दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
Translator:   Ravindra  PDF    LINK

अध्याय ५

 

विश्वमाया:

 

मन, स्वप्न और विभ्रम

 

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।

तू जो इस अनित्य और असुखी लोक में आया है, मुझे भज ।

                                            गीता १.३३

 

  आत्येति योऽयं विज्ञानमय:... हृद्यन्तज्याति: पुरुष: ।

स समान: सन्नुभौ लोकावनुसंचरति... स हि स्वप्सो भूत्वेमं

लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ।।

 

तथ्य वा एतस्थ पुरुषस्य द्वे एव क्याने भवत:, इदं च परलोकस्थानं

, ...

 

तस्मिन् सन्ध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यतीदं च परलोकस्थान च,

. . .  

 

स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय स्वयं विहत्य स्वयं

निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा, प्रस्वपित्यत्रायं पुरुष:

स्वयंज्योतिर्भवति ।।

 

न तत्र रथा न... पन्यानो भवन्ति, ...

न तत्रानन्दा मुद: प्रमुदो भवन्ति, ...

न तत्र वेशान्ता: पुष्करिण्य: स्रवच्चो भवन्ति,

अथ... सृक्ते स हि कर्त्ता ।।

 

स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्यासुप्त: सुप्तानभिचाकशीति ।।

प्राणेन रक्षत्रवरं कुलायं बहिष्कृलायादमृतचरित्वारित्वा ।

स ईयतेऽमृतो यत्र कामं हिरण्यमय: पुरुष एकहंस: ।।

... अथो खल्वाहु: ''जागरितदेश एवास्यैष इति यानि ह्मे

जाप्रत्पश्यति तानि सुप्त इति'', अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योतिर्भवति ।।

 

यह आत्मा विज्ञानमय है, हृदय में अंतज्याति है, वह सत्ता की सभी

अवस्थाओं में समान रूप से चिन्मय पुरुष है और दोनों लोकों में

विचरण करता है । वह स्वप्न-पुरुष बन जाता है और इस जगत्

तथा उसके मृत्यु-रूपों के परे चला जाता है... इस सचेतन

पुरुष के दो स्तर हैं, इहलोक और परलोक । तीसरा स्थान उन दोनों

का संधि-स्थल है, यह स्वप्नावस्था है । जब वह इस संधि-स्थल पर

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खड़ा होता है तो वह अपनी सत्ता के दोनों स्तरों को, इहलोक और

परलोक को देखता है । जब वह सोता है तो सबको अपने अंदर

रखनेवाले इहलोक के पदार्थ को लेता और आत्म-दीप्ति से, आत्म

ज्योति से अपने-आप ही तोड़ता और बनाता है । जब यह पुरुष

सोता है तो आत्म-ज्योति से ज्योतिर्मय हो जाता है... वहां

कोई मार्ग नहीं, रथ नहीं हैं, न हर्ष हैं न सुख, न तालाब हैं न

तलैया और न ही नदियां । लेकिन वह अपने ही प्रकाश से उनकी

रचना करता है क्योंकि वही रचयिता है, वह नींद द्वारा शरीर का

त्याग करता है और बिना सोये उन्हें देखता है जो सोये हुए हैं ।

अपने प्राण-वायु से वह इस निचले घोंसले की रक्षा करता है और

अमृतस्वरूप अपने घोंसले से बाहर चला जाता है । वह

अमृतस्वरूप, हिरण्यमय पुरुष, एकाकी हंस जहां चाहता है चला

जाता है । कहते हैं, ''केवल जाग्रत् देश ही उसका है क्योंकि वह

जिन चीजों को जाग्रत् अवस्था में देखता है उन्हींको वह निद्रा में

देखता है । लेकिन वहां वह अपनी आत्म-ज्योति है ।''

वृहदारण्यकोपनिषद् ४. ३-७, ९-१२, १४

 

... दृष्ट चादृष्ट च... अनुभूत चाननुभूतं च,

सच्चसच्चु सर्वं पश्यति, सर्व: पश्यति ।।

 

जो कुछ दिखायी देता है और जो नहीं दिखायी देता, जो अनुभव

किया गया है और जिसका अनुभव नहीं किया गया, जो है और जो

नहीं है -वह सबको देखता है । वह सर्व है और सब कुछ देखता

है ।

प्रश्नोपनिषद् ४. ५

 

समस्त मानव विचार, मनोमय मनुष्य का समस्त अनुभव निरंतर अस्ति और नास्ति के बीच घूमता रहता है । उसके मन के लिये भाव का ऐसा कोई सत्य, अनुभूति का ऐसा कोई परिणाम नहीं है जिसकी पुष्टि न की जा सके, ऐसा कोई नहीं है जिसका प्रतिवाद न किया जा सके । उसने व्यक्तिगत सत्ता के अस्तित्व का खंडन किया है, विश्व के अस्तित्व का खंडन किया है, किसी अंतस्थ या मूलगत सद्वस्तु का खंडन किया है, व्यष्टि और विश्व के परे किसी सद्वस्तु का खंडन किया है पर साथ ही सतत रूप से इनका समर्थन भी करता रहा है -कभी इनमें से किसी एक का, कभी किन्हीं दो का और कभी सबका मिलाकर । उसे ऐसा करना पड़ता है क्योंकि हमारा विचारशील मन अपनी प्रकृति से ही संभावनाओं का अज्ञानी व्यापारी है जिसे इनमें से किसीके पीछे के सत्य पर अधिकार प्राप्त नहीं है, लेकिन वह बारी-बारी से या कइयों की एक साथ थाह लेता और जांच करता रहता है ताकि

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कहीं अकस्मात् वह उनके बारे में किसी निश्चित विश्वास या ज्ञान, किसी निश्चयतातक पहुंच जाये । फिर भी सापेक्षों और संभावनाओं के जगत् में निवास करते हुए वह किसी अंतिम निश्चयतक, किसी निरपेक्ष और स्थायी विश्वासतक नहीं पहुंच सकता । इतना ही नहीं, वास्तविक, उपलब्ध भी हमारी मानसिकता के आगे 'स्याद् वा न स्याद् वा', 'हो सकता है और नहीं भी हो सकता' के रूप में प्रस्तुत कर सकता है या 'ऐसा हो' के रूप में उपस्थित हो सकता है जो 'न हुआ हो' की छाया में हो और भविष्य में न होनेवाले का रूप धारण किये हो । हमारी जीवन सत्ता भी उसी अनिश्चित से पीड़ित है । वह जीवन के ऐसे किसी लक्ष्य में नहीं रह सकती जहां से वह निश्चित या अंतिम संतोष पा सके या जिसे वह कोई स्थायी मूल्य दे सके । हमारी प्रकृति ऐसे तथ्यों और वास्तविकताओं से शुरू होती है जिन्हें वह सच्चा मानती है । वह उनसे परे अनिश्चित संभावनाओं की खोज में धकियायी जाती है और अंत में ऐसी हालत में आती है जहां उसने जिन चीजों को वास्तविक माना था उन सब पर प्रश्न करती है । क्योंकि वह आधारभूत अज्ञान से शुरू होती है और निश्चित सत्य पर उसकी कोई पकड़ नहीं होती । वह जिन सत्यों पर कुछ समय के लिये भरोसा करती है वे सब एकांगी, अपूर्ण और संदिग्ध निकलते हैं ।

 

   प्रारंभ में मनुष्य अपने भौतिक मन में निवास करता है जो, जो कुछ वास्तविक, भौतिक और विषयरूप है उसे देखता और तथ्य रूप में और इस तथ्य को संदेह के परे स्वयं-सिद्ध सत्य मान लेता है । जो कुछ वास्तविक नहीं है, भौतिक नहीं है, विषयगत नहीं है उसे वह अवास्तविक या अनुपलब्ध मानता है, जिसे पूरी तरह वास्तविक तभी माना जा सकता है जब वह प्रत्यक्ष होने में, भौतिक तथ्य होने में, विषयगत होने में सफल हो जाये । वह अपनी सत्ता को भी वस्तुनिष्ठ तथ्य मानता है, उसे इसलिये वास्तविक ठहराता हैं क्योंकि उसका अस्तित्व एक दृश्य और इन्द्रियग्राह्य शरीर में हैं । वह अन्य सभी आत्मनिष्ठ सत्ताओं और वस्तुओं को वहींतक मानता है जहांतक वे हमारी बाहरी चेतना के विषय बन सकती हैं या हमारी बुद्धि का वह भाग उन्हें स्वीकार करता है जो उस चेतना के दिये न् तथ्यों के आधार पर रचना करता और उन्हें ज्ञान का एकमात्र ठोस आधार मानकर उनपर निर्भर रहता है । भौतिक विज्ञान इसी मानसता का एक विस्तृत फैलाव है । वह, जो तथ्य और वस्तुएं हमारी शारीरिक इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं हैं, उन्हें वस्तुनिष्ठता के क्षेत्र में लाने के साधनों का आविष्कार करके इन्द्रियों की भूलों को सुधारता और ऐन्द्रिय मन की प्रथम सीमाओं को आगे धकेल देता है । लेकिन वास्तविकता के लिये उसके पास भी वही मानदंड है, वस्तुनिष्ठ, भौतिक यथार्थता; वास्तव के लिये उसकी कसौटी है वस्तुनिष्ठ बुद्धि और बाहरी साक्ष्य द्वारा जांच ।

 

   लेकिन मनुष्य का एक प्राण-मन, एक प्राणिक मानसिकता भी है जो कामना का उपकरण है । यह वास्तविक से संतुष्ट नहीं होता, वह संभावनाओं का व्यापारी है,

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उसे नवीनता के लिये अनुराग होता है और वह कामना की संतुष्टि के लिये, भोग के लिये, परिवर्धित आत्म-पोषण के लिये, अपने बल और लाभ के क्षेत्र के विस्तार के लिये हमेशा अनुभव की सीमाओं को बढ़ाने की कोशिश करता रहता है । वह वास्तविकताओं की कामना करता, उनका भोग करता और उन पर अधिकार करता है लेकिन अप्राप्त संभावनाओं का पीछा भी करता है । वह उन्हें मूर्त रूप देने, अधिकार में लाने और उनका भोग करने के लिये भी उत्कण्ठित रहता है । वह भौतिक और विषयगत से ही संतुष्ट नहीं होता बल्कि आत्मनिष्ठ, काल्पनिक, शुद्ध रूप से भावात्मक संतोष और सुख की भी चाह करता है । अगर यह तत्त्व न होता, मनुष्य का भौतिक मन अपने-आप पर छोड़ दिया गया होता तो वह पशु की तरह रहता, अपने प्रथम वास्तविक भौतिक जीवन और उसकी सीमाओं को ही अपनी पूरी संभावना मानकर जड़ भौतिक प्रकृति की प्रतिष्ठित व्यवस्था में ही घूमता रहता और उसके परे किसी चीज की मांग न करता । लेकिन यह प्राणिक मन, यह चंचल प्राणिक इच्छा अपनी मांगों के साथ आती है और इस जड़ या नियत संतोष में, जो वास्तविकता के घेरे में बंद रहता है, उथल-पुथल कर देती है । वह प्राणिक मन सदा कामना और लालसा को बढ़ाता है, असंतोष, बेचैनी पैदा करता है, जीवन जो कुछ दे सकने के योग्य मालूम होता है उससे अधिक की तलाश करता है । वह हमारी ऐसी संभावनाओं को वास्तविक बनाता है जो अभी चरितार्थ नहीं हुई, इससे वह भौतिक वास्तविकताओं के क्षेत्र को खूब फैलाता है, साथ ही सतत अधिकाधिक के लिये मांग, विजय के लिये नये-नये जगतों की खोज, परिस्थितियों के घेरे का अतिक्रमण करने के लिये और अपने अतिक्रमण के लिये एक अनवरत प्रवृत्ति में लगा रहता है । बेचैनी और अनिश्चय के इस कारण को बढ़ाने के लिये विचारशील मन आ जाता है जो हर चीज के बारे में प्रश्न करता है, हर चीज के बारे में खोज करता है, प्रतिपादन बनाता और तोड़ता है, निश्चयता की पद्धतियां खड़ी करता है लेकिन अंत में उनमें से किसी को निश्चित नहीं मानता, इन्द्रियों की साक्षी की पुष्टि करता और उनपर प्रश्न करता है, बुद्धि के निष्कर्षों का अनुसरण करता और फिर उन्हें ढा देता और फिर उनसे भिन्न या एकदम विपरीत निष्कर्षों पर पहुंचता है और फिर अगर अनंत कालतक नहीं तो अनिश्चित कालतक इस क्रिया को चलाता रहता है । मानव विचार और मानव प्रयास का यही इतिहास है । वह सदा सीमाओं को तोड़ता है लेकिन फिर उन्हीं कुंडलियों में घूमता रहता है । ये कुंडलियां शायद ज्यादा बड़ी होती जाती हैं लेकिन घुमावों की दिशा वह की वही या सदा एक जैसी रहती है । मानव जाति का मन सदा खोज करता, सक्रिय रहता है और कभी जीवन के लक्ष्यों और उद्देश्यों की दृढ़, स्थिर सत्यता या अपनी ही निश्चितताओं और दृढ़ धारणाओं की स्थिर सत्यता पर, जीवनसंबंधी अपने भाव के किसी प्रतिष्ठित आधार या दृढ़ रूपायण पर नहीं पहुंचता ।

