को अभी हमारे ऊपर आरोपित करना पड़ता है क्योंकि हमारी प्राकृतिक सत्ता में अलगाव की एक विरोधी शक्ति होती है, विरोध की संभावना, असंगति, दुर्भावना, संघर्ष की शक्ति रहती है । समस्त नीतिशास्त्र ऐसी प्रकृति में शुभ की एक रचना है जो वेदांत की प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार, अज्ञान में से उत्पन्न अंधकार की शक्तियों द्वारा अशुभ से आहत है । लेकिन जहां सब कुछ चेतना के सत्य और सत्ता के सत्य द्वारा आत्मनिर्धारित होता है वहां कोई मानदंड नहीं हो सकता, उसके पालन के लिये संघर्ष नहीं हो सकता, प्रकृति का कोई सुगुण या दुर्गुण, पाप, पुण्य नहीं हो सकता । प्रेम की, सत्य की, न्याय की शक्ति तो वहां होगी लेकिन मन के रचे विधान की तरह नहीं बल्कि हमारी प्रकृति के सत्त्व और गठन के रूप में और सत्ता के समाकलन द्वारा वह अवश्य ही कर्म का उपादान और गठन-शक्ति भी होगी । अपनी सच्ची सत्ता के आध्यात्मिक सत्य और ऐक्य की इस प्रकृति में विकसित होना वह मुक्ति है जिसे आध्यात्मिक सत्ता के विकास द्वारा पाया जाता है । विज्ञानमय विकास हमें अपने स्वरूपतक लौटने की पूरी क्रिया-शक्ति देता है । एक बार यह हो जाये तो पुण्य, धर्म के मानदंडों की आवश्यकता गायब हो जाती है । वहां आध्यात्म सत्ता की स्वतंत्रता का विधान और आत्म-व्यवस्था है । वहां आचरण का कोई आरोपित या रचा हुआ विधान, धर्म नहीं रह सकता । सब कुछ हमारी आध्यात्मिक प्रकृति का ही आत्म-प्रवाह, स्वभाव का स्वधर्म ही हो जाता है ।
यहींपर हमें मानसिक अज्ञान के जीवन और विज्ञानमय सत्ता और प्रकृति के जीवन के बीच क्रियाशील भेद का सारतत्त्व मिलता है । यह समग्र पूरी तरह सचेतन सत्ता, जिसे अपने अस्तित्व के सत्य पर पूरा अधिकार है और जो अपनी स्वाधीनता में उस सत्य को क्रियान्वित कर रही है, जो बनाये गये विधानों से स्वतंत्र
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है, फिर भी जिसका जीवन संभवन के सभी सच्चे नियमों के अर्थ के सार में परिपूर्ण है उसमें और एक अज्ञानमय आत्म-विभाजित सत्ता में भेद है जो अपने सत्य की खोज में है और अपनी प्राप्तियों को नियमों में निर्मित करना चाहती है और अपने जीवन का इस तरह से बने नमूने के अनुसार निर्माण करने की कोशिश करती है । हर सच्चा विधान एक सदवस्तु की सच्ची गति और प्रक्रिया, क्रिया में लगी सत्ता की ऊर्जा या शक्ति है जो अपनी सत्ता के सत्य में आत्म-समाविष्ट अपनी अंतर्निहित गति को परिपूर्ण कर रही है । यह विधान निश्चेतन हो सकता है ओर उसकी क्रिया यांत्रिक मालूम हो सकती है -जड़ प्रकृति में विधान का यही स्वरूप या कम-से-कम आभास होता है । वह एक सचेतन ऊर्जा हो सकती है जिसकी क्रिया का निर्धारण पुरुष की चेतना स्वतंत्रता के साथ करती है, जिसे यह अभिज्ञता हो कि स्वयं उसके लिये सत्य की क्या आज्ञा है, जिसे उस सत्य की आत्माभिव्यक्ति की नमनीय संभावनाओं की अभिज्ञता हो, जिसे सदा समग्र में और प्रत्येक क्षण, पूरे व्योरे में, उन वास्तविकताओं की अभिज्ञता हों जिन्हें उसे प्राप्त करना है । यह आत्मा के विधान का एक चित्र है । आत्मा की संपूर्ण स्वाधीनता, संपूर्ण स्वयंभू व्यवस्था, जो अपना सृजन आप करती है, अपने-आपको कार्यान्वित करती है, जो अपनी स्वाभाविक और अनिवार्य गति में आत्मप्रतिष्ठ है -यह विज्ञानमय पराप्रकृति की इस क्रिया-शक्ति का स्वभाव है ।
सत्ता के शिखर पर है निरपेक्ष जिसके साथ उसकी अनंतता की पूर्ण स्वाधीनता रहती है और साथ ही उसका अपना निरपेक्ष सत्य और सत्ता के उस सत्य की शक्ति भी; ये दोनों चीजें पराप्रकृति में आत्मा के जीवन में अपने-आपको दोहराती रहती हैं । वहां सभी कार्य परमात्मा के कार्य होते हैं, पराप्रकृति के सत्य में परमेश्वर के कार्य । वह युगपत् रूप से आत्मा की सत्ता का सत्य और ईश्वर की इच्छा का सत्य है जो उस सत्य के साथ एक है -द्विदल वास्तविकता के साथ -जो अपने- आपको प्रत्येक व्यष्टिगत विज्ञानमय सत्ता में उसकी पराप्रकृति के अनुसार व्यक्त करता है । विज्ञानमय व्यष्टि की स्वतंत्रता उसकी सत्ता के सत्य को और उसकी ऊर्जाओं की शक्ति को जीवन में क्रियाशील रूप से परिपूरित करने के लिये उसकी आत्मा की स्वतंत्रता है । लेकिन इसका अर्थ उसके जीवन में अभिव्यक्त आत्मा के सत्य के प्रति और उसके अंदर और सबके अंदर भागवत इच्छा के प्रति उसकी प्रकृति का पूर्ण आज्ञापालन है । यह सर्वेच्छा प्रत्येक विज्ञानमय व्यष्टि और बहुत-सी विज्ञानमय व्यष्टियों में और सचेतन सर्व में, जो उन्हें अपने अंदर धारण करता और समाये रखता है, एक ही है । वह हर विज्ञानमय व्यष्टि में अपने बारे में सचेतन है और वहां स्वयं अपनी इच्छा के साथ एक है, साथ ही वह सर्व सबके अंदर भिन्न रूप से सक्रिय उसी इच्छा, उसी आत्मा और ऊर्जा में सचेतन होता है । ऐसी विज्ञानमय चेतना और विज्ञानमय इच्छा को, जो बहुत से विज्ञानमय व्यक्तियों में
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अपनी एकता के बारे में अभिज्ञ हो और अपनी सुसंगत समग्रता और अपनी विविधताओं के अर्थ और मिलन-स्थल के बारे में अभिज्ञ हो, उसे समष्टि की क्रिया में एक सामंजस्यपूर्ण गति, एकत्व की गति, समन्वय, पारस्परिकता की गति का आश्वासन देना चाहिये, साथ ही वह व्यक्ति में उसकी सत्ता की सभी शक्तियों और गतिविधि की एकता और समस्वर संगति का विश्वास दिलाती है । सत्ता की सभी ऊर्जाएं अपनी अभिव्यक्ति को खोजती हैं और अपनी उच्चतम स्थिति में अपने परम पद को खोजती हैं, इसे वे परमात्मा में पाती हैं और साथ ही वे संयुक्त और सर्वसामान्य आत्माभिव्यक्ति की अपनी उच्चतम एकता, सामंजस्य और पारस्परिकता को परमात्मा की आत्मनिर्धारण और आत्म-क्रियान्वयन की सर्व-द्रष्ट्री और सर्व- एकताकारिणी गतिशील शक्ति में, अर्थात् अतिमानसिक विज्ञान में पाती हैं । एक