दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ५

 

व्यक्ति की नियति

 

 अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्र्नुते ।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्र्नुते ।।

 

अविद्या के द्वारा वे मृत्यु के परे चले जाते हैं और विद्या (ज्ञान) द्वारा अमरता प्राप्त करते हैं...'अजन्म' के द्वारा वे 'मृत्यु' को पार करते हैं और 'जन्म' द्वारा अमरता का रस लेते हैं ।

                                              ईशोपनिषद् ११.१४

 

समस्त जीवन और अस्तित्व का, चाहे वह सापेक्ष हो या निरपेक्ष, सशरीर हो या शरीरहीन, प्राणमय हो या निष्प्राण, चाहे बुद्धिमान् हो या बुद्धिहीन, सभीका सत्य है एक सर्वव्यापक सद्वस्तु । उसकी अनंत रूपों में बदलनेवाली बल्कि सदा विरोधी आत्माभिव्यक्ति में भी, हमारी सामान्य अनुभूति के निकटतम विरोधों से लेकर उन सुदूरतम विरोधों या प्रतिषेधों तक जो अपने-आपको अनिर्वचनीय के तट पर खो देते हैं, इन सबमें एक ही सद्वस्तु है, वह कोई कुलयोग या समवाय नहीं । सभी विभिन्नताएं उसीसे शुरू होती हैं, सभी विभिन्नताएं उसीमें निवास करती हैं और सभी विभिन्नताएं उसीमें लौट जाती हैं । उसी सद्वस्तु को एक विशालतर प्रस्थापना की ओर ले जाने के लिये ही सभी प्रस्थापनाओं को अस्वीकार किया जाता है । सभी प्रतिषेध एक दूसरे के आमने-सामने आते हैं ताकि वे एकमेव 'सत्य' को उसके विरोधी पहलुओं में पहचान सकें और विरोध के मार्ग से पारस्परिक एकता का आलिंगन कर सकें । ब्रह्म ही अथ है और ब्रह्म ही इति । ब्रह्म ही एकमेव है और उसके सिवा किसीका अस्तित्व ही नहीं ।

 

     किंतु यह एकत्व स्वभावत: अनिर्वचनीय है । जब हम मन द्वारा इसे समझना चाहते हैं तो धारणाओं और अनुभूतियों की एक असीम शृंखला में से गुजरने के लिये बाधित होते हैं । फिर भी अंत में हम अपनी बड़ी-से-बड़ी धारणाओं और अधिक-से-अधिक व्यापक अनुभूतियों को नकारने के लिये बाधित होते हैं ताकि यह प्रस्थापित कर सकें कि सद्वस्तु सभी परिभाषाओं के परे है । हम भारतीय ऋषियों के सूत्र 'नेति नेति' --वह यह भी नहीं है, वह यह भी नहीं है --पर आ पहुंचते हैं । ऐसी कोई अनुभूति नहीं है जिसके द्वारा हम उसे सीमित कर सकें, ऐसी कोई धारणा नहीं है जिसके द्वारा हम उसकी व्याख्या कर सकें ।

 

      हम स्वयं जो अस्तित्व हैं और वह सब जो हमारे विचार और इन्द्रियों के सामने आता है उस सबके बारे में मन अंततः यही कह सकता है कि यह एक अज्ञेय है