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   इस सतत बेचैनी और कठोर श्रम के किसी विशेष बिंदु पर भौतिक मन भी अपनी विषयगत निश्चयता पर विश्वास खो बैठता है और एक ऐसे अज्ञेयवाद में प्रवेश करता है जो जीवन और ज्ञानसंबंधी उसके अपने सभी मानदंडों पर प्रश्न करने लगता है और शंका करता है कि क्या यह सब वास्तविक है या फिर क्या सब कुछ, चाहे वास्तविक भले हो, व्यर्थ नहीं है । प्राणिक मन जीवन से चकराकर और अवसाद में पड़कर या अपने सभी संतोषों से असंतुष्ट होकर गहरी जुगुप्सा और निराशा से पराभूत होकर देखता है कि सब कुछ व्यर्थ है, आत्मा के लिये परेशानी है और जीवन तथा अस्तित्व को अयथार्थ मानकर, वह जिन चीजों के पीछे भाग रहा था उन सबको भ्रम या माया मानकर त्याग देने के लिये तैयार हो जाता है । विचारशीले मन अपने सभी प्रतिपादनों को तोड़ता हुआ यह पता लगाता है कि ये सब मानसिक रचनाएं भर हैं और उनमें कोई वास्तविकता नहीं है या अगर कोई वास्तविकता है भी तो वह ऐसी चीज है जो इस अस्तित्व के परे है, कोई ऐसी चीज है जो अभीतक बनी या निर्मित नहीं हुई, कोई ऐसी चीज जो निरपेक्ष और शाश्वत है -वह सब जो सापेक्ष है, वह सब जो कालिक है वह स्वप्न है, मन का भ्रम या बहुत बड़ा प्रलाप, एक विराट् वैश्व भ्रांति, प्रतीयमान अस्तित्व का भ्रामक रूप है । नास्ति का सिद्धांत अस्ति के सिद्धांत पर हावी हो जाता है और सार्वभौम तथा परम बन जाता है । उसी से जगत् को नकारनेवाले महान् धर्मों और दर्शनों का उत्थान होता है, वहीं से जीवन-प्रेरणा की अपने प्रति जुगुप्सा और अन्यत्र निर्दोष और शाश्वत जीवन की तलाश या स्वयं जीवन को एक अचल सद्वस्तु या मूल असत् में समाप्त कर देने की इच्छा पैदा होती है । भारत में जगत्-नास्ति के दर्शन का बहुत सशक्त और मूल्यवान निरूपण किया है उसके सबसे बड़े मनीषियों में से दो -बुद्ध और शंकर -ने । मध्यवर्ती और परवर्ती काल में ऐसे काफी महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हुए हैं जिन्होंने इन दो महान् दार्शनिक सिद्धांतों के निष्कर्षों का कम या अधिक शक्ति और सफलता के साथ खंडन किया है । उनमें से कुछ व्यापक रूप से स्वीकृत हुए प्रतिभाशाली और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टिवाले लोगों द्वारा विचार-विदग्धता के साथ प्रतिपादित हुए लेकिन उनमें से कोई भी बुद्ध या शंकर की निरूपण शक्ति के साथ उपस्थित नहीं किया गया और न किसी के पीछे इतने महान् लोगों की ऊर्जस्विता थी और न किसी का इतना अधिक प्रभाव ही पड़ा । इन दो विलक्षण आध्यात्मिक दर्शनों की भावना -क्योंकि भारतीय दार्शनिक मानस की ऐतिहासिक प्रक्रिया में शंकर बुद्ध को लेकर उन्हें पूर्ण करते और उनका स्थान ले लेते हैं -भारतीय विचार-धारा, धर्म और सामान्य मानस पर बहुत जोर से प्रभाव डालती रही है, हर जगह अपनी प्रबल छाया डालती रही है, हर जगह उन तीन महान् सूत्रों की छाप दिखायी देती है -वे हैं, कर्म-शृंखला, पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा और माया । अतः यह जरूरी है कि वैश्व सत्ता के नकार के पीछे के सत्य

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पर एक बार और दृष्टि डाली जाये और चाहे जितने संक्षेप में क्यों न हो यह देखा जाये कि उसके मुख्य रूपायणों का या सुझावों का क्या मूल्य है, वे किस वास्तविकता के आधार पर खड़े हैं और वे बुद्धि या अनुभव के लिये कहांतक अनिवार्य हैं । अभी के लिये इतना काफी होगा कि उन मुख्य भावों पर नजर डाली जाये जिन्हें महान् वैश्व भ्रांति, माया की धारणा के चारों ओर संगठित किया गया है उनके विरुद्ध हमारे विचार और दर्शन की धारा के अनुकूल मुख्य भावों को रखा जाये क्योंकि दोनों एक ही सद्वस्तु की धारणा से पैदा हुए हैं लेकिन एक धारा वैश्व भ्रांति और दूसरी वैश्वद्वस्तुवाद की ओर ले जाती है -एक में अवास्तव या वास्तविक-अवास्तविक विश्व एक विश्वातीत सद्वस्तु पर आश्रित है, दूसरी में वास्तविक विश्व एक ऐसी सद्वस्तु पर आश्रित है जो एक ही साथ वैश्व और परात्पर या निरपेक्ष है ।

 

   अपने-आपमें प्राणिक सत्ता की जीवन-विमुखता, प्राणिक मन की जीवन-विरक्ति को प्रामाणिक या निर्णायक नहीं माना जा सकता । उसके पीछे सबसे प्रबल प्रेरक तत्त्व हैं निराशा का बोध, कुंठा की भावना की स्वीकृति जो आदर्शवादी की स्थिर आशा, उसकी श्रद्धा और चरितार्थ करने के संकल्प की अपेक्षा अधिक निर्णायक होने का दावा नहीं कर सकती । फिर भी कुंठा के भाव के मानसिक समर्थन में कुछ सचाई है । विचारशील मन जिस प्रत्यक्ष बोध पर पहुंचता है कि सभी मानव प्रयत्नों और पार्थिव प्रयासों के पीछे एक भ्रम है, मनुष्य के राजनीतिक और सामाजिक सिद्धांतों का भ्रम, पूर्णता के लिये नैतिक प्रयत्नों का भ्रम, लोकोपकार और सेवा का भ्रम, कर्म का भ्रम, यश, शक्ति और सफलता का भ्रम, उसकी सभी प्राप्तियों का भ्रम; इसमें कुछ वैधता है । मनुष्य का सामाजिक और राजनीतिक प्रयास हमेशा एक चक्कर में घूमता रहता है और वह कहीं नहीं पहुंचाता । मनुष्य का जीवन और स्वभाव जैसा-का-वैसा बना रहता है, हमेशा अपूर्ण । न तो नियम न परम्पराएं न शिक्षा न दर्शन, न नैतिकता, न धार्मिक उपदेश पूर्ण मानव, पूर्ण मानवता की तो बात ही अलग है, पैदा करने में सफल हुए हैं । कहा गया है कि कुत्ते की दुम को तुम जितना चाहे सीधा करो, वह हमेशा फिर से अपना स्वाभाविक टेढ़ापन ले आयेगी । परोपकार, लोकोपकार और सेवा ने, ईसाई प्रेम या बौद्ध करुणा ने जगत् को लेश मात्र भी ज्यादा सुखी नहीं बनाया है । वे क्षणिक राहत के अत्याणविक टुकड़े इधर-उधर फैला देते हैं, जगत् के दुःख की आग पर कुछ बूंदें डालते हैं । अंत में जाकर सभी लक्ष्य क्षणिक और व्यर्थ हैं, सभी उपलब्धियां असंतोष-जनक या क्षणिक होती हैं, सभी काम प्रयत्न, सफलता और असफलता का श्रम ही होते हैं जिसमें कोई निश्चित सिद्धि नहीं होती । मानव जीवन में जो भी परिवर्तन लाये गये हैं वे केवल रूप के हैं और ये रूप एक व्यर्थ चक्र में एक-दूसरे का पीछा करते हैं क्योंकि जीवन का सारतत्त्व, उसका सामान्य

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स्वभाव हमेशा वह-का-वही रहता है । चीजों की इस दृष्टि में अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन उसमें एक ऐसी शक्ति है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता । इसे मनुष्य के शताब्दियों के अनुभव का समर्थन प्राप्त है और यह अपने अंदर एक ऐसा अर्थ लिये रहता है जो कभी-न-कभी मन में स्वतः - प्रमाण के अभिभूतकारी रंग-ढंग लेकर आता है । केवल इतना ही नहीं बल्कि अगर यह सच है कि पार्थिव जीवन के आधारभूत नियम और मूल्य निश्चित हैं या उसे बार-बार घूमते रहनेवाले चक्रों में दोहराते रहना हो -और यह लंबे अरसे से प्रचलित धारणा रही है -तब अंत में वस्तुओं के बारे में इस दृष्टि से मुश्किल से ही बचा जा सकता है क्योंकि अपूर्णता, अज्ञान, कुंठा और दुःख वर्तमान जगत्-व्यवस्था में प्रधान अंग हैं और उनके विपरीत तत्त्व-ज्ञान, सुख, सफलता, पूर्णता-हमेशा भ्रामक और अनिश्चायक निकलते हैं । ये दोनों विपरीत तत्त्व इतने जटिल रूप से घुले-मिले हैं कि अगर चीजों की यह अवस्था एक महत्तर परिपूर्णता की ओर गति न होती, अगर जगत्-व्यवस्था का यहीं स्थायी स्वभाव होता तो इस परिणाम से बचना कठिन हो जाता कि यहां जो कुछ है सब या तो निश्चेतन ऊर्जा की सृष्टि है, और इससे यह बात समझ में आ सकती है कि प्रतीयमान चेतना किसी निश्चय पर पहुंचने में अक्षम क्यों है, या फिर यह जान-बूझ कर अग्निपरीक्षा और असफलता का जगत् है जिसका परिणाम यहां नहीं, अन्यत्र है या यह एक विस्तृत लक्ष्यहीन वैश्व भ्रम है ।

 

   इन वैकल्पिक निष्कर्षों में से दूसरा, जैसा कि वह हमारे सामने रखा जाता है, दार्शनिक तर्क के लिये कोई आधार नहीं देता क्योंकि हमें इहलोक और परलोक के बीच संबंध का कोई संतोषजनक संकेत नहीं मिलता । उन दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा तो कर दिया जाता है लेकिन उनके संबंधों की अनिवार्यता की कोई व्याख्या नहीं की जाती और न ही अग्निपरीक्षा और असफलता के आधारभूत अर्थ या आवश्यकता पर ही प्रकाश डाला जाता है । अगर हम इसे किसी स्वेच्छाचारी स्रष्टा की रहस्यमयी इच्छा न मानें तो यह बात केवल तभी समझ में आ सकती है जब हम कहें कि अमर जीवों ने अज्ञान के अभियान का परीक्षण अपनी इच्छा से चुना है और उनके लिये यह जरूरी था कि वे अज्ञान-जगत् की प्रकृति का पता लगायें ताकि वे उसे त्याग सकें । लेकिन ऐसा सर्जनात्मक हेतु निश्चय ही आनुषंगिक और प्रभाव में एकदम अस्थायी होता है, पृथ्वी उसके अनुभव का एक आकस्मिक क्षेत्र ही होगी । वह इस जटिल विश्व के विशाल और स्थायी प्रपंच की व्याख्या मुश्किल से ही कर सकेगा । यह तभी एक संतोषजनक व्याख्या का क्रियात्मक भाग बन सकता है जब जगत् किसी महत्तर सृजन के हेतु के क्रियान्वित होने का क्षेत्र हो, वह किसी दिव्य सत्य या दिव्य संभावना की अभिव्यक्ति हो जिसमें अमुक अवस्थाओं में, आवश्यक तत्त्व के रूप में आरंभ करनेवाले अज्ञान का प्रवेश होता हो और जब विश्व-व्यवस्था में यह बाध्यता हो कि अज्ञान ज्ञान की ओर बढ़े,