पृथक् स्वयंभू सत्ता की अन्य पृथक् सत्ताओं के साथ अनबन हों सकती है, वैश्व सर्व के साथ, जिसमें उनका सह-अस्तित्व है, विसंगति हो सकती है, जो परम सत्य विश्व में अपनी अभिव्यक्ति की इच्छा कर रहा है उसका विरोध करने की अवस्था में वह रह सकती है । अज्ञान में व्यक्ति के साथ यही होता है, क्योंकि वह पृथक् व्यक्तित्व की चेतना पर आधारित होता है । एक ऐसा ही द्वंद्व, ऐसी ही असंगति, ऐसी ही विषमता व्यक्ति और विश्व में पृथक् शक्तियों के रूप में क्रियाशील सत्यों, सत्ता की ऊर्जाओं, गुणों, सामर्थ्यों और विधियों के बीच हो सकती है । द्वंद्व से भरा जगत्, हमारे भीतर द्वंद्व और अपने चारों ओर के जगत् के साथ व्यक्ति का द्वंद्व -ये अज्ञान की विभेदात्मक चेतना और हमारे सामंजस्यहीन जीवन के सामान्य और अनिवार्य लक्षण हैं । लेकिन विज्ञानमय चेतना में ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि वहां हर एक को अपनी पूर्ण आत्मा की प्राप्ति होती है, सभी अपना निजी सत्य और अपनी विभिन्न गतियों की समस्वरता उसमें पा लेते हैं जो उनके परे है और वे जिसकी अभिव्यक्ति हैं । अतः विज्ञानमय जीवन में सत्ता की स्वतंत्र आत्माभिव्यक्ति और वस्तुओं के परम और वैश्व सत्य के अंतस्थ विधान के प्रति स्वचालित आज्ञाकारिता के बीच पूरा-पूरा मेल रहता है । उसके लिये ये एक ही सत्य के आपस में मिले हुए पहलू हैं । यह उसकी सत्ता का परम सत्य है जो एक ही पराप्रकृति में उसके अपने और वस्तुओं के पूर्ण संयुक्त सत्य में अपने-आपको क्रियान्वित करता है । वहां सत्ता की बहुत-सी और भिन्न शक्तियों और उनकी क्रियाओं के बीच पूरा मेल होता है; क्योंकि जो प्रतीयमान गति में विरोधी हैं और उनके बारे में हमारे मानसिक अनुभव में संघर्ष होता जान पड़ता है वे भी और उनके क्रिया-कलाप भी स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे में पूरे उतरते हैं, क्योंकि हर एक का अपना आत्म-सत्य और दूसरों के साथ अपने संबंध का सत्य है और वह सत्य विज्ञानमय परा-प्रकृति में आत्म-स्थापित और आत्म-रूपायित है ।
अत: अतिमानसिक विज्ञानमय प्रकृति में कठोर मानसिक विधि और व्यवस्था
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की सख्त शैली की, सीमित करनेवाले मानवीकरण की, बंधे हुए नियमों के निर्धारित तंत्र के आरोपण की, जीवन को किसी ऐसी प्रणाली या नमूने में ढालने की बाध्यता की जरूरत न होगी जो इसलिये एकमात्र प्रामाणिक सत्य होगा क्योंकि मन ने उसे सत्ता और आचरण के एकमात्र उचित सत्य के रूप में देखा है । क्योंकि इस प्रकार का मानक अपने अंदर समस्त जीवन को नहीं ले सकता, न ऐसी संरचना उसे अपने में समा सकती है और न ही वह अपने-आपको सर्वजीवन के दबाव या विकसनशील शक्ति की आवश्यकताओं के प्रति मुक्त रूप से अनुकूल बना सकता है । उसे अपनी मृत्यु या विघटन या तीव्र संघर्ष और क्रांतिकारी उत्पात द्वारा ही अपने-आपसे या अपनी बनायी हुई सीमाओं से बच निकलना होता है । इस तरह मन को अपना सीमित नियम और जीवन-प्रणाली का चुनाव करना होता है, क्योंकि वह अपने-आप अपनी दृष्टि और क्षमता में बंधा हुआ और सीमित है । लेकिन विज्ञानमय सत्ता संपूर्ण जीवन और अस्तित्व को अपने अंदर उठा लेती है जो एक बृहद एक और विविध, अनंत रूप से एक और अनंत रूप से बहु सत्य की सामंजस्यमय आत्म-अभिव्यक्ति में परिपूरित, रूपांतरित होता है । विज्ञानमय सत्ता के ज्ञान और कर्म में अनंत स्वाधीनता की विशालता और नमनीयता होगी । यह ज्ञान समग्र की विशालता में जाते हुए अपने विषयों का ग्रहण करेगा, वह केवल समग्र के सर्वांगीण सत्य से और विषय के पूर्ण और अंतरतम सत्य से बंधा होगा, न कि रूपायित भाव या निश्चित मानसिक प्रतीकों से जिनमें मन पकड़ा जाता और बंद रहता है, जिससे वह अपने ज्ञान की स्वाधीनता खो देता है । विज्ञानमय सत्ता की पूरी क्रियाशीलता भी किसी अनमनीय नियम के बंधन से मुक्त होगी । उसपर किसी भूतकाल की स्थिति या कार्य या उसके अवश्यंभावी परिणाम का अर्थात् 'कर्म' का बंधन न होगा । उसमें अपने ही सांतों पर सीधी क्रिया करनेवाले अनंत की व्यवस्थित लेकिन आत्म-निर्देशित और आत्म-विकसनशील नमनीयता होगी । यह गति किसी प्रवाह या अस्तव्यस्तता की नहीं बल्कि मुक्त और सामंजस्यपूर्ण सत्य-अभिव्यक्ति की रचना करेगी । वहां आध्यात्मिक पुरुष का एक नमनीय और पूर्ण सचेतन प्रकृति में स्वतंत्र आत्मनिर्धारण होगा ।
अनंत की चेतना में व्यक्तित्व न तो वैश्वता को खंडित या परिसीमित करता है न वैश्वता परात्परता का विरोध करती है । अनंत की चेतना में निवास करनेवाली विज्ञानमय सत्ता व्यक्ति के रूप में अपनी ही आत्माभिव्यक्ति की रचना करेगी लेकिन करेगी एक बृहत्तर वैश्वता और साथ-ही-साथ परात्परता के केंद्र के रूप में । वह एक वैश्व व्यक्ति होगा, उसकी सभी क्रियाएं वैश्वं क्रिया के साथ समस्वर होंगी लेकिन अपनी परात्परता के कारण वह अस्थायी घटिया रूपायन से सीमित न होगा और न ही हर एक या किसी भी वैश्व शक्ति की दया पर निर्भर होगा । उसका वैश्व भाव अपनी विशालतर आत्मा में अपने चारों ओर के अज्ञान को भी आलिंगन में
