Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ६
विश्व में मानव
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिनृ हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टसातस्तेनामृतत्वमेति ।।
हंस (मानव अंतरात्मा, एक यात्री) ब्रह्म के इस विशाल, सर्वजीवमय, सर्वअवस्थामय चक्र में विचरण करता रहता है और अपने-आपको इस यात्रा के 'प्रेरक' से भिन्न मानता है । ब्रह्म द्वारा स्वीकृत होकर वह अपना लक्ष्य, 'अमरता' पा लेता है ।
(श्वेताश्वतरोनिषद् १. ६)
यह जगत् जिसे हम देखते हैं और वे सब जगत् जिन्हें हम नहीं देख पाते उनकी बहुसंख्यक सापेक्षताओं को अपना साधन, उपादान, शर्त और क्षत्र बनाती हुई एक महान् तुरीय, ज्योतिर्मय, 'सद्वस्तु' का उत्तरोत्तर प्रकट होना ही विश्व का आशय प्रतीत होता है क्योंकि उसका कुछ अर्थ और लक्ष्य तो है ही । वह न तो निष्प्रयोजक माया है न आकस्मिक संयोग । क्योंकि जो तर्क हमें इस निर्णय पर लाता है कि जगत् का अस्तित्व मन की धोखा देनेवाली चालाकी नहीं है वही समान रूप से इस निश्चय का समर्थन करता है कि यह ऐसी पृथक्-पृथक् प्रपंचात्मक सत्ताओं का अंधा और असहाय स्वयंभू समूह नहीं है जो अनंत काल में अपनी यात्रा का चक्कर काटता हुआ, जहांतक बन पड़े साथ-साथ चिपका रहता और संघर्ष करता रहता है । न ही वह किसी अज्ञानमयी शक्ति का विशाल विस्मयकारी आत्मसृजन और आत्मप्रेरण है । वह ऐसा नहीं है जिसमें अपनी यात्रा के आरंभ-बिंदु और लक्ष्य का ज्ञान रखनेवाली, उसकी प्रक्रिया और गति को निर्देशित करनेवाली कोई गुप्त 'बुद्धि' न हो । एक सत्ता, जो अपने-आपसे पूर्ण रूप से अभिज्ञ है और इस कारण जिसे अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व प्राप्त है, वह इस ऐहिक सत्ता में निवर्तित रहती हैं और उसपर अधिकार किये रहती है, वह अपने-आपको रूप और आकार में चरितार्थ करती और व्यक्ति के अंदर अपने-आपको प्रस्फुटित करती है ।
वह ज्योतिर्मय आविर्भाव ही वह उषा है जिसकी आर्य पुरखे पूजा किया करते थे । उसकी निष्पादित पूर्णता ही जगद्व्यापी विष्णु का वह उच्चतम पद है जिसे उन्होंन मन के विशुद्धतम आकाश में फैले एक दिव्य चक्षु के रूप में देखा था । क्योंकि वह सब कुछ प्रकट करनेवाले, समस्त निर्देशन देनेवाले वस्तुओं के सत्य के रूप में पहले से मौजूद है जो सारे संसार पर नजर रखता है और मर्त्य मनुष्य को पहले तो उसके सचेतन मन की जानकारी के बिना, प्रकृति की सामान्य गति द्वारा
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और अंत में सचेतन रूप से क्रमश: जागरण और आत्म-विस्तार द्वारा अपने दिव्य आरोहण की ओर आकर्षित करता है । दिव्य जीवन की ओर आरोहण ही मानव यात्रा है, कर्मों का 'कर्म' और स्वीकार्य 'यज्ञ' है । जगत् में मनुष्य का यहीं सच्चा कार्य है, यही उसके जीवन का औचित्य है, इसके बिना वह बस एक रेंगता हुआ कीड़ा रह जायेगा जो भौतिक विश्व की भयानक विशालताओं के बीच सतही पानी और कीचड़ के संयोग से किसी तरह बने एक छोटे-से कण पर अन्य स्वल्पायु कीटों के बीच रेंगता रहेगा ।