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अपूर्ण अभिव्यक्ति पूर्णता में विकसित हो, कुंठा अंतिम विजय की ओर सीढ़ी का काम दे, दुःख सत्ता के दिव्य आनंद के उभरने की तैयारी करे; उस अवस्था में निराशा, कुंठा, सभी वस्तुओं की व्यर्थता और भ्रम के स्वभाव में वैधता नहीं रह जाती क्योंकि जो पक्ष उसे उचित ठहराते हैं हैं कठिन विकास की स्वाभाविक परिस्थितियां होंगे; संघर्ष और प्रयास, सफलता-असफलता, सुख और दुःख, ज्ञान और अज्ञान के मिश्रण पर दिया जानेवाला सारा जोर अंतरात्मा, मन, प्राण और शारीरिक भाग के आध्यात्मिक पूर्ण सत्ता के पूर्ण प्रकाश में विकसित होने के लिये जरूरी अनुभव होगा । वह अपने-आपको विकसनशील अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के रूप में प्रकट करेगा । किसी स्वेच्छाचारी सर्वशक्तिमत्ता के आदेश या वैश्व भ्रम या निरर्थक माया की सनक की जरूरत न रहेगी ।

 

   लेकिन जगत्-नकार के दर्शन का एक उच्चतर मानसिक और आध्यात्मिक आधार भी है और उसमें हम अधिक ठोस जमीन पर खड़े होते हैं । कहा जा सकता है कि जगत् अपनी प्रकृति से ही भ्रम है और किसी भ्रम के लक्षणों और परिस्थितियों के सहारे किया गया कोई तर्क न तो उसके अस्तित्व को मान्य सिद्ध कर सकता है न उसे सद्वस्तु के ऊंचे पदतक ही उठा सकता है -केवल एक ही सद्वस्तु है, परात्पर, अति वैश्व । कोई भी दिव्य पूर्णता, चाहे हमारा जीवन देवताओं के जीवन में विकसित हो जाये, उस मौलिक अवास्तविकता को मिटा नहीं सकती, रद्द नहीं कर सकती जो उसका आधारभूत स्वरूप है, क्योंकि यह परिपूर्ति भ्रम का एक उज्ज्वल पक्ष मात्र होगा । और अगर पूरी तरह भ्रम न भी हो तो भी वह एक निम्नतर स्तर की वास्तविकता होगी और अंतरात्मा के यह पहचान लेने पर समाप्त हो जायेगी कि केवल ब्रह्म सत्य है, कि परात्पर और अपरिवर्तनीय अनिर्वचनीय के सिवा कुछ है ही नहीं । अगर यह एकमात्र सत्य है तो हमारे पैरों तले की सारी जमीन ही खिसक जाती है । दिव्य अभिव्यक्ति, जड़-द्रव्य में अंतरात्मा की विजय, उसका अस्तित्व पर प्रभुत्व, प्रकृति में दिव्य जीवन अपने-आपमें मिथ्यात्व या कम-से-कम ऐसी चीज होंगे जो पूरी तरह वास्तविक नहीं, कुछ समय के लिये एकमात्र सच्ची सद्वस्तु पर आरोपित हैं । यहां सब कुछ इस पर निर्भर है कि उस सद्वस्तु के विषय में मन की धारणा या मानसिक सत्ता का अनुभव क्या हैं और वह धारणा कहांतक मान्य है, वह अनुभव कहांतक अनिवार्य है -अगर वह आध्यात्मिक अनुभव भी हो तो भी वह कहांतक पूरी तरह निर्णायक और एकमात्र रूप में ऐसा आदेश है जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता ।

 

   विश्व माया को कभी-कभी ऐसा माना जाता है, यद्यपि यह मानी हुई बात नहीं है कि वह एक ऐसी चीज है जिसका स्वरूप अवास्तविक आत्मनिष्ठ अनुभव जैसा है या हो सकता है कि वह वस्तुओं की किसी शाश्वत निद्रा में या स्वप्न-चेतना में उठनेवाले रूपों और गतियों का आकार है जिसे शुद्ध, लक्षण-रहित आत्म-अभिज्ञ

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सत् पर कुछ समय के लिये आरोपित किया गया है । यह ऐसा स्वप्न है जो अनंत में घटित होता है । मायावादियों के दर्शनों में -इनके अनेक मत हैं जो आधार में तो एक-से हैं पर पूरी तरह, हर बात में एक-दूसरे के साथ मेल नहीं खाते -स्वप्न का सादृश्य बतलाया जाता है लेकिन केवल सादृश्य के रूप में ही, न कि इस रूप में कि जगत्-विभ्रम का आंतरिक स्वरूप ऐसा ही है । वस्तुपरक भौतिक मन के लिये यह मानना कठिन होता है कि हम, जगत् और जीवन, जिनके लिये हमारी चेतना निश्चित रूप से साक्षी है, वे असत् हैं, उस चेतना द्वारा हम पर आरोपित धोखा हैं । यह दिखाने के लिये कई सादृश्य प्रस्तुत किये जाते हैं, विशेष रूप से स्वप्न और विभ्रम के सादृश्य कि चेतना के अनुभव उसे वास्तविक दिखायी दें और फिर भी वास्तविकता में निराधार या अपर्याप्त आधारवाले सिद्ध हों । जैसे आदमी जबतक सोता है तबतक स्वप्न उसके लिये सच्चा होता है लेकिन जागने पर अवास्तविक हो जाता है उसी तरह जगत् का हमारा अनुभव हमें सकारात्मक और वास्तविक मालूम होता है लेकिन जब हम उस भ्रम से पीछे हट जायें तो हमें पता लगेगा कि उसकी कोई वास्तविकता न थी । लेकिन ज्यादा अच्छा होगा कि हम स्वप्न के सादृश्य का पूरा मूल्य लगाएं और देखें कि हमारे जगत् के अनुभव का बोध किसी ऐसे ही आधार पर टिकता है या नहीं । क्योंकि जगत् के स्वप्न होने का भाव, चाहे वह आत्मनिष्ठ मन का स्वप्न हो या अंतरात्मा का या शाश्वत का स्वप्न, मनुष्य की विचार- धारा और भावना में प्रायः स्थान पाता और मायावादी प्रवृत्ति को प्रबल रूप से सशक्त बनाता है । अगर इसमें कोई प्रामाणिकता न हो तो हमें निश्चित रूप से इस बात को और उसके लागू न हो सकने के कारणों को देखकर और उसे भली-भांति हटाकर रास्ते से बाहर कर देना चाहिये । अगर उसमें कुछ प्रामाणिकता है तो हमें पता लगाना चाहिये कि वह क्या है और कहांतक जा सकती है । अगर जगत् भ्रम है परंतु स्वप्न का-सा भ्रम नहीं तो उस भेद को भी मजबूत आधार पर रखना चाहिये ।

 

   स्वप्न अवास्तविक मालूम होता है, पहले तो इस कारण कि जैसे हम चेतना की एक स्थिति में से दूसरी में -जो हमारी सामान्य स्थिति हैं, जाते हैं -उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसकी कोई प्रामाणिकता नहीं रहती । लेकिन यह अपने- आपमें पर्याप्त कारण नहीं है । क्योंकि हो सकता है कि चेतना के अलग-अलग स्तर हों और उनकी अपनी-अपनी वास्तविकता हो । अगर वस्तुओं की एक अवस्था की चेतना मद्धिम पड़ जाये और उसके अंदर की चीजें खो जायें या अगर स्मृति की पकड़ में आयें भी तो, जैसे ही हम दूसरी स्थिति में जाएं भ्रामक प्रतीत होने लगें तो यह पूरी तरह सामान्य बात होगी लेकिन यह उस स्थिति की वास्तविकता, जिसमें हम हैं और दूसरी की अवास्तविकता नहीं सिद्ध करती जिसे हम पीछे छोड़ आये हैं । अगर एक और जगत् या चेतना के अन्य स्तर में जाती हुई अंतरात्मा को

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धरती की परिस्थितियां अवास्तविक लगने लगें तो इससे उनकी अवास्तविकता प्रमाणित न होगी । इसी तरह अगर हमें आध्यात्मिक नीरवता या किसी निर्वाण में जाने पर जगत् का अस्तित्व अवास्तविक लगने लगे तो यह अपने-आपमें यह सिद्ध नहीं करता कि जगत् सारे समय भ्रम ही था । जगत् उसमें रहनेवाली चेतना के लिये वास्तविक है, निर्वाण में तल्लीन चेतना के लिये निरुपाधिक सत् ही वास्तविक है -बस इतना ही सिद्ध होता है । हमारी निद्रा की अनुभूति को मान्यता न देने का दूसरा कारण यह है कि स्वप्न एक क्षणिक चीज है, न उसका कुछ पूर्ववर्ती होता है न परवर्ती । सामान्यत: वह किसी सामंजस्य या हमारी जाग्रत् सत्ता की समझ में आनेवाले अर्थ के बिना होता है । अगर हमारे स्वप्न हमारी जाग्रत् अवस्था की तरह संगति का पक्ष लिये रहते, प्रत्येक रात नींद के आपस में सम्बद्ध पिछले अविच्छिन्न अनुभव को लेकर आगे बढ़ाती, जैसे प्रत्येक दिन हमारी जाग्रत् अवस्था के जगत्- अनुभव को फिर से हाथ में लेता है तो स्वप्न हमारे मन के लिये एक और ही स्वरूप धारण कर लेते । अतः स्वप्न और जाग्रत् अवस्था में कोई सादृश्य नहीं है, अपने स्वरूप, वैधता और क्रम में ये एकदम भिन्न अनुभव हैं । हमारे जीवन को क्षणिक होने का दोष दिया जाता है और बहुत बार यह भी कहा जाता है कि सब मिलाकर वह आंतरिक संगति और सार्थकता से विहीन है । लेकिन हो सकता है कि उसका पूर्ण सार्थकता से विहीन होना हमारी समझ की कमी या सीमा के कारण हो । वस्तुत: जब हम भीतर जाते हैं और उसे भीतर से देखना शुरू करते हैं तो वह पूर्ण, सुसंबद्ध अर्थ धारण कर लेता है और साथ ही पहले जो आंतरिक संगति का अभाव दीखता था वह गायब हो जाता है और हम देख पाते हैं कि वह जीवन का स्वरूप हर्गिज नहीं था, वह हमारी अपनी आंतरिक दृष्टि और ज्ञान की असंगति के कारण था । जीवन में कोई सतही असंगति नहीं है बल्कि वह हमारे मनों को दृढ़ अनुक्रमों की शृंखला के रूप में दिखायी देता है । अगर यह मानसिक भ्रम है, जैसा कि कभी-कभी कहा जाता है, अगर अनुक्रम हमारे मनों के द्वारा निर्मित है और वस्तुत: जीवन में उसका अस्तित्व नहीं है तो भी यह चेतना की इन दो अवस्थाओं के भेद को दूर नहीं करता क्योंकि स्वप्न में अवलोकन करनेवाली एक भीतरी चेतना की दी हुई संगति अनुपस्थित रहती है और जो कुछ अनुक्रम दिखलायी देता है वह जाग्रत् अवस्था के संबंधों की एक अस्पष्ट और मिथ्या नकल के कारण है । अवचेतन अनुकरण है, परंतु यह नकली अनुक्रम छाया जैसा और अपूर्ण है । वह सदा असफल होता और टूटता रहता है और प्रायः पूरी तरह से गायब रहता है । हम यह भी देखते हैं कि स्वप्न-चेतना प्रायः उस नियंत्रण से वंचित रहती है जिसका उपयोग जाग्रत् चेतना किसी हदतक जीवन की परिस्थितियों पर करती है । उसमें अवचेतन रचना की प्रकृतिजात अनैच्छिक क्रिया होती है और मानव सत्ता के विकसित मन की सचेतन इच्छा और संगठन शक्ति का लेशमात्र

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भी नहीं होता । और फिर स्वप्न की क्षणिकता मूलगत होती है, एक स्वप्न का दूसरे के साथ कोई संबंध नहीं होता लेकिन जाग्रत् जीवन की क्षणिकता व्योरों में होती है । जगत्-अनुभव की सम्बद्ध समग्रता में क्षणिकता का कोई प्रमाण नहीं मिलता । हमारे शरीर नष्ट हो जाते हैं लेकिन अंतरात्माएं जन्म-जन्मांतर से युगोंतक चलती रहती हैं । युगों, कल्पों या कई प्रकाश-चक्रों के बीत जाने पर तारे और ग्रह गायब हो सकते हैं लेकिन विश्व, सार्वभौम सत्ता, जैसे यह निश्चित रूप से अविच्छिन्न क्रिया-कलाप है उसी तरह स्थायी हो सकती है; यह प्रमाणित करनेवाली कोई चीज नहीं है कि जो अनंत ऊर्जा उसका सृजन करती है उसका अपना या उसकी क्रिया का कोई आदि या अंत है । यहांतक स्वप्न-जीवन और जाग्रत्-जीवन में इतनी अधिक विषमता है कि उसपर यह सादृश्य लागू नहीं हो सकता ।

