Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १८
विकसनशील प्रक्रिया--
आरोहण और समाकलन
यत् सानो: सानुमारुहत,...
तदिन्द्रो अर्थं चेतति ।।
जैसे-जैसे वह शिखर से शिखरतक चढ़ता है... इन्द्र उसे अपनी
गति के उस लक्ष्य के बारे में सचेतन बना देते हैं ।
ऋग्वेद १. १०. २
द्विमाता होता विदथेषु समाकन्वग्रं चरति क्षेति बुघ्न: ।।
दो माताओं का वह पुत्र अपने ज्ञान के आविष्कारों में राजस्व प्राप्त
करता है, वह शिखर पर घूमता-फिरता है, वह अपने ऊंचे आधार
में निवास करता है ।
ऋग्वेद ३.५५.७
पृथिव्याऽहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् ।
दिवो नाकस्व पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम् ।।
मैं पृथ्वी से अंतरिक्ष में उठ गया हूं मैं अंतरिक्ष से द्युलोक में उठ
गया हूं द्युलोक के व्योम से मैं सूर्यलोक में, ज्योति में१ गया हूं ।
यजुर्वेद १७.६७
चूंकि अब हम पार्थिव प्रकृति में विकासात्मक अभिव्यक्ति और वह अब जो अंतिम मोड़ ले रही है या जो उसके लिये नियत है उसका एक काफी स्पष्ट विचार बना चुके हैं इसलिये हमारे लिये यह संभव और आवश्यक है कि हम उस प्रक्रिया के सिद्धांतों की ओर ज्यादा समझदणि-भरी दृष्टि डालें जिसके द्वारा वह अपने वर्तमान स्तरतक पहुंची है और संभाव्यतः, चाहे जितने हेर-फेर के साथ हो, उसका चरम विकास, हमारे अभीतक प्रमुख मानसिक अज्ञान से अतिमानसिक चेतना और पूर्ण ज्ञान की ओर उसका संक्रमण शासित और प्रभावकारी होगा । क्योंकि हम देखते हैं कि वैश्व प्रकृति अपनी क्रिया के सामान्य नियम में स्थिर रहती है, क्योंकि वह वस्तुओं के ऐसे सत्य पर निर्भर है जो तत्त्वतः अपरिवर्तनशील है यद्यपि क्रियान्वयन के ब्यौरे में काफी अधिक परिवर्तनशील है । शुरू में हम आसानी से देख सकते हैं कि चूंकि यह जड़-निश्चेतना में से आध्यात्मिक चेतना में विकास है,
१ जड़, प्राण, शुद्ध मन और अतिमानस के चार लोक ।
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जड की नींव पर आत्मा का विकसनशील आत्म-निर्माण है इसलिये इस प्रक्रिया में त्रिविध लक्षण का विकास होना चाहिये । जड़तत्त्व के ऐसे रूपों का विकास जो अधिकाधिक सूक्ष्म और जटिल रूप से संगठित हों ताकि चेतना की बढ़ती हुई, अधिकाधिक जटिल, सूक्ष्म और समर्थ संगठन की क्रिया को प्रवेश मिले, अनिवार्य स्थूल आधार है । ऊपर की ओर को स्वयं चेतना की एक श्रेणी से ऊपर की श्रेणी की ओर विकसनशील प्रगति, एक आरोहण, स्पष्ट रूप से वह सर्पिल रेखा या उभरती हुई गोलाई है जिसे विकास को इस नींव पर बनाना चाहिये । यदि विकास को प्रभावकारी होना है तो जो कुछ अभीतक विकसित हो चुका है उसे उच्चतर श्रेणी में लेकर वहां पर उसका ऐसा न्यूनाधिक पूर्ण रूपांतर जो समस्त सत्ता और प्रकृति की पूरी तरह बदली हुई क्रिया को स्थान दे सके -इसे भी प्रक्रिया का अंश होना चाहिये ।
इस त्रिगुण प्रक्रिया का समापन होना चाहिये अज्ञान की क्रिया का ज्ञान की क्रिया में, हमारी निश्चेतना के आधार का पूर्ण चेतना के आधार में आमूल परिवर्तन -एक ऐसी पूर्णता जो अभी केवल उसमें है जो हमारे लिये अतिचेतन है । हर आरोहण अपने साथ पुरानी प्रकृति में आंशिक परिवर्तन और हेर-फेर लायेगा, उस प्रकृति को ऊंचा उठाकर एक नये मूलभूत तत्त्व के अधीन किया जायेगा, निश्चेतना को आंशिक चेतना में बदला जायेगा, एक ऐसे अज्ञान में जो अधिकाधिक ज्ञान और प्रभुता की खोज में हो; लेकिन किसी बिंदु पर ऐसा आरोहण होना चाहिये जो निश्चेतना और अज्ञान की जगह ज्ञान के तत्त्व को, एक मूलभूत सच्ची चेतना को, आत्मा की चेतना को ला बिठाता है । निश्चेतना के अंदर विकास आरंभ है, अज्ञान में विकास मध्य है लेकिन इसका अंत है आत्मा की अपनी सच्ची चेतना में मुक्ति और ज्ञान में विकास । हमें मालूम होता है कि वस्तुत: यहीं उस प्रक्रिया का नियम और उसकी पद्धति है जिसका अभीतक अनुसरण किया गया है और सभी चिह्नों से लगता है कि विकसनशील प्रकृति भविष्य में भी इसी राह पर चलेगी । एक पहला अंतर्लयात्मक आधार जिसमें उस सबका आरंभ होता है जिसे विकसित होना है, उस आधार पर आरोहणकारी क्रम में आविर्भाव और क्रिया-व्यापार और एक परम अभिव्यक्ति के अभिकर्ता के रूप में सबसे ऊंची शक्ति की चरम परिणति लानेवाला उद्घाटन -ये हैं विकसनशील प्रकृति की यात्रा के आवश्यक पड़ाव ।
जिस समस्या का समाधान करना है उसके स्वभाव से ही विकास की प्रक्रिया, सत्ता या पदार्थ के पहले से प्रतिष्ठित मूलभूत तत्त्व में, किसी ऐसी चीज का विकास होना चाहिये जिसे वह मूलभूत वस्तु अपने अंदर अंतलर्नि रखती है या बाहर से अपने अंदर प्रविष्ट होने देती है और प्रवेश देकर उसमें हेर-फेर कर लेती है क्योंकि उसे आवश्यक रूप से अपनी प्रकृति के नियमके अनुसार अपने अंदर प्रवेश करनेवाली उस हर चीज में हेर-फेर करना होता है जो पहले से उसकी प्रकृति का अंश न हो । यदि यह सृजनशील विकास हो तब भी यह होना चाहिये । सृजनशील
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इस अर्थ में कि वह हमेशा सत्ता की ऐसी शक्तियों को अभिव्यक्त करे जो उसके प्रथम आधार में, जन्मजात न हों बल्कि पीछे से प्रविष्ट की गयी हों और मौलिक पदार्थ में स्वीकार कर ली गयी हों । अगर इसके विपरीत ये प्रतिविकास में पहले से उपस्थित हों -पहले आधार में उपस्थित तो हों लेकिन अभीतक अभिव्यक्त या संगठित न हों -अस्तित्व के जिस नये तत्त्व या शक्ति को विकसित करना है, जब वह प्रकट होगी तो उसे आधारभूत पदार्थ की प्रकृति और उसके विधान के द्वारा किये गये हेर-फेर स्वीकार करने होंगे और उसे भी अपनी शक्ति द्वारा, अपनी प्रकृति के नियम द्वारा उस पदार्थ में हेर-फेर करने होंगे । इसके अतिरिक्त अगर उसे अपने उस तत्त्व के अवरोहण की सहायता मिले जो अपनी पूरी शक्ति से विकास के क्षेत्र के ऊपर प्रतिष्ठित हो चुका है और इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिये दबाव डाल रहा है तब तो हो सकता है कि नयी शक्ति अपने-आपको प्रमुख तत्त्व के रूप में स्थापित कर ले और जगत् की चेतना और क्रिया को, जिसमें से वह उभर रही है या जिसमें प्रवेश कर रही है, काफी बड़ी हदतक या पूरी तरह बदल दे । लेकिन उसकी हेर-फेर करने या बदलने की शक्ति या मौलिक पदार्थ के विकसनशील सांचे के रूप में चुने गये पदार्थ की क्रियाओं या विधान में क्रांतिकारी परिवर्तन उसकी तात्त्विक क्षमता पर निर्भर होंगे । अगर स्वयं वह सत्ता का मौलिक तत्त्व नहीं है, वह केवल व्युत्पन्न, यांत्रिक शक्ति है, प्रथम सामर्थ्य नहीं है, तो इसकी बहुत संभावना नहीं है कि वह संपूर्ण रूपांतर ला सके ।
यहां जड़-भौतिक विश्व में विकास होता है, यहां आधार, मौलिक द्रव्य, वस्तुओं की प्रथम प्रतिष्ठित सर्वानुकूलन करनेवाली स्थिति भी जड़ ही है । मन और प्राण जड़ में विकसित होते हैं लेकिन वे अपनी क्रिया में इस कारण सीमित और परिवर्तित भी रहते हैं क्योंकि वे अपने यंत्र-विन्यास के रूप में उसके उपादान का उपयोग करने और जड़-भौतिक प्रकृति के विधान के अधीन रहने के लिये बाधित हैं; भले वे जिसका अनुभव करते हों और जिसका उपयोग करते हों उसमें हेर-फेर क्यों न करें । क्योंकि वे निश्चय ही उसके द्रव्य का रूपांतर करते हैं, पहले तो उसे जीवित पदार्थ और फिर सचेतन पदार्थ बना कर वे उसकी जड़ता, निश्चलता और निश्चेतना को चेतना की गतिविधि, भावना और प्राण में परिवर्तित करने में सफल होते हैं । लेकिन वे उसे पूरी तरह रूपांतरित करने में सफल नहीं होते । वे उसे पूरी तरह सजीव या पूरी तरह सचेतन नहीं बना पाते । विकसित होती हुई प्राण-प्रकृति मृत्यु से बंधी हुई है, विकसित होता हुआ मन भौतिक-भावापन्न और प्राण-भावापन्न होता है । वह अपनी जड़ों को निश्चेतना में पाता है, वह अज्ञान द्वारा सीमित होता है । वह अनियंत्रित प्राण-शक्तियों द्वारा शासित होता है जो उसे परिचालित करती और उसका उपयोग करती हैं । भौतिक शक्तियां उसे यंत्रचालित करती हैं और उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिये उनपर आश्रित रहना पड़ता है । यह इस बात का चिह्न