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जो हमारे सामने सत्ता की अनेक अवस्थाओं और गुणों में, चेतना के अनेक रूपों में, ऊर्जा की अनेक क्रियाओं में प्रकट होता है । इन्हीं स्थितियों, इन्हीं रूपों और इन्हीं क्रियावलियों में और इनके द्वारा हमें अज्ञेय के निकट जाना और उसे पहचानना होगा । लेकिन अगर हम अपने मन के द्वारा ग्रहण और धारण किये जा सकनेवाले एकत्वतक पहुंचने की जल्दबाजी में, 'अनंत' को अपनी बांहों में भरकर सीमित कर देने के आग्रह में किसी एक विशिष्ट अवस्था को, वह चाहे जितनी भी पूर्ण और शाश्वत क्यों न हो, किसी विशेष गुण को, वह चाहे कितना भी सार्वभौम और व्यापक क्यों न हो, चेतना के किसी निष्चित निरूपण को, वह अपने क्षेत्र में चाहे कितना भी विशाल क्यों न हों, किसी ऊर्जा या क्रियाशीलता को, वह अपने व्यवहार में चाहे कितनी भी असीम क्यों न हो, सद्वस्तु मान लें और बाकी सबको अलग कर दें तो हमारे विचार उसकी अज्ञेयता के विरुद्ध पाप करेंगे और सच्चे ऐक्य पर नहीं बल्कि 'अविभाज्य' के विभाजन पर आ पहुंचेंगे ।

 

     प्राचीन काल में इस सत्य का साक्षात्कार इतने सशक्त रूप से किया गया था कि हमारी चेतना के लिये उस सद्वस्तु की उच्चतम भावात्मक अभिव्यक्ति के रूप में सच्चिदानंद की विश्वासदायक अनुभूति के शीर्षस्थ भावतक पहुंच कर भी वेदांती द्रष्टाओं ने अपने चिंतन में असत् को प्रतिष्ठित किया था या अपने प्रत्यक्ष दर्शन में वे परे के उस असत् तक जा पहुंचे थे जो वह अंतिम अस्तित्व, शुद्ध चेतना या अनंत आनंद नहीं है जिसकी अभिव्यक्तियां या विकृतियां ही हमारी समस्त अनुभूतियां हैं । और अगर यह कोई सत् चित् या आनंद है ही तो इन चीजों के जिन उच्चतम और शुद्धतम भावात्मक रूप को हम यहां पा सकते हैं उस रूप से परे है । अतः वह उन चीजों से अलग है जिन्हें हम यहां इन नामों से जानते हैं । बौद्ध धर्म, जिसे धर्मशास्त्रियों ने मनमाने ढंग से अवैदिक घोषित कर दिया था क्योंकि वह श्रुतियों को आप्त प्रमाण नहीं मानता, वह इस तत्त्वत: वैदांतिक धारणातक वापिस जाता है । केवल उपनिषदों की भावात्मक और समन्वयात्मक शिक्षा ने सत् और असत् को विरोधी और एक दूसरे के विनाशक के रूप में नहीं बल्कि उस अंतिम प्रतिषेध के रूप में देखा जिसके द्वारा हम अज्ञेय की ओर उन्मुख होते हैं । और हमारी भावात्मक चेतना के सभी व्यापारों में एकत्व को भी बहु के साथ लेखा-जोखा करना पड़ता है क्योंकि बहु भी ब्रह्म है । हम विद्या द्वारा, एकत्व के ज्ञान द्वारा भगवान् को जान सकते हैं । उसके बिना अविद्या, सापेक्ष और बहुत्व की चेतना, एक अंधकार की रात्रि और अज्ञान की अव्यवस्था है । फिर भी यदि हम अज्ञान के उस क्षेत्र को दूर कर दें, यदि हम अविद्या से इस तरह पिंड छुड़ा लें मानों वह अवास्तविक है, उसका अस्तित्व ही नहीं तो स्वयं ज्ञान एक प्रकार का धुंधलापन और अपूर्णता का स्रोत बन जाता है । हम ऐसे हो जाते हैं जैसे प्रकाश से चुंधियाये मनुष्य । इस तरह हम उस क्षेत्र को ही नहीं देख पाते जिसे वह प्रकाश आलोकित करता है ।