 

   लेकिन यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या स्वप्न सचमुच पूरी तरह अवास्तविक और अर्थ-विहीन होते हैं, क्या वे चीजों की आकृति, उनका कोई प्रतिमा-अभिलेख, प्रतीकात्मक प्रतिलिपि या प्रतिरूप नहीं हैं ? उसके लिये हमें, चाहे जितने संक्षेप में क्यों न हो निद्रा और स्वप्न-व्यापारों के स्वरूप, उनके आरंभ और उद्गम की प्रक्रिया की जांच करनी होगी । नींद में जो होता है वह यह है कि हमारी चेतना जाग्रत् अनुभवों के क्षेत्र से अपने-आपको खींच लेती है । माना यह जाता है कि वह आराम कर रही है, निलंबित या प्रसुप्त है लेकिन यह तो मामले की सतही दृष्टि है । जो प्रसुप्त है वह है जाग्रत् क्रिया-कलाप, जो आराम कर रहा है वह है सतही मन और हमारे शारीरिक भाग की सामान्य सचेतन क्रिया । लेकिन आंतरिक चेतना निलंबित नहीं होती, वह नयी आंतरिक क्रियाओं में प्रवेश करती है । उसका केवल एक भाग, हमारी सतह के नजदीक किसी चीज में घटनेवाला या अंकित होनेवाला भाग ही हमें याद रहता है । इस तरह नींद में सतह के नजदीक एक अस्पष्ट-सा अवचेतन तत्त्व बना रहता है जो हमारे स्वप्न के अनुभवों का आधान या मार्ग है । यह अपने-आप भी स्वप्न-निर्माता है; लेकिन उसके पीछे अंतस्तलीय की गहराई और राशि रहती है, हमारी प्रच्छन्न आंतरिक सत्ता और चेतना की समग्रता रहती है जो और ही श्रेणी की है । सामान्यत: हमारे अंदर यह अवचेतन भाग है जो चेतना और शुद्ध निश्चेतना का मध्यवर्ती है; वह इस सतही परत के द्वारा अपने रूपायन स्वप्नों के रूप में ऊपर भेजता है, ये रचनाएं एक प्रतीयमान रूप से क्रमहीन और असम्बद्ध रहती हैं । इनमें से बहुत-से हमारे वर्तमान जीवन की परिस्थितियों पर बनी इमारतें होती हैं जिन्हें देखने से लगता है कि उन्हें विशृंखल रूप से चुना गया है और वे विचित्रताओं की कल्पना से घिरी होती हैं । कुछ और भूतकाल को या यूं कहें भूतकाल की चुनी हुई परिस्थितियों और व्यक्तियों को बुला लेती हैं ताकि उन्हें उसी तरह की क्षणभंगुर इमारतों का आरंभ-बिंदु बना सकें । अवचेतन के और भी स्वप्न होते हैं जिनमें ऐसा कोई

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आधार या आरंभ-बिंदु नहीं होता, वे शुद्ध रूप से कल्पना प्रतीत होते हैं लेकिन मानस-विश्लेषण का नया तरीका, जो पहली बार हमारे स्वप्नों को कुछ वैज्ञानिक समझ के साथ देखने की कोशिश कर रहा है, उसने उनमें एक अर्थ-पद्धति स्थापित कर दी है -हमारे अंदर की ऐसी चाबी जिसे जाग्रत् अवस्था को जानना और व्यवहार में लाना चाहिये । यह अपने-आपमें हमारे स्वप्न-अनुभवों के स्वरूप और मूल्य को बदल देती है । यह (विज्ञान) देखने लगता है मानों उसके पीछे कोई वास्तविक चीज है और मानों चीज भी एक ऐसा तत्त्व है जिसका व्यावहारिक मूल्य कम नहीं है ।

 

   लेकिन अवचेतन ही एकमात्र स्वप्न-निर्माता नहीं है । अवचेतन हमारे अंदर हमारी प्रच्छन्न आंतरिक सत्ता की वह चरम सीमा है जहां वह निश्चेतन से मिलती है । यह हमारी सत्ता का वह दर्जा है जहां निश्चेतन संघर्ष करके अर्द्ध-चेतन में आता है, सतही भौतिक चेतना भी, जब वह जाग्रत् अवस्था से फिर वापस डूबती है और निश्चेतना की ओर पीछे लौटती है तो इस मध्यवर्ती अवचेतन में आश्रय लेती है । या एक और दृष्टि-बिंदु से, हमारे इस निचले भाग का वर्णन यूं किया जा सकता है कि यह निश्चेतन का उपकक्ष है जिसमें से होकर उसके रूपायण हमारी जाग्रत् या अंतस्तलीय सत्ता में उठ आते हैं । जब हम सोते हैं और हमारा सतही भौतिक भाग, जो यहां अपने प्रथम आरंभ में निश्चेतना में से निकला है, उलट कर अपना आरंभ करनेवाली निश्चेतना में चला जाता है, तो वह इस अवचेतन तत्त्व में प्रवेश करता है, उपकक्ष या निचले स्तर में प्रवेश करता है और वहां उसे अपने भूतकाल के संस्कार या मन और अनुभव की आग्रही आदतें मिलती हैं -क्योंकि सब हमारे अवचेतन भाग पर अपनी निशानी छोड़ गये हैं और वहां से उनमें बार-बार लौटने की शक्ति रहती है । हमारी जाग्रत् अवस्था पर इस बार-बार लौट आने का प्रभाव पुरानी आदतों के, प्रसुप्त या दबे हुए आवेगों के, प्रकृति के त्यागे हुए तत्त्व की पुनर्स्थापना का रूप ले लेता है । या यह आवेगों या तत्त्वों के जो दबा या त्याग तो दिये गये हैं पर जो मिटे नहीं हैं -उनके आसानी से पहचान में न आनेवाले, किसी दूसरे, किसी विशेष प्रच्छन्न या सूक्ष्म परिणाम के रूप में ऊपर आता है । स्वप्न-चेतना में सारा प्रपंच एक अनोखी कल्पनात्मक रचना दीखता है जो नीचे गढ़े हुए संस्कारों पर या उनके चारों ओर आकृतियों और गतियों की मिली-जुली रचना होता है जिसका भाव जाग्रत् समझ से बच निकलता है क्योंकि उसके पास अवचेतना की प्रतीक-पद्धति की कोई चाबी नहीं होती । कुछ समय के बाद यह अवचेतन क्रियाशीलता फिर से पूर्ण निश्चेतना में डूबती प्रतीत होती है और हम इस अवस्था को गहरी, स्वप्नहीन निद्रा कहते हैं, वहा से हम फिर स्वप्नों के पिछले स्तर पर आ जाते हैं या जाग्रत् सतह पर लौट आते हैं ।

 

   लेकिन तथ्य तो यह है कि जिसे हम स्वप्नहीन निद्रा कहते हैं उसमें हम अवचेतना की ज्यादा गहरी और ज्यादा मोटी परत में चले जाते हैं । यह अवस्था

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बहुत उलझी हुई, बहुत डूबी हुई, बहुत अंधेरी, मंद और भारी होती है । वह अपनी रचनाओं को सतह पर नहीं ला सकती । वहां हम स्वप्न तो देखते हैं पर इन अधिक अंधेरी स्वप्न-आकृतियों को अवचेतना की आलेखन करनेवाली परत में पकड़ या रख नहीं सकते । या हो सकता है कि हमारे मन का वह भाग जो शरीर की नींद में भी सक्रिय रहता है, हमारी सत्ता के आंतरिक क्षेत्रों में प्रवेश कर जाये -अंतस्तलीय मन, अंतस्तलीय प्राण, सूक्ष्म भौतिक में -और वहां हमारे सतही भागों के साथ उसका सारा सक्रिय संबंध खो जाये । अगर हम अब भी इन क्षेत्रों की निकटतर गहराइयों में हों तो सतही अवचेतन, जो हमारी निद्रा-जाग्रति है, वह इन गहराइयों में हम जो अनुभव करते हैं उसका कुछ भाग अंकन कर लेता है लेकिन वह अपने ही प्रतिलेखन में करता है, प्रायः उसमें लाक्षणिक असंगतियों का दोष रहता है और हमेशा जब वह अधिक-से-अधिक सुसंगत हो तब भी विकृत होता है या जगत् की जाग्रत् अनुभूति से ली गयी आकृतियों में ढाला जाता है । लेकिन अगर हम ज्यादा गहराई में अंदर चले जायें तो आलेखन असफल रहता है या उसे पाया नहीं जा सकता और हमें स्वप्नहीनता का भ्रम होता है लेकिन आंतरिक स्वप्न-चेतना की क्रियाशीलता अब मौन और निष्क्रिय अवचेतन की सतह के पर्दे के पीछे चलती रहती है । इस स्वप्न-क्रियाशीलता के जारी रहने का पता हमें तब चलता है जब हम भीतर से अधिक सचेतन बन जाते हैं क्योंकि तब हम अधिक भारी और अधिक गहरे अवचेतन स्तर के संपर्क में आते हैं और उसी समय या बाद में स्मृति द्वारा फिर से याद करके या उसे फिर से प्राप्त करके उस समय की घटनाओं से अभिज्ञ हो सकते हैं जो तब घटी थी जब हम निस्पंद गहराइयों में डूबे हुए थे । अपने अंदर की अधिक गहरी अपनी अंतस्तलीय सत्ताओं से सचेतन होना भी संभव है और तब हमें अपनी सत्ता के अन्य स्तरों पर हुए या अतिभौतिक जगतों में भी हुए अनुभवों का परिचय होता है, जिनमें निद्रा हमें गुप्त प्रवेश का अधिकार देती है । ऐसे अनुभवों का प्रतिलेख हमारे पास पहुंचता तो है लेकिन यहां का प्रतिलेखक अवचेतन नहीं, अंतस्तल हैं जो ज्यादा बड़ा स्वप्न-निर्माता है ।

 

   अगर हमारी स्वप्न-चेतना में अंतस्तलीय इस तरह सामने आ जाता है तो कभी-कभी अंतस्तलीय बुद्धि की क्रिया भी होती है -स्वप्न एक विचार-शृंखला बन जाता है जिसे प्रायः अजीब तरह से या स्पष्ट रूप से आकृति दी जाती है, ऐसी समस्याओं का हल मिल जाता है जिन्हें हमारी जाग्रत् चेतना हल न कर सकी थी । चेतावनियां, भविष्य के पूर्वाभास और भविष्य के संकेत मिलते हैं, सामान्य अवचेतन असंबद्धता का स्थान सच्चे स्वप्न ले लेते हैं । प्रतीकात्मक चित्रों की इमारत भी खड़ी हो सकती है जिनमें कुछ का स्वरूप मानसिक और कुछ का प्राणिक होता है । मानसिक अपने आकार में सुनिश्चित होते हैं, अर्थ में स्पष्ट, प्राणिक प्रायः हमारी जाग्रत् चेतना के लिये जटिल और चकरानेवाले होते हैं लेकिन

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अगर हम उनकी चाबी पा लें तो वे अपना भाव प्रकट करते और सुसंगति की अपनी विशेष प्रणाली दिखाते हैं । अंत में, हमारे पास ऐसी घटनाओं के आलेखन आ सकते हैं जिन्हें हमने अपनी ही सत्ता के या वैश्व सत्ता के अन्य स्तरों पर देखा या अनुभव किया है जिनमें हम प्रवेश करते हैं । कभी-कभी प्रतीकात्मक स्वप्नों की तरह इनका भी हमारे आंतरिक और बाह्य जीवन के साथ प्रबल संबंध होता है, वे हमारी या औरों के जीवन के साथ उनकी मानसिक सत्ता या प्राणिक सत्ता के तत्त्वों को प्रकट करते या उनपर होनेवाले ऐसे प्रभावों को दिखाते हैं जिनके बारे में हमारी जाग्रत् सत्ता बिलकुल अनभिज्ञ होती है लेकिन कभी-कभी उनका कोई ऐसा संबंध नहीं होता और वे हमारी शारीरिक सत्ता से स्वतंत्र चेतना की अन्य संगठित प्रणालियों के अभिलेख भर होते हैं, हमारे सबसे अधिक सामान्य निद्रा-अनुभव में अधिकतर स्वप्न अवचेतन के होते हैं और हम सामान्यत: इन्हें ही याद रखते हैं । लेकिन कभी-कभी अंतस्तलीय निर्माता हमारी निद्रा की चेतना को इतने पर्याप्त रूप में प्रभावित कर सकता है कि उसके क्रिया-कलाप की छाप हमारी जाग्रत् अवस्था पर पड़ जाये । अगर हम अपनी आंतरिक सत्ता को विकसित करें, अधिकतर लोगों की अपेक्षा अधिक अपने अंदर रहें तो संतुलन बदल जाता है और एक अधिक बड़ी स्वप्न-चेतना हमारे आगे खुलती हैं, हमारे स्वप्न अवचेतन न रह कर अंतस्तलीय स्वरूप धारण कर सकते हैं और वास्तविकता और सार्थकता धारण कर सकते हैं ।