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है कि न तो मन और न प्राण मूल सृजनात्मक शक्ति हैं । वे भी भौतिक की तरह मध्यवर्ती, विकास-प्रक्रिया के आनुक्रमिक और श्रेणीबद्ध यंत्र हैं । अगर भौतिक ऊर्जा वह आद्या शक्ति नहीं है तो हमें उसे मन या प्राण के ऊपर कहीं ढूंढ़ना होगा, कोई ज्यादा गहरी गुह्य सद्वस्तु अवश्य होनी चाहिये जिसे अपने-आपका प्रकृति में उद्घाटन करना बाकी है ।
एक मौलिक सृजनात्मक या विकासात्मक शक्ति होनी चाहिये । यद्यपि जड़- पदार्थ पहला द्रव्य है, आद्या और चरम शक्ति कोई निश्चेतन भौतिक ऊर्जा नहीं है क्योंकि तब प्राण और चेतना गायब रहेंगे क्योंकि निश्चेतना चेतना को विकसित नहीं कर सकतीं और न ही निर्जीव शक्ति प्राण को विकसित कर सकती है । तब चूंकि मन और प्राण भी वह नहीं हैं अतः कोई गुप्त चेतना होनी चाहिये जो प्राण-चेतना या मनश्चेतना से बढ़कर हो -कोई ऐसी ऊर्जा जो भौतिक ऊर्जा से अधिक सारभूत हो । चूंकि वह मन से अधिक महान् है इसलिये उसे अतिमानसिक चित्-शक्ति होना चाहिये, चूंकि वह भौतिक से इतर सारभूत द्रव्य की शक्ति है इसलिये इसे उसकी शक्ति होना चाहिये जो सभी चीजों का परम सार-तत्त्व और द्रव्य है, आत्मा की शक्ति है । मन की एक सृजनात्मक ऊर्जा होती है और सृजनात्मक प्राणशक्ति भी होती है लेकिन ये मौलिक और निर्णायक न होकर साधनरूप और आंशिक हैं । निश्चय ही मन और प्राण जिस भौतिक पदार्थ में निवास करते हैं उसमें और उसकी ऊर्जाओं में हेर-फेर करते हैं और उनके द्वारा मात्र निर्धारित नहीं होते । लेकिन इस भौतिक हेर-फेर और निर्धारण का विस्तार और विधि भी उनके अंदर निवास करनेवाली और सर्वधारक आत्मा द्वारा, अतिमानस की एक गुप्त अंतर्यामी ज्योति और शक्ति के माध्यम से, एक गुह्य विज्ञान द्वारा -एक अदृश्य आत्म-ज्ञान और सर्वज्ञान द्वारा -किया जाता है । अगर पूर्ण रूपांतर होना है तो वह केवल आत्मा के विधान के पूर्ण आविर्भाव द्वारा ही संभव है । यह जरूरी है कि उसकी अतिमानस या विज्ञान की शक्ति जड़-भौतिक में प्रवेश करे और उसके अंदर से विकसित हो । उसे मानसिक सत्ता को अतिमानसिक में बदल देना चाहिये, हमारे अंदर निश्चेतन को सचेतन बनाना, हमारे जड़-द्रव्य को आध्यात्म बनाना और हमारी समूची विकसनशील सत्ता और प्रकृति में उसकी वैज्ञानिक चेतना का विधान लागू करना चाहिये । यही चरम आविर्भाव या कम-से-कम आविर्भाव में वह भूमिका होनी चाहिये जो विकास की अज्ञानभरी क्रिया और उसके निश्चेतन आधार को रूपांतरित करके उसकी प्रकृति को निश्चयात्मक रूप में पहली बार बदलती है ।
विकास की इस गतिविधि, भौतिक विश्व में आत्मा की उत्तरोत्तर आत्माभिव्यक्ति को हर कदम पर चेतना और शक्ति के अंतर्लयन के तथ्य के साथ भौतिक पदार्थ के रूप और क्रियाशीलता में हिसाब बिठाना होगा । क्योंकि वह अंतर्लीन चेतना और शक्ति के जागरण तथा एक तत्त्व से दूसरे तत्त्व की ओर, एक श्रेणी से दूसरी
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श्रेणी की ओर, गुप्त आत्मा की शक्ति से शक्ति की ओर आरोहण से चलती है, लेकिन यह उच्चतर भूमिका की ओर निर्बंध स्थानांतर नहीं है । हर श्रेणी या शक्ति के उभार में उसके क्रिया-विधान, उसकी क्रियाशक्ति का निर्धारण, उसके अपने स्वतंत्र, पूर्ण और शुद्ध धर्म या ऊर्जा-संवेग से नहीं बल्कि आंशिक रूप में उसके लिये जुटाये गये भौतिक संगठन और अंशत: स्वयं उसके अपने पद से, अपने प्राप्त क्रम से, जड़ पर वह चेतना की जिस निष्पन्न वास्तविकता को आरोपित कर सकी है, उससे होता है । उसकी प्रभावकारिता इस विकसनशील आविर्भाव के वास्तविक विस्तार और दूसरी तरफ विकसित होती हुई शक्ति अभी कितनी हदतक निश्चेतना की प्रमुखता और लगातार पकड़ में है, उसके द्वारा घिरी हुई, भिदी हुई और घटी हुई है; इन दोनों के किसी प्रकार के संतुलन पर निर्भर है । हम जिस मन को देखते हैं वह शुद्ध और मुक्त मन नहीं है । अविद्या से आवृत वह ऐसा मन है जो धुंधला और ह्रसित होता है, एक ऐसा मन जो ज्ञान को उस अविद्या से मुक्त करने के लिये परिश्रम और संघर्ष करता है । सब कुछ निर्भर होता है चेतना की न्यूनाधिक अंतर्लीन या न्यूनाधिक विकसित अवस्था पर -वह चेतना निश्चेतन जड़ में पूरी तरह अंतर्लीन होती है, जड़ के अंदर प्राण के प्रथम या अ-पशु रूपों में अंतर्लयन और सचेतन विकास के कगार पर हिचकिचाती है, सजीव शरीर में स्थित मन में सचेतन रूप से विकसित होती है लेकिन बहुत ज्यादा सीमित और उलझी-अटकी हुंई होती है, जिसकी नियति है सशरीर मानसिक सत्ता और प्रकृति में अतिमानस के जागने से पूरी तरह विकसित होना ।
इस क्रम की हर श्रेणी में विकसित होती हुई चेतना की अपनी-अपनी सत्ताओं का उचित वर्गीकरण होता है । एक-एक करके भौतिक रूप और शक्तियां, वनस्पति जीवन, पशु और अर्द्ध-पाशविक मनुष्य, विकसित मानव सत्ताएं अपूर्ण रूप से या कुछ अधिक विकसित आध्यात्मिक सत्ताएं प्रकट होती हैं; लेकिन विकास-क्रिया की निरंतरता के कारण उनके बीच कोई कठोर विभाजन नहीं है । हर आगे बढ़ता हुआ चरण या रूपायण जो कुछ पहले था उसे लेकर चलता है । पशु अपने अंदर जीवित और निर्जीव जड़-पदार्थ को लेता है, मनुष्य अपने अंदर इन दोनों के साथ- साथ पशु-सत्ता को भी ले लेता है । संक्रमण-क्रिया ये खांचे या अलग करनेवाली लीकें छोड़ती जाती है जिन्हें प्रकृति की निश्चित आदतें पक्का कर देती हैं । ये एक श्रेणी को दूसरी श्रेणी से अलग करती हैं और शायद जो विकसित हो चुका है उसे फिर से वापिस गिरने से रोकती हैं । वे विकास की अविच्छिन्नता को रद्द करती या काट नहीं देतीं । विकास करती हुई चेतना एक श्रेणी से दूसरी में, एक सोपान से दूसरे में प्रवेश करती है, या तो किसी अदृश्य प्रक्रिया द्वारा, किसी छलांग या संकट द्वारा या शायद ऊपर से हस्तक्षेप द्वारा -प्रकृति के उच्चतर लोकों से अवतरण, आत्मयुक्तता या प्रभाव के द्वारा प्रवेश करती है । लेकिन, चाहे जिस उपाय से हो,
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जड़ के अंदर गुप्त रूप से निवास करनेवाली चेतना, गुह्य निवासी, इस तरह निचली श्रेणियों से उपरली श्रेणियों की ओर ऊपर की ओर अपनी राह बना लेता है, वह जो था उसमें से वह जो है उसे ले आता है और दोनों को वह जो होगा उसकी ओर ले जाने की तैयारी करता है । इस भांति पहले भौतिक सत्ता जड़ रूपों, शक्तियों, सत्ताओं की नींव डालकर, जिनमें वह निश्चेतन पड़ी मालूम होती है, जब कि वास्तव में, जैसा कि हम अब जानते हैं, सदा अवचेतन रूप से क्रियाशील रहते हुए वह जीवन और जीवित सत्ताओं को अभिव्यक्त करने योग्य होती है, मन और मानसिक सत्ताओं को भी भौतिक जगत् में अभिव्यक्त कर सकती है और इसलिये अतिमानस और अतिमानसिक सत्ताओं को भी अभिव्यक्त करने योग्य होगी । विकास की वर्तमान स्थिति इस तरह घटित हुई है जिसमें अभी मनुष्य चरम-बिंदु प्रतीत होता है लेकिन सचमुच अंतिम शिखर नहीं हैं क्योंकि स्वयं वह एक संक्रमणशील सत्ता है और संपूर्ण गति के एक मोड पर खड़ा है । इस तरह विकास चलता रहता है । किसी भी क्षण उसका एक अतीत होना चाहिये जिसके आधारभूत परिणाम अभी दिखलायी देते हों, एक वर्तमान होना चाहिये जिसमें वह जिन परिणामों के लिये परिश्रम कर रहा है वे संभूति की प्रक्रिया में हों और एक भविष्य जिसमें सत्ता की अभीतक अविकसित शक्तियां और रूप प्रकट होने चाहियें, जबतक कि समग्र और पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो जाती । भूतकाल धीमी और कठिन अवचेतन क्रिया का इतिहास है जिसके प्रभाव सतह पर हैं -वह निश्चेतन विकास रहा है, वर्तमान मध्य स्थिति है, एक अनिश्चित कुंडली है जिसमें सत्ता की गुप्त विकसनशील शक्ति मानव बुद्धि का उपयोग करती है । बुद्धि उसकी क्रिया में भाग लेती है पर उसे पूरी तरह विश्वास में नहीं लिया जाता । यह एक ऐसा विकास है जो धीरे-धीरे अपने बारे में सचेतन होता जाता है । भविष्य आध्यात्मिक- सत्ता का अधिकाधिक सचेतन विकास होगा, यहांतक कि वह उभरते हुए विज्ञान- तत्त्व द्वारा आत्म-अभिज्ञ क्रिया में पूरी तरह उन्मुक्त हो जायेगा ।
इस आविर्भाव में पहला आधार--जड़--भौतिक के रूपों की सृष्टि, पहले निश्चेतन और निर्जीव की, फिर जीवित और विचारशील जड़- भौतिक की सृष्टि, चेतना के अधिक बल को व्यक्त करने के लिये अनुकूल बने हुए अधिकाधिक संगठित शरीरों का प्रकटन -इसका अध्ययन भौतिक विज्ञान ने भौतिक पक्ष से, रूप-निर्माण के पक्ष से किया है लेकिन भीतरी क्षेत्र और चेतना की दिशा में बहुत कम प्रकाश डाला गया है और जो कुछ थोड़ा-सा देखा भी गया है वह उसके भौतिक आधार और यंत्र-विन्यास का अवलोकन है न कि चेतना का स्वयं अपनी प्रकृति में उत्तरोत्तर प्रगतिशील क्रिया का । जैसा कि अभीतक देखा जा चुका हैं, विकास में सातत्य तो है क्योंकि प्राण जड़ को उठा लेता है और मन अवमानसिक प्राण को और बुद्धिमय मन प्राणमय और संवेदनमय मन को उठा लेता है लेकिन हमारी आंखों