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     तो ऐसी है हमारे प्राचीनतम ऋषि-मुनियों की शिक्षा; स्थिर, प्रज्ञावान् और स्पष्ट । उनके अंदर खोजने और जानने का धैर्य था और शक्ति थी । उनके अंदर अपने ज्ञान की सीमा को स्वीकार करने की स्पष्टता और नम्रता भी थी । उन्होंने वे सीमांत भी देखे थे जहां पहुंचकर ज्ञान को अपनेसे परे की किसी चीज में जा मिलना होगा । यह तो बाद की मन और बुद्धि की अधीरता थी, परम आनंद के प्रति उत्कट आकर्षण था, या विशुद्ध अनुभूति और पैनी बुद्धि की उच्च प्रभावशालिता थी जिसने 'एकत्व' की खोज में 'बहु' को अस्वीकार कर दिया और चूंकि वह ऊंचाइयों की हवा में सांस ले चुकी थीं उसने गहराइयों के रहस्यों का तिरस्कार किया या उनसे पीछे हट गयी । परंतु प्राचीन प्रज्ञा की स्थिर आंख ने देखा था कि वास्तव में भगवान् को जानने के लिये उन्हें बिना भेदभाव के समान रूप से हर जगह देखना चाहिये और जिन विरोधों में से भगवान् चमकते हैं उनसे हमें अभिभूत हुए बिना उनपर विचार करना और उनका मूल्य आंकना होगा ।

 

     हम आंशिक तर्क के पैने भेदभाव को एक ओर रख देंगे जो घोषणा करता है कि चूंकि 'एकमेव' वास्तविक है इसलिये 'बहु' माया है और चूंकि निरपेक्ष सत् है, एकमात्र अस्तित्व है इसलिये सापेक्ष असत् और अस्तित्वहीन है । अगर हम लगन के साथ, बहु के अंदर एक की खोज करते हैं तो यह बहु के अंदर अपनी पुष्टि करनेवाले एकमेव की ओर आशीर्वाद और अंत:प्रकाश के साथ लौटने के लिये ।

 

     मन अपने अधिक सशक्त विस्तारों और परिवर्तनों में जब किन्हीं विशेष दृष्टिबिंदुओं को अतिशय महत्त्व देता है तो हमें अपने-आपको उस (मन) से सुरक्षित रखना होगा । हमारे लिये अध्यात्मभावापन्न मन के इस प्रत्यक्ष दर्शन का निरपेक्ष मूल्य, कि विश्व एक अवास्तविक स्वप्न है, जड़भावापन्न मन के इस प्रत्यक्ष दर्शन से अधिक नहीं हो सकता कि भगवान् और 'परम' भ्रांतिमूलक विचार हैं । एक दशा में केवल इन्द्रियों की साक्षी का अभ्यस्त मन जो वास्तविकता को शारीरिक तथ्यों के साथ जोड़ता है, या तो ज्ञान के अन्य साधनों का उपयोग करने के लिये अनभ्यस्त होता है या वास्तविकता की भावना को अतिभौतिक अनुभूतियोंतक विस्तृत करने में अक्षम होता है । दूसरी दशा में वही मन अशरीरी वास्तविकता की अभिभूत करनेवाली अनुभूति को पार करते हुए उसी अक्षमता, उसी स्वप्न या भ्रांति के परिणामी भाव को इन्द्रियों की अनुभूति पर लागू कर देता है । लेकिन हम उस सत्य का भी प्रत्यक्ष दर्शन पाते हैं जिसे ये दोनों धारणाएं विकृत कर देती हैं । यह सच है कि इस रूप-जगत् के लिये, जिसमें हम आत्मोपलब्धि के लिये उद्यत हैं कोई चीज तबतक पूरी तरह प्रामाणिक नहीं होती जबतक कि वह उपलब्धि हमारी भौतिक चेतना को अपने हाथ में न ले ले और ऊंचे-से-ऊंचे शिखरों की उपलब्धि के साथ सामंजस्य में आकर निचले स्तरों पर भी उस अभिव्यक्ति को न ले आये । यह भी समान रूप से सच है कि जब रूप और जड़ स्वयंभू सद्वस्तु होने का