 

   यह भी संभव है कि हम स्वप्न में पूरी तरह सचेतन हो जायें और स्वप्न के अनुभवों की भूमिकाओं का शुरू से अंततक या काफी दूरतक उनका अनुसरण करें । यह पाया जाता है कि तब हम अपनी चेतना की एक स्थिति से दूसरी स्थिति में फिर शांतिमय, स्वप्नहीन विश्राम की संक्षिप्त अवधियों में जाने के बारे में अभिज्ञ होते हैं । सचमुच यही जाग्रत् प्रकृति की ऊर्जाओं को पुन: प्रतिष्ठित करनेवाला है और फिर उसी रास्ते से हम जाग्रत् चेतना में चले जाते हैं । यह सामान्य बात है कि जब हम एक स्थिति में से दूसरी में जाते हैं तो पहले के अनुभव हमसे खिसक जाते हैं, वापिस आने पर ज्यादा स्पष्ट या जाग्रत् अवस्था के सबसे नजदीकवाले अनुभव ही याद रह जाते हैं - लेकिन इसका उपाय किया जा सकता है, ज्यादा याद रख सकना संभव है या स्मरण शक्ति में स्वप्न से स्वप्न में या एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने की शक्ति विकसित की जा सकती है, यहांतक कि सारी चीज फिर से हमारे सामने आ सकती है । निद्रा-जीवन का सुसंगत ज्ञान पाना या उसे स्थायी रूप से बनाये रखना कठिन होते हुए भी संभव है ।

 

   हमारी अंतस्तलीय आत्मा हमारी सतही भौतिक सत्ता की तरह निश्चेतन की ऊर्जा का परिणाम नहीं है । यह नीचे से विकास द्वारा उभरनेवाली चेतना और प्रतिविकास के लिये ऊपर से उतरी हुई चेतना का मिलन-स्थल है । उसमें हमारा ही एक

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आंतरिक मन, एक आंतरिक प्राण और हमारी बाहरी सत्ता और प्रकृति से बड़ी एक आंतरिक या सूक्ष्म भौतिक सत्ता है । यह आंतरिक सत्ता प्रायः उन सभी चीजों का प्रच्छन्न उद्गम है जो आद्या निश्चेतन जगत्-ऊर्जा की रचना नहीं है या हमारी सतही चेतना की स्वाभाविक विकसित क्रिया या बाहरी वैश्व प्रकृति के आघातों के प्रति इसकी प्रतिक्रिया नहीं है । और इस रचना में, इन क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं में भी अंतस्तलीय भाग लेता और उनपर काफी प्रभाव डालता है । यहां एक ऐसी चेतना है जिसमें वैश्व के साथ सीधा संपर्क करने की सामर्थ्य है जब कि हमारी सतही सत्ता विश्व के साथ ऐन्द्रिय मन या इन्द्रियों द्वारा परोक्ष संबंध रखती है । यहां आंतरिक इन्द्रियां हैं, अंतस्तलीय चक्षु श्रोत्र, स्पर्श, लेकिन ये सूक्ष्म इन्द्रियां सूचक न होकर आंतरिक सत्ता की प्रत्यक्ष चेतना की वाहिनियां हैं, अंतस्तलीय अपने ज्ञान के लिये अपनी इन्द्रियों पर निर्भर नहीं होता, वे उसके वस्तुओं के प्रत्यक्ष अनुभव को बस रूप दे देती हैं । जैसा कि जाग्रत् मन में होता है उस तरह वे पदार्थों के रूपों को मन के प्रलेखन के लिये नहीं भेजतीं या आरंभ-बिंदु या आधार के तौर पर परोक्ष रचनात्मक अनुभव के लिये नहीं भेजतीं । अंतस्तलीय को वैश्व चेतना के मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक स्तरों में प्रवेश का अधिकार होता है । वह जड़ जगत् या भौतिक जगत्तक ही सीमित नहीं रहता । प्रतिविकास की ओर अवतरण ने रास्ते में सत्ता के जिन लोकों की रचना की है और फिर निश्चेतना से अतिचेतना की ओर फिर से आरोहण के उद्देश्य की सिद्धि के लिये जितने उनके अनुरूप लोक या स्तर प्रकट हुए या रचे गये होंगे उन सबके, साथ संबंध रखने के साधन अंतस्तलीय सत्ता को प्राप्त हैं । जब हमारी मानसिक और प्राणिक सत्ता निद्रा या भीतरी एकाग्रता या समाधि में आंतरिक निमग्रता द्वारा सतही क्रिया-कलाप से निवृत्त होती है तो वे आंतंरिक सत्ता के इस विस्तृत क्षेत्र में ही विश्राम करते हैं ।

 

   हमारी जाग्रत् अवस्था अंतस्तलीय सत्ता के साथ अपने संबंध के बारे में अनभिज्ञ होती है यद्यपि, वह उसके उद्गम के बारे में कुछ भी जाने बिना, वहां से प्रेरणा, अंतर्भास, भाव, इच्छा के सुझाव, इन्द्रियों के सुझाव, हमारी सतही सीमित सत्ता के नीचे या पीछे से आनेवाली क्रिया के लिये प्रेरणा पाती रहती है । समाधि की तरह निद्रा हमारे लिये अंतस्तलीय का द्वार खोल देती है । क्योंकि समाधि की तरह नींद में हम सीमित जाग्रत् व्यक्तित्व के पर्दे के पीछे चले जाते हैं और इस पर्दे के पीछे अंतस्तलीय का अस्तित्व रहता हैं । लेकिन हमें अपनी नींद के अनुभव का अभिलेख स्वप्न द्वारा और स्वप्न-आकृतियों के रूप में प्राप्त होता है, न कि उस स्थिति में जो आंतरिक जागृति कहला सके और जो समाधि-अवस्था का सबसे सुलभ रूप है, और न वे दृष्टि की अधिसामान्य स्पष्टता और संसर्ग के अन्य अधिक ज्योतिर्मय और ठोस रूपों द्वारा ही प्राप्त होते हैं जिनका विकास आंतरिक अंतस्तलीय ज्ञान तब करता है जब हमारी जाग्रत् सत्ता के साथ उसका अभ्यासगत

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या प्रासंगिक सचेतन संबंध बन जाता है । अंतस्तलीय अपने संलग्न अवचेतन के साथ -क्योंकि अवचेतना भी पर्दे के पीछे की सत्ता का भाग है -आंतरिक चीजों और अतिभौतिक अनुभवों का द्रष्टा है, सतही अवचेतन तो केवल अभिलेखक है । इसीलिये उपनिषद् अंतस्तलीय सत्ता का वर्णन स्वप्न-पुरुष के रूप में करता है क्योंकि प्रायः स्वप्न, अंतर्दर्शन, आंतरिक अनुभव की तल्लीन अवस्था में ही हम उसके अनुभव में प्रवेश करते और उसके भाग होते हैं -उसी तरह जैसे वह अतिचेतन पुरुष को निद्रा-पुरुष कहता है क्योंकि जब हम अतिचेतना में प्रवेश करते हैं तो प्रायः समस्त मानसिक या ऐन्द्रिय अनुभव बंद हो जाते हैं । क्योंकि अतिचेतन का स्पर्श हमारी मानसिकता को जिस गहरी समाधि में डुबा देता है उससे कोई आलेख या वहां के अंतर्विषय का कोई अभिलेख साधारण रीति से हमारे पास नहीं पहुंच सकता । हम किसी बहुत ही विशेष या असाधारण विकास द्वारा अधिसामान्य स्थिति में या अपनी सीमित सामान्यता को भेद कर या उसमें दरार करके सतह पर अतिचेतन के संपर्को या संदेशों के बारे में सचेतन हो सकते हैं । लेकिन इन आलंकारिक नामों के बावजूद -स्वप्नावस्था, निद्रावस्था -चेतना की इन दोनों अवस्थाओं का क्षेत्र स्पष्ट रूप से वास्तविकता का क्षेत्र माना जाता था -जाग्रत् अवस्था से कम नहीं, जिसमें हमारी अनुभूतिक्षम चेतना की गतियां भौतिक चीजों और भौतिक जगत् के साथ हमारे संपर्कों का अभिलेख या प्रतिलेख हैं । निःसंदेह इन तीनों अवस्थाओं को एक भ्रम का भाग माना जा सकता है, उनके बारे में हमारी अनुभूति को एक साथ भ्रामक चेतना की रचनाओं में गिना जा सकता है जिसमें हमारी जाग्रत् अवस्था स्वप्न या निद्रा की अवस्था से कम भ्रामक नहीं है क्योंकि एकमात्र सत्य या वास्तविक वास्तविकता तो है अव्यवहार्य आत्मा, अद्वैत जो वेदांत द्वारा वर्णित आत्मा की चौथी अवस्था है । लेकिन यह भी समान रूप से संभव है कि इन्हें इस तरह देखा और श्रेणीबद्ध किया जाये कि ये एक ही सद्वस्तु के तीन अलग-अलग क्रम या चेतना की तीन स्थितियां हैं जिनमें आत्मानुभव और विश्वानुभव की तीन अलग-अलग श्रेणियों के साथ हमारा संपर्क मूर्त होता है ।

 

   अगर यह स्वप्नानुभव का सच्चा विवरण है तो स्वप्नों को अवास्तविक वस्तुओं की अवास्तविक आकृति के रूप में नहीं माना जा सकता जिन्हें अस्थायी तौर पर हमारी अर्द्धचेतना पर वास्तविकता के रूप में आरोपित किया जाता है । अतः वैश्व भ्रांति (मायावाद) के सिद्धांत के समर्थन में इसे उदाहरण के रूप में भी रखा जाये तो भी यह सादृश्य ठीक नहीं बैठता । फिर भी यह कहा जा सकता है कि हमारे स्वप्न अपने-आपमें वास्तविक नहीं हैं; वास्तविकता के प्रतिलेख, प्रतीक-मूर्तियों की एक पद्धति-मात्र हैं और इसी तरह हमारे विश्व के जाग्रत् अनुभव वास्तविक नहीं बल्कि वास्तविकता का प्रतिलेख हैं, प्रतीक-मूर्तियों के संकलन की शृंखला हैं । यह बिलकुल सच है कि हम भौतिक विश्व को मुख्य रूप से अपनी इन्द्रियों पर अंकित