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को लगता है कि चेतना की एक श्रेणी से दूसरी श्रेणीतक छलांग बहुत बड़ी है और छलांग मारकर या पुल द्वारा खाई को पार करना असंभव मालूम होता है । हमें भूतकाल में इसकी उपलब्धि का कोई ठोस और संतोषजनक प्रमाण या जिस तरह उसे चरितार्थ किया गया है उसका प्रमाण नहीं मिलता । बाहरी विकास में भी, भौतिक रूप के विकास में भी, जहां सामग्री काफी सुस्पष्ट है, कई कड़ियां गुम हैं जो सदा गुम ही रहती हैं, लेकिन चेतना के विकास की यात्रा का हाल पाना और भी अधिक कठिन है क्योंकि वह यात्रा की अपेक्षा रूपांतर की तरह अधिक है । फिर भी हों सकता है कि अवचेतना को भेदने और अवमानस की थाह लेने या अपने से भिन्न किसी निम्नतर मानस को काफी हदतक समझ सकने की हमारी अक्षमता के कारण हम धाराक्रम की हर एक कोटि की ही नहीं बल्कि श्रेणियों और श्रेणियों के बीच के सीमा-प्रदेशों की सूक्ष्म श्रेणियों का अवलोकन करने में असमर्थ रहते हैं । जो वैज्ञानिक भौतिक सामग्री का सूक्ष्म अवलोकन करता है वह बीच- बीच की दरारों और गुम कड़ियों के बावजूद विकास के सातत्य को मानने के लिये बाधित हुआ है । निःसंदेह हम यदि आंतरिक विकास का उसी तरह अवलोकन कर सकें तो हम इन विकट संक्रमणों की संभावना और रीति का अन्वेषण कर सकेंगे । फिर भी श्रेणी- श्रेणी के बीच एक वास्तविक और मौलिक भेद होता है । यहांतक कि एक से दूसरे में जाना एक नया सृजन, रूपांतरण का चमत्कार मालूम होता है, कोई ऐसा विकास नहीं जिसके बारे में स्वाभाविक रूप से पहले से कहा जा सके और न ही किसी स्थिति से अन्य स्थिति में शांत संक्रमण जिसके पदचिन्ह निर्दिष्ट सरल क्रम में आयोजित हों ।
जब हम प्रकृति के सोपान में ऊंचे उठते हैं तो ये खाइयां अधिक गहरी लेकिन कम चौड़ी प्रतीत होती हैं । अगर धातु में प्राण-प्रतिक्रिया के मूल तत्त्व हैं, जैसा कि अभी हाल में प्रतिपादित किया गया है, तो हो सकता है कि वह अपने तत्त्व में वनस्पति की प्राण-प्रतिक्रिया से अभिन्न हो, लेकिन जिसे प्राण-भौतिक भेद कहा जा सकता है वह इतना होता है कि एक तो हमें निर्जीव प्रतीत होता है और दूसरा, यद्यपि प्रत्यक्ष रूप में सचेतन तो नहीं, फिर भी प्राणवान् जीव कहा जा सकता है । उच्चतम वनस्पति-जीवन और निम्नतम पशु-जीवन के बीच खाई ज्यादा गहरी दिखलायी देती है क्योंकि वह मन और मन की किसी भी तरह की दृश्य या यहांतक कि प्राथमिक गति के अभाव के बीच का भेद है । एक में मानसिक चेतना का यह द्रव्य अजाग्रत् है यद्यपि प्राणिक प्रतिक्रियाओं का जीवन है या फिर एक दबा हुआ या अवचेतन या शायद केवल अवमानसिक ऐंद्रिय स्पंदन है जो बहुत अधिक सक्रिय मालूम होता है । दूसरे में, यद्यपि शुरू में जीवन कम स्वचालित है और जीवन के अवचेतन ढंग से कम सुरक्षित है और अपनी नयी प्रत्यक्ष चेतना की रीति में अपूर्ण रूप से निर्धारित रहता है फिर भी उसमें मन जाग गया है । यहां
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एक सचेतन जीवन है, एक गहरा संक्रमण हो चुका है । उनके संगठन में चाहे जितनी भिन्नता क्यों न हो, वनस्पति और पशु के जीवन-व्यापार की समानता खाई को संकरा कर देती है, यद्यपि उसकी गहराई कम नहीं होती । उच्चतम पशु और निम्नतम मनुष्य के बीच और भी ज्यादा गहरी परंतु और कम संकरी खाई को पार करना होता है -बुद्धि और ऐंद्रिय मन के बीच की खाई को -क्योंकि जंगली आदमी की असभ्य प्रकृति पर हम चाहे कितना भी जोर क्यों न दें, हम इस तथ्य को नहीं बदल सकते कि अधिक-से-अधिक आदिम मानव प्राणी को ऐंद्रिय मन, भावुक प्राणिकता और प्रारंभिक व्यावहारिक बुद्धि तो प्राप्त है ही जो हमारे साथ पशु को भी प्राप्त है; यानी एक मानव बुद्धि है और चाहे जितनी सीमित क्यों न हो, वह चिंतन, विचार, सचेतन आविष्कार, धार्मिक और नैतिक विचार और भावना के लिये सक्षम है, मतलब यह कि उन सब चीजों के लिये सक्षम है जिनकी क्षमता मानवजाति में है । उसमें वैसी ही बुद्धि होती है, फर्क होता है केवल भूतकाल की शिक्षा और रचनात्मक प्रशिक्षण, उसकी विकसित क्षमता, तीव्रता और क्रियाशीलता की मात्रा में । फिर भी इन विभाजन करनेवाली लीकों के बावजूद हम यह मान नहीं सकते कि भगवान् या किसी विश्वकर्मा ने हर एक वर्ग और जाति को तैयार शरीरों और चेतनाओं में बनाकर मामला वहीं समाप्त कर दिया, अपने कार्य की ओर नजर डाली और देख लिया कि वह अच्छा है । यह स्पष्ट हो गया है कि एक गुप्त रूप से सचेतन या निश्चेतन सर्जक ऊर्जा ने मंद या तेज गति से, चाहे किन्हीं भी उपायों, युक्तियों से चाहे वे जैविक हों या भौतिक अथवा मनोवैज्ञानिक यंत्र, संक्रमण संपादित किया है । शायद बना देने के बाद उसने परवाह नहीं की कि उन विभिन्न स्पष्ट रूपों को सुरक्षित रखे जिन्हें उसने सीढ़ी के पत्थरों के रूप में काम में लिया था लेकिन जिनका अब कोई उपयोग नहीं या विकसनशील प्रकृति में कोई प्रयोजन नहीं रहा । लेकिन अंतरालों की यह व्याख्या अभीतक एक परिकल्पना से बढ़कर कुछ नहीं है जिसे हम पर्याप्त रूप में प्रमाणित नहीं कर सकते । बहरहाल, यह संभव है कि इन आमूल विभेदों का कारण बाहरी विकासशील संक्रमण की प्रक्रिया में नहीं, आंतरिक शक्ति की भीतरी क्रिया में मिले । अगर हम ज्यादा गहराई से उसे अंदर की ओर से देखें तो समझने की कठिनाई समाप्त हो जाती है और ये संक्रमण समझ में आने लगते हैं और वस्तुतः वे विकास की प्रक्रिया तथा उसके तत्त्व के स्वभाव के कारण अनिवार्य हो जाते हैं ।
क्योंकि, अगर हम वैज्ञानिक या भौतिक पक्षों को नहीं बल्कि प्रश्न के मनोवैज्ञानिक पक्ष को देखें और पता करें कि इनका भेद ठीक-ठीक कहांपर है तो हम देखेंगे कि यह चेतना का सत्ता के एक और तत्त्व में उठना है । धातु जड़ के निश्चेतन और निजी तत्त्व में निर्धारित है । अगर हम यह मान भी लें कि उसमें कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं होती हैं जो उसमें जीवन का संकेत देती हैं या कम-से-कम ऐसे
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प्रारंभिक स्पंदन हैं जो वनस्पति में जीवन के रूप में विकसित हो जाते हैं, फिर भी वह किसी हालत में लाक्षणिक रूप से जीवन का रूप न होकर जड़ का लाक्षणिक रूप है । वनस्पति जीवन-तत्त्व की अवचेतन क्रिया में निर्धारित है -इसका यह अर्थ नहीं है कि वह जड़ के अधीन नहीं है या उन प्रतिक्रियाओं से वंचित है जो अपना पूरा अर्थ मन में ही प्राप्त करती हैं, क्योंकि ऐसा मालूम होता है कि उसमें ऐंसी अवमानसिक प्रतिक्रियाएं होती हैं जो हमारे अंदर सुख-दुःख, आकर्षण-विकर्षण का आधार हैं । फिर भी, वह प्राण का ही एक रूप है, केवल जड़ का नहीं और न ही, जहांतक हमें मालूम है, वह मनश्चेतना सत्ता भी नहीं है । मनुष्य और पशु दोनों मानसिक रूप से सचेतन सत्ताएं हैं परंतु पशु प्राणिक मन और मानस संवेद में निर्धारित है और अपनी सीमाओं को पार नहीं कर सकता जब कि मनुष्य ने अपने ऐंद्रिय मन में एक और तत्त्व का, बुद्धि का प्रकाश पा लिया है जो वस्तुतः एक ही साथ अतिमानस का प्रतिबिंब और निम्नीकरण है, विज्ञान की एक किरण है जिसे ऐंद्रिय मानस ने पकड़कर किसी ऐसी चीज में रूपांतरित कर दिया है जो अपने स्रोत से भिन्न है क्योंकि वह बुद्धि जिस ऐंद्रिय मन के लिये और जिसके अंदर काम करती है उसीकी तरह अविज्ञानमय है, विज्ञानमय नहीं । वह ज्ञान को पकड़ में लेना चाहती है क्योंकि वह उसके अधिकार में नहीं है । उसे यह पसंद नहीं है कि अतिमानस ज्ञान को अपने अंदर ही पकड़े रहे मानों वह उसका स्वाभाविक विशेषाधिकार हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो सत्ता के इनमें से हर एक रूप के अंदर वैश्व सत्ता ने अपनी चेतना की क्रिया को एक भिन्न तत्त्व में निर्धारित किया है जैसे मनुष्य और पशु में, किसी निम्नतर तत्त्व का किसी उच्चतर तत्त्व द्वारा रूपांतरण, यद्यपि जो अभीतक उच्चतम श्रेणी का नहीं है । सत्ता के एक तत्त्व से सत्ता के एकदम भिन्न दूसरे तत्त्व में यह लंबी छलांग संक्रमणों, लीकों, दूरी की स्पष्ट लकीरों की रचना करती है और इसीसे सत्ता और सत्ता की प्रकृतियों के बीच का सारा अंतर तो नहीं पर एक आमूल विशेष अंतर पैदा करती हैं ।