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दावा करते हैं तो वे अज्ञान की भ्रांति होते हैं । रूप और जड़ अशरीरी और अभौतिक की अभिव्यक्ति के लिये केवल आकार और उपादान के रूप में ही सार्थक हो सकते हैं । वे अपने स्वरूप में दिव्य चेतना की एक क्रिया हैं और अपने लक्ष्य में आत्मा की एक स्थिति के प्रतिरूप ।

 

     दूसरे शब्दों में अगर ब्रह्म रूप में प्रविष्ट हुआ है और उसने अपनी सत्ता को भौतिक पदार्थ में निरूपित किया है तो यह केवल सापेक्ष और गोचर चेतना के प्रतिरूपों में आत्माभिव्यक्ति का रस लेना ही हो सकता है । ब्रह्म इस जगत् में अपने-आपको 'जीवन' के मूल्यों को निरूपित करने के लिये है । 'जीवन' ब्रह्म के अंदर निवास करता है ताकि अपने अंदर ब्रह्म को खोज सके । अतः जगत् में मनुष्य का महत्त्व यही है कि यह उसे चेतना का वह विकास प्रदान करता है जिसमें संपूर्ण आत्मान्वेषण के द्वारा उसका रूपांतर संभव होता है । भगवान् को जीवन में परिपूर्ण करना ही मनुष्य की मनुष्यता है । वह पाशविक प्राण और उसकी क्रियाओं से शुरू करता है परंतु उसका उद्देश्य है दिव्य सत्ता ।

 

     लेकिन 'विचार' की तरह 'जीवन' में भी आत्म-सिद्धि का सच्चा नियम है उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अवधारणा । ब्रह्म अपने-आपको चेतना के क्रमिक रूपों में प्रकट करता है । ये रूप सत्ता में सहवर्ती या काल में समकालीन होते हुए भी अपने संबंध में क्रमिक रहते हैं और 'जीवन' को भी आत्मोन्मीलन में अपनी सत्ता के नित नवीन प्रदेशों में उठते रहना चाहिये । लेकिन यदि हम एक क्षेत्र में से दूसरे में जाते हुए नयी प्राप्ति की उत्कंठा में, जो हमें पहले प्राप्त हुआ था उसे छोड़ते चलें, यदि मानसिक जीवन तक पहुंचते-पहुंचते हम अपने भौतिक जीवन को, जो हमारा आधार है, फेंक दें या उसका अपमान करें, या आध्यात्मिक के आकर्षण के कारण मानसिक और भौतिक को त्याग दें तो हम भगवान् को पूर्ण रूप से चरितार्थ नहीं करते और न उनकी आत्माभिव्यक्ति की शर्ते ही पूरी करते हैं । हम पूर्ण नहीं बन जाते बल्कि अपनी अपूर्णता का क्षेत्र बदल देते हैं या अधिक--से-अधिक एक सीमित ऊंचाई पा लेते हैं । हम चाहे जितना ऊंचा चढ़े, चाहे स्वयं 'असत्' तक ही जा पहुंचें, फिर भी अगर हम अपने आधार को भूल जायें तो हमारा चढ़ना दोषपूर्ण होता है । निम्नतर को अपने भाग्य पर छोड़ देना नहीं बल्कि जिस उच्चता को हम प्राप्त कर चुके हैं उसके प्रकाश में उसे रूपांतरित करना प्रकृति का सच्चा दिव्यत्व है । ब्रह्म समग्र है और एक ही समय में चेतना की अनेक अवस्थाओं को एक करता है । हमें भी ब्रह्म की प्रकृति को अभिव्यक्त करते हुए समग्र और सर्वग्राही बनना चाहिये ।

 

     संन्यासी के आवेग में भौतिक जीवन से वितृष्णा के अतिरिक्त एक और अतिशयता है जिसे समग्र अभिव्यक्ति का यह आदर्श सुधार देता है । चेतना के तीन सामान्य रूपों, व्यष्टिगत, वैश्व और परात्पर या विश्वातीत का संबंध ही 'जीवन'