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या आरोपित प्रतिमूर्तियों की योजना के रूप में ही देखते हैं और यहांतक यह बात न्यायसंगत है । यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि एक विशेष अर्थ में और एक विशेष दृष्टिकोण से हमारी अनुभूतियों और क्रियाओं को एक ऐसे सत्य का प्रतीक माना जाये जिसे व्यक्त करने का प्रयत्न हमारे जीवन कर रहे हैं भले अभी वह आंशिक सफलता और अपूर्ण संगति के साथ क्यों न हो, अगर इतना ही होता तो कहा जा सकता था कि जीवन अनंत की चेतना में आत्मा और वस्तुओं का स्वप्न-अनुभव है । यद्यपि विश्व की वस्तुओं के बारे में हमारा प्रथम साक्ष्य ऐन्द्रिय प्रतिमाओं की रचना होता है लेकिन इन्हें चेतना में एक स्वचालित अंतर्भास पूरा करता, प्रामाणिक बनाता और व्यवस्थित करता है और वह चेतना तुरंत प्रतिमा का संबंध उस चीज के साथ जोड़ देती है जिसकी वह प्रतिमा है और वस्तु का सुनिश्चित अनुभव पा लेती है ताकि हम केवल किसी वास्तविकता के ऐन्द्रिय प्रतिलेख या अनुवाद ही न देखें या पढ़े बल्कि ऐन्द्रिय प्रतिमा द्वारा वास्तविकता को देखें । यह पर्याप्तता बुद्धि की क्रिया से और बढ़ जाती है जो इन्द्रियों द्वारा अनुभूत वस्तुओं के धर्म को समझती और उसकी गहराई में जाती है और सूक्ष्मता के साथ ऐन्द्रिय प्रतिलेख का अवलोकन कर सकती और उसकी भूलें सुधार सकती है । इसलिये हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि हम अंतर्भास और बुद्धि की सहायता से अपने बिम्बित ऐन्द्रिय प्रतिलेख द्वारा वास्तविक विश्व का अनुभव करते हैं -यह अंतर्भास हमें वस्तुओं का स्पर्श देता और बुद्धि अपने संकल्पनाशील ज्ञान द्वारा उनके सत्य की खोज करती है । हमें यह ख्याल रखना चाहिये कि चाहे हमारा विश्व को बिम्बों की दृष्टि से देखना, हमारा इन्द्रियों का बनाया हुआ प्रतिलेख, प्रतीकात्मक बिम्बों की पद्धति हो, एक यथार्थ प्रतिलिपि या अभिलेख या शब्दशः अनुवाद नहीं, फिर भी प्रतीक किसी ऐसी चीज का सकेत है जो अस्तित्व रखती है, वह वास्तविकताओं का अभिलेख है । हमारे बिम्ब चाहे गलत क्यों न हों, वे जिन्हें बिम्बित करने का प्रयास करते हैं वे तो वास्तविकताएं हैं, भ्रम नहीं । जब हम किसी पेड़ या पत्थर या पशु को देखते हैं तो यह कोई अस्तित्वहीन आकृति या कोई दृष्टि-भ्रम नहीं होता जिसे हम देखते हैं । हो सकता है कि हमें यह विश्वास न हो कि बिम्ब ठीक है । हम यह मान सकते हैं कि अन्य इन्द्रिय उसे और तरह देख सकती है फिर भी उसमें कुछ चीज होती है जो बिम्ब को उचित ठहराती है, कोई ऐसी चीज जिसके साथ उसका न्यूनाधिक सादृश्य है । लेकिन माया के सिद्धांत में एकमात्र वास्तविकता है अनिर्देश्य, अलक्षण, शुद्ध सत्, ब्रह्म; और उसके किसी प्रतीक-आकृतियों की पद्धति में अनूदित किये जाने या गलत तरह अनूदित किये जाने की कोई संभावना नहीं रहती क्योंकि यह तो तभी हो सकता जब इस सत् में कोई निर्दिष्ट अंतर्वस्तु होती या उसकी सत्ता का कोई अनभिव्यक्त सत्य होता जिसे हमारी चेतना द्वारा दिये गये रूपों या नामों में अभिलिखित किया जा सकता । शुद्ध

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अनिर्देश्य को कोई भी प्रतिलेख, प्रतिनिधि भेदों का कोई भी पुंज, प्रतीकों या प्रतिमूर्तियों का कोई भी समूह अनूदित नहीं कर सकता क्योंकि वहां उसमें एक शुद्ध तादात्म्य है, वहां ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसका प्रतिलेखन किया जा सके, ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसका प्रतीक बनाया जा सके, ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसका प्रतिरूप बनाया जा सके । अतः हमारे लिये स्वप्न का सादृश्य बिल्कुल बेकार हो जाता है और उसे रास्ते से हटा देना ही अच्छा है । अपने अनुभवों के बारे में मन की अपनाई हुई एक विशेष वृत्ति के लिये स्पष्ट रूपक के तौर पर इसका उपयोग सदा ही हो सकता है लेकिन जीवन की वास्तविकता और मूलभूत अर्थ या जीवन के उद्गम के बारे में तत्त्वदार्शनिक खोज के लिये इसका कोई मूल्य नहीं है ।

 

   अगर हम विभ्रम के सादृश्य को लें तो हम उसे वैश्व भ्रांति के सिद्धांत को ठीक तरह समझने मे स्वप्न-सादृश्य की अपेक्षा अधिक सहायक नहीं पाते । विभ्रम दो तरह के होते हैं; मानसिक या भावात्मक और दृश्य या किसी रूप में ऐन्द्रिय । जब हम किन्हीं चीजों के बिम्ब देखते हैं जब कि वे चीजें नहीं हैं तो यह इन्द्रियों की एक भूल-भरी रचना होती है, दृश्य विभ्रम । जब हम एक ऐसी चीज को, जो मन की आत्मनिष्ठ रचना होती है, एक विषयगत तथ्य मान लेते हैं, मन की किसी रचनात्मक भूल या उसकी विषयपरक कल्पना को या अयुक्त स्थान पर आनेवाले मानसिक बिम्ब को विषयगत तथ्य मान लेते हैं तो यह मानसिक विभ्रम होता है । पहले का उदाहरण है मृगमरीचिका और दूसरे का चिरसम्मत उदाहरण है सर्प को रज्जु मान लेने का । यहां हम यह भी देखते चलें कि बहुत-सी चीजें सचमुच विभ्रम नहीं हैं परंतु कहलाती हैं विभ्रम । वे सचमुच प्रतीक-बिंब होती हैं जिन्हें अंतस्तलीय से ऊपर भेजा जाता है या ऐसे अनुभव होते हैं जिनमें अंतस्तलीय चेतना या इन्द्रिय सतह पर आ जाती है और हमारा अतिभौतिक वास्तविकताओं से संपर्क करा देती है । इस तरह विश्व-चेतना को, जो हमारी मानसिक सीमाओं को तोड़ कर एक विशाल वास्तविकता में हमारा प्रवेश है, स्वीकार करते हुए भी, विभ्रम माना जाता है । लेकिन केवल सामान्य मानसिक और दृश्य विम्रम को ही लें तो हम देखते हैं कि पहली नजर में लगता है कि ये विभ्रम, जिसे दार्शनिक सिद्धांत में अध्यारोप कहते हैं, उसके सच्चे उदाहरण हैं । यह एक वास्तविकता पर अवास्तविक, निरी मरुभूमि की हवा पर मृग-मरीचिका का, उपस्थित और वास्तविक रज्जु पर अनुपस्थित सर्प के रूप का आरोपण है । हम तर्क कर सकते हैं कि जगत् एक ऐसा ही विभ्रम है, ब्रह्म की शुद्ध, सदा उपस्थित, एकमात्र वास्तविकता पर वस्तुओं के असत्, अवास्तविक रूप का आरोपण है । लेकिन हम देखते हैं कि विभ्रम के हर एक उदाहरण में मिथ्या बिंब किसी ऐसी चीज का नहीं होता जिसका अस्तित्व ही न हो । यह किसी ऐसी चीज का बिंब होता है जिसका अस्तित्व है और जो वास्तविक भी है लेकिन उस स्थान पर उपस्थित नहीं होती जहां उसका अध्यारोप

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मन की भूल या इन्द्रियों की भूल ने किया है । मृग-मरीचिका एक नगर का, एक शाद्वल का, बहते पानी का या अन्य अनुपस्थित चीजों का बिंब होती है और अगर इन चीजों का अस्तित्व न होता तो उनका मिथ्या बिंब, चाहे उसे मन ने खड़ा किया हो या वह रेगिस्तानी हवा में प्रतिबिंबित हुआ हो, वास्तविकता के झूठे भाव के साथ मन को भरमाने के लिये वहां न होगा । सर्प का अस्तित्व है और कुछ देर को भ्रम में पड़ गये व्यक्ति को उसके अस्तित्व और आकार का पता होता है, अगर ऐसा न होता तो यह भ्रांति पैदा न होती क्योंकि यहां देखी हुई वास्तविकता के साथ कहीं और पहले से जानी हुई किसी अन्य वास्तविकता के साथ रूप-साम्य है जो इस भ्रांति की जड़ है । इसलिये इस सादृश्य से सहायता नहीं मिलती । वह तभी मान्य हो सकता जब हमारा विश्व का बिंब एक ऐसे सच्चे विश्व को प्रतिबिंबित करनेवाला मिथ्यात्व होता जो यहां नहीं, कहीं और है या वह सद्वस्तु की अभिव्यक्ति का एक मिथ्या बिंब होता जो मन के अंदर किसी सच्ची अभिव्यक्ति का स्थान ले लेता है या अपने विकृत साम्य से उसे ढक लेता है । लेकिन यहां यह जगत् वस्तुओं का अस्तित्वहीन रूप है, शुद्ध सद्वस्तु पर आरोपित भ्रामक रचना है, यह सद्वस्तु एकमात्र सत् है जो हमेशा के लिये चीजों सें खाली और रूपहीन है । सच्चा सादृश्य तभी हो सकता है जब हमारी दृष्टि रेगिस्तान की रिक्त हवा में वस्तुओं की ऐसी आकृति की रचना करती जिसका अस्तित्व कहीं नहीं है या वह किसी खाली जमीन पर रज्जु और सर्प तथा अन्य ऐसी आकृतियों को आरोपित करती जिनका अस्तित्व कहीं नहीं है ।

 

   यह स्पष्ट है कि इस सादृश्य में दो भिन्न प्रकार के भ्रम हैं जो एक-दूसरे के दृष्टांत नहीं होते, भूल से एक साथ रख दिये जाते हैं मानों वे प्रकृति में एक से हों । सभी मानसिक या ऐन्द्रिय विभ्रम वस्तुत: ऐसी चीजों के मिथ्या निरूपण या मिथ्या स्थापन या असंभव संयोजन या मिथ्या विकास हैं जिनका अपने-आपमें अस्तित्व है या वे संभव हैं या किसी रूप में वास्तव के क्षेत्र के अंतर्गत या उससे संबद्ध हैं । सभी मानसिक भूलें और भ्रम अज्ञान का परिणाम होते हैं जो अपनी सामग्री का गलत संयोजन करता है या ज्ञान की किसी पहले की या वर्तमान या संभाव्य अंतर्वस्तु के आधार पर मिथ्या ढंग से आगे बढ़ता है । लेकिन विश्वमाया का कोई वास्तविकता का आधार नहीं है । वह एक आद्य और सर्वप्रवर्तक भ्रम है । वह नाम, रूप और घटनाएं, जो शुद्ध रूप से अन्वेषण हैं, एक ऐसी सद्वस्तु पर आरोपित करता है जिसमें कभी कोई घटना, नाम या रूप नहीं थे या और न होंगे । मानसिक विभ्रम का सादृश्य तभी स्वीकार किया जा सकेगा जब हम यह मान लें कि नाम,

 

रूप और संबंधों से रहित ब्रह्म और नाम, रूप तथा संबंधोंवाला जगत् दोनों समान रूप से वास्तविक हैं और एक-दूसरे पर आरोपित हैं । रज्जु के स्थान पर सर्प या सर्प के स्थान पर रज्जु -यह सगुण की क्रियाशीलता का निर्गुण की निश्चलता पर

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आरोपण हो सकता है । लेकिन अगर दोनों वास्तविक हैं तो दोनों को एक ही वास्तविकता के अलग-अलग पहलू होना चाहिये या समन्वित पहलू, एक ही सत् के भावात्मक और अभावात्मक ध्रुव होना चाहिये । उनके बीच मन की कोई भूल या भ्रांति एक सृजनात्मक वैश्व भ्रम न होकर अज्ञान द्वारा पैदा किया हुआ केवल वास्तविकताओं का एक गलत प्रत्यक्ष दर्शन, गलत संबंध होगा ।

 