लेकिन यह देखना चाहिये कि यह आरोहण, क्रमश: ऊंचे तत्त्व में स्थिति, अपने साथ निचली श्रेणियों का त्याग नहीं लिये रहती, उसी तरह से जैसे निम्नतर श्रेणियों में स्थिति का अर्थ उच्चतर तत्त्वों का एकदम अभाव नहीं होता । विभेद की इन तीक्ष्ण रेखाओं के कारण विकास के मत के बारे में उठायी गयी आपत्ति का इससे उपचार हो जाता है क्योंकि अगर उच्चतर के आरंभिक तत्त्व निम्नतर में हों और निचले के गुण- धर्म ऊंची विकसित सत्ता में उठा लिये गये हों तो वही चीज असंदिग्ध विकास की क्रिया बन जाती है । जरूरत एक ऐसी प्रक्रिया की है जो सत्ता के निम्नतर श्रेणी-विभाग को एक ऐसे बिंदुतक ले आये जहां उच्चतर उसमें अभिव्यक्त हो सके । उस बिंदु पर किसी ऐसे उच्चतर स्तर से आनेवाला दबाव, जहां वह नयी शक्ति प्रमुख हो, थोड़े-बहुत तेज और निर्णायक संक्रमण की ओर
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एक छलांग या छलांगों की शृंखला द्वारा ले जाने में सहायक हो सकता है -एक मंद, रेंगती हुई, अदृश्य बल्कि गुह्य क्रिया के बाद दौड़ लगती है और सीमा के परे विकसनशील क्रमभंग या उछल-कूद होती है । ऐसा लगता है कि किसी ऐसे तरीके से प्रकृति में चेतना का निम्नतर से उच्चतर श्रेणियों में संक्रमण हुआ होगा ।
वस्तुत: प्राण, मन, अतिमानस अणु में विद्यमान हैं और वहांपर कार्यरत हैं परंतु हैं अदृश्य, गुह्य, अवचेतन या ऊर्जा की प्रतीयमान निश्चेतन क्रिया में प्रच्छन्न । एक अनुप्राणित करनेवाली आत्मा है लेकिन सत्ता की बाहरी शक्ति या आकृति, जिसे हम रूपायित या रूप-अस्तित्व कह सकते हैं, जो सर्वव्यापी या गुप्त रूप से शासन करनेवाली चेतना से भिन्न है, वह भौतिक क्रिया में खो जाती है, उसके अंदर इस तरह निमग्न हो जाती है मानों वह रूढ़िबद्ध आत्म-विस्मृति में निर्धारित हो गयी है, और इस बात से अनभिज्ञ होती है कि वह क्या है और क्या कर रही है । इस दृष्टि से विद्युदणु और परमाणु चिर-निद्राचारी होते हैं; प्रत्येक भौतिक पदार्थ में एक बाहरी या रूप चेतना होती है जो अंतर्लीन, रूप में समायी, सोयी हुई, अचेतना मालूम होती है जो अज्ञात और अननुभूत आंतरिक सत् द्वारा परिचालित होती है; --उपनिषदों के अनुसार हर सोये हुए में चिर जाग्रत् सर्वभूत निवासी पुरुष है -बाहरी निमग्न रूप-चेतना जो मानव निद्राचारी से भिन्न है, जो न तो कभी जागी है और जो सदा या कभी जागने के लिये प्रस्तुत नहीं होती । वनस्पति में यह बाहरी रूप-चेतना अब भी नींद की अवस्था में होती है लेकिन ऐसी नींद जो स्नायविक स्वप्नों से भरी और सदा जागने के लिये तैयार होती है लेकिन कभी जागती नहीं । प्राण प्रकट हो गया है, दूसरे शब्दों में कहें तो प्रच्छन्न सचेतन सत्ता की शक्ति इतनी तीव्र हो गयी है, उसने अपने-आपको शक्ति की इतनी ऊंचाई पर चढ़ा लिया है कि वह क्रिया के उस नये तत्त्व को विकसित कर सकती है या उसके लिये समर्थ बन सकती है जिसे हम प्राण-शक्ति या जीवन-शक्ति के रूप में देखते हैं । वह प्राणिक रूप से अस्तित्व को प्रत्युत्तर देने लगी है यद्यपि मानसिक रूप से अभिज्ञ नहीं है और उसने शुद्ध भौतिक क्रिया की अपेक्षा उच्चतर और सूक्ष्मतर मूल्य की क्रियाओं की नयी श्रेणी प्रस्तुत की है । साथ ही उसमें यह सामर्थ्य होती है कि वह अपने रूपों से भिन्न रूपों और वैश्व प्रकृति से आनेवाले प्राण-संपर्कों को ले और इन नये प्राण-मूल्यों में, प्राणिकता के स्पंदनों और व्यापारों में बदल दे । यह ऐसी चीज है जिसे केवल जड़ के रूप नहीं कर सकते । वे संपर्कों को जीवन- मूल्यों में या किसी प्रकार के मूल्यों में नहीं बदल सकते; कुछ तो उनकी ग्रहण- शक्ति-उसका अस्तित्व तो है अगर गुह्य प्रमाण पर विश्वास किया जाये -इतनी पर्याप्त जाग्रत् नहीं होती कि मूक भाव से ग्रहण करने और अदृष्ट रूप से प्रतिक्रिया करने के सिवा कुछ कर सके, और कुछ इस कारण कि संपर्कों द्वारा संचारित ऊर्जाएं इतनी सूक्ष्म होती हैं कि रूपायित जड़ की अनगढ़, अजैव घनता उनका
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उपयोग नहीं कर सकती । पेड़ के जीवन का निर्धारण उसका भौतिक शरीर करता है लेकिन वह भौतिक सत्ता को ऊपर उठाता और उसे एक नया मूल्य या मूल्यों का एक नया तंत्र -प्राण मूल्य -प्रदान करता है ।
पशु-सत्ता में, सत्ता जिसे हम सचेतन जीवन कहते हैं, मन और इन्द्रिय की ओर संक्रमण प्रकट होता है -यह भी उसी तरह से चालित होता है । सत्ता की शक्ति इतनी अधिक तीव्र हो जाती है, इतनी ऊचाईतक उठ जाती है कि वह जीवन के एक नये तत्त्व को प्रवेश दे सके या विकसित कर सके -जो कम-से-कम देखने में तो जड़ जगत् में नया है -मानसता । पशु-जीव मानसिक रूप से अपने और औरोंके जीवन के बारे में अभिज्ञ है, वह उच्चतर और सूक्ष्मतर श्रेणी के क्रिया- कलाप प्रस्तुत करता है; अपने से भिन्न अन्य रूपों से अधिक विस्तृत क्षेत्र के मानसिक, प्राणिक और भौतिक संपर्क ग्रहण करता है, भौतिक और प्राणिक अस्तित्व को लेता है और उनसे जो कुछ प्राप्त हो सके उसे ऐंद्रिय मूल्यों और प्राणिक मन के मूल्यों में बदल देता है । उसे शरीर का बोध होता है, उसे प्राण का बोध होता है लेकिन वह मन का भी बोध पाता है, क्योंकि उसके अंदर न केवल अंधी स्नायविक प्रतिक्रियाएं होती हैं बल्कि साथ ही सचेतन संवेदन, स्मृतियां, अंतर्वेग, इच्छा-प्रवृत्तियां, भावावेग, मानसिक संस्कार रहते हैं, उसमें भावना, विचार और इच्छा का उपादान रहता है । उसमें एक व्यावहारिक बुद्धि भी होती है जो स्मृति, संसर्ग, उद्दीपक आवश्यकता, अवलोकन, युक्ति की शक्ति पर आधारित होती है । वह चतुराई, युद्ध-कौशल, योजना के लिये समर्थ है । वह अन्वेषण कर सकता है, अपने अन्वेषणों को कुछ हदतक अनुकूलित कर सकता है; इस या उस ब्योरे में नयी परिस्थिति की मांग पूरी कर सकता है । उसमें सब कुछ अर्द्ध-चेतन सहज वृत्ति नहीं है; पशु मानव बुद्धि की तैयारी करता है ।
लेकिन जब हम मनुष्यतक आते हैं तो देखते हैं कि सब कुछ सचेतन होता जाता है । वह जिस जगत् का संक्षिप्त रूप है वह उसके आगे अपना स्वरूप प्रकट करने लगता है । उच्चतर पशु निद्राचारी नहीं है, जैसे निम्नतम पशुरूप अभीतक मुख्य रूप से या लगभग निद्राचारी है । लेकिन उसमें एक सीमित जाग्रत् मन होता है जो उतने के ही योग्य होता है जो उसके प्राणिक जीवन के लिये जरूरी है । मनुष्य में सचेतन मानसता अपने जागरण को बढ़ाती है । यद्यपि शुरू में वह पूरी तरह सचेतन नहीं होती, अभी अपनी ऊपरी सतह पर ही सचेतन होती है पर अधिकाधिक अपनी आंतरिक और संपूर्ण सत्ता के प्रति खुल सकती है । जैसे दो निचले आरोहणों में हुआ है वैसे ही सचेतन सत्ता की शक्ति सूक्ष्म क्रियाओं की नयी शक्ति और नये क्षेत्र की ओर ऊपर उठती है, प्राणिक मन से चिंतनशील और विचारशील मन की ओर संक्रमण होता है, अवलोकन और अन्वेषण की उच्चतर शक्ति विकसित हो गयी है जो सामग्री को इकट्ठा करती और जोड़ती है, प्रक्रिया