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ले लेगा लेकिन उसके बारे में घनिष्ठ रूप से अभिज्ञ होते हुए भी वह उससे प्रभावित न होगा । वह अपने परात्पर व्यक्तित्व के ज्यादा बड़े विधान का अनुसरण करेगा और उसके विज्ञानमय सत्य को सत्ता और क्रिया के अपने ही तरीके से व्यक्त करेगा । उसका जीवन आत्मा की मुक्त, सुसंगत अभिव्यक्ति होगा । लेकिन, चूंकि उसकी उच्चतम सत्ता ईश्वर की सत्ता के साथ एक होगी अत: उसकी आत्माभिव्यक्ति पर ईश्वर का, उसकी उच्चतम आत्मा का और उसकी अपनी परम प्रकृति, पराप्रकृति का स्वाभाविक दिव्य शासन होगा जो अपने-आप ही ज्ञान, जीवन और क्रिया में एक विशाल और बंधनहीन परंतु पूर्ण व्यवस्था ले आयेगा । ईश्वर और पराप्रकृति के प्रति उसकी वैयक्तिक प्रकृति की आज्ञाकारिता स्वाभाविक स्वरसंगति और वस्तुत: आत्मा की स्वाधीनता की आवश्यक अवस्था होगी, क्योंकि वह उसकी अपनी परम सत्ता के प्रति आज्ञाकारिता होगी, अपनी सारी सत्ता के उत्स को दिया गया उत्तर होगा । व्यष्टिगत प्रकृति कोई पृथक् चीज न होकर पराप्रकृति की लहर होगी । पुरुष और प्रकृति का सारा विरोध, आत्मा और प्रकृति के बीच वह अजीब विभाजन और असंतुलन, जो अज्ञान को आक्रांत करता है, पूरी तरह हटा दिया जायेगा क्योंकि प्रकृति पुरुष की आत्म-शक्ति का बहिःस्राव होगी और पुरुष परम प्रकृति का, ईश्वर-सत्ता की अतिमानसिक शक्ति का बहिःस्राव होगा । उसकी सत्ता का यह परम सत्य ही, एक अनंत रूप से सामंजस्यपूर्ण तत्त्व ही उसकी आध्यात्मिक स्वतंत्रता की व्यवस्था की, सच्ची, आत्मचालित, नमनीय व्यवस्था की रचना करेगा ।
निम्नतर सत्ता में व्यवस्था आत्म-चालित, प्रकृति का बंधन पूर्ण, उसका खांचा मजबूत और अनुल्लंध्य होता है । वैश्व चित्-शक्ति प्रकृति का एक ऐसा नमूना और उसका अभ्यस्त सांचा या कर्म का निर्धारित चक्कर विकसित करती है और अवबौद्धिक सत्ता को उसके लिये बनाये गये नमूने के अनुसार रहने और उस सांचे या चक्कर के अनुसार क्रिया करने के लिये बाधित करती है । मनुष्य के अंदर मन इस पहले से व्यवस्थित नमूने और लीक से शुरू होता है लेकिन विकसित होने के साथ वह आकृति को बढ़ाता, सांचे को फैलाता और स्वतःचालन के निश्चित अर्द्ध- चेतन या अचेतन विधान के स्थान पर भावों, सार्थकताओं और स्वीकृत जीवन- हेतुओं पर आधारित व्यवस्था बैठाने का प्रयत्न करता है या बुद्धिमत्तापूर्ण मानकीकरण और युक्तियुक्त उद्देश्य, उपयोगिता और सुविधा द्वारा निर्धारित ढांचे के लिये प्रयत्न करता है । मनुष्य की ज्ञान-रचनाओं और प्राण-रचनाओं में कोई चीज वस्तुत: बाध्यकारी या स्थायी नहीं है फिर भी वह विचार, ज्ञान, व्यक्तित्व, जीवन, आचार के मानक बनाये बिना नहीं रह सकता और वह उनपर अपने जीवन को न्यूनाधिक सचेतन रूप से और पूर्णता से आधारित करता है या कम-से-कम अपने चुने हुए या स्वीकृत धर्मों के भावमूलक ढांचे में अपने जीवन को गढ़ने का यथा-
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संभव प्रयत्न करता है । इसके विपरीत, आध्यात्मिक जीवन की ओर संक्रमण में जो परम आदर्श प्रस्तुत किया जाता है वह विधान नहीं, आत्मा में स्वाधीनता है । आत्मा अपनी आत्मता को पाने के लिये सभी सिद्धांतों को तोड़ डालती है । इसपर भी अगर उसे अभिव्यक्ति के साथ संबंध रखना है तो उसे कृत्रिम अभिव्यक्ति की जगह स्वतंत्र और सच्ची अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्यतक, एक सच्ची और सहज आध्यात्मिक व्यवस्थातक पहुंचना चाहिये । 'सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेक शरणं व्रज' सभी धर्मों, सभी मानकों, सत्ता और कर्म के सभी नियमों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ' । यह उच्चतम जीवन का वह सर्वोच्च आदर्श है जिसे भागवत पुरुष ने जिज्ञासु के आगे रखा है । इस स्वाधीनता की खोज में, निर्मित विधान में से आत्मा और आध्यात्म पुरुष के विधान में जाकर स्वाधीनता पाना, मानसिक नियंत्रणको फेंक देना ताकि उसके स्थान पर आध्यात्मिक सद्वस्तु का नियंत्रण आ सके, सत्ता के उच्चतर तात्त्विक सत्य के लिये मन के निचले गठे हुए सत्य का त्याग -तब एक ऐसी स्थिति में से गुजरना संभव है जहां आंतरिक स्वाधीनता तो है पर बाहरी व्यवस्था का अभाव है -जिसमें कर्म प्रकृति के प्रवाह में बालक की तरह या गतिहीन या हवा से उड़ते पत्ते की तरह जड़वत् या बाहरी रूप में असंबद्ध या अनियंत्रित तक भी होता है । अपनी सत्ता की अस्थायी व्यवस्थित आध्यात्मिक अभिव्यक्ति तक पहुंचना भी संभव होता है जो कुछ समय के लिये या इस जीवन में प्राप्य भूमिका के लिये काफी हों; या यह आत्माभिव्यक्ति की व्यक्तिगत व्यवस्था हो सकती है जो, व्यक्ति जितने आध्यात्मिक सत्य को पा चुका है उसके मानक के अनुसार प्रामाणिक होती है, लेकिन बाद में वह जिस और भी विशालतर सत्य को पाने के लिये आगे बढ़ता है उसे व्यक्त करने के लिये आध्यात्मिकता की शक्ति द्वारा स्वतंत्रता से बदलती रहती है । लेकिन अतिमानसिक विज्ञान-पुरुष ऐसी चेतना में स्थित होता है जिसमें ज्ञान स्वयंभू होता है और अपने-आपको पराप्रकृति में अनंत की इच्छा द्वारा आत्म-नियंत्रित क्रम में अभिव्यक्त करता है । स्वयंभू ज्ञान के अनुसार होनेवाला यह आत्म-निर्देशन सत्ता के मर्मगत आत्म-अभिज्ञ और आत्म- क्रियान्वित सत्य की सहजता के द्वारा प्रकृति के स्वतः -चालन का और मन के मानकों का स्थान ले लेता है ।
विज्ञानमय पुरुष में यह आत्मनिर्धारक ज्ञान, जो आत्म-सत्य और सत्ता के संपूर्ण सत्य का स्वतंत्रता से अनुगामी होता है, उसके जीवन का धर्म होगा । उसमें ज्ञान और इच्छा एक हो जाते हैं, उनमें द्वंद्व नहीं रह सकता, आत्मा और प्राण का सत्य एक हो जाता है, उनमें भेद नहीं रह सकता । उसकी सत्ता के आत्म-कार्यान्वयन में आत्मा और उसके अंगों में कोई संघर्ष, वैषम्य या भिन्नता नहीं हो सकती । स्वतंत्रता और व्यवस्था के दो तत्त्व, जो मन और प्राण में सदा अपने-आपको विरोधी या असंगत रूप में प्रस्तुत करते हैं, यद्यपि, यदि ज्ञान स्वतंत्रता की रक्षा करे और