   अगर हम दूसरे दृष्टांतों या सादृश्यों की जांच करें, जिन्हें हमारे आगे माया की क्रिया को ज्यादा अच्छी तरह समझने के लिये प्रस्तुत किया जाता है, तो हम उन सबकी अनुपयुक्तता पाते हैं, इससे वे अपने बल और मूल्य से वंचित हो जाते हैं । सीप और चांदी का प्रसिद्ध दृष्टांत, सर्प और रज्जु के सादृश्य की तरह एक उपस्थित वास्तविक और एक अनुपस्थित वास्तविक के साम्य पर आधारित भूल के कारण है । यह एकमात्र अद्वितीय अपरिवर्तनशील वास्तविक पर बहुविध और परिवर्तनशील अवास्तविकता के आरोपण पर लागू नहीं हो सकता । दृष्टि-विभ्रम के उदाहरण में जहां एक वस्तु दोगुनी या कई गुनी दिखायी देती है, जैसे हमें एक की जगह दो चांद दिखते हैं, उसी तरह एक ही वस्तु के दो या कई एक-से रूप होते हैं, एक वास्तविक और दूसरा या बाकी भ्रम । यह जगत् और ब्रह्म के सान्निध्य का चित्रण नहीं करता क्योंकि माया की क्रिया में बहुत अधिक जटिल व्यापार है -वस्तुत: अभिन्न का भ्रमात्मक गुणन होता है जो उसकी एक और अभिन्न नित्य अपरिवर्तनशील अभिन्नता पर आरोपित होता है । एक बहु के रूप में दिखायी देता है लेकिन उसके ऊपर प्रकृति की अपरिमित, संगठित विभिन्नता आरोपित की जाती है, ऐसे रूपों और गतियों की विभिन्नता जिनका मूल वास्तविक के साथ कोई संबंध नहीं होता । स्वप्न, अंतर्दर्शन, कलाकार या कवि की कल्पना ऐसी संगठित विभिन्नता प्रस्तुत कर सकती हैं जो वास्तविक नहीं है किंतु वह एक नकल है, किसी वास्तविक और विद्यमान संगठित विभिन्नता का अनुकरण, या फिर वह ऐसे अनुकरण से शुरू करता है और अधिक-से-अधिक विभिन्नता या उद्दाम अन्वेषण में भी कुछ अनुकरणशील तत्त्व दिखायी देता है । यहां ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे माया की ऐसी क्रिया माना जा सके जिसमें कोई अनुकरण न हो, जो ऐसी अवास्तविक रूपों और गतियों के मूलत: नूतन सृजन हों, जिनका और कहीं भी अस्तित्व नहीं है, जो सद्वस्तु में पायी जा सकनेवाली किसी चीज की अनुकृति या प्रतिबिंब नहीं है, न ही उसका बदला हुआ या विकसित रूप है । मानसिक विभ्रम की क्रियाओं में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस रहस्य पर प्रकाश डालता हो । यह, जैसा कि इस तरह की विस्मयकारक विश्व-माया को होना चाहिये, अद्वितीय है जिसकी तुलना नहीं हो सकती । विश्व में हम जो देखते हैं वह अभिन्न की विविधता ही है जो सब जगह वैश्व प्रकृति की आधारभूत क्रिया है लेकिन यहां वह अपने-आपको भ्रम रूप में नहीं बल्कि एक ही मूल पदार्थ में से नाना प्रकार की वास्तविक रचनाओं के रूप में

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प्रस्तुत करती है । अपने-आपको अनगिनत रूपों और शक्तियों की वास्तविकता में अभिव्यक्त करनेवाली एकत्व की सद्वस्तु ही हर जगह हमारे सामने आती है । इसमें संदेह नहीं कि उसकी प्रक्रिया में एक रहस्य बल्कि जादू है लेकिन ऐसी कोई चीज नहीं जो यह दिखाये कि यह अवास्तविक का जादू है, ऐसी कोई चीज नहीं जो सर्वशक्तिमान् सद्वस्तु की सत्ता की चेतना और शक्ति की क्रिया, शाश्वत आत्म-ज्ञान द्वारा चालित आत्म-सृजन नहीं है ।

 

   यह तुरंत मन के स्वरूप, जो इन भ्रमों का जनक है, और उसके आदि सत् के साथ संबंध का प्रश्न खड़ा करता है । क्या मन आद्य संभ्रम का बालक और यंत्र है या वह स्वयं गलत सृजन करनेवाली आद्य शक्ति या चेतना है ? या मानसिक अज्ञान सत् के सत्यों का व्यतिक्रम, या जगत् का सृजन करनेवाली मौलिक सत्य-चेतना से विचलन है । बहरहाल, हमारा अपना मन चेतना की आद्य और प्रारंभिक सृजन-शक्ति नहीं है । वह उद्भव, उपकरणात्मक स्रष्टा और मध्यवर्ती सर्जक है और इसी प्रकारके सब मन यही होंगे । तो यह संभव है कि मन की भूलों से लिये गये सादृश्य जो मध्यवर्ती अज्ञान के परिणाम हैं आद्या सृजनात्मिका माया, सबका आविष्कार करनेवाली और सबकी रचना करनेवाली माया की प्रकृति या क्रिया के सच्चे उदाहरण न हों । हमारा मन अतिचेतना और निश्चेतना के बीच खड़ा रहता है और इन दोनों सम्मुखस्थ शक्तियों से प्राप्त करता है । वह एक गुह्य अंतस्तलीय सत्ता और बाहरी वैश्व प्रपंचों के बीच खड़ा है । वह अज्ञात आंतरिक उत्स से प्रेरणाएं अंतर्भास, कल्पनाएं, ज्ञान और क्रिया के लिये आवेग, आत्मनिष्ठ वास्तविकताओं या संभावनाओं की आकृतियां पाता है । वह उपलब्ध तथ्यों की आकृतियां और आगे की संभावनाओं के लिये उनके संकेत अवलोकित विश्व-व्यापार से पाता है । वह जिन्हें पाता है वे संभव या वास्तविक, तात्त्विक सत्य होते हैं । वह भौतिक विश्व की उपलब्ध वास्तविकताओं से शुरू करता है और उनसे अपनी आत्मनिष्ठ क्रिया में अनुपलब्ध संभावनाओं को निकाल लाता है जिन्हें वे अपने अंदर समाये रहती हैं या जिनकी ओर वे संकेत करती हैं या जिनतक वह उन वास्तविकताओं को आरंभ-बिंदु बनाकर आगे पहुंच सकता है । वह आत्मनिष्ठ क्रियाके लिये इन संभावनाओं में से कुछ को चुन लेता है और उनके कल्पित या उनके अंदर रचे गये रूपों से खेलता है । वह दूसरी संभावनाओं को बाहर व्यक्त करने के लिये चुन लेता है और उन्हें उपलब्ध करने की कोशिश करता है । लेकिन वह ऊपर से और भीतर से भी प्रेरणाएं पाता है और केवल दृश्य वैश्व प्रपंचों के आघातों से ही नहीं बल्कि अदृश्य स्रोतों से भी प्रेरणा पाता है । उसके चारों ओर स्थित वास्तविक भौतिकता जिन सत्यों का संकेत करती है, वह उनसे भिन्न सत्यों को भी देखता है और यहां भी वह इन सत्यों के संप्रेषित या निर्मित रूपों के साथ आत्मनिष्ठ रूप से आंतरिक चेतना में खेलता है या उनमें से कुछ को विषयगत

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करने के लिये चुनता है, उन्हें उपलब्ध करने की कोशिश करता है ।

 

   हमारा मन वास्तविकताओं का अवलोकन और प्रयोग करनेवाला है, जो सत्य अभीतक ज्ञात नहीं हुए या वास्तविक नहीं हुए उनका अनुमानकर्ता और ग्रहणकर्ता, उन संभावनाओं का व्यापारी है जो सत्य और वास्तविकता के बीच मध्यस्थता करती हैं । लेकिन उसमें अनंत चेतना की सर्वज्ञता नहीं होती । वह ज्ञान में सीमित होता है, उसे अपने सीमित ज्ञान को कल्पना और अन्वेषण द्वारा पूरा करना पड़ता है । वह अनंत चेतना की तरह ज्ञात को अभिव्यक्त नहीं करता, उसे अज्ञात को खोजना पड़ता है, वह अनंत की संभावनाओं को प्रच्छन्न सत्य के विविध-रूपों के परिणामों या भेदों के रूप में नहीं बल्कि अपनी असीम कल्पना की रचना, सृजन या कल्पना-सृष्टि के रूप में ग्रहण करता है । उसमें अनंत चेतन-ऊर्जा की सर्वशक्तिमत्ता नहीं होती । वह केवल उसीको उपलब्ध कर सकता या वास्तविक बना सकता है जिसे वैश्व ऊर्जा उससे स्वीकार करे या जिसे वस्तुओं की समष्टि में आरोपित करने या प्रविष्ट करने की शक्ति उसमें इस कारण हो कि उसे प्रकृति में व्यक्त करना उस गुप्त देवता को अभिप्रेत है जो उसका उपयोग करता है, चाहे वह अतिचेतन हो या अन्तस्तलीय । उसके ज्ञान का परिसीमन अपूर्णता के कारण, बल्कि भूल की ओर खुला होने के कारण भी, अज्ञान को संघटित करता है । तथ्यों के साथ व्यवहार करते हुए वह गलत देख सकता है, गलत उपयोग कर सकता है, गलत रचना कर सकता है । संभावनाओं के साथ व्यवहार करते हुए वह गलत रचना, गलत संयोजन, गलत प्रयोग और गलत स्थापन कर सकता है । जो सत्य उसके आगे प्रकट किये गये हैं उनके साथ व्यवहार करने में वह विकृति, मिथ्या निरूपण और असामंजस्य ला सकता है । वह अपने ऐसे निजी निर्माण भी कर सकता है जिनका वास्तविक सत्ता की चीजों के साथ कोई सादृश्य न हो, जिनकी सिद्धि की कोई संभावना न हो, जिन्हें अपने पीछे रहनेवाले सत्य का कोई सहारा न हो लेकिन फिर भी ये निर्माण वास्तविकताओं के अवैध विस्तार से ही आरंभ होते हैं, अननुमत संभावनाओं को पकड़ते हैं या सत्यों को ऐसे प्रयोग की ओर मोड़ते हैं जो अनुपयुक्त होते हैं । मन सृजन तो करता है पर वह मौलिक स्रष्टा नहीं है, सर्वज्ञ या सर्व-शक्तिमान् नहीं है, यहांतक कि वह हमेशा कुशल विश्वकर्मा भी नहीं होता । इसके विपरीत माया, भ्रमात्मक शक्ति को आद्या स्रष्ट्री होना चाहिये क्योंकि वह सभी चीजों को शून्य में से बनाती है, जबतक कि हम यह न मान लें कि वह सद्वस्तु के पदार्थ में से सृजन करती है । लेकिन तब उसकी बनायी हुई चीजों को किसी-न-किसी तरह वास्तविक होना चाहिये, वह क्या बनाना चाहती है इसका उसे पूर्ण ज्ञान होता है, वह जो बनाना पसंद करे उसे बनाने की पूर्ण शक्ति होती हैं । वह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होती है, यद्यपि अपने ही संभ्रमों पर । वह उनमें सामंजस्य लाती और जादुई निश्चिति के साथ, संपूर्ण ऊर्जा के साथ उन्हें एक दूसरे के साथ जोड़ती

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है और अपने रूपायणों या कल्पनाओं को सत्य, संभावना, तथ्य कहकर अपनी ही बनायी हुई बुद्धि पर आरोपित करने में पूर्णतया प्रभावकारी होती हैं ।

 

   हमारा मन सबसे अच्छी तरह और दृढ़ विश्वास के साथ तब काम करता है जब उसे कार्य करने के लिये कोई पदार्थ दिया जाये या कम-से-कम जिसका वह अपनी क्रियाओं के लिये आधार के रूप में उपयोग कर सके या जब वह किसी ऐसी वैश्व शक्ति का उपयोग कर सके जिसका ज्ञान उसने पा लिया है । जब उसे तथ्यों से काम पड़ता है तो वह अपने कदमों के बारे में निश्चित होता है । विषयीकृत या अन्वेषित वास्तविकताओं के साथ व्यवहार करने और उन वास्तविकताओं को आरंभ-स्थल बनाकर वहां से सर्जन के लिये आगे बढ़ने का यह नियम ही भौतिक विज्ञान की बहुत बड़ी सफलता का कारण है । लेकिन यहां स्पष्टतः संभ्रमों की कोई सृष्टि नहीं है, शून्य के अंदर असत् की कोई सृष्टि नहीं है और न ही उन्हें प्रतीयमान तथ्यों में बदलने की बात है जैसा कि वैश्व संभ्रम के बारे में कहा जाता है, क्योंकि मन किसी पदार्थ में से वही बना सकता है जो उस पदार्थ के लिये संभव हो, वह प्रकृति की शक्ति द्वारा वही कर सकता है जो उसकी सिद्ध हो सकनेवाली ऊर्जाओं के अनुकूल हो । वह केवल उन्हीं चीजों का अन्वेषण या खोज कर सकता है जो पहले से ही प्रकृति के सत्य और उसकी संभाव्यताओं में विद्यमान हों । दूसरी ओर वह अपने अंदर से या ऊपर से सृजन के लिये प्रेरणाएं पाता है लेकिन ये तभी रूप ले सकती हैं जब वे संभाव्य या सत्य हों, मन के अपने आविष्कार के अधिकार से नहीं क्योंकि मन अगर कोई ऐसी चीज खड़ी करे जो न तो सत्य है न संभाव्य तो उसका सृजन नहीं हो सकता, वह प्रकृति में तथ्य नहीं बन सकती । इसके विपरीत, अगर माया वास्तविकता के आधार पर सृजन करती है पर साथ ही उसके ऊपर एक और ढांचा खड़ा कर देती है जिसका वास्तविकता के साथ कोई संबंध नहीं है, तो वह न तो सच्चा है और न संभाव्य; अगर वह वास्तविकता के पदार्थ में से सृजन करती हैं तो उसमें से भी ऐसी चीजें बनाती है जो उसके लिये संभव नहीं या उसके अनुकूल नहीं हैं -क्योंकि वह रूप बनाती हैं और माना यह जाता है कि सद्वस्तु रूपहीन है जो रूप लेने में अक्षम है, वह निर्दिष्टों का सृजन करती है और सद्वस्तु को पूरी तरह अनिर्देश्य माना जाता है ।