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की गतियों को जोड़नेवाला सूत्र है । जीवन की क्रियाशीलताओं के सामान्य वितरण में व्यष्टि अपने--आपको विश्व के अंदर रहते हुए एक अलग सत्ता मानता है और ये दोनों ही उसपर आश्रित हैं जो समान रूप से व्यष्टि और विश्व के परे है । इस परात्पर को हम चलती भाषा में भगवान् का नाम देते हैं । इस तरह वह हमारी धारणाओं के लिये इतना विश्वातीत नहीं है जितना विश्व के बाहर है । इस विभाजन का स्वाभाविक परिणाम होता है व्यष्टि और विश्व दोनों का पद और मूल्य घटना । इसका तर्कसंगत अंतिम परिणाम होगा इस परात्पर की प्राप्ति के द्वारा व्यष्टि और जगत् दोनों का समापन ।

 

     ब्रह्म के एकत्व की समग्र दृष्टि इन परिणामों से बचती है । जैसे हमें मानसिक और आध्यात्मिक की प्राप्ति के लिये शारीरिक जीवन को छोड़ने की जरूरत नहीं है उसी तरह हम एक ऐसे दृष्टिबिंदु तक पहुंच सकते हैं जहां व्यष्टिगत क्रियाकलाप को बनाये रखना हमारी वैश्व चेतना की अवधारणा या परात्पर और विश्वातीत की प्राप्ति से असंगत नहीं रहता । क्योंकि 'विश्व परात्पर' विश्व का आलिंगन करता है, उसके साथ एक है और उसका बहिष्कार नहीं करता, ठीक वैसे ही जैसे विश्व व्यष्टि का आलिंगन करता है, उसके साथ एक है और उसका बहिष्कार नहीं करता । व्यष्टि समस्त वैश्व चेतना का केंद्र है, विश्व एक रूप और परिभाषा है जिसमें निराकार और अनिर्वचनीय की सारी अंतर्यांमिता समायी रहती है ।

 

     यही हमेशा सच्चा संबंध होता है परंतु हमारे और उसके बीच, हमारे अज्ञान या वस्तुओं के बारे में हमारी गलत चेतना का परदा रहता हैं । जब हम ज्ञान या सत्य चेतना को पा लेते हैं तो हमारे शाश्वत संबंध में कोई तात्त्विक परिवर्तन नहीं होता, केवल व्यष्टिगत केंद्र से अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि में गहरा परिवर्तन आता है और परिणामस्वरूप उसके क्रियाकलाप की भावना और प्रभाव में भी । जगत् में परात्पर की क्रिया के लिये व्यष्टि फिर भी जरूरी होता है और व्यष्टि के ज्योतिर्मय हो जाने से उसके अंदर इस क्रिया की संभावना समाप्त नहीं हो जाती । इसके विपरीत चूंकि व्यष्टि में परात्पर की सचेतन अभिव्यक्ति वह साधन है जिसके द्वारा समुदाय को, वैश्व को भी अपने बारे में सचेतन होना है अतः ज्योतिर्मय व्यष्टि का जगत् के कार्य में बने रहना जगत् की लीला की एक अनिवार्य आवश्यकता है । ज्योतिर्मय हो जाने की क्रियामात्र के द्वारा व्यष्टि का जगत् से अटल रूप में अलग हो जाना ही यदि नियम होता तो यह जगत् हमेशा के लिये अनुद्धार्य अंधकार, मृत्यु और दुःख का रंगमंच बने रहने के लिये अभिशप्त होता । और इस तरह का जगत् एक निर्दय अग्निपरीक्षा या यांत्रिक भ्रम मात्र होता ।

 

     संन्यासी का दर्शनशास्त्र इसी तरह देखने की ओर प्रवृत्त होता है । लेकिन संसार यदि अपने-आप माया है तो व्यक्तिगत मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । अद्वैत दृष्टि के अनुसार व्यष्टिगत अंतरात्मा परम पुरुष के साथ एक है, पृथक्ता का