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व्यवस्था सत्ता के सत्य पर आधारित हो तो उनके आपस में विरोधी होने की जरूरत नहीं रहती, वे अतिमानस की चेतना में एक-दूसरे के सहजात, यहांतक कि मूलत: एक हैं । यह इसलिये है कि दोनों आंतरिक आध्यात्म सत्य के अभिन्न पहलू हैं और इस कारण उनके निर्धारण एक होते हैं । वे एक-दूसरे में अंतर्लीन हैं, क्योंकि वे एक तादात्म्य से उठते हैं अतः क्रिया में स्वाभाविक तादात्म्य से मेल खाते हैं । विज्ञानमय सत्ता को किसी तरह, किसी मात्रा में यह नहीं लगता कि उसके विचार या उसकी क्रियाओं की अनुल्लंध्य व्यवस्था किसी तरह उसकी स्वाधीनता का उल्लंघन कर रही है क्योंकि वह व्यवस्था आंतरिक और सहज होती है । वह अनुभव करती है कि उसकी स्वाधीनता और स्वाधीनता की व्यवस्था, दोनों ही उसकी सत्ता का एक सत्य हैं । ज्ञान की स्वाधीनता उसके लिये मिथ्यात्व या भ्रांति का अनुसरण करने की स्वाधीनता नहीं है क्योंकि उसे मन की तरह जानने के लिये भ्रांति की संभावना में से गुजरने की जरूरत नहीं है -इसके विपरीत ऐसा कोई भी अपसरण उसके लिये विज्ञानमय आत्मा के बाहुल्य से स्खलन होगा -वह उसके आत्म-सत्य से ह्रास, उसकी अपनी सत्ता के लिये पराया- और हानिकर होगा; क्योंकि उसकी स्वाधीनता अंधकार की नहीं प्रकाश की स्वाधीनता होती है । उसकी कर्म की स्वाधीनता गलत इच्छा या अज्ञान की प्रेरणाओं के अनुसार काम करने की स्वच्छंदता नहीं है, क्योंकि वह भी उसकी सत्ता के लिये परायी चीज, उसपर प्रतिबंध और उसका ह्रास होगी, मुक्ति नहीं । मिथ्यात्व या गलत इच्छा की परिपूति के लिये वह प्रेरणा का अनुभव स्वाधीनता की ओर गति के रूप में नहीं बल्कि आत्मा की स्वाधीनता पर किये गये बल-प्रयोग के रूप में, अपनी पराप्रकृति पर आक्रमण और अतिक्रमण के रूप में, किसी विजातीय प्रकृति के अत्याचार के रूप में करेगी ।
अतिमानसिक चेतना मूल रूप से, अवश्य ही 'ऋत-चेतना' है, उसे सत्ता के सत्य और वस्तुओं के सत्य की प्रत्यक्ष और अंतस्थ अभिज्ञता है । वह अनंत की एक शक्ति है जो उसके सांतों को जानती और कार्यान्वित करती है, वैश्व की शक्ति है जो उसके एकत्व और व्योरों को, उसकी व्यष्टियों और वैश्व रूपों को जानती और क्रियान्वित करती है । सत्य उसमें आत्मनिष्ठ है इसलिये उसे सत्य को खोजने की जरूरत नहीं होती या इसी कारण अज्ञान के मन की तरह उसे सत्य के खो जाने का भय भी नहीं रहता । विकसित विज्ञानमय सत्ता अनंत और वैश्व के इस ऋत-चित् में प्रवेश कर जायेगी और तब यही उसके लिये और उसके अंदर उसकी समस्त वैयक्तिक दृष्टि और कर्म का निर्धारण करेगा । उसकी चेतना विश्वव्यापी तादात्म्य की चेतना होगी और उसके परिणामस्वरूप, बल्कि अंतर्निहित रूप में ऋत-ज्ञान, ऋत- दृष्टि, ऋत-अनुभूति, ऋत-इच्छा, ऋत-संवेदन और ऋत-क्रियाबल उस 'एक' के साथ उसके तादात्म्य में समाविष्ट रहेंगे या 'सर्व' के साथ उसके तादात्म्य से सहज रूप से उठेंगे । उसका जीवन मानसिक भाव के विधान और प्राणिक तथा भौतिक
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आवश्यकता और कामना के विधान, इर्द-गिर्द के जीवन की बाध्यताओं के स्थान पर आध्यात्मिक स्वाधीनता और विशालता के चरणों की गति होगा । उसका जीवन और उसका कर्म दिव्य प्रज्ञा और इच्छा के सिवा किसी से बंधा न होगा और ये उसपर और उसमें अपनी ऋत-चेतना के अनुसार काम करती होंगी । विधान की आरोपित रचना के अभाव में यह आशा की जा सकती है कि मानव अज्ञान के जीवन में, मानव अहंकार के अलगाव और क्षुद्रता के कारण, अन्य जीवन का अतिक्रमण करने और उसपर अधिकार करने की आवश्यकता संघर्ष, उच्छृंखलता और अहंकारमय अव्यवस्था की ओर ले जाये । लेकिन विज्ञानमय पुरुष के जीवन में यह नहीं हो सकेगा, क्योंकि अतिमानसिक सत्ता की विज्ञानमय ऋत-चेतना में आवश्यक रूप से सत्ता के सभी भागों और गतियों के संबंध का सत्य रहेगा -चाहे वह सत्ता व्यक्ति की हो या किसी भी विज्ञानमय समुदाय की -चेतना की सभी गतियों और जीवन के समस्त कर्म में सहज और प्रकाशमय एकत्व और समग्रता होगी । उसके अंगों में कोई अनबन नहीं हो सकेगी क्योंकि केवल ज्ञान और इच्छा-चेतना ही नहीं बल्कि हृदय-चेतना, प्राण-चेतना और शरीर-चेतना, जो हमारे अंदर प्रकृति के भाव, प्राण और भौतिक भाग हैं, वे इस एकत्व और समग्रता के पूर्ण सामंजस्य में समाविष्ट हो जायेंगे । हम अपनी भाषा में कह सकते हैं कि विज्ञान-पुरुष की अतिमानसिक ज्ञान-इच्छा को मन, हृदय, प्राण और शरीर पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त होगा । लेकिन यह वर्णन केवल संक्रमणकालीन स्थिति पर ही लागू हो सकता है जब पराप्रकृति इन अंगों को अपनी प्रकृति में फिर से ढाल रही हो । एक बार वह संक्रमण समाप्त हों जाये तो फिर नियंत्रण की कोई जरूरत न रहेगी क्योंकि तब सब कुछ एक संयुक्त चेतना होगा और इसलिये सहज पूर्णता और एकत्व में समग्र की तरह काम करेगा ।
विज्ञानमय पुरुष में अहं की स्वप्रतिष्ठा और परा अहम् के द्वारा नियंत्रण के बीच कोई संघर्ष न हो सकेगा क्योंकि अपने जीवन के कार्य में विज्ञानमय व्यक्ति एक ही साथ अपने-आपको, अपनी सत्ता के सत्य को व्यक्त करेगा और दिव्य इच्छा को कार्यान्वित करेगा; क्योंकि वह भगवान् को अपनी सच्ची आत्मा के रूप में जानेगा और जानेगा कि यह उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का उत्स और उपादान हैं । उसके आचार के ये दो स्रोत एक ही क्रिया में केवल साथ-साथ न होंगे बल्कि एक ही और वही प्रेरक शक्ति होंगे । यह प्रेरक शक्ति हर परिस्थिति में उस परिस्थिति के सत्य के अनुसार कार्य करेगी, हर सत्ता के साथ उसकी आवश्यकता, प्रकृति और संबंध के अनुसार, हर घटना में दिव्य इच्छा की मांग के अनुसार उस घटना के लिये कार्य करेगी; क्योंकि, यहां सब कुछ एक तंतुजाल और एक ही शक्ति की बहुत-सी शक्तियों के सघन अंतर्बंधन का परिणाम है । विज्ञानमय चेतना और सत्य-इच्छा इन शक्तियों के सत्य को, प्रत्येक के और मिल-जुलकर सबके सत्य