वस्तुओं के इसी 'सत्य' को दृश्य जगत् के पारस्परिक विरोधों के बीच में से उभरना है । उस 'सत्य' के बारे में यह घोषित किया गया है कि वह अनंत 'आनंद' और आत्म-सचेतन 'सत्ता' है । वह सब जगह, सभी चीजों में, सब समय और समय के परे एक समान हैं । वह जानता है कि इन सब आभासों के पीछे वही है किंतु इन आभासों की क्रियाशीलता के तीव्रतम स्पंदन या इनकी विशालतम समग्रता उसे कभी पूरी तरह प्रकट नहीं कर सकती और न ही किसी तरह सीमित कर सकतीं है क्योंकि वह स्वयंभू है और अपनी सत्ता के लिये अपनी अभिव्यक्तियों पर निर्भर नहीं है । ये अभिव्यक्तियां उसका प्रतिनिधित्व करती हैं पर उसे निःशेष नहीं करतीं, उसकी ओर इशारा करती हैं पर उसे प्रकट नहीं कर सकतीं । इन सब रूपों में वह स्वयं अपने ही सामने प्रकट होता है । रूप में अंतर्लींन सचेतन सत्ता, अपने विकास के साथ-साथ अपने-आपको अंतर्भास, आत्म-दर्शन और आत्म-अनुभूति द्वारा जान पाती है । वह जगत् में अपने-आपको जानकर अपने-आप बनती है और अपने-आप बनकर अपने-आपको जानती हैं । इस भांति भीतर से अपने ऊपर अधिकार पाकर वह अपने रूपों और अपनी अवस्थाओं को सच्चिदानंद का सचेतन आनंद प्रदान करती है । मन, प्राण और शरीर में अनंत सच्चिदानंद की यह संभूति ही तो वह रूपांतर है जो अभीष्ट है और यही व्यष्टिगत सत्ता की उपयोगिता है --क्योंकि उनसे स्वतंत्र तो वह सदा ही बना रहता है । जैसे सच्चिदानंद ऐक्य के अंदर स्वरूप में रहता है उसी तरह व्यक्ति द्वारा संबंध में व्यक्त होता है ।
वेदांत की चरम प्रस्थापना है कि एक 'अज्ञेय' है जो अपने-आपको सच्चिदानंद के रूप में जानता है । बाकी सब कुछ इसके अंदर आ जाता है या इसपर निर्भर है । यही एक सच्चा अनुभव है जो नकारात्मक भाव द्वारा सभी दृश्य वस्तुओं के आकारों और आवरणों को हटा देने पर या सकारात्मक भाव द्वारा उनके नामों और रूपों को उनके भीतर समाये नित्य सत्य में घटा देने पर भी बना रहता है । जीवन की परिपूर्ति के लिये हो या जीवन के परे जाने के लिये और चाहे हमारा लक्ष्य शुद्धि, अचंचलता और आत्मा में स्वाधीनता हो या शक्ति, आनंद और पूर्णता, सच्चिदानंद ही वह अज्ञात, सर्वव्यापक, अनिवार्य पद रहता है जिसके लिये मानव
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चेतना, ज्ञान और भावना में हो या सम्वेदन और कर्म में, निरंतर खोज करती रहती है ।