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भाव अज्ञान है, पृथक्ता के भाव से छुटकारा और परम पुरुष के साथ तादात्म्य ही उसकी मुक्ति हैं । परंतु तब इस छुटकारे से लाभ कौन पाता है ? परम आत्मा नहीं क्योंकि माना यह जाता है कि वह सदा अविच्छिन्न रूप से मुक्त, निश्चल, नीरव और शुद्ध है । जगत् भी नहीं क्योंकि वह सदा बद्ध रहता है और किसी व्यष्टिगत अंतरात्मा की वैश्व 'माया' सें मुक्ति द्वारा मुक्ति नहीं पाता । यह तो स्वयं व्यष्टिगत अंतरात्मा दुःख और विभाजन से छुटकारा पाकर शांति और आनंद में अपना परम कल्याण पाती है । तब ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्ति तथा ज्योतिर्मयता को प्राप्त कर लेने के बाद भी व्यष्टिगत अंतरात्मा की जगत् और परम पुरुष से स्पष्टत: भिन्न किसी प्रकार की वास्तविकता रहती है । लेकिन मायावादी के लिये व्यष्टिगत अंतरात्मा माया के अनिर्वचनीय रहस्य के बाहर एक भ्रांति और अनस्तित्व है । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक मायामय असत् संसार से, एक मायामय असत् अंतरात्मा का एक मायामय असत् बंधन से छुटकारा पाना ही वह परम कल्याण है जिसकी खोज उस असत् अंतरात्मा को करनी है ! क्योंकि यह ज्ञान का परम शब्द है कि ''न कोई बद्ध है, न कोई मुक्त और न ही कोई मुमुक्षु'' । विद्या भी उसी तरह आभासी जगत् का एक भाग सिद्ध होती है जैसे अविद्या । माया हमारे छुटकारे के समय भी हमसे आ मिलती है और उस विजयी तर्क पर हंसती है जिसके बारे में ऐसा लगता था कि उसने माया के रहस्य की गांठ काट दी है ।

 

     कहा जाता है कि इन चीजों की व्याख्या नहीं की जा सकती । ये आद्य चमत्कार हैं जिनका कोई समाधान नहीं । ये हमारे लिये व्यावहारिक तथ्य हैं और इन्हें स्वीकारना होगा । हमें एक संभ्रांति में से एक और संभ्रांति द्वारा निकलना होगा । व्यष्टिगत अंतरात्मा अहं की एक परम क्रिया के द्वारा, अपनी व्यक्तिगत मुक्ति पर ऐकांतिक संलग्नता द्वारा ही अहं की गांठ को काट सकती है जिसका मतलब होता है माया के अंदर उसके पृथक् अस्तित्व का प्रतिष्ठापन । हम ऐसा मानने लग जाते हैं मानों अन्य अंतरात्माएं हमारी कपोल-कल्पनाएं हैं और उनकी मुक्ति का महत्व नहीं, मानों हमारी अंतरात्मा ही पूर्णतया सत्य है और उसकी मुक्ति ही एकमात्र महत्त्व की चीज है । मैं बंधन से अपने निजी छुटकारे को वास्तविक मानने लगता हूं जब कि अन्य अंतरात्माएं जो समान रूप से मेरा अपना स्व हैं पीछे बंधन में पड़ी रह जाती हैं !