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को देखेगी और शक्तियों के जाल पर आवश्यक आघात या हस्तक्षेप का प्रयोग करेगी ताकि उसके द्वारा जो कुछ किया जाना अभीष्ट हो वही किया जाये, बस उतना ही, उससे बढ़कर नहीं । सब जगह उपस्थित, सबपर शासन करने और सभी विविधताओं में सामंजस्य लानेवाले तादात्म्य के परिणाम-स्वरूप वहां पृथगात्मक अहं की कोई लीला न होगी जो आत्म-प्रतिष्ठापन पर तुला हो । विज्ञानमय सत्ता की आत्मा की इच्छा ईश्वर की इच्छा के साथ एक होगी, वह पृथगात्मक या विरोधी स्वेच्छा न होगी । उसे कर्म और परिणाम का आनंद तो प्राप्त होगा लेकिन वह अहंकार के दावों से, कर्म के लिये आसक्ति से या परिणाम की मांग से मुक्त होगी । वह वही करेगी जो उसने देखा था कि किया जाना चाहिये और जिसे करने के लिये उसे प्रेरणा मिली थी । मानसिक प्रकृति में अपने प्रयत्न और उच्चतर इच्छा के आज्ञापालन में विरोध या असंगति संभव है क्योंकि वहां आत्मा या प्रतीयमान पुरुष अपने-आपको परम सत्ता, परम इच्छा या परम पुरुष से अलग देखता है; लेकिन यहां व्यक्ति 'सत्' की सत्ता है और विरोध तथा असंगति पैदा नहीं होती । व्यक्ति का कर्म व्यक्ति में ईश्वर का, बहु में एक का कर्म है और स्वेच्छा की प्रतिष्ठा या स्वतंत्र अभिमान के लिये कोई कारण नहीं हो सकता ।
दिव्य ज्ञान और शक्ति, परात्पर प्रकृति, विज्ञानमय पुरुष द्वारा क्रिया करेगी जिसमें वह पूरा भाग लेगा -इसी तथ्य पर विज्ञानमय सत्ता की स्वाधीनता प्रतिष्ठित है । यही एकत्व उसे अपनी स्वाधीनता देता है । आध्यात्मिक सत्ता के बारे में बहुधा यह प्रतिपादित किया जाता है कि वह विधान से, जिसमें नैतिक विधान भी आ गया, स्वतंत्र है, यह स्वतंत्रता उसकी इच्छा के शाश्वत की इच्छा के साथ एकत्व पर आधारित है । सभी मानसिक मानदंड गायब हो जायेंगे क्योंकि उनकी कोई जरूरत न रहेगी, दिव्य आत्मा के और सभी सत्ताओं के साथ तादात्म्य का उच्चतर सच्चा विधान उनका स्थान ले चुका होगा । स्वार्थ और परमार्थ का, अपने और पराये का सवाल ही न रहेगा क्योंकि वहां सबको एक ही आत्मा की तरह देखा और अनुभव किया जाता है । जो कुछ परम सत्य और शुभ का निश्चय होगा केवल वही किया जायेगा । कर्म में एक स्वयंभू विश्वव्यापी प्रेम, सहानुभूति, एकत्व की विस्तृत भावना होगी, किंतु वह भावना कर्म पर पूरी तरह से शासन या उसका निर्धारण ही न करेगी बल्कि उसमें प्रविष्ट होगी, उसे रंग देगी और उसे अनुप्राणित करेगी । वह भावना वस्तुओं के विशालतर सत्य के विरोध में स्वयं अपने लिये न खड़ी होगी या भगवान् द्वारा इच्छित सत्य-गति से विपथ होने के लिये व्यक्तिगत प्रेरणा का आदेश भी न देगी । यह विरोध और विचलन अज्ञान में हो सकता है जहां प्रेम या प्रकृति के किसी अन्य प्रबल तत्त्व का बुद्धि से भी उसी तरह विच्छेद हो सकता है जैसा कि उसका शक्ति से विच्छेद हो सकता है । लेकिन अतिमानसिक-विज्ञान में सभी शक्तियां एक-दूसरे की अंतरंग होती हैं और एक होकर कार्य करती हैं । विज्ञानमय
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पुरुष में सत्य-ज्ञान मार्ग-दर्शन और निर्धारण करेगा और सत्ता की अन्य सब शक्तियां कर्म में सहमत होंगी । वहां प्रकृति की शक्तियों में असामंजस्य या संघर्ष के लिये कोई स्थान न होगा । समस्त कर्म में अस्तित्व का एक आदेश होता है जो परिपूरित होना चाहता है, सत्ता का एक सत्य होता है जो अभीतक अभिव्यक्त नहीं हुआ है, जिसे अभिव्यक्त करना है या एक अभिव्यक्त होता हुआ सत्य होता है जिसे विकसित करना, प्राप्त करना और अभिव्यक्ति में पूर्ण करना है और अगर उसकी प्राप्ति हो चुकी है तो उसे सत्ता का और आत्म-संपादन का आनंद लेना होता है । अज्ञान के अर्द्ध-प्रकाश और अर्द्ध-शक्ति में आदेश गुप्त या केवल अर्द्ध-प्रकट है और उपलब्धि की ओर प्रेरणा अपूर्ण, संघर्षरत, आंशिक रूप से कुंठित गति होती है, लेकिन विज्ञानमय सत्ता और जीवन में सत्ता के आदेशों का भीतर अनुभव किया जायेगा, उन्हें घनिष्ठ रूप से देखा और क्रिया में लाया जायेगा, उनकी संभावनाओं की मुक्त क्रीड़ा होगी; वहां परिस्थिति के सत्य और पराप्रकृति के अभिप्राय के अनुसार कार्यान्वयन होगा । यह सब ज्ञान में देखा जायेगा और अपने- आपको कर्म में विकसित करेगा । वहां कार्यरत शक्तियों का अनिश्चित संघर्ष या क्लेश नहीं होगा, सत्ता के किसी असामंजस्य के लिये, चेतना की विरोधी क्रिया के लिये कोई अवकाश न रहेगा । जहां सत्य का यह समवाय और प्रकृति के कर्मों में उसकी सहज क्रिया हो वहां यांत्रिक विधानों के बाहरी मानवीकरण का आरोपण बिल्कुल अनावश्यक होगा । समस्त जीवन का विधान और स्वाभाविक गतिशीलता होगी एक सामंजस्यपूर्ण क्रिया, दिव्य अभिप्राय का कार्यान्वयन, वस्तुओं के आदेशात्मक सत्य का निष्पादन ।
अतिमानसिक जीवन का तत्त्व होगा तादात्म्य से पैदा होनेवाला वह ज्ञान जो संपूर्ण सत्ता की शक्तियों को अभिव्यक्ति के साधनों की समृद्धि के लिये उपयोग में लायेगा । विज्ञानमय सत्ता की अन्य कोटियों में यद्यपि आध्यात्मिकता और चेतना का सत्य अपनी पूर्णता पायेगा फिर भी अभिव्यक्ति के साधन और ही स्तर के होंगे । उच्चतर मानसिक सत्ता विचार के सत्य द्वारा, भाव के सत्य के द्वारा कार्य करेगी और उसे जीवन-कार्य में प्रतिष्ठित करेगी; लेकिन अतिमानसिक विज्ञान में विचार एक व्युत्पन्न गति है, वह निर्धारक या मुख्य चालक शक्ति का नहीं बल्कि सत्य- दृष्टि का रूपायन है; वह ज्ञानतक पहुंचने या क्रिया का यंत्र होने की जगह ज्ञान की अभिव्यक्ति का यंत्र होगा या कर्म में उसका हस्तक्षेप केवल तादात्म्य-इच्छा और तादात्म्य-ज्ञान के शरीर के बेधक बिंदु की तरह होगा । इसी तरह आलोकमय विज्ञानमय सत्ता में सत्य-दृष्टि और अंतर्भासात्मक विज्ञानमय सत्ता में प्रत्यक्ष सत्य- संपर्क और सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन कर्म का प्रमुख स्रोत होगा । अधिमानस में वस्तुओ के सत्य और प्रत्येक वस्तु की सत्ता के तत्त्व और उसके सारे क्रियात्मक परिणामों की व्यापक और प्रत्यक्ष पकड़ होगी जो विज्ञानमय दृष्टि और विचार के