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और परिणाम के बारे में सचेतन होती है, कल्पना और सौंदर्यमय सृजन की शक्ति, उच्चतर अधिक नमनीय इन्द्रियग्राह्यता, समन्वय और व्याख्या करनेवाली तर्क-बुद्धि विकसित हुई है; केवल अनुक्रिया या प्रतिक्रिया करनेवाली बुद्धि के बदले अधिकार जमाती, समझती, अपने-आपको अलग रखनेवाली बुद्धि के मूल्य विकसित होते हैं । जैसा नीचे के आरोहणों में हुआ था उसी तरह यहां भी चेतना के क्षेत्र का विस्तार होता है । मनुष्य जगत् का और अपना अधिक अंश ग्रहण करता है और इस ज्ञान को सचेतन अनुभव के ज्यादा ऊंचे और पूर्ण रूप दे सकता है । उसी तरह यहां आरोहण का एक तीसरा सतत तत्त्व भी रहता है । मन निचली श्रेणियों को उठाकर उनकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को बुद्धिमत्तापूर्ण मूल्य देता है । मनुष्य के अंदर पशु की तरह केवल अपने शरीर और प्राण का ही बोध नहीं होता बल्कि प्राण के संबंध में बुद्धिमत्तापूर्ण बोध और भाव और शरीर को सचेतन अवलोकनात्मक प्रत्यक्ष दर्शन भी होता है । वह पशु के मानसिक जीवन को और साथ ही जड़-भौतिक जीवन को भी ऊंचा उठाता है, यद्यपि इस प्रक्रिया में वह कुछ खोता भी है । वह जो बचाये रखता है उसे उच्चतर मूल्य देता है, उसमें अपने संवेदनों, भावावेगों, इच्छाप्रवृत्तियो, अंतर्वेगों, मानसिक संस्कारों को बुद्धिमत्तापूर्ण भाव और विचार होता है । जो विचार, भाव और इच्छा का अनगढ़ उपादान था, जिसमें बस मोटे-मोटे निर्धारणों की क्षमता थी उसे वह परिष्कृत कार्य और इन चीजों की कृति में बदल देता है । क्योंकि पशु भी विचार करता है लेकिन स्वचालित रूप से, स्मृतियों और मानसिक संस्कारों की यांत्रिक धारा को आधार बनाकर । वह प्रकृति के सुझावों को तेजी से या धीरे-धीरे स्वीकारता है और अधिक जाग्रत् व्यक्तिगत क्रिया की ओर तभी जागता है जब नजदीक से अवलोकन या युक्ति की जरूरत हो । उसके अंदर व्यावहारिक बुद्धि का पहला अनगढ़ पदार्थ तो होता है परंतु गढ़ी हुई विचारशील और मननशील क्षमता नहीं होती । पशु में जागती हुई चेतना मन का अनिपुण प्रारंभिक कारीगर है । मनुष्य में वह निपुण शिल्पी है और केवल इतना ही नहीं, अगर चाहे, लेकिन इसके लिये वह काफी प्रयास नहीं करता, केवल कलाकार ही नहीं वह दक्ष और सिद्धहस्त भी बन सकता है ।
लेकिन यहां हमें इस मानव विकास, जो अभीतक ऊंचे-से-ऊंचा है, की दो विशिष्टताएं देख लेनी चाहियें जो हमें विषय के मर्म पर ले आती हैं । पहली यह कि जीवन के निचले भागों का यूं ऊपर उठाया जाना अपने-आपको यूं प्रकट करता है मानों व्यक्ति में गुप्त विकसनशील आत्मा या वैश्व-पुरुष जिस ऊंचाई पर पहुंच चुका है वहां से वह अपनी प्रभुताभरी दृष्टि को नीचे की ओर उस सबपर डालता है जो अब उसके नीचे है । यह सत्ता की चित्-शक्ति की दोहरी या युगल शक्ति से नीचे दृष्टिपात है -इच्छा की शक्ति और ज्ञान की शक्ति -ताकि वह पुरुष चेतना, प्रत्यक्ष दर्शन और प्रकृति के इस नये, भिन्न और विस्तृत क्षेत्र से निचले जीवन और
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उसकी संभावनाओं को समझ सके और उसे भी उच्चतर स्तरतक ऊंचा उठा सके, उसे उच्चतर मूल्य दे सके, उसकी उच्चतर संभाव्यताओं को बाहर निकाल सके । और वह ऐसा इसलिये करता है क्योंकि स्पष्टतः वह उसे मार देना या नष्ट करना नहीं चाहता । सत्ता का आनंद उसका शाश्वत व्यापार होने के कारण और विविध स्वरों की संगति, कोई मधुर एकरस राग नहीं, उसकी संगीत-पद्धति होने के कारण वह अपने निम्नतर सुरों को भी जोड़ना चाहता है और उनके अंदर अधिक गहरे और सूक्ष्म अर्थ भरकर, उनके अपरिपक्व रूपायनों से जितना संभव था उससे अधिक आनंद पाना चाहता है । फिर भी, अंत में अपनी स्वीकृति बनाये रखने के लिये वह उनपर यह शर्त लगाता है कि वे उच्चतर मूल्यों को मानने के लिये राजी हों और जबतक वे राजी नहीं हो जाते वह उनके साथ काफी कड़ा व्यवहार कर सकता है । अगर वह पूर्णता पर तुला हुआ है और वे विद्रोही हैं तो वह उन्हें पैरों से कुचल भी सकता है । और यही वस्तुत: नीति, अनुशासन, तपस्याका सच्चा और अंतर्तम उद्देश्य और अर्थ है; प्राण और शरीर तथा निम्न मानसिक जीवन को पाठ सिखाना, वशीभूत करना, शुद्ध करना और उचित उपकरण होने के लिये तैयार करना ताकि वे उच्चतर मानसिक स्वरों और अंत में अतिमानसिक समन्वय में रूपांतरित हो सकें, न तो उन्हें विकलांग करें और न नष्ट करें । आरोहण पहली आवश्यकता है लेकिन साथ ही प्रकृतिस्थ पुरुष का अभिप्राय है समाकलन ।
सर्वतोमुखी उच्चता, गभीरता और सूक्ष्मतर, अधिक सुंदर और समृद्ध तीव्रता को दृष्टि में रखते हुए ज्ञान और इच्छा का नीचे की ओर निगाह रखना आरंभ से ही गुप्त पुरुष की रीति रही है । हम कह सकते हैं कि वनस्पति-आत्मा अपनी समस्त भौतिक सत्ता के बारे में स्नायविक जड़ दृष्टि रखती है ताकि उसमें से जितनी संभव है वह सारी प्राणिक-भौतिक तीव्रता पा सके; क्योंकि ऐसा मालूम होता है कि उसके अंदर मूक जीवन-स्पंदन के कुछ तीव्र उद्दीपन हैं -हमारे लिये उसकी कल्पना करना मुश्किल है । शायद यह तीव्रता उसके निचले आरंभिक स्तर को देखते हुए पशु का मन और शरीर अपने ऊंचे और अधिक सबल स्तर से जितनी तीव्रता सह सकते हैं, उसकी अपेक्षा अधिक होती है । पशु-सत्ता अपने प्राणिक और भौतिक अस्तित्व को मानसिक-भावापन्न ऐंद्रिय दृष्टि से देखती है ताकि उसमें से जितना संभव हो वह सारा ऐंद्रिय मूल्य ले सके । मनुष्य के संवेदनों या ऐंद्रिय भावावेगों को या उसकी प्राणिक कामना और सुख की तृप्ति को देखा जाये तो पशु की यह प्राप्ति कई दिशाओं में मनुष्य की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण होती है । इच्छा और बुद्धि के स्तर से नीचे देखनेवाला मनुष्य इन निचली तीक्ष्णताओं को त्याग देता है लेकिन मन और प्राण और इन्द्रिय से बाहर निकलने के लिये अन्य मूल्यों में तीक्ष्णता, बौद्धिक, सौंदर्य-भावात्मक, नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक रूप में क्रियाशील या व्यावहारिक -जैसा कि वह उन्हें कहता है -इन उच्चतर तत्त्वों से वह
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अपने प्राण-मूल्यों के उपयोग को विशाल और सूक्ष्म बनाता तथा ऊंचा उठाता है । वह पशु-प्रतिक्रियाओं और भोगों को त्यागता नहीं परंतु उन्हें अधिक स्वच्छ, परिष्कृत और संवेदनशील रूप से मानसिक बना देता है । ऐसा वह अपने सामान्य और निम्नतर स्तरों पर भी करता है लेकिन जैसे-जैसे उसका विकास होता है, वह अपनी निचली सत्ता को ज्यादा कठिन कसौटी पर रखता है, उसे त्याग देने का भय दिखला कर रूपांतर जैसी किसी चीज की मांग करने लगता है । अपने से भी परे, आध्यात्मिक जीवन की तैयारी करने के लिये मन का यही तरीका हैं ।
जब मनुष्य उच्चतर स्तर पर जा पहुंचता है तो वह अपनी दृष्टि को केवल नीचे और चारों ओर ही नहीं फैलाता बल्कि ऊपर की ओर भी जो उससे ऊपर है और भीतर की ओर भी जो उसमें गुह्य है । उसके अंदर न केवल विकसनशील वैश्व सत्ता की नीचे की ओर की दृष्टि सचेतन हो जाती है बल्कि उसकी सचेतन ऊर्ध्वमुखी और अंतर्मुखी दृष्टि भी विकसित होती है । पशु इस तरह जीता है मानों प्रकृति ने उसके लिये जो कुछ कर दिया है उससे संतुष्ट है । अगर उसकी पशु- सत्ता में स्थित गुप्त आत्मा की कोई ऊर्ध्वमुखी दृष्टि है तो सचेतन रूप से तो उसके साथ इसका कोई संबंध नहीं होता, वह प्रकृति का ही धंधा है । मनुष्य ही सबसे पहले इस ऊर्ध्वमुखी दृष्टि को अपना सचेतन व्यापार बनाता है; क्योंकि मनुष्य बुद्धिशाली इच्छा के कारण -जो विज्ञान की विकृत किरण भले हो -सच्चिदानंद का दोहरा स्वभाव धारण करना शुरू कर देता है । अब वह पशु की तरह एक अविकसित सचेतन सत्ता नहीं रह जाता जिसे प्रकृति पूरी तरह से चलाती है, जो कार्यकर्त्री शक्ति का दास है, जिसके साथ प्रकृति की यांत्रिक ऊर्जाएं खेल करती हैं । अब वह एक विकसनशील आत्मा या पुरुष के रूप में विकसित होना शुरू करता है; उसमें, जो प्रकृति का स्वैर व्यवसाय था, हस्तक्षेप करना शुरू करता है, उसके मामलों में कुछ अधिकार चाहता और अंततः स्वामी बन जाना चाहता है । वह अभी ऐसा नहीं कर सकता । वह उसके जाल में बहुत ज्यादा फंसा हुआ है, उसकी स्थापित की हुई यांत्रिकता में बहुत ज्यादा उलझा हुआ है । लेकिन वह अनुभव करता है, यद्यपि अभी बहुत अस्पष्टता और अनिश्चित के साथ, कि उसके अंदर की आत्मा ज्यादा ऊंची ऊंचाइयों की ओर उठना, अपनी सीमाओं को अधिक विस्तृत करना चाहती है । उसके भीतर कोई चीज, कोई गुह्य वस्तु जानती है कि गभीरतर सचेतन पुरुष-प्रकृति का यह इरादा नहीं है कि वह अपनी वर्तमान नीचाइयों और सीमाओं से संतुष्ट रहे । मनुष्य जब पृथ्वी के भौतिक और प्राणमय जगत् में अपने लिये जगह बना लेता है, अपनी आगे की संभावनाओं पर विचार करने का कुछ मौका पाता है तो उसका स्वाभाविक अंतर्वेग सदा यही होता है कि वह उच्चतर शिखरों की ओर उठे, अधिक विशाल क्षेत्र पाये, अपनी निम्न प्रकृति को रूपांतरित करे । यह उसके अंदर किसी मिथ्या और दयनीय, काल्पनिक भ्रांति के