 

     जब हम आत्मा और जगत् के बीच के सभी मेल न खा सकनेवाले विरोधों को एक ओर हटा देते हैं तभी कम विरोधाभासी तर्क द्वारा चीजें अपने-अपने स्थान पर आ पाती हैं । हमें अभिव्यक्ति की बहुमुखता को स्वीकार कर लेना चाहिये, उस समय भी जब हम अभिव्यक्त के ऐक्य पर बल दे रहे हों । तो क्या यही वह सत्य नहीं है जो, हम जिधर भी नजर घुमाएं उधर ही दिखायी देता है लेकिन अगर हम देखते हुए भी न देखना चाहें तो. और बात है । तो क्या आखिर सचेतन सत्ता का

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यह पूर्णतया स्वाभाविक और सरल रहस्य नहीं है कि वह न अपने ऐक्य से बंधा है न बहुलता से ? वह इस अर्थ में 'निरपेक्ष' है कि वह आत्माभिव्यक्ति की सभी संभव अवस्थाओं को चुनने और अपने ढंग से व्यवस्थित करने के लिये पूरी तरह स्वतंत्र है । न कोई बद्ध है, न मुक्त और न ही मुमुक्षु--क्योंकि सर्वदा वह 'तत्' पूर्ण स्वाधीनता है । वह इतना स्वतंत्र है कि वह अपनी स्वतंत्रता से भी बंधा नहीं है । वह सचमुच बंधन में आये बिना बद्ध होने का खेल खेल सकता है । उसकी बेड़ी स्वयं उसकी अपनी आरोपित परिपाटी होती है, उसका अपने-आपको अहं के अंदर सीमित करना एक संक्रमणकालीन साधन है जिसका उपयोग वह अपनी वैश्व और विश्वातीत स्थितियों को व्यष्टिगत ब्रह्म की योजना में दोहराने में करता है ।

 

     परात्पर, विश्वातीत है, देश और काल के परे, अनंत और सांत के काल्पनिक विरोध के परे अपने-आपमें निरपेक्ष और मुक्त है । परंतु विश्व में वह अपनी आत्म निर्माण की स्वाधीनता का, अपनी माया का उपयोग एकता और बहुलता के पूरक तत्त्वों में अपनी योजना बनाने के लिये करता है । वह अपने बहुमुखी ऐक्य को अवचेतन, सचेतन और अतिचेतन की तीन अवस्थाओं में स्थापित करता है । क्योंकि वास्तव में हम देखते हैं कि हमारे भौतिक जगत् में रूप के अंदर विषयभूत होनेवाले बहु का आरंभ अवचेतन एकत्व से होता है । यह एकता अपने-आपको वैश्व क्रिया और पदार्थ में काफी खुलकर प्रकट करती है लेकिन स्वयं ये उसके बारे में ऊपरी तौर पर अभिज्ञ नहीं होते । सचेतन में अहं वह ऊपरी बिंदु बन जाता है जिसमें एकता की अभिज्ञता उभर सकती है लेकिन वह एकता के बोध को रूप और तलीय कार्य के साथ संबद्ध कर देता है और जो कुछ पीछे से कार्य कर रहा है उसे दृष्टि में नहीं ला पाता और इस कारण यह भी अनुभव नहीं कर पाता कि वह न केवल अपने-आपमें एक है बल्कि औरों के साथ भी एक है । विभक्त अहं--बोध में वैश्व ''मैं'' की यह सीमा ही हमारे अपूर्ण व्यष्टिभावापन्न व्यक्तित्व का निर्माण करती है । लेकिन जब अहं व्यष्टिगत चेतना से परे चला जाता है तो वह उसे अपने अंदर समाविष्ट करने लगता और उसके द्वारा अभिभूत होने लगता है जो हमारे लिये अतिचेतन है । वह वैश्व ऐक्य के बारे में अभिज्ञ हो जाता है और परात्पर आत्मा में प्रवेश करता है जिसे यहां विश्व एक बहुविध एकत्व के द्वारा प्रकट करता है ।

 

     अतः व्यष्टिगत अंतरात्मा की मुक्ति ही निश्चित भागवत क्रिया का मूल सूत्र है । यह प्रथम दिव्य आवश्यकता है, यहीं वह धुरी है जिसपर सब कुछ घूमता है । यही वह 'प्रकाश बिंदु' है जहां से 'बहु' के अंदर अभिप्रेत पूर्ण आत्माभिव्यक्ति उभरनी शुरू होती है । परंतु मुक्त अंतरात्मा अपने एकत्व के बोध को क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों रूपों में फैलाती है । परात्पर 'एक' के साथ उसका एकत्व, वैश्व 'बहु' के साथ एकत्व के बिना, अपूर्ण रहता है । और वह पार्श्विक एकत्व अपने- आपको गुणा द्वारा अपनी मुक्तावस्था को बहुत्व के अन्य बिंदुओं पर दोहराकर