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एक बड़े विस्तार को उत्पन्न और एकत्र करेगी और ज्ञान तथा कर्म की नींव बनायेगी । होने और देखेने और करने की यह विशालता एक अंतर्निष्ठ तादात्म्य- चेतना का रंग-बिरंगा परिणाम होगी, लेकिन वह तादात्म्य अपने-आपमें चेतना के उपादान या क्रिया की शक्ति के रूप में सामने न होगा । लेकिन अतिमानसिक विज्ञान में वस्तुओं के सत्य की यह ज्योतिर्मय प्रत्यक्ष पकड़, यह सत्य-बोध, सत्य- दर्शन, सत्य-विचार अपने उत्स, तादात्म्य-चेतना में वापिस चले जायेंगे और उसके ज्ञान के एक ही शरीर की भांति बने रहेंगे । तादात्म्य-चेतना हर चीज का पथ- प्रदर्शन करेगी और उसे समाये रखेगी । वह सत् के पदार्थ के अणु-अणु में अभिज्ञता के रूप में अभिव्यक्त होगी जो अपनी आत्म-परिपूर्ति की अंतर्निहित शक्ति को अभिव्यक्त कर रही होगी और अपने-आपको चेतना के रूप में और कर्म के रूप में सक्रिय रूप से निर्धारित कर रही होगी । यह अंतर्निहित अभिज्ञता अतिमानसिक विज्ञान की क्रिया का मूल और तत्त्व है । वह अपने-आपमें पर्याप्त हो सकती है जिसे रूपायित करने या मूर्त रूप देने के लिये किसी चीज की जरूरत न हो, लेकिन इसमें आलोकित दृष्टि, दीप्तिमान विचार की क्रीड़ा, आध्यात्मिक चेतना की सभी गतिविधियों की क्रीड़ा भी अनुपस्थित न होगी; उनके अपने दीप्तिमान कार्य के लिये, भागवत समृद्धि और विविधता के लिये, आत्माभिव्यक्ति के बहुविध आनंद के लिये, अनंत की शक्तियों के उल्लास के लिये उनका मुक्त यंत्र-विन्यास होगा । विज्ञान की बीच की स्थितियों या कोटियों में दिव्य सत्ता और प्रकृति के रूपों की विविध और अलग व्यंजनाओं की अभिव्यक्ति प्रेममय जीव और जीवन में, दिव्य ज्योति से युक्त और दिव्य ज्ञानमय जीव और जीवन में, दिव्य शक्ति से युक्त और प्रभुत्वपूर्ण रूप से क्रियाशील और सर्जनशील जीव और जीवन में और दिव्य जीवन के अन्य असंख्य रूपों में हो सकती है । अतिमानसिक ऊंचाई पर सब कुछ एक बहुविध एकत्व में, सत्ता और जीवन के परम समाकलन में उठा लिया जायेगा । सत्ता की अवस्थाओं और शक्तियों के ज्योतिर्मय और आनंदमय समाकलन में सत्ता की पूर्ति और उनका संतुष्ट क्रियाशील कर्म -यही होगा विज्ञानमय जीवन का तात्पर्य ।
समस्त अतिमानसिक विज्ञान दोहरी ऋत-चेतना है, --अंतर्निष्ठ आत्मज्ञान की चेतना और आत्मा तथा जगत् के तादात्म्य के कारण अंतरंग जगत्-ज्ञान की चेतना । यह ज्ञान विज्ञान की कसौटी और विशिष्ट शक्ति है । लेकिन यह शुद्ध रूप से भावमय ज्ञान नहीं है । यह अवलोकन करनेवाली, भाव को रूप देनेवाली और उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न करनेवाली चेतना नहीं है । यह चेतना की तात्त्विक ज्योति है, सत्ता और संभूति की समस्त वास्तविकताओं की आत्म-ज्योति, निर्धारित करनेवाले, रूपायित करनेवाले और अपने-आपको कार्यान्वित करनेवाले सत् का आत्म-सत्य है । अभिव्यक्ति का उद्देश्य जानना नहीं, होना है । ज्ञान सत् की
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कार्यकारी चेतना का यंत्र-विन्यास मात्र है । पृथ्वी पर विज्ञानमय जीवन ऐसा होगा, ऋत-चित् सत्ता की अभिव्यक्ति या क्रीड़ा, ऐसी सत्ता की क्रीड़ा जो सभी वस्तुओं में अपने बारे में अभिज्ञ हो, जो कभी अपनी चेतना को न खोती हो, जो रूप और क्रिया में तन्मय होने से उत्पन्न अपने सच्चे जीवन की आत्म-विस्मृति या अर्द्ध-विस्मृति में डूबी नहीं रहती बल्कि रूप और क्रिया को अबाध और पूर्ण आत्माभिव्यक्ति के लिये मुक्त आध्यात्मिक शक्ति से व्यवहार में लाती है, उसे अपने खोये या भूले हुए या अवगुंठित और प्रच्छन्न सार्थकता या सार्थकताओं की खोज नहीं रहती । वह अब बद्ध नहीं रहती बल्कि निश्चेतना और अज्ञान से मुक्त, अपने सत्यों और अपनी शक्तियों के बारे में अभिज्ञ, अपनी अभिव्यक्ति का, अपने पदार्थ की क्रीड़ा का, अपनी चेतना की क्रीड़ा, अपने अस्तित्व की शक्ति की क्रीड़ा, अपने अस्तित्व के आनंद की क्रीड़ा का निर्धारण अपनी परम तथा वैश्व सद्वस्तु के साथ सदा ही सहवर्ती और हर व्यौरे में समस्वर गति में करती है ।
विज्ञानमय विकास में चेतना, शक्ति और सत्ता के आनंद की स्थिति, भूमिका और समस्वर की गयी क्रियाओं में बहुत विविधता होगी । स्वभावत: विकसनशील अतिमानस की अपने शिखरों की ओर आगे की चढ़ाई में बहुत-सी श्रेणियां कालक्रम में प्रकट होंगी, लेकिन सबमें समान आधार और तत्त्व होगा । अभिव्यक्ति में आत्मा, सत्ता, अपने-आपको पूरी तरह जानते हुए भी इसके लिये बाधित नहीं है कि रचना और क्रिया के वास्तविक अग्रभाग में, जो उसकी तात्कालिक शक्ति और आत्माभिव्यक्ति की अवस्था है, अपना सब कुछ प्रकट कर दे । हो सकता है कि वह सामने के भाग में कुछ आत्माभिव्यक्ति रखे और अपने-आपके बाकी सबको अपने पीछे आत्म-सत्ता के अनभिव्यक्त आनंद में धारण किये रहे । पीछे रहनेवाला वह सर्व और उसका आनंद अपने-आपको आगे के भाग में पायेगा, अपने-आपको उसके अंदर जानेगा, उस अभिव्यक्ति को, उस सृष्टि को अपनी उपस्थिति और समग्रता तथा अनंतता की अनुभूति से सुरक्षित और भरा हुआ रखेगा । सामने के भाग का यह रूपायण और उसके साथ बाकी सब जो उसके पीछे होगा और जो उसके अंदर सत्ता की शक्ति में धारित होगा, यह सब आत्म-ज्ञान की क्रिया होगी, अज्ञान की नहीं । यह अतिचेतन की आलोकमय आत्माभिव्यक्ति होगी, निश्चेतना में से उछाल नहीं । इस तरह विज्ञानमय चेतना और सत्ता के क्रमविकास के सौंदर्य और पूर्णता में महान् सामंजस्यपूर्ण विविधता एक तत्त्व होगी । अपने चारों ओर के अज्ञान के मन के साथ व्यवहार करते हुए भी और उसी तरह विज्ञानमय विकास की और भी नीची कोटियों के साथ व्यवहार करते हुए अतिमानसिक जीवन अपनी सत्ता के सत्य की इस सहजात शक्ति और गति का उपयोग करेगा । वह उस संपूर्ण सद्वस्तु के प्रकाश में अपनी सत्ता के सत्य का नाता अज्ञान के पीछे के सत्ता के सत्य से जोड़ेगा । वह सभी संबंधों की नींव सर्वसामान्य आध्यात्मिक ऐक्य पर