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कारण नहीं होता बल्कि, चूंकि पहले तो वह अपूर्ण, अभी विकास करता हुआ मानसिक प्राणी है जिसे और अधिक विकास और पूर्णता के लिये प्रयास करना चाहिये और उससे भी बढ़कर इस कारण कि वह अन्य पार्थिव प्राणियों के विपरीत, मन से जो गभीरतर है उसके बारे में अपने अंदर अंतरात्मा के और मन से ऊपर अतिमानस, आध्यात्म पुरुष के बारे में अभिज्ञ होने में सक्षम है और उनकी ओर खुलने में, उन्हें अपने अंदर लाने में, अपने-आप उनकी तरफ उठने और उन्हें ग्रहण करने में सक्षम है । यह उसकी प्रकृति में, समस्त मानव प्रकृति में है कि वह सचेतन क्रम-विकास द्वारा अपना अतिक्रमण करे, वह जो कुछ है उससे ऊपर चढ़े । केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि समय आने पर मानवजाति, भले सब सदस्यों में न हो, सत्ता और जीवन के सामान्य नियम में, अगर वह काफी इच्छा विकसित कर ले तो अपनी वर्तमान अति अदिव्य प्रकृति की अपूर्णताओं से ऊपर उठकर, कम-से-कम श्रेष्ठतर मानवतातक चढ़ने की, चाहे वह पूरी तरह वहां न भी पहुंच सके तो भी दिव्य मानवता और अतिमानवता के नजदीक पहुंचने की आशा कर सकती है । बहरहाल उसके लिये यह विकसनशील प्रकृति की अनिवार्यता है कि वह ऊपर की ओर विकसित होने का प्रयास करे, आदर्श का निर्माण करे और उसके लिये प्रयत्न करे ।
कितु विकसनशील सत्ता की आत्म-संभूति में अपने अतिक्रमण द्वारा कार्य संपादन की सीमां कहां है ? स्वयं मन के अंदर सोपानों की श्रेणियां हैं और फिर हर श्रेणी अपने-आपमें एक सोपान-शृंखला है, उत्तरोत्तर चढ़ाइयां हैं जिन्हें हम आसानी से मानसिक चेतना और मानसिक सत्ता के स्तर और उपस्तर कह सकते हैं । हमारे मनोमय पुरुष का विकास मुख्यतया इस सोपान पर चढ़ाई है । हम उनमें से किसीपर खड़े रह सकते हैं और साथ ही निचले स्तरों पर निर्भरता बनाये रख सकते हैं और यह सामर्थ्य भी रख सकते हैं कि कभी-कदास उच्चतर स्तरों पर चढ़े या अपनी सत्ता के श्रेष्ठतर स्तरों के प्रभावों की ओर उत्तर दें । अभी हम सामान्यत: अपना पहला सुरक्षित आधार बुद्धि के सबसे निचले उपस्तर को बनाते हैं, जिसे हम भौतिक मन कह सकते हैं, क्योंकि वह अपने तथ्य और वास्तविकता के भाव के साक्ष्य के लिये भौतिक मस्तिष्क पर, भौतिक ऐंद्रिय मन और भौतिक इन्द्रियों पर निर्भर होता है । वहां हम भौतिक मनुष्य होते हैं जो सबसे अधिक महत्त्व देता है वस्तुनिष्ठ चीजों और अपने बाहरी जीवन को, जिसमें आत्मनिष्ठ या आंतरिक जीवन की तीव्रता कम ही होती है और जो कुछ होती भी है उसे वह बाह्य वास्तविकता के ज्यादा बड़े दावों के अधीन कर देता है । भौतिक मनुष्य में एक प्राणिक भाग होता है लेकिन वह प्रधानत: अवचेतन से उभरती प्राण-चेतना की छोटी-मोटी सहज- वृत्तिमूलक और अंतर्वेगात्मक रचनाओं से बना होता है और साथ ही उन संवेदनों, कामनाओं, आशाओं, अनुभूतियों, तुष्टियों का रूढ़िगत जमघट या चक्कर होता है
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जो बाहरी चीजों और बाहरी संपर्कों पर आश्रित होते हैं और जो व्यावहारिक, तुरंत उपलब्ध हो सकनेवाले, संभव, अध्यासगत, सामान्य और औसत से संबंध रखते हैं । उसका एक मानसिक भाग भी होता है लेकिन यह भी रूढ़िगत, परंपरा-परायण, व्यावहारिक, वस्तुनिष्ठ है और उसका सम्मान वह अधिकतर अपनी शारीरिक और संवेदनात्मक सत्ता के आश्रय, आराम, उपयोग, संतोष और विनोद के लिये उपयोगी होने के कारण ही करता है । क्योंकि भौतिक मन जड़ द्रव्य और जड़ जगत् को, शरीर और शारीरिक जीवन को ऐंद्रिय अनुभव और सामान्य व्यावहारिक मानसता और उसके अनुभव को अपनी भित्ति बनाता है । जो कुछ इस श्रेणी का नहीं है उसे भौतिक मन एक सीमित अधिरचना के रूप में बनाता है जो बाह्य ऐंद्रिय-मानसता पर निर्भर होती है । फिर भी वह जीवन की इन उच्चतर अंतर्वस्तुओं को या तो सहायक अनुषंगियों या निरर्थक लेकिन कल्पनाओं, संवेदनों और अमूर्त विचारों के सुखद विलास के रूप में देखता है, न कि आंतरिक वास्तविकताओं के रूप में; या अगर वह उन्हें वास्तविकताओं के रूप में भी लेता है तो भी वह उन्हें उनके अपने पदार्थ में ठोस और वस्तु-रूप में नहीं देखता क्योंकि उनका पदार्थ भौतिक पदार्थ और उसके स्थूल ठोसपन की अपेक्षा सूक्ष्म होता है, उन्हें वह स्थूल वास्तविकताओं में से एक आत्मनिष्ठ, कम सारवान् विस्तार के रूप में लेता है । यह अनिवार्य है कि मनुष्य जुड़-तत्त्व को ही अपना पहला आधार बनाये और बाहरी तथ्य और बाहरी जीवन को उसका उचित महत्त्व दें क्योंकि यह हमारे जीवन के लिये प्रकृति की पहली व्यवस्था है जिसपर वह बहुत जोर देती है । हमारे अंदर भौतिक मानव पर बहुत जोर दिया जाता है और प्रकृति उसकी प्रचुर संख्या-वृद्धि करती है ताकि जब वह अपने उच्चतर मानव विकासों के लिये प्रयास करे तो वह उस सुरक्षित, भले निश्चेष्ट भौतिक आधार की रक्षा के लिये एक शक्ति हो जिसपर वह अपने-आपको बनाये रख सके । लेकिन इस मानसिक रूपायण में किसी प्रगति के लिये कोई शक्ति नहीं है और अगर है तो केवल जड़-भौतिक प्रगति के लिये । यह हमारी पहली मानसिक स्थिति है लेकिन मानसिक सत्ता हमेशा मानव-विकास- सोपान की इस सबसे निचली सीढ़ी पर नहीं बनी रह सकती ।
भौतिक मन के ऊपर और भौतिक संवेदनों के नीचे गहराई में वह है जिसे हम प्राणिक मन की बुद्धि कह सकते हैं । यह क्रियाशील, प्राणिक, स्नायविक, चैत्य की ओर अधिक खुली हुई है यद्यपि अब भी धुंधली है, प्रथम आंतरात्मिक रूपायण के योग्य है; यद्यपि अधिक धुंधले प्राण-पुरुष के रूपायण के योग्य है, चैत्य सत्ता के योग्य नहीं परंतु प्राण-पुरुष के सामने के रूपायण के योग्य है । यह प्राण-पुरुष ठोस रूप में प्राणिक जगत् की वस्तुओं का बोध और संपर्क पाता है और उन्हें यहांपर प्राप्त करने का यत्न करता है । वह प्राणिक सत्ता, प्राण-शक्ति, प्राणिक प्रकृति के संतोष और पूर्ति को बहुत अधिक महत्त्व देता है । वह भौतिक जीवन
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को प्राणिक आवेगों की आत्म-परिपूर्ति के लिये, महत्त्वाकांक्षा, शक्ति, सबल चरित्र, प्रेम, आवेश, साहसकार्य की क्रीड़ा के क्षेत्र के रूप में देखता है, व्यक्ति और समुदाय तथा सामान्य मानव अन्वेषण, जोखिम और साहसिक कार्य के लिये सब प्रकार के प्राणिक परीक्षणों और नये प्राणिक अनुभवों के लिये एक क्षेत्र के रूप में देखता है । इस रक्षक तत्त्व के बिना, इस श्रेष्ठतर शक्ति, अभिरुचि, सार्थकता के बिना उसके लिये भौतिक जीवन का कुछ भी मूल्य न होता । इस प्राणमय मन को हमारे गुह्य अंतस्तलीय प्राण-पुरुष का सहारा प्राप्त होता है और उसका प्राणमय जगत् के साथ अवगुंठित संपर्क रहता है, जिसके प्रति वह आसानी से खुल सकता है और इस तरह उन अदृष्ट क्रियाशील शक्तियों और वास्तविकताओं को अनुभव कर सकता है जो जड़ विश्व के पीछे हैं । एक आंतरिक प्राणिक-मन है जिसे अपने दर्शन के लिये भौतिक इन्द्रियों की सहायता की जरूरत नहीं होती, वह उनसे सीमित नहीं है क्योंकि इस स्तर पर शरीर से और भौतिक जगत् के प्रतीकों से स्वतंत्र रहते हुए, जिन्हें हम प्राकृतिक व्यापार कहते हैं, हमारा आंतरिक जीवन और जगत् का आंतरिक जीवन हमारे लिये वास्तविक हो जाते हैं, मानों प्रकृति के लिये स्थूल जड़- तत्त्व के अतिरिक्त कोई ज्यादा बड़ी वास्तविकताएं और ज्यादा बड़े व्यापार हैं ही नहीं । प्राणिक मानव सचेतन या अचेतन रूप से इन्हीं प्रभावों के द्वारा गाढ़ा जाता है । वह कामना और संवेदनों का मनुष्य, शक्ति और क्रिया का मनुष्य, आवेगों और भावों का मनुष्य, गत्यात्मक व्यक्ति होता है । वह भौतिक अस्तित्व पर बहुत अधिक जोर दे सकता और देता है लेकिन अपनी वर्तमान वास्तविकताओं के साथ अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद वह उस जीवन-अनुभव के लिये, उपलब्धि की शक्ति के लिये, जीवन-प्रसार के लिये, जीवन-शक्ति, जीवन-प्रतिष्ठापन के लिये और प्राण-वर्द्धन के लिये धकेलता है जो सत्ता की वृद्धि की ओर प्रकृति की पहली प्रेरणा है । इस जीवन-प्रेरणा की उच्चतम तीव्रता के समय वह बंधनों को तोड़नेवाला, नये क्षितिजों की खोज करनेवाला, भविष्य के हित में भूत और वर्तमान को अस्तव्यस्त करनेवाला बन जाता है । उसका एक मानसिक जीवन होता है जो प्रायः प्राणशक्ति और उसकी कामनाओं और उसके आवेगों का दास होता है; और वह मन के द्वारा उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता है; लेकिन जब वह मानसिक चीजों में बहुत रस लेता है तो वह मानसिक अभियानी, नये मानसिक रूपायनों की राहें खोलनेवाला, किसी भाव के लिये योद्धा, भावुक प्रकार का कलाकार, जीवन का ऊर्जस्वी कवि या किसी उद्देश्य या आंदोलन का पैगंबर या समर्थक बन सकता है । प्राणिक मन क्रियाशील होता है और इसलिये विकासशील प्रकृति के कार्य में एक बड़ी शक्ति होता है ।