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अनूदित करता है । जैसे पशु अपने-आपको अपने जैसे शरीरों में उत्पन्न करता है उसी तरह दिव्य आत्मा अपने-आपको अपने जैसी मुक्त आत्माओं में उत्पन्न करती रहती है । अतः जब कभी एक भी अंतरात्मा मुक्ति पाती है तो हमारी पार्थिव मानव जाति के अंदर दूसरी व्यष्टि अंतरात्माओं में उसी दिव्य आत्मचेतना के फैलाव या विस्फोट की वृत्ति होती है --और कौन जाने, शायद पार्थिव चेतना के परे भी । हम उस फैलाव की सीमा कहां निश्चित करेंगे ? क्या यह एक कहानी मात्र है जो कहती है कि जब बुद्ध निर्वाण या असत् की देहली पर खड़े थे तो उनकी अंतरात्मा लौट पड़ी और उसने यह प्रण किया कि वह इस अटल देहली को तबतक न लांघेगी जबतक पृथ्वी पर एक भी सत्ता ऐसी रहेगी जो दुःख-दर्द की गांठ से, अहंकार के बंधन से मुक्त न हो ।

 

     लेकिन हम अपने-आपको वैश्व विस्तार से मिटाये बिना उच्चतम को प्राप्त कर सकते हैं । ब्रह्म अपनी दो अवस्थाओं को आंतरिक स्वाधीनता और बाह्य रूपायण की, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति से मुक्ति की दोनों अवस्थाओं को सदा बनाये रखता है । हम भी 'तत्' होने के नाते उसी दिव्य स्वाधिपत्य को प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे समस्त जीवन के लिये जिसका लक्ष्य है वस्तुतः दिव्य होना, यह आवश्यक है कि इन दोनों प्रवृत्तियों का सामंजस्य किया जाये । हमें जिस चीज को पार करना है उसका बहिष्कार करते हुए स्वतंत्रता पाना हमें नकार के मार्ग से उसे अस्वीकार करने की ओर ले जाता है जिसे भगवान् ने स्वीकार किया है । कर्म और ऊर्जा में तन्मय होकर क्रियाशीलता को स्वीकारने से हम निम्नतर को स्वीकार और उच्चतर को अस्वीकार करने की ओर ले जाये जाते हैं । लेकिन भगवान् जिनमें मेल और समन्वय साधते हैं, उनमें संबंध-विच्छेद का मनुष्य क्यों आग्रह करे ? तत् की समग्र उपलब्धि की शर्त है तत् के समान पूर्ण होना ।

 

     संक्रमणशील अहंकारमय आत्माभिव्यक्ति में मृत्यु और दुःख-दर्द की प्रधानता है । हमारे लिये उसमें से बाहर निकलने का मार्ग अविद्या में से, बहुलता में से होकर जाता है । अविद्या को सहमति देनेवाली विद्या के द्वारा, बहुलता के अंदर भी एकत्व के पूर्ण भाव के द्वारा हम समग्र रूप से अमरता और आनंद का भोग करते हैं । समस्त संभूति के परे ' अजन्मे' को प्राप्त करके हम निम्नतर जन्म--मरण से छुटकारा पाते हैं । भगवान् की तरह मुक्त रूप से संभूति को स्वीकार करके हम अमर आनंद द्वारा मर्त्यता पर आक्रमण करते हैं और मानव जाति में उसकी सचेतन आत्माभिव्यक्ति के ज्योतिर्मय केंद्र बन जाते हैं ।

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