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रखेगा और अभिव्यक्त भेद को स्वीकार करेगा और सामंजस्य में लायेगा । विज्ञानमय प्रकाश हर परिस्थिति में हर एक का हर एक के साथ उचित संबंध और उचित क्रिया-प्रतिक्रिया को निश्चित बना देगा । विज्ञानमय शक्ति या प्रभाव हमेशा समस्वर कार्यान्वयन प्रतिष्ठित करेगा, ज्यादा विकसित और कम विकसित जीवन का उचित संबंध स्थापित करेगा और निचले जीवन पर अपने प्रभाव से ज्यादा महान् सामंजस्य स्थापित करेगा ।
जहांतक हम अपनी मानसिक कल्पना से उस बिंदुतक विकास का अनुसरण कर सकते हैं जहां वह अधिमानस से निकलकर, सीमा लांघकर अतिमानसिक विज्ञान में प्रवेश करेगा, विज्ञानमय व्यक्ति की सत्ता, जीवन और कर्म का यही स्वरूप होगा । स्पष्ट है कि विज्ञान की यह प्रकृति विज्ञानमय सत्ताओं के जीवन या उनके सामुदायिक जीवन के संबंधों का निर्धारण करेगी, क्योंकि विज्ञानमय समुदाय ऋत-चेतना की सामुदायिक आत्म-शक्ति होगा, उसी तरह जैसे विज्ञानमय व्यक्ति उसकी वैयक्तिक आत्म-शक्ति होगा । उसमें जीवन और क्रिया का सामंजस्य में वही समाकलन होगा, सत्ता की वही उपलब्ध और सचेतन एकता होगी, वही सहजता, घनिष्ठ ऐक्य का भाव, एक और पारस्परिक सत्य-दृष्टि, आत्मा का और एक-दूसरे के लिये वही सत्य-भाव होगा, एक के दूसरे के साथ और सबमें सबके साथ संबंध में वही सत्य-क्रिया होगी । यह समष्टि और उसकी क्रिया यांत्रिक न होकर आध्यात्मिक समग्र होगी । स्वाधीनता और व्यवस्था का ऐसा ही अनिवार्य मेल सामुदायिक जीवन का विधान होगा । वह दिव्य आत्माओं में अनंत की नानाविध क्रीड़ाओं की स्वाधीनता होगी; और व्यवस्था होगी आत्माओं की सचेतन एकता की जो अतिमानसिक अनंत का विधान है । हमारा एकत्व का मानसिक प्रस्तुतीकरण उसमें एकरूपता का नियम ले आता है । मानसिक तर्क-बुद्धि द्वारा लायी गयी पूर्ण एकता सर्वांगीण मानकीकरण को अपना एकमात्र प्रभावी साधन मानकर उसकी ओर खिंचती है, वहां विभेदों की गौण छटाएं ही कार्य कर सकेंगी; लेकिन विज्ञानमय जीवन का नियम होगा एकत्व की आत्माभिव्यक्ति में विभेद का विशालतम वैभव । विज्ञान--चेतना में विभेद असंगति की ओर नहीं बल्कि सहज- स्वाभाविक अनुकूलीकरण की ओर, एक पूरक प्रचुरता के बोध की ओर -जिसे सामुदायिक रूप से जानना, करना, जीवन में क्रियान्वित करना है -उसके समृद्ध और बहुमुख कार्यान्वयन की ओर ले जायेगा । कारण, मन और प्राण में कठिनाई की रचना अहं से, समग्रों को अलग-अलग घटक अंगों में बांटने से होती है जो विपरीत, विरोधी, विषम प्रतीत होते हैं । जिन चीजों में वे एक-दूसरे से अलग होते हैं उनका आसानी से अनुभव हो जाता है, वे प्रतिष्ठित होते हैं और उनपर जोर दिया जाता है । वे जिसमें मिलते हैं, जो उनकी विभिन्नताओं को साथ पकड़े रहता है, वह प्रायः चूक जाता है या कठिनाई से मिलता है । हर चीज भेद को जीतकर
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या उसमें कुछ समायोजन करके एक बनायी गयी एकता द्वारा ही करनी पड़ती है । निश्चय ही एकत्व का एक आधारस्थ तत्त्व है और प्रकृति एकता के निर्माण में उसके आविर्भाव पर जोर देती है; क्योंकि प्रकृति व्यक्तिगत और अहंकारात्मक होने के साथ-ही-साथ सामूहिक और सामुदायिक भी है और उसे साहचर्य के साधनों के रूप में सहानुभूति, सर्व-सामान्य आवश्यकताएं हित, आकर्षण, सादृश्य और साथ- ही-साथ एकता लाने के अधिक नृशंस साधन भी प्राप्त हैं । लेकिन उसके अहंकारमय जीवन और अहंकारात्मक प्रकृति की गौण, आरोपित और बहुत स्पष्ट दीखनेवाली नींव एकता को ढंक देती और उसकी सभी रचनाओं पर अपूर्णता और असुरक्षा लगा देती है । एक और कठिनाई पैदा होती है अंतर्भास और प्रत्यक्ष भीतरी संपर्क के अभाव बल्कि अपूर्णता से, जिससे हर एक एक पृथक् सत्ता बन जाता है और कठिनाई के साथ दूसरे की सत्ता या प्रकृति को समझने के लिये बाधित होता है, एक भीतर से प्रत्यक्ष संवेदन और पकड़ की जगह बाहर से समझ, पारस्परिकता और सामंजस्य पर आने के लिये बाधित होता है जिससे कि समस्त मानसिक और प्राणिक आदान-प्रदान में बाधा पड़ती है, वह अहंकाररंजित होता है या पारस्परिक अज्ञान के परदे के कारण अधूरा और अपूर्ण रहने के लिये अभिशप्त रहता है । सामुदायिक विज्ञानमय जीवन में समाकलन करनेवाला सत्य- बोध, विज्ञानमय प्रकृति की सुसंगति लानेवाला एकत्व सभी विभिन्नताओं को अपने अंदर अपनी संपदा के रूप में लिये रहेगा और बहुविध विचार, क्रिया और अनुभूति को आलोकमय जीवन-समग्र के एकत्व में बदल देगा । ॠत-चित् के स्वरूप का, उसकी समस्त सत्ता के आध्यात्मिक एकत्व की सक्रिय सिद्धि का यह स्पष्ट तत्त्व होगा, अनिवार्य परिणाम होगा । इस सिद्धि को, जो जीवन की पूर्णता की चाबी है, मानसिक स्तर पर पाना कठिन है और इसे प्राप्त कर भी लिया जाये तो इसे सक्रिय बनाना या संगठित करना कठिन है । यह समस्त विज्ञानमय सृष्टि और विज्ञानमय जीवन में स्वभावत: क्रियाशील और सहज रूप से आत्म-संगठित होगी ।
यदि हम यह मान लें कि विज्ञानमय सत्ताएं अज्ञान के जीवन से किसी प्रकार के संपर्क के बिना अपना जीवन जीती हैं तो इतना आसानी से समझ में आ सकता है । लेकिन यहां विकास के तथ्य के कारण विज्ञानमय अभिव्यक्ति एक परिस्थिति ही होगी, यद्यपि होगी समग्र के अंदर एक निर्णायक परिस्थिति । चेतना और जीवन की निम्नतर कोटियां जारी रहेंगी, कुछ अज्ञान में अभिव्यक्ति को जारी रखेंगी, कुछ उसके और विज्ञान की अभिव्यक्ति के बीच मध्यस्थता करेंगी; सत्ता और जीवन के ये दो रूप या तो साथ-साथ रहेंगे या एक-दूसरे में प्रवेश करेंगे । दोनों अवस्थाओं में यह आशा की जा सकती है कि भले तुरंत न हो पर अंतत: विज्ञानमय तत्त्व सब पर छा जायेगा । उच्चतर आध्यात्मिक-मानसिक कोटियां अतिमानसिक तत्त्व के स्पर्श में रहेंगी जो अब उन्हें प्रत्यक्ष रूप में सहारा दे रहा होगा और साथ रखेगा