प्राणिक मानसता के इस स्तर के ऊपर और साथ ही अधिक भीतर की ओर फैला हुआ शुद्ध विचार और बुद्धि का एक मानसिक स्तर होता है जिसके लिये
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मानसिक जगत् की चीजें सबसे महत्त्वपूर्ण वास्तविकताएं होती हैं । जो उसके प्रभाव में होते हैं, दार्शनिक, विचारक, वैज्ञानिक, बौद्धिक स्रष्टा, भाव-प्रवण, लिखित या उच्चरित शब्द-प्रवण, आदर्शवादी और स्वप्नद्रष्टा -ये वर्तमान मानसिक सत्ता के उपलब्ध उच्चतम शिखर हैं । इस मानसिक मनुष्य का अपना प्राणमय भाग है, उसका अपने आवेगों, कामनाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और सब तरह की प्राणिक आशाओं का जीवन है और उसका निम्नतर संवेदनात्मक और भौतिक अस्तित्व भी है और यह निम्नतर अंग प्रायः उसके उच्चतर मनोमय तत्त्व के समान या उससे अधिक भारी हो जाता है ताकि, यद्यपि यह उसका उच्चतम भाग है पर वह उसकी समस्त प्रकृति का मुख्य और रचनात्मक भाग नहीं बन जाता । लेकिन उसके महत्तम विकास में यह उसका विशेष लक्षण नहीं है क्योंकि वहां प्राण और देह पर विचारशील इच्छा और बुद्धि का नियंत्रण और आधिपत्य होता है । मानसिक मनुष्य अपनी प्रकृति का रूपांतर नहीं कर सकता लेकिन वह उसे शासित और समन्वित कर सकता है और उसपर मानसिक आदर्श का विधान लागू कर सकता है, संतुलन या उन्नयन और परिमार्जन करनेवाला प्रभाव डाल सकता है और हमारी विभक्त और अर्द्धनिर्मित सत्ता की बहु-व्यक्तिक उलझन और संघर्ष या सरसरी जोड़-जाड़ की व्यवस्था में एक उच्चतर संगति ला सकता है । वह अपने मन और प्राण का प्रेक्षक और शासक हो सकता है और सचेतन रूप से उन्हें विकसित कर सकता और उस हदतक आत्म-स्रष्टा बन सकता है ।
इस शुद्ध बुद्धि के मन के पीछे हमारा आंतरिक या अंतस्तलीय मन होता है जो मानसिक स्तर की सभी चीजों का प्रत्यक्ष बोध पा लेता है; मानसिक शक्तियों के जगत् की क्रिया के प्रति खुला रहता है और भावमूलक और अन्य ऐसे अतिसूक्ष्म प्रभावों का अनुभव कर सकता है जो भौतिक जगत् और प्राण-स्तर पर क्रिया करते हैं लेकिन जिनके बारे में अभी हम केवल अनुमान कर सकते हैं, उनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं पा सकते । मानसिक मनुष्य के लिये ये अमूर्त और अतिसूक्ष्म प्रभाव वास्तविक और स्पष्ट होते हैं और वह उन्हें ऐसे सत्य मानता है जो हमारी या पृथ्वी की प्रकृति में अभिव्यक्त होने की मांग कर रहे हैं । आंतरिक स्तर पर शरीर से पृथक्, मन और मनोमय पुरुष, हमारे लिये संपूर्ण वास्तविकता हो सकते हैं और हम जैसे शरीर में निवास करते हैं उसी तरह सचेतन रूप से उनमें निवास कर सकते हैं । इस तरह मन और मानसिक वस्तुओं में निवास करना, शरीर या प्राण होने की जगह बुद्धि होना प्रकृति की कोटियों में, आध्यात्मिकता के बाद हमारी सबसे ऊंची स्थिति है । मानसिक मनुष्य, आत्म-शासक और आत्म-रचयिता मन और इच्छावाला मन, जो किसी आदर्श के बारे में सचेतन और उसकी उपलब्धि की ओर मुड़ा हो, उच्च बुद्धि, विचारक, मनीषी, प्राणमय मनुष्य की अपेक्षा कम गतिशील और तुरंत प्रभावकारी होता है, जो क्रियाशील मनुष्य है और तेजी से
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बाहरी जीवन की परिपूर्ति करनेवाला है । फिर भी जाति के लिये नये प्रदेश खोलने के लिये उतना ही, बल्कि उससे अधिक समर्थ, ऐसा व्यक्ति ही मानव स्तर पर प्रकृति की विकसनशील रचना का सामान्य शिखर होता है । मानसिकता की ये तीन कोटियां अपने-आपमें स्पष्ट होते हुए बहुधा हमारे संयोजन में घुल-मिल जाती हैं -ये हमारी सामान्य बुद्धि के लिये केवल मनोवैज्ञानिक प्रारूप हैं जो किसी तरह से विकसित हो गये हैं । हमें इनमें कोई और अर्थ नहीं मिलता लेकिन वस्तुतः वे अर्थ से भरे हैं क्योंकि वे मानसिक सत्ता के विकास के लिये अपना अतिक्रमण करने की ओर प्रकृति के चरण हैं । और चूंकि वह अभीतक जो पा सकती है उसमें विचारशील मन ही सबसे ऊंचा है इसलिये पूर्णत्व को प्राप्त मानसिक मनुष्य ही सामान्य मानव प्राणियों में सबसे विरल और सबसे ऊंचा है । इसके परे जाने के लिये उसे मन के अंदर आध्यात्मिक तत्त्व को लाना और मन, प्राण, शरीर में उसे सक्रिय बनाना होगा ।
ये उसकी विकसनशील आकृतियां हैं जिन्हें बाहरी मानसिकता में से बनाया गया है । इससे अधिक करने के लिये उसे हमारी सतह के नीचे छिपी अदृष्ट सामग्री का अधिक विशद रूप से उपयोग करना होगा । अंदर गोता लगाकर प्रच्छन्न अंतरात्मा को, चैत्य को बाहर निकालना होगा या फिर हमारे सामान्य मानसिक स्तर से ऊपर अंतर्भासात्मक चेतना के लोकों में चढ़ना होगा जो आध्यात्मिक विज्ञान से आनेवाले प्रकाश से घनीभूत हैं, ये शुद्ध आध्यात्मिक मन के ऊपर चढ़ते हुए स्तर ऐसे हैं जहां हम अनंत के साथ प्रत्यक्ष संपर्क में होते हैं, आत्मा के और वस्तुओं की उच्चतम वास्तविंकता सच्चिदानंद के साथ संपर्क में आते हैं । हमारे अंदर, हमारी बाहरी प्राकृत सत्ता के पीछे एक अंतरात्मा, एक आंतरिक मन, एक आंतरिक प्राणिक अंश है जो इन ऊंचाइयों की ओर तथा हमारे अंदर की गुह्य आत्मा की ओर खुल सकते हैं और यह दोहरा खुलना नये विकास का रहस्य है । इन ढक्कनों, दीवारों और सीमाओं को तोड़ने से चेतना एक महत्तर आरोहण और विशालतर समाकलन की ओर उठती है । जैसे मन के विकास ने मानसभावापन्न किया है उसी तरह यह नया विकास हमारी प्रकृति की सभी शक्तियों को आध्यात्मिकभावापन्न करेगा । क्योंकि मानसिक मनुष्य प्रकृति का अंतिम प्रयास या ऊंचे-से-ऊंची पहुंच नहीं है, यद्यपि सामान्यत: वह अपनी प्रकृति में उन लोगों की अपेक्षा ज्यादा पूरी तरह विकसित हुआ है जो अपने-आपको उससे नीचे उपलब्ध करके रह गये या जिन्होंने उससे ऊपर अभीप्सा की है । प्रकृति ने मनुष्य को एक अधिक ऊंचे और अधिक कठिन स्तर की ओर इशारा किया है, उसे आध्यात्मिक जीवन के आदर्श की प्रेरणा दी है, उसके अंदर एक आध्यात्मिक सत्ता का क्रम-विकास शुरू किया है । आध्यात्मिक मनुष्य ही मानव-सृष्टि में प्रकृति का सर्वोच्च अधिसामान्य प्रयत्न है क्योंकि मानसिक स्रष्टा, विचारक, मुनि, किसी आदर्श के
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पैगंबर, आत्म-शासित, आत्मानुशासित, सामंजस्यपूर्ण मानसिक सत्ता को विकसित करके प्रकृति ने ज्यादा ऊंचा, अपने भीतर ज्यादा गहराई में जाने की कोशिश की है और अंतरात्मा, आंतरिक मन और हृदय को बाहर आने के लिये पुकारा है और ऊपर से आध्यात्मिक मन, उच्चतर मन और अधिमानस की शक्तियों को नीचे बुलाया है और उनके प्रभाव से आध्यात्मिक मुनि, द्रष्टा, पैगंबर, ईश्वर-प्रेमी, योगी, विज्ञानी, सूफी, रहस्यवादी का सृजन करने की कोशिश की है ।
अपना सच्चा अतिक्रमण करने के लिये मनुष्य के पास बस यही एक तरीका है : क्योंकि जबतक हम ऊपरी तल की सत्ता में रहते हैं या जड़ पर पूरा आधार रखते हैं तबतक ऊपर जाना असंभव है और यह आशा रखना व्यर्थ है कि हमारी विकसनशील सत्ता मे कोई मौलिक प्रकार का संक्रमण हो सकता है । प्राणमय पुरुष और मनोमय पुरुष पार्थिव जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव डाल चुके हैं; उन्होंने निरे मानव पशु से मानवजाति को वहांतक आगे पहुंचा दिया है जहां वह अब है । लेकिन वे अभीतक प्रतिष्ठित मानव सत्ता के विकास-सूत्र की सीमाओं के अंदर ही काम कर सकते हैं, वे मानव चक्र को ज्यादा बड़ा कर सकते हैं लेकिन चेतना के तत्त्व और उसकी विशिष्ट क्रिया को बदल या रूपांतरित नहीं कर सकते । मानसिक मनुष्य को अत्यधिक ऊंचा उठाने या प्राणिक पुरुष को अत्यधिक अतिरंजित करने के किसी भी प्रयास से -उदाहरण के लिये नीत्शे का अतिमानव -मानव प्राणी को बृहत्काय तो बनाया जा सकता है लेकिन इससे न तो उसका रूपांतर हो सकता है न वह दिव्य बन सकता है । अगर हम अपने अंदर, आंतरिक सत्ता में निवास कर सकें और उसे जीवन का प्रत्यक्ष शासक बना सकें या सत्ता के आध्यात्मिक और अंतर्भासात्मक स्तरों पर स्थित होकर वहांसे उनकी शक्ति से अपनी प्रकृति का रूपांतर कर सकें तो एक भिन्न संभावना खुल जाती है ।