विश्व और व्यक्ति ऐसे दो मूल रूप हैं जिनमें अज्ञेय उतरता है और जिनके द्वारा उसके पास पहुंचा जा सकता है । क्योंकि अन्य मध्यवर्ती समुदाय इन्हींकी क्रिया-प्रतिक्रिया से पैदा होते हैं । परम सद्वस्तु का यह अवतरण अपने स्वभाव में आत्मगोपन होता है; और अवतरण में आनुक्रमिक स्तर होते हैं और गोपन में आनुक्रमिक आवरण । अनिवार्य रूप से प्रकटन आरोहण का रूप लेता है और अनिवार्य रूप से ही आरोहण और प्रकटन दोनों ही प्रगतिशील होते हैं । क्योंकि भगवान् के अवतरण में हर आनुक्रमिक स्तर मनुष्य के आरोहण के लिये एक पड़ाव होता है । अज्ञात भगवान् को छिपानेवाला हर परदा भगवान् के प्रेमी और भगवान् को खोजनेवाले के लिये उसके उद्घाटन का एक साधन बन जाता है । जड़ प्रकृति उस अंतरात्मा और 'भाव' के बारे में अचेतन होती है जो उसकी मूक और सशक्त जड़ समाधि में भी उसकी ऊर्जा की व्यवस्थित क्रियाशीलताओं को बनाये रखती है । जड़ प्रकृति की ऐसी लयबद्ध मूर्च्छा में से, जगत् संघर्ष करता हुआ, आत्म चेतना के तटों पर जूझते प्राण की अधिक तेज, विविधतापूर्ण और अव्यवस्थित लय में जा पहुंचता है । प्राण में से यह ऊपर मन की ओर प्रयास करता है जिसमें व्यक्ति स्वयं अपने और अपने जगत् की ओर जागता है और इस जागरण में विश्व को अपने सर्वोत्कृष्ट कार्य के लिये आवश्यक उत्तोलन मिल जाता है, उसे आत्म सचेतन व्यक्तित्व मिल जाता है । लेकिन मन इस कार्य को सिर्फ जारी रखने के लिये हाथ में लेता है, पूरा करने के लिये नहीं । वह तीक्ष्ण किंतु सीमित बुद्धिवाला श्रमिक है जो प्राण द्वारा दी गयी अस्तव्यस्त सामग्री को हाथ में ले, अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें सुधारकर, अनुकूल बनाकर, विविधरूप देकर और वर्गीकृत करके हमारी दिव्य मानवता के परम 'कलाकार' के हाथों में सौंप देता है । वह 'कलाकार' अतिमानस में निवास करता है क्योंकि अतिमानस ही अतिमानव है । अत: हमारे जगत् को अभी मन के परे एक उच्चतर तत्त्व, एक उच्चतर स्थिति, एक उच्चतर क्रियाशीलता में उठना है जहां विश्व और मानव उस चीज के प्रति सचेतन होते और उसे अपने अधिकार में लेते हैं जो वे दोनों सचमुच हैं और इसलिये दोनों एक दूसरे को स्पष्ट रूप से जानते और एक दूसरे के साथ सामंजस्य में एक हो जाते हैं ।
भौतिक से अधिक पूर्ण व्यवस्था के रहस्य को पहचान लेने से प्राण और मन की अव्यवस्थाएं समाप्त हो जाती हैं । प्राण और मन के नीचे स्थित जड़तत्त्व अपने अंदर शांति की पूर्ण समस्थिति और अपरिमेय ऊर्जा की क्रिया के बीच संतुलन तो रखता है परंतु वह जिसे अपने अंदर धारण किये हुए है उसका स्वामी नहीं है । उसकी शांति एक धुंधले तमसू का निस्तेज मुखौटा पहने रहती है, एक अचेतन या
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यूं कहें स्वापक द्वारा लायी गयी बंदी चेतना की नींद होती है । वह एक ऐसी शक्ति से परिचालित होता है जो उसकी वास्तविक आत्मा है लेकिन अभी वह न तो उसका आशय पकड़ पाता है न उसमें भाग ले सकता है । उसके अंदर अपनी सामंजस्यपूर्ण ऊर्जाओं का जाग्रत् आनंद नहीं है ।