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और जो अज्ञान और निश्चेतना की पकड़ से, जो एक समय उन्हें लपेटे हुए था, मुक्ति पा लेंगी । सत्ता के सत्य की अभिव्यक्तियों के रूप में, भले सीमित और किंचित् परिवर्तित रूप में, वे अपना सारा प्रकाश और सारी ऊर्जा अतिमानसिक विज्ञान से प्राप्त करेंगी और उसकी सहायक शक्तियों के साथ बहुत संपर्क रखेंगी । वे अपने-आप आत्मा की सचेतन चालक शक्तियां होंगी और यद्यपि अभीतक उन्होंने अपने पूरी तरह उपलब्ध आध्यात्मिक द्रव्य की पूरी शक्ति प्राप्त न की होगी, फिर भी वे अवर यंत्र-विन्यास के अधीन न होंगी जो निर्ज्ञान के तत्त्व से खंडित, मिश्रित, ह्रासित और अंधकारमय होगा । अधिमानस, अंतर्भासात्मक, प्रकाशमान या उच्चतर मन में उठने या प्रवेश करनेवाला समस्त अज्ञान अज्ञान न रहेगा; वह प्रकाश में प्रवेश करेगा और प्रकाश में उस सत्य को उपलब्ध करेगा जिसे उसने अपने अंधकार से ढक रखा था । वह मुक्ति, रूपांतर, चेतना और सत्ता की नयी अवस्था में से गुजरेगा जो उसे इन उच्चतर स्थितियों के अनुरूप बना देगी और अतिमानसिक स्थिति के लिने तैयार करेगी । साथ ही विज्ञान का अंतर्लीन तत्त्व अब केवल ऐसी छिपी हुई शक्ति के रूप में काम न करेगा जिसका मूल गुप्त हो या जिसका एकमात्र काम हो वस्तुओं को परदे के पीछे से सहारा देना, या कभी- कदास हस्तक्षेप करना, उसकी जगह वह प्रकट, उदित और निरंतर सक्रिय शक्ति के रूप में कार्य करेगा और अभीतक बनी हुई निश्चेतना और अज्ञान पर अपने सामंजस्य के विधान का कुछ अंश लागू कर सकेगा । क्योंकि, उनके अंदर छिपी हुई विज्ञानमय शक्ति अपने अवलंब और प्रवर्तन की अधिक बड़ी शक्ति के साथ, अधिक स्वतंत्र और अधिक सबल हस्तक्षेप के साथ कार्य करेगी । अज्ञान के जीव विज्ञान के जीवों के संग से और पार्थिव प्रकृति में अतिमानसिक सत्-पुरुष और शक्ति की विकसित और प्रभावशाली उपस्थिति के परिणामस्वरूप विज्ञान के प्रकाश से प्रभावित होकर अधिक सचेतन और संवेदनशील होंगे । स्वयं मानवजाति के अरूपांतरित भाग में मानसिक मनुष्य-सत्ताओं का एक नया और श्रेष्ठतर वर्ग उत्पन्न हो सकता है क्योंकि ऐसे मानसिक पुरुष का आविर्भाव होगा जो प्रत्यक्ष अंतर्भासात्मक या आंशिक रूप से अंतर्भासात्मक हो, पर जो अभीतक विज्ञानमय मानसिक सत्ता न हो; प्रत्यक्ष या आंशिक रूप से आलोकित मानसिक सत्ता, उच्चतर विचार के लोक के साथ प्रत्यक्ष या आंशिक सायुज्य रखनेवाली मानसिक सत्ता उत्पन्न होगी । ये अधिकाधिक बहुसंख्यक, अधिकाधिक विकसित और अपने प्ररूप में सुरक्षित होती जायेंगी और ये उच्चतर मानवता की एक गठित जाति की तरह भी रह सकतीं हैं जो कम विकसित लोगों को सब भूतों में एक ही भगवान् की अभिव्यक्ति के बोध से उत्पन्न सच्चे भ्रातृभाव से ऊपर की ओर ले जा रही होगी । इस भांति उच्चतम की परिपूर्णता का अर्थ यह भी हो सकता है कि जिसे अब भी नीचे रहना है उसे अपनी श्रेणी में न्यूनतर पूर्णता तो प्राप्त हो ही
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जाये । विकास के उच्चतर छोर पर अतिमानस की ऊपर चढ़ती हुई श्रेणियां और चोटियां सच्चिदानंद की शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता, चेतना और आनंद की किसी परम अभिव्यक्ति की ओर उठना शुरू करेंगी ।
यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या विज्ञानमय परावर्तन का, विज्ञानमय विकास में और उसके परे जाने का अर्थ, जल्दी हो या देर से, निश्चेतना में से होनेवाले विकास की समाप्ति न होगा क्योंकि तब वस्तुओं के अंधकारमय आरंभ का कारण समाप्त हो जायेगा । यह एक अगले प्रश्न पर निर्भर है कि क्या सत्ता के दो छोरों के रूप में अतिचेतना और निश्चेतना के बीच संचरण भौतिक अभिव्यक्ति का स्थायी धर्म है या एक अस्थायी परिस्थिति है । सारे भौतिक विश्व के लिये व्यापकता और स्थायित्व की निश्चेतन नींव एक बहुत ही आश्चर्यजनक शक्ति द्वारा रखी गयी है, उसे देखते हुए इस दूसरी मान्यता को स्वीकार करना कठिन है । प्रथम विकसनशील तत्त्व के पूरे उलटाव या बहिष्करण का अर्थ होगा एक साथ इस बृहत् वैश्व निश्चेतना में अंतलनि रहस्यमय चेतना की अभिव्यक्ति का हर भाग में आविर्भाव । प्रकृति की किसी विशेष धारा में, उदाहरण के लिये, पार्थिव धारा में परिवर्तन का कोई ऐसा सर्वव्यापी प्रभाव न हो सकेगा । पार्थिव प्रकृति में अभिव्यक्ति का अपना चक्र होता है और हमें बस इस चक्र की पूर्ति के बारे में ही विचार करना है । यहां शायद यह कहने का साहस किया जा सकता है कि अंतिम परिणाम के रूप में सचेतन सत्ता के उच्चतर परार्द्ध में अपरार्द्ध की त्रयी में अंतःप्रकाशात्मक सृजन या प्रजनन श्रेणी और कोटि में वही रहते हुए भी सामंजस्य के विधान, विविधता में ऐसे ऐक्य के विधान के आधीन रहते हैं जो ऐक्य को कार्यान्वित कर रहा है । अब यह संघर्ष द्वारा विकास नहीं रहेगा । यह एक स्तर से दूसरे स्तरतक, कम से अधिक प्रकाश की ओर आत्मोन्मीलनकारी सत्ता की शक्ति और सुंदरता के प्रतिरूप से ज्यादा ऊंचे प्रतिरूप की ओर सामंजस्यपूर्ण विकास होगा । इससे भिन्न तभी हो सकता है जब अनंत की रहस्यमय संभावना को कार्यान्वित करने के लिये, जिसका मूल तत्त्व निश्चेतना में डूबा हुआ है, उसमें संघर्ष और कष्ट का विधान फिर भी किसी कारण जरूरी रह जाये । लेकिन पार्थिव प्रकृति के लिये ऐसा लगता है कि एक बार अतिमानसिक विज्ञान निश्चेतना में से उभर आये तो यह आवश्यकता समाप्त हो जायेगी, उसके दृढ़ आविर्भाव के साथ परिवर्तन शुरू होगा और उस परिवर्तन का चरम उत्कर्ष तब होगा जब अतिमानसिक विकास पूरा हो जायेगा और सच्चिदानंद की परम अभिव्यक्ति की महत्तर पूर्णता में उदित हो जायेगा ।
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