 

   लेकिन हमारे मन में कल्पना की क्षमता है, वह सृजन कर सकता है और अपनी मानसिक रचनाओं को सच्चा और वास्तविक मान सकता है । यहां, यह सोचा जा सकता है कि माया की क्रिया के सदृश कोई चीज है । हमारी मानसिक कल्पना अज्ञान का यंत्र है । वह ज्ञान की एक सीमित क्षमता, प्रभावकारी क्रिया की सीमित क्षमता का अवलंब, उपाय या आश्रय है । मन इन कमियों को अपनी कल्पना-शक्ति से पूरा करता है । वह स्पष्ट और दृश्य वस्तुओं से ऐसी चीजें निकालने के लिये इनका उपयोग करता हैं जो स्पष्ट और दृश्य नहीं हैं । वह संभव

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और असंभव के अपने ही चित्र बनाने का काम हाथ में लेता है । वह भ्रामक तथ्य खड़े करता है, वस्तुओं के कल्पित या रचित सत्यों के चित्र आंकता है जो बाहरी अनुभव के लिये सच्चे नहीं होते । इसकी क्रिया की प्रतीति तो कम-से-कम ऐसी होती है लेकिन वस्तुतः यह मन का एक तरीका या तरीकों में से एक है जिससे वह सत् में से उसकी अनंत संभावनाओं को बुलाता है, यहांतक कि अनंत की अज्ञात संभावनाओं की खोज करता और उन्हें पकड़ में लेता है । लेकिन चूंकि वह ज्ञानपूर्वक ऐसा नहीं कर सकता, वह सत्य और संभावना की ओर अभीतक अनुपलब्ध तथ्यों की परीक्षणात्मक रचनाएं करता है, चूंकि उसकी सत्य की प्रेरणाओं को ग्रहण करने की शक्ति सीमित है इसलिये वह कल्पना करता, अनुमान करता और प्रश्न करता है कि क्या यह या वह सत्य नहीं हो सकते; चूंकि उसकी वास्तविक शक्यताओं को बुलाने की सामर्थ्य संकीर्ण और सीमित है इसलिये वह ऐसी संभावनाएं खड़ी करता है जिन्हें यथार्थ बनाने की वह आशा करता है या इच्छा करता है कि उन्हें यथार्थ बना सकता । चूंकि उसकी यथार्थ बनाने की क्षमता जड़ भौतिक जगत् के विरोधों के कारण निरुद्ध और सीमित है इसलिये वह आत्मनिष्ठ तथ्यों के रूप बना लेता है ताकि वह अपनी सृजन की इच्छा और आत्म-प्रदर्शन के आनंद को संतुष्ट कर सके । लेकिन यह ध्यान रखना चाहिये कि कल्पना द्वारा वह सत्य की एक आकृति पा लेता है, ऐसी संभावनाओं को बुला लेता है जो बाद में चलकर चरितार्थ हो जाती हैं, बहुधा कल्पना द्वारा जगत् के तथ्यों पर प्रभावकशि दबाव डालता है । जो क्लनाएं मानव मन में बनी रहती हैं, जैसे हवा में यात्रा करने का विचार, वे अपने-आपको पूरा करके ही रहती हैं । व्यक्तिगत विचार-रूपायण अपने-आपको तथ्य बना सकते हैं, अगर रूपायण में या उसे बनानेवाले मन में काफी शक्ति हो । कल्पनाएं अपनी शक्यताओं की रचना कर सकती हैं, विशेष रूप से यदि उन्हें सामूहिक मन की सहायता प्राप्त हो तो अंत में वे अपने लिये वैश्व इच्छा की स्वीकृति प्राप्त कर लेती हैं । वस्तुत: सभी कल्पनाएं संभावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं । उनमें से कुछ एक दिन किसी रूप में वास्तविक बनने में समर्थ होती हैं चाहे वास्तविकता का वह रूप बहुत भिन्न क्यों न हो । बहुत सारी कल्पनाएं बांझपन के लिये अभिशप्त होती हैं क्योंकि वे वर्तमान सृष्टि के चित्र या योजना में नहीं आतीं, व्यक्ति को जितनी शक्यता की अनुमति प्राप्त है उसकी परिधि में नहीं आतीं, या समष्टि या जाति के नियम के साथ मेल नहीं खातीं या इन सबको धारण करनेवाली जगत्-सत्ता के स्वभाव या नियति के लिये विजातीय होती हैं ।

 

   इस भांति मन की कल्पनाएं शुद्ध रूप से और मूलतः भ्रम नहीं हैं । वे वास्तविकताओं के संबंध में मन के अनुभव के आधार पर चलती हैं या कम-से-कम वहां से शुरू होती हैं । वे वास्तविकता के हेर-फेर हैं या वे अनंत के 'होगा'

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या 'हो सकता है' के चित्रण हैं । वे यह चित्रित करती हैं कि अगर अन्य सत्य अभिव्यक्त होते, अगर वर्तमान शक्यताएं और तरह से व्यवस्थित की जातीं या अन्य संभावनाएं जो स्वीकार कर ली गयी हैं वे शक्यताएं बन जातीं तो क्या होता । इसके अतिरिक्त इस क्षमता द्वारा भौतिक यथार्थता से भिन्न अन्य क्षेत्रों के रूप और शक्तियां हमारी मानसिक सत्ता के साथ संपर्क साध सकती हैं, यहांतक कि जब कल्पनाएं मर्यादा के बाहर चली जायें या विभ्रमों या भ्रमों का रूप ले लें तब भी वे यथार्थो या संभवों को ही अपना आधार बना कर चलती हैं । मन जलपरी का रूप बनाता है परंतु यह स्वैर कल्पना दो ऐसे तथ्यों को एक साथ इस तरह रख देने से बनी है जो धरती की सामान्य संभाव्यता से बाहर है । फरिश्ते, ग्रिफिन, किमेरा, इसी सिद्धांत पर बने हैं । कभी-कभी कल्पना भूतकाल की वास्तविकताओं की स्मृति होती है जैसे ड्रेगन । कभी-कभी वह ऐसी आकृति या घटना होती है जो अन्य लोकों में या जीवन की अन्य परिस्थितियों में सच्ची होती या हो सकती है । पागल के भ्रम भी वास्तविकता के अमर्यादित गलत संयोजनों पर आधारित होते हैं, जैसे जब कोई पागल अपने-आपको राजपद और इंग्लैंड के साथ मिला लेता है और कल्पना में प्लांटजेनेटों या टपूडरों की राजगद्दी पर बैठता है । फिर जब हम मानसिक भ्रांति के उद्गम की ओर देखते हैं तो सामान्यतः हम पाते हैं कि यह ज्ञान और अनुभव के तत्त्वों का गलत संयोग, गलत स्थापन, गलत उपयोग, गलत समझ या गलत प्रयोग होता है । स्वयं कल्पना अपने स्वरूप में संभावना के अंतर्भास की सत्यतर चेतना की क्षमता का प्रतिनिधि-रूप है । जैसे-जैसे मन सत्य-चेतना की ओर चढ़ता है यह मानसिक शक्ति सत्य-कल्पना बन जाती है जो अभीतक प्राप्त और रूपायित ज्ञान की सीमित पर्याप्तता या अपर्याप्तता में उच्चतर सत्य का रंग और प्रकाश लाती है; और अंत में ऊपर के रूपांतरकारी प्रकाश में अपना स्थान पूरी तरह उच्चतर सत्य-शक्तियों को दे देती है या अपने-आप अंतर्भास और प्रेरणा में बदल जाती है । उस उन्नयन में मन भ्रांतियों का स्रष्टा और भूल का शिल्पी नहीं रह जाता । तो मन अस्तित्वहीन या शून्य में बनी चीजों का प्रभुसत्तासम्पन्न स्रष्टा नहीं है । वह है जानने का प्रयास करता दुआ अज्ञान । स्वयं उसके संभ्रम भी किसी आधार से ही शुरू होते हैं और सीमित ज्ञान या अर्द्ध अज्ञान के परिणाम हैं । मन वैश्व अज्ञान का यंत्र हैं लेकिन वह किसी वैश्व-माया की शक्ति या यंत्र नहीं लगता और न उस तरह कार्य ही करता है । वह सत्यों, संभावनाओं और वास्तविकताओं को खोजनेवाला और आविष्कारक या उनका स्रष्टा 

 

   १ग्रिफिन यूनानी पुराणों का एक पशु है जिसके सिर और पंख गरुड़ जैसे और धड़ और पीछे का भाग शेर जैसा माना जाता है ।

   २ किमेरा अग्रिश्वासवाला राक्षस है जिसका सिर शेर जैसा, धड़ बकरे जैसा और पूंछ सांप जैसी होती है ।

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या भावी स्रष्टा है और यह अनुमान करना न्याय-संगत होगा कि आद्या चेतना या शक्ति भी, जिससे निश्चय ही मन की उत्पत्ति हुई होगी, सत्यों, संभावनाओं और वास्तविकताओं का सृजन करनेवाली होगी । वह मन की तरह सीमित नहीं है बल्कि अपने विस्तार में विश्वव्यापी है । उसमें भूल की संभावना नहीं क्योंकि वह समस्त अज्ञान से मुक्त है, परम सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता का, शाश्वत प्रज्ञा और ज्ञान का परम यंत्र या उनकी आत्म-शक्ति है ।

 

   तो हमारे आगे यह द्विविध संभावना उठती है, हम यह मान सकते हैं कि भ्रमों तथा अवास्तविकताओं का सृजन करनेवाली एक आद्या चेतना और शक्ति है । मानव और पशु-चेतना में मन उसका यंत्र या माध्यम है और फलतः यह विभिन्नतावाला विश्व, जिसे हम देखते हैं, वह अवास्तविक और माया की कहानी है और केवल कोई अनिर्देश्य और विभिन्नताहीन निरपेक्ष ही वास्तविक है । या हम समान रूप से यह भी मान सकते हैं कि एक आद्या परम या वैश्व सत्य चेतना है जो सच्चे विश्व का सृजन करनेवाली है लेकिन मन उस विश्व में एक अपूर्ण चेतना की तरह, अज्ञानमय, अंशत: जानते और अंशतः न जानते हुए कार्य कर रहा है -एक ऐसी चेतना जिसके लिये अपनी अपूर्णता या ज्ञान की सीमितता के कारण यह संभव होता है कि वह भूल करे, गलत रूप में प्रस्तुत करे, ज्ञात के आधार पर भ्रांत या गलत दिशा में बढ़े, अज्ञात की ओर अनिश्चित रूप से टटोला करे, आंशिक सृजन और निर्माण करे, सदा सत्य और भ्रांति, ज्ञान और अज्ञान के बीच अर्द्ध-स्थिति में बढ़ा करे । लेकिन यह अज्ञान वास्तव में चाहे जितना लड़खड़ाते हुए क्यों न हो, ज्ञान के आधार पर और ज्ञान की ओर बढ़ता है । वह निहित रूप से परिसीमन और मिश्रण का त्याग करने में सक्षम है और उस मुक्ति द्वारा ऋत-चित् में, आद्य-ज्ञान की शक्ति में बदल सकता है । हमारी जांच अभीतक हमें इस दूसरी दिशा में लिये जा रही है । वह इस निष्कर्ष की ओर इशारा करती है कि हमारी चेतना का स्वरूप इस प्रकार का नहीं है कि वह एक वैश्व भ्रम या माया की मान्यता को समस्या के हल के रूप में उचित ठहराये । समस्या मौजूद है लेकिन वह है आत्मा और वस्तुओं के बारे में हमारे ज्ञान और अज्ञान के मिश्रण की और यही उस अपूर्णता का मूल है जिसकी हमें खोज करनी है । इसमें भ्रम की किसी ऐसी आद्या शक्ति को लाने की जरूरत नहीं जो हमेशा शाश्वतद्वस्तु में रहस्यमय रूप से रहती हो या चिर-शुद्ध, नित्य और निरपेक्ष चेतना या अतिचेतना के बीच में पड़कर उसपर असत् रूपोंवाले जगत् को आरोपित करती हो ।

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