प्राण और मन अपनी इस कमी के भाव की ओर प्रयत्न एवं खोज में लगे अज्ञान और अशांत एवं असंतुष्ट कामना के रूप में जाग्रत् होते हैं । ये आत्मज्ञान और आत्मपरिपूर्ति की ओर प्रथम चरण हैं । परंतु तब उनकी आत्मपरिपूर्ति का राज्य कहां है ? यह उनके अंदर स्वयं अपना अतिक्रमण करने से आता है । मन और प्राण के परे हम सचेतन रूप से उस चीज को उसके अपने दिव्य सत्य में पाते हैं जिसे जड़ प्रकृति का संतुलन मोटे रूप में प्रदर्शित कर रहा था --एक ऐसी शांति जो न तो तमस् है न चेतना की मुहरबंद समाधि बल्कि पूर्ण शक्ति और पूर्ण आत्माभिज्ञता का केंद्रीकरण है और अपरिमेय ऊर्जा कीं क्रिया है जो साथ-ही-साथ अनिर्वचनीय आनंद का अतिरेक भी है क्योंकि उसकी हर एक क्रिया, किसी अभाव और अज्ञानपूर्ण प्रयास की नहीं बल्कि पूर्ण शांति और आत्मप्रभुता की अभिव्यक्ति है । इस उपलब्धि में हमारा अज्ञान उस प्रकाश को पाता है जिसका वह तमसाच्छन्न या आंशिक प्रतिबिंब था । हमारी कामनाएं उस प्रचुरता और परिपूर्णता में समाप्त हो जाती हैं जिसकी ओर ये अपने अत्यधिक जड़ भौतिक रूप में भी धूमिल और क्षीण अभीप्साएं थीं ।
अपने आरोहण में व्यक्ति और विश्व दोनों एक दूसरे के लिये जरूरी हैं । वस्तुतः वे दोनों सदा ही एक दूसरे के लिये जीते और एक दूसरे से लाभ उठाते हैं । विश्व देश और काल में दिव्य सर्व का विस्तार है और व्यष्टि देश और काल की सीमाओं में उसका केंद्रीकरण । विश्व अनंत विस्तार में दिव्य समग्रता को खोजता है जिसे वह अपना स्वरूप अनुभव करता है परंतु पूरी तरह पा नहीं सकता क्योंकि विस्तार में सत्ता अपने ही बहुसंख्यक कुलयोग की तरफ बढ़ती है जो न तो उसकी मूल और न अंतिम इकाई हो सकता है, वह हो सकता है केवल आदि और अंतहीन आवर्तक दशमलव । अतः वह अपने अंदर सर्व का एक आत्म-सचेतन केंद्रीकरण पैदा कर लेता है जिसके द्वारा वह अभीप्सा कर सकता है । सचेतन व्यक्ति के अंदर प्रकृति पुरुष को देखने के लिये पीछे मुड़ती है, 'जगत्' ' आत्मा' की खोज करता है । भगवान् पूरी तरह से प्रकृति बन जाते हैं और प्रकृति उत्तरोत्तर भगवान् होना चाहती है ।
और दूसरी ओर विश्व के द्वारा व्यष्टि को आत्मोपलब्धि की प्रेरणा मिलती है । विश्व केवल व्यष्टि का आधार, उसका साधन, उसका क्षेत्र, उसके भागवत कार्य का उपादान ही नहीं है बल्कि, चूंकि व्यष्टि सीमाओं के अंदर वैश्व जीवन का केंद्रीकरण भी है और चूंकि वह ब्रह्म के तीव्र ऐक्य की तरह समस्त बंधन और अवधि की
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धारणा से मुक्त नहीं है, उसे अनिवार्य रूप से अपने-आपको वैश्व और निर्वैयक्तिक बनाना होगा ताकि वह दिव्य सर्व को प्रकट कर सके जो उसकी वास्तविकता है । फिर भी जब वह चेतना की वैश्व स्थिति की ओर अपने-आपको अधिक-से-अधिक विस्तृत करे तब भी उससे यह मांग की जाती है कि वह रहस्यमय और परात्पर 'कुछ चीज' को बनाये रखे जिसका एक धुंधला-सा अहंकारमय चित्रण उसके व्यक्तित्व की भावना से मिलता है । अन्यथा वह अपना लक्ष्य चूक जाता है, जो समस्या उसके आगे रखी गयी थी वह हल नहीं होती, जिस दिव्य कर्म के लिये उसने जन्म लेना स्वीकार किया था वह पूरा नहीं होता ।
विश्व व्यक्ति के पास जीवन के रूप में, एक ऐसी क्रियाशीलता के रूप में आता है जिसके सारे रहस्य पर उसे अधिकार करना है, टकरानेवाले परिणामों के समूह व संभाव्य ऊर्जाओं के भंवर के रूप में आता है जिसमें से किसी परम व्यवस्था और अभीतक अप्राप्त सामंजस्य को उसे मुक्त करना है । आखिर यही तो मनुष्य की प्रगति का वास्तविक आशय है । भौतिक प्रकृति अभीतक जो कुछ प्राप्त कर चुकी है, यह उसीको थोड़े-से हेर-फेर के साथ दोहराना नहीं है । मानव जीवन का आदर्श मानसिकता के उच्चतर स्तर पर पशु की पुनरावृत्ति मात्र भी नहीं हो सकता । अन्यथा ऐसी कोई भी पद्धति या व्यवस्था जो कामचलाऊ सुख और साधारण से मानसिक संतोष का आश्वासन दे पाती हमारी प्रगति को रोक देती । पशु थोड़ी-सी आवश्यकताओं की पूर्ति से संतुष्ट रहता है और देवता अपने वैभव से संतुष्ट रहते हैं लेकिन मनुष्य तबतक स्थायी रूप से विश्राम नहीं कर सकता जबतक कि वह किसी उच्चतम शुभ या श्रेय तक न पहुंच जाये । वह जीवित प्राणियों में सबसे महान् है क्योंकि चह सबसे अधिक असंतुष्ट है, क्योंकि वह सीमाओं का दबाव सबसे अधिक अनुभव करता है । शायद एक वही है जिसे किसी सुदूर आदर्श के लिये दिव्य पागलपन पकड़ सके ।
प्राणमय पुरुष के लिये मुख्य रूप से 'मनुष्य' या पुरुष ही वह व्यक्ति है जिसमें उसकी अपनी संभाव्यताएं केंद्रित होती हैं । मनुष्य के पुत्र में ही भगवान् को अपने अंदर अवतरित करने की पूर्ण क्षमता है । मनुष्य ही प्राचीन मुनियों का मनु चिंतक, मनोमय पुरुष या मन में स्थित अंतरात्मा है । यह केवल एक उच्च कोटि का स्तनपायी पशु ही नहीं है बल्कि एक कल्पना करनेवाली अंतरात्मा है जो जड़तत्त्व में पाशविक शरीर को अपना आधार बनाती है । वह एक सचेतन नाम या न्यूमेन (नाम देवता, दिव्य शक्ति) है जो रूप को एक ऐसे साधन की तरह स्वीकार करता और उपयोग में लाता है जिसके द्वारा 'पुरुष' द्रव्य के साथ व्यवहार कर सकता है । जड़ पदार्थ में से उभरनेवाला पाशविक जीवन उसके अस्तित्व की एक निम्नतर अवस्था है । विचार, अनुभव, इच्छा, सचेतन प्रवर्तन का जीवन, जिसकी समग्रता को हम मन कहते हैं, जो जड़ पदार्थ और उसकी प्राणिक ऊर्जाओं को पकड़कर
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उन्हें अपने प्रगतिशील रूपांतर के विधान के आधीन करने का प्रयास करता हैं, यह वह बीच की स्थिति है जिसमें वह अपना प्रभावकारी आसन जमाता है । लेकिन ऐसी ही एक उच्चतर स्थिति भी है जिसकी मनुष्य का मन खोज करता है ताकि उसे पाकर वह अपनी मनोमय और भौतिक सत्ता में उसे प्रतिष्ठित कर सके । यह व्यावहारिक प्रस्थापना ही मानव सत्ता में दिव्य जीवन का आधार है कि उसके वर्तमान स्वरूप से तत्त्वत श्रेष्ठतर कोई वस्तु है ।
जब मनुष्य अपने बारे में अपनी प्रथम मानसिक धारणा से अधिक गहरे ज्ञान की ओर जाग्रत् होता है तो वह किसी ऐसे सूत्र की कल्पना करने लगता है और किसी ऐसी चीज का अनुभव करने लगता है जिसकी उसे प्रस्थापना करनी है । लेकिन उसे लगता है कि वह चीज अपने दो नकारों के बीच लटक रही है । जब वह अपनी वर्तमान उपलब्धि के परे स्थित इस आत्मचेतन अनंत सत्ता की शक्ति, ज्योति और आनंद को देखता है या उसके स्पर्श में आता है और उसे अपने मन के लिये सुगम विचार या अनुभूति की भाषा में अनूदित करता है--अनंतता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, अमरता, स्वतंत्रता, प्रेम, आनंद, भगवान् के रूप में--फिर भी उसकी दृष्टि का यह सूर्य दोहरी 'रात्रि' के बीच चमकता प्रतीत होता है, एक अंधकार नीचे और एक अधिक गहरा अंधकार परे । क्योंकि जब वह इसे पूरी तरह जानने की कोशिश करता है तो ऐसा मालूम होता है कि वह किसी ऐसी चीज में चला जाता है जिसे इनमें से कोई भी एक परिभाषा या सब मिलकर किसी तरह चित्रित नहीं कर सकतीं । अंत में उसका मन भगवान् को एक 'परे' के लिये अस्वीकार कर देता है या कम-से-कम उसे ऐसा लगता है कि भगवान् अपना अतिक्रमण कर रहे हैं, जैसी कल्पना की जाती है उससे अपने-आपको नकार रहे हैं । यहां भी, जगत् में, अपने अंदर और अपने चारों ओर, उसकी भेंट हमेशा अपनी प्रस्थापना के विरोधी तत्त्वों से होती है । मृत्यु सदा उसके साथ रहती है । सीमाएं उसकी सत्ता और अनुभूतियों को घेरे रहती हैं, भूल-भ्रांति, निश्चेतना, दुर्बलता, तमस् दुःख, कष्ट, पीड़ा, अशुभ उसके प्रयास में निरंतर बाधा पहुंचानेवाले रहे हैं । यहां भी वह भगवान् को अस्वीकार करने के लिये विवश होता है या कम-से-कम ऐसा लगता है कि स्वयं भगवान् अपना निषेध कर रहे हैं या अपने-आपको ऐसी प्रतीति व परिणाम के अंदर छिपा रहे हैं जो सत्य तथा शाश्वत सद्वस्तु से भिन्न है ।
और इस नकार के सूत्र उस दूसरे दूरवर्ती नकार की तरह उसके मन के लिये अकल्पनीय और इस कारण स्वभावत: रहस्यमय, अज्ञेय नहीं हैं बल्कि वे ज्ञेय, ज्ञात और सुनिश्चित प्रतीत होते हैं, फिर भी रहते हैं रहस्यमय ही । वह नहीं जानता कि वे क्या हैं, उनका अस्तित्व क्यों है और वे कैसे अस्तित्व में आये । वह उनकी प्रक्रियाओं को जिस तरह वे उसपर असर डालती और उसे प्रतीत होती हैं देखता है ।
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परंतु वह उनकी तात्त्विक वास्तविकता की थाह नहीं ले पाता ।
शायद उनकी थाह नहीं ली जा सकती, शायद वे भी वास्तव में तत्त्वतः अज्ञेय हैं ? और यह भी हो सकता है कि तत्त्वतः उनकी कोई वास्तविकता न हो, वे एक भ्रांति, एक 'असत्' हों । कभी-कभी श्रेष्ठतर 'नास्ति' हमें 'शून्य' या असत् प्रतीत होता है, हो सकता है कि यह निम्नतर नास्ति भी अपने सार में शून्य या असत् ही हो । लेकिन जैसे इससे पहले हम उच्चतर 'असत्' की कठिनाई से बचने की राह छोड़ चुके हैं उसी तरह इस निम्नतर 'असत्' के संबंध में भी उसे छोड़ देते हैं । इस निम्नतर नकार की वास्तविकता से पूरी तरह इंकार करना या उसे केवल एक घोर भ्रांति मानना समस्या को अपने से अलग करना और अपने काम से बचना है । 'जीवन' के लिये ये सब चीजें जो भगवान् को नकारती प्रतीत होती हैं, सच्चिदानंद के विरोधी तत्त्व प्रतीत होती हैं, वास्तविक हैं चाहे वे अस्थायी ही क्यों न सिद्ध हों । ये और इनसे उल्टी चीजें शुभ, ज्ञान, आनंद, सुख, जीवन, अतिजीवन, शक्ति, बल, वृद्धि आदि जीवन की कार्यप्रणाली के असली उपादान है ।
निश्चय ही, यह संभव है कि ये सब किसी भ्रांति के नहीं, बल्कि किसी गलत संबंध के परिणाम हों, उससे कभी न बिछुड़नेवाले संगी हों । गलत इसलिये कि यह संबंध विश्व में व्यावेत क्या है इसकी गलत दृष्टि पर आधारित होता है और इस कारण भगवान् और प्रकृति, आत्मा और परिवेश के बारे में भी गलत मनोवृत्ति पर आधारित होता है । मनुष्य जो कुछ बन गया है उसका सामंजस्य न तो उस जगत् से है जिसमें वह निवास करता है और न उसके साथ जो उसे बनना चाहिये और वह बनेगा । इसीलिये मनुष्य वस्तुओं के गुप्त सत्य के इन विरोधों के आधीन होता है, ऐसी अवस्था में ये चीजें किसी पतन का दंड नहीं बल्कि प्रगति की शर्तें होती हैं । व्यक्ति को जो काम पूरा करना है, ये उसके प्रथम तत्त्व हैं । वह जिस मुकुट को जीतने की आशा करता है उसका दाम है जो उसे चुकाना होगा, वह संकरा मार्ग है जिससे प्रकृति जड़तत्त्व में से बच निकलकर चेतना में आती है । ये एक ही साथ प्रकृति का मुक्ति-धन और उसका मूल धन हैं ।
इन मिथ्या संबंधों में से और उनकी सहायता से ही सच्चे संबंध ढूंढ़ने होंगे । 'अज्ञान' या 'अविद्या' द्वारा हमें मृत्यु को पार करना होगा । वेद भी रहस्यमय भाषा में ऐसी ऊर्जाओं के बारे में कहते हैं जो अशुभ प्रेरणावाली, पथभ्रष्ट और अपने स्वामी को क्षति पहुचानेवाली नारियों के समान हैं, फिर भी, अपने-आप मिथ्या और दुःखी होते हुए भी ये ऊर्जाएं अंत में इस बृहत् सत्य का 'ऋतं बृहत्' का निर्माण करती हैं जो स्वयं आनंद है । तो, यह तब नहीं होगा जब वह अपनी प्रकृति में से नैतिक शल्य-क्रिया द्वारा अशुभ को काट फेंके या धृणा के साथ पीछे हटकर जीवन से किनारा कर ले बल्कि तब होगा जब व्यक्ति मृत्यु को एक अधिक पूर्ण जीवन
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में बदल दें, मानव सीमाओं की छोटी-छोटी चीजों को दिव्य विशालता की महान् चीजों में उठा ले, दुःख-दर्द को आनंद में रूपांतरित कर दें, अशुभ को उचित शुभ में बदल दें, भ्रांति और मिथ्यात्व को उनके गुप्त सत्य में अनूदित कर दे, तब जाकर यज्ञ का समापन होगा, यात्रा पूरी होगी, 'पृथ्वी' और 'स्वर्ग' समान होकर 'परम पुरुष' के आनंद में हाथ मिला सकेंगे ।
फिर भी ये विपरीतताएं एक से दूसरे में कैसे जा सकेंगी ? किस कीमिया से मर्त्यता का यह सीसा दिव्य सत्ता के सोने में बदलेगा ? लेकिन अगर वे अपने सार तत्त्व में विपरीत न हों ? अगर वे एक ही सद्वस्तु की अभिव्यक्तियां हों जिनका द्रव्य एक ही है ? तब निश्चय ही दिव्य रूपांतर की बात समझ में आती है ।
हम देख आये हैं कि, हो सकता है कि परे का असत् एक कल्पनातीत सत्ता हो और शायद अनिर्वचनीय आनंद हो । कम-से-कम बौद्ध धर्म का निर्वाण, जिसने इस उच्चतम असत् में पहुंचने और विश्राम करने के एक अत्यंत तेजोमय मानव प्रयास का प्रतिपादन किया, वह मुक्त होकर भी धरती पर रहनेवाले लोगों के मानस में अवर्णनीय शांति और सुख के रूप में चित्रित होता है । उसका व्यावहारिक प्रभाव है समज अहंकारमय भाव या संवेदन के लोपन द्वारा समस्त दुःख-दर्द का गायब हो जाना । और उसकी जिस निकटतम सकारात्मक कल्पनातक हम पहुंच सकते हैं वह यह कि वह एक अनिर्वचनीय 'परम आनंद' है (अगर इस नाम का या किसी और नाम का उपयोग इस तरह की अंतर्वस्तु-विहीन शांति के लिये किया जा सके) जिसमें अपने होने का भाव भी निगल लिया जाता है और गायब हो जाता है । यह एक ऐसा सच्चिदानंद है जिसके लिये हम सत् चित् और आनंद की परम संज्ञाओं का उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि वहां सभी संज्ञाएं रद्द हो जाती हैं और सभी संज्ञानात्मक अनुभूतियों का अतिक्रमण हो जाता है ।
दूसरी ओर हमने यह प्रस्ताव रखने का साहस किया है कि चूंकि सब कुछ एक ही सद्वस्तु है इसलिये यह निम्नतर नकार भी, सच्चिदानंद का यह दूसरा प्रतिवाद या असत्-भाव भी, स्वयं सच्चिदानंद के अतिरिक्त कुछ नहीं है । बुद्धि द्वारा उसकी कल्पना की जा सकतीं है, अंतर्दर्शन में उसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, संवेदन द्वारा उसे ग्रहण किया जा सकता है मानों सचमुच वह वही हो जिसे वह नकारता प्रतीत होता है । और यदि चीजें किसी बहुत बड़ी मौलिक भ्रांति द्वारा, किसी अभिभूत और विवश करनेवाले अज्ञान, माया या अविद्या द्वारा मिथ्या न कर दी जातीं तो हमारी सचेतन अनुभूति के लिये सदा ऐसा ही रहता । इस अर्थ में एक समाधान खोजा जा सकता है लेकिन शायद वह तार्किक मन के लिये संतोषजनक तत्त्वदर्शनात्मक समाधान न हो,-क्योंकि हम अज्ञेय, अनिर्वचनीय की सीमा-रेखा पर खड़े हैं और उसके परे देखने के लिये आंखों पर जोर डाल रहे हैं --परंतु वह दिव्य जीवन की साधना के लिये अनुभूति का एक समुचित आधार हो सकता है ।
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यह करने के लिये हमें चीजों की उन स्पष्ट सतहों के नीचे जाने का साहस करना चाहिये जिनपर रहना मन को सदा प्रिय लगता है । हमें विशाल और अंधकारमय को लुभाने का, चेतना की अथाह गहराइयों में पैठने का और सत्ता की ऐसी अवस्थाओं के साथ तादात्म्य करने का अभ्यास करना होगा जो हमारी अपनी नहीं हैं । ऐसी खोज में मानव भाषा सहायता देने लायक नहीं, किंतु हम उसमें कम-से-कम कुछ ऐसे संकेत और रूप पा सकते हैं, कुछ ऐसे अभिव्यक्त किये जा सकनेवाले संकेत लेकर लौट सकते हैं जो अंतरात्मा के प्रकाश को सहायता देंगे और मन पर उस अनिर्वचनीय आयोजन का प्रतिबिंब डालेंगे ।
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