आध्यात्मिक मनुष्य इस नये विकास का, प्रकृति के इस नये और उच्चतर प्रयास का चिन्ह्य है । लेकिन यह विकास पिछली विकसनशील ऊर्जा की प्रक्रिया से दो बातों में अलग है : यह मानव मन के सचेतन प्रयास द्वारा संचालित होता है और सतही प्रकृति की सचेतन प्रगतितक ही सीमित नहीं रहता, उसके साथ ही एक प्रयास होता है; यह अज्ञान की दीवारों को तोड़ने का और भीतर की ओर अपनी वर्तमान सत्ता के गुप्त तत्त्व में विस्तृत होने का और बाहर की ओर वैश्व सत्ता में, ऊपर की ओर उच्चतर तत्त्व में विस्तृत करने का प्रयास है । अभी प्रकृति ने जो कुछ पाया है वह था हमारी सतही ज्ञान-अज्ञान की सीमाओं का विस्तार । आध्यात्मिक प्रयास में कोशिश की जाती है अज्ञान को लुप्त करने की, भीतर जाकर अंतरात्मा को खोजने और चेतना में भगवान् तथा समस्त सत्ता के साथ युक्त होने की । मनुष्य के अंदर विकासशील प्रकृति की मानसिक अवस्था का यह अंतिम लक्ष्य है, यह अज्ञान के ज्ञान में आमूल रूपांतर की ओर पहला चरण है ।
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आध्यात्मिक परिवर्तन आंतरिक सत्ता और उच्चतर आध्यात्मिक मन के प्रभाव से शुरू होता है, यह ऐसी क्रिया है जो ऊपरी तल पर अनुभव और स्वीकार की जाती है लेकिन यह अपने-आपमें केवल उज्जल मानसिक आदर्शवाद की ओर ले जा सकता है या धार्मिक मन, धार्मिक स्वभाव, हृदय में थोड़ी-सी भक्ति और आचरण में धर्म-परायणता की वृद्धि की ओर ले जा सकता है । यह आत्मा की ओर मन का पहला उपागम है लेकिन यह मौलिक परिवर्तन नहीं ला सकता । और अधिक करना है । हमें भीतर ज्यादा गहराई में निवास करना है । हमें अपनी वर्तमान चेतना का अतिक्रमण करना है और प्रकृति के वर्तमान स्तर को पार करना है ।
यह स्पष्ट है कि अगर हम इस तरह भीतर, ज्यादा गहराई में रह सकें और आंतरिक शक्तियों का बाहरी यंत्रों में स्थिरता से संचार कर सकें या हम इतने ऊपर उठ सकें कि उच्चतर तथा विशालतर स्तरों पर निवास कर सकें और केवल उनसे उतरते प्रभावों को ग्रहण करने के बदले, अभी हम केवल इतना ही कर सकते हैं, उनकी शक्तियों के प्रवाह को भौतिक जीवन पर उतार सकें तो हमारी सचेतन सत्ता की शक्ति का उन्नयन शुरू हो सकता है ताकि चेतना के एक नये तत्त्व का सृजन हो, क्रिया-कलाप का एक नया क्षेत्र, सभी चीजों के लिये नये मूल्य, हमारी चेतना और हमारे जीवन का विस्तार, हमारी सत्ता की निचली श्रेणियों को ऊपर उठाकर उनका रूपांतर हो । संक्षेप में वह सारी विकास-प्रक्रिया शुरू हो सकती है जिसके द्वारा आत्मा प्रकृति में सत्ता के उच्चतर प्रारूप का सृजन करती है । हर कदम एक प्रगति हो सकता है, वह लक्ष्य से चाहे जितनी दूर क्यों न हो, या हर कदम एक विशालता और अधिक दिव्य सत्ता के निकट आगमन, एक विशालतर तथा और अधिक दिव्य शक्ति और चेतना, ज्ञान और इच्छा, अस्तित्व के भाव और सत्ता के आनंद के निकट आगमन हो सकता है, दिव्य जीवन की ओर एक प्रारंभिक उन्मीलन हो सकता है । सभी धर्म, सारा गुह्य ज्ञान, सभी अधिसामान्य (असामान्य के विपरीत) मनोवैज्ञानिक अनुभव, समस्त योग, समस्त चैत्य अनुभूतियां और अनुशासन, सूचना-स्तंभ और मार्गदर्शक हैं जो हमें गुह्य, आत्मान्वेषी आत्मा की प्रगति के मार्ग की ओर इंगित करते हैं ।
लेकिन मानवजाति अभीतक विशेष गुरुत्वाकर्षण के कारण भौतिक की ओर खिंची हुई है । वह अभीतक अविजित पार्थिव तत्त्व के आकर्षण की आज्ञा का पालन करती है । उसपर मस्तिष्क-मन, भौतिक बुद्धि का प्राधान्य है, इस तरह बहुत से बंधनों के कारण वह पीछे खिंची रहती है । वह आध्यात्मिक प्रयास के संकेत के आगे हिचकिचाती और उसकी तनावदार मांग से पीछे जा गिरती है, उसे जब कभी आदत के खांचों में से बाहर निकलने के लिये पुकार लगायी जाती है तो उसके अंदर अब भी संशयभणई मूर्खता, अत्यधिक अकर्मण्यता, एक अतिविशाल बौद्धिक और आध्यात्मिक भीरुता और रूढ़िवाद की बहुत अधिक क्षमता पायी जाती है । स्वयं
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जीवन का यह सतत प्रमाण कि जहां कहीं वह विजय प्राप्त करना चाहे वहां विजय पा सकता है -उस बिल्कुल निचली शक्ति, भौतिक विज्ञान के चमत्कार को देख लो -उसे शंका करने से नहीं रोक सकते । वह नयी टेर को अस्वीकार करती और उसे उत्तर देने का काम कुछ व्यक्तियों के लिये छोड़ देती है । लेकिन अगर अगला कदम मानवजाति के लिये हो तो इतना काफी नहीं है क्योंकि अगर जाति आगे बढ़े तभी उसके लिये आत्मा की विजयें सुरक्षित हो सकतीं हैं । क्योंकि तब प्रकृति में कोई च्युति भले हो जाये, उसके प्रयास में गिरावट भले आ जाये फिर भी भीतर की आत्मा एक गुप्त स्मृति का उपयोग करती है -यह स्मृति कभी-कभी नीचे की ओर अधोमुखी गुरुत्वाकर्षण के रूप में, जाति में एक पुराण-पंथी शक्ति के रूप में निरूपित होती हैं परंतु वास्तव में यह प्रकृति में सतत स्मृति की शक्ति होती है जो हमें ऊपर या नीचे खींच सकती है -वहींसे फिर से ऊपर बुलायेगी और अगली चढ़ाई पिछले उद्यम के कारण अधिक सरल और अधिक स्थायी होगी, क्योंकि वह उद्यम, उसकी प्रेरणा और उसके परिणाम मानवजाति के अवचेतन मन में संचित हुए बिना नहीं रह सकते । कौन कह सकता है कि इस प्रकार की कौन-सी विजयें हमारे पिछले युगों में प्राप्त हुई होंगी और हम अगले आरोहण के कितने नजदीक होंगे ? यह आवश्यक या संभव नहीं है कि समस्त जाति अपने-आपको मानसिक से आध्यात्मिक सत्ताओं में रूपांतरित कर ले । लेकिन इस प्रवृत्ति की धारा को निश्चित उपलब्धितक ले जाने के लिये आदर्श की व्यापक मान्यता, विस्तृत प्रयास और सचेतन एकाग्रता की जरूरत है, अन्यथा अंत में जो प्राप्त होगा वह कुछ ऐसे लोगों के द्वारा उपलब्धि होगी जो सत्ताओं की एक नयी कोटि का आरंभ करेंगे जब कि बाकी मानवजाति अपने अयोग्य होने का फैसला सुना देगी और हो सकता है कि वह विकास के पतन में या स्थायी निश्चलता में जा गिरे, क्योंकि सतत ऊर्ध्वमुखी प्रयास ही मानवजाति को जीवित रखे हुए है और उसके लिये सृष्टि के अग्रभाग में उसका स्थान बनाये हुए है ।
विकास की प्रक्रिया का तत्त्व एक आधार है, उस आधार से आरोहण, उस आरोहण में चेतना का उलटाव और प्राप्त महत्तर ऊंचाई और विशालता से पूर्ण प्रकृति के परिवर्तन और नये समाकलन की क्रिया । जड़ तत्त्व है पहली नींव, आरोहण प्रकृति का है, समाकलन पहले प्रकृति द्वारा प्रकृति का निश्चेतन या अर्द्ध- चेतन स्वचालित परिवर्तन है । लेकिन जैसे ही प्रकृति की इन क्रियाओं में सत्ता अधिक पूर्ण रूप से सचेतन भाग लेना शुरू करती है वैसे ही प्रक्रिया की कार्य- प्रणाली में परिवर्तन आना अनिवार्य हो जाता है । जड़ की भौतिक नींव बनी रहती है लेकिन जड़ चेतना की नींव नहीं बना रह सकता । स्वयं चेतना अपने उद्गम में न तो निश्चेतना में से उमड़ता स्रोत होगी और न ही विश्व के संपर्कों के दबाव से किसी गुह्य आंतरिक अंतस्तलीय शक्ति की गुप्तधारा होगी । विकसित होते हुए
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जीवन की नींव होगी ऊपर की नयी आध्यात्मिक स्थिति या हमारे भीतर की अनावृत आत्म-स्थिति । ऊपर से प्रकाश और ज्ञान और इच्छा का प्रवाह और भीतर से उनका ग्रहण वैश्व अनुभूति के प्रति सत्ता की प्रतिक्रियाओं का निश्चय करेंगे । सत्ता की समस्त एकाग्रता नीचे से ऊपर की ओर और बाहर से भीतर की ओर चली जायेगी । हमारे लिये अभीतक अज्ञात उच्चतर और आंतरिक सत्ता 'हम' बन जायेगी और बाहरी तथा सतही सत्ता, जिसे हम अब अपना-आप मानते हैं, केवल एक खुला हुआ अग्रभाग या उपभवन होगी जिसमें से सच्ची सत्ता विश्व से भेंट करती है । स्वयं बाहरी जगत् आध्यात्मिक अभिज्ञता के लिये आंतरिक बन जायेगा, उसका अपना अंग होगा, एकत्व और तादात्म्य के ज्ञान और अनुभव में अंतरंग रूप से आलिंगित मन की एक अंतर्भासात्मक दृष्टि से भिदा हुआ होगा जिसे चेतना के साथ चेतना के सीधे संपर्क से उत्तर मिलेगा, जिसे एक प्राप्त किये हुए समाकलन में ले लिया जायेगा । स्वयं पुरानी निश्चेतन नींव हमारे अंदर ऊपर की ज्योति और अभिज्ञता के प्रवाह से सचेतन हो जायेगी और उसकी गहराइयां आत्मा के शिखरों के साथ जुड़ जायेंगी । एक संपूर्ण चेतना प्रकृति और पुरुष के समग्र रूपांतर, एकीकरण, समाकलन द्वारा जीवन के संपूर्ण सामंजस्य का आधार बन जायेगी